भारतवासियों ! अब तो जागो….

भारतवासियों ! अब तो जागो….


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

मैं तो जापानियों को धन्यवाद दूँगा। वे अमेरिका में जाते हैं तो भी अपनी मातृभाषा में ही बातें करते हैं। ….और हम भारतवासी ! भारत में रहते हैं फिर भी अपनी हिन्दी, गुजराती आदि भाषा में अंग्रेजी के शब्द बोलने लगते हैं…. आदत पड़ गयी है। 50 वर्ष से अधिक हो गये आजादी के… बाहर की गुलामी की जंजीर तो छूटी लेकिन अंदर की गुलामी, दिमाग की गुलामी अभी तक नहीं गयी।

लॉर्ड मैकाले कहता थाः “मैं यहाँ कि शिक्षा पद्धति में  कुछ ऐसा डाल जाता हूँ कि आने वाले कुछ वर्षों में भारतवासी अपनी संस्कृति से घृणा करेंगे… मंदिर में जाना पसंद नहीं करेंगे…. माता पिता को प्रणाम करने में तौहीनी महसूस करेंगे… वे शरीर से तो भारत के होंगे लेकिन दिलो-दिमाग से हमारे ही गुलाम होंगे…. ऐसे संस्कार मैं अपनी इस शिक्षा-पद्धति में डाल जाता हूँ।”

शिक्षा-पद्धति में उसके द्वारा डाले गये संस्कारों का प्रभाव आज भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी लोग जो उच्च शिक्षाप्राप्त नागरिक हैं, वे पाश्चात्य जगत की बातों को ज्यादा महत्त्व देते हैं। संत महापुरुष भारत में रहकर अध्यात्म का प्रसाद बाँटते हैं तो उनकी कोई कीमत नहीं, किन्तु परदेश से होकर आये तो उन्हें लोग ध्यान से सुनने लगते हैं। स्वामी विवेकानन्द यहाँ थे तो उनकी कोई कीमत न थी, लेकिन जब विदेश होकर आये तब उनका जय-जयकार होने लगा। स्वामी रामतीर्थ परदेश होकर आये तो लोग उनका सम्मान करने लगे। हम भी परदेश जाकर आये तो लोग ज्यादा सुनने लगे किन्तु हमारे महान गुरुदेव कको इतने सारे लोग पहचानते भी न थे।

हमारी अपेक्षा तो हमारे गुरुदेव अनंत गुना महान थे लेकिन उन्होंने प्रचार के साधनों का इतना उपयोग नहीं किया। वे 93 वर्ष तक भारत में भ्रमण करते रहे लेकिन कइयों को पता तक नहीं था कि पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी बापू जैसी हस्ती इस पृथ्वी पर है। अब भी मैं उनकी वंदना करता हूँ।

परदेश में कोई टोने-टोटके करता हो तो पूरे देश की मीडिया उसके पीछे-पीछे धूल चाटती है। यह बात कइयों को कठोर लगती होगी, अप्रिय लगती होगी परन्तु माफ करना, आपको मैं अपना समझकर कहता हूँ।

ऋषि दयानंद ऐसी बातें कहा करते थे इसीलिए लोग उनका खूब विरोध करते थे। उनको कोई हिन्दू अपनी धर्मशाला अथवा मंदिर में रहने भी नहीं देता था। फिर भी भारत के उन संत ने सत्य बोलना जारी रखा।

एक बार अलीगढ़ में वे एक मुसलमान के यहाँ ठहरे हुए थे। उसके घर में तो रहते लेकिन अपना भोजन स्वयं बनाकर खाते एवं शाम को ‘कुराने शरीफ’ पर प्रवचन करते। वे कहतेः ‘एक तरफ तो बोलते हो कि ‘ला इल्लाह इल्लिल्लाह…. अल्लाह के सिवाय कोई नहीं है। सबमें अल्लाह हैं, सारा जहाँ अल्लाह का है….’ और दूसरी तरफ बोलते हो कि ‘हिन्दुओं को मारो काटो…. वे काफिर हैं…..’ ये कैसी नालायकी के विचार हैं !” ऐसा करके मुसलमानों को सुना देते। तब मुसलमान भाई विचारते किः ‘ये हिन्दू बाबा हमारे ‘कुराने शरीफ’ की आयतें एवं इसके दृष्टांत देकर हमको ही ऐसा-वैसा सुना देते हैं ? ऐसा क्यों ? आखिर रहते कहाँ हैं ?’

जाँच की तो पता चला कि इन बाबा को हिन्दू लोग अपने यहाँ रखने से इन्कार करते हैं किन्तु इनका एक मुसलमान भक्त जिसे हिन्दू धर्म की महिमा का पता है उसके घर ये रहते हैं। तब गाँव के आगेवानों ने मिलकर कहाः

“स्वामी जी ! आपको अपने वाले अपनी धर्मशाला और मंदिरों में रहने तक नहीं देते हैं। आप एक मुसलमान के घर रहते हैं और मुसलमानों को ही सुनाते हैं। थोड़ा तो ख्याल करें !”

उन निर्भीक बाबा ने क्या कहा, जानते हो ?

उन्होंने कहाः “जिनके यहाँ रहता हूँ उनको अगर सत्य सुनाकर उनकी गलती नहीं  निकालूँगा तो फिर और किसको सत्य सुनाऊँगा ?”

उनके ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ देखना। अमुक पंथ में कोई साधु मर गया हो तो उसे कुएँ में डाल देते हैं और कहते हैं कि ‘उसे तो फलाने स्वामी ले गये।’ ऋषि दयानंद ने स्पष्ट लिखा  है किः “अमुक स्वामी (सहजानंद) ले गये-इस धूर्तता में फँसने की जरूरत नहीं है।”

ऐसा स्पष्ट सत्य सुनाने वाले संत को लोगों ने 22-22 बार जहर दिया ! उन्हीं महापुरुष को जब अंतिम बार जहर दिया गया तो उन्होंने जहर पिलाने वाले को कहाः “ये पैसे ले और भाग जा। भक्तों को पता चलेगा तो तुझे मार डालेंगे।”

ऐसे-ऐसे महापुरुष हो गये हैं हमारी संस्कृति में। उन्हें पोप जैसा सम्मान तो क्या मिला ? बल्कि निन्दक लोग उनका नाम गधे पर लिख कर उनका मखौल उड़ाते किः ‘ऋषि दयानन्द गधे हैं।’ उनके भक्त लोग आकर उन्हें बताते कि ‘आपके लिए कुछ लोग ऐसा वैसा लिखते हैं।’ तब दयानन्द जी कहतेः “हाँ, जो ढोंगी है वह गधा ही है। तुम घबराओ मत, विरोध न करो। तुम आगे बढ़ो।”

कितनी सहनशक्ति थी उन महापुरुष में !

वैष्णवजन तो तेने रे कहीए, जे पीड़ पराई जाणे रे।

परदुःखे उपकार करे तोय, मन अभिमान न आणे रे।।

बिल्खा में नथुराम शर्मा नाम के एक उच्च कोटि के आतमज्ञानी संत हो गये। लोगों को उनके बारे में कुछ पता ही नहीं था। उन्हीं की ‘पंचदशी’ मुझसे पढ़वाकर मेरे गुरुदेव ने मुझ पर संकल्प डाला एवं उस ‘पंचदशी’ का प्रसंग समझकर जीव-ब्रह्म की एकता का साक्षात्कार करवा दिया। ऐसे महापुरुषों को लोग पहचानते तक नहीं हैं। राष्ट्र के तो कई बड़े शहरों में लोगों को पता तक नहीं चल पाता कि ऐसे उच्च कोटि के संत-महात्मा आये हैं किन्तु जो अमुक के पास से पैसे ले-लेकर, अमुक को प्रलोभन दे-देकर धर्मान्तरण करवाते हैं उनके लिए चारों ओर जय-जयकार बुलवाया जाता है। फिर भी एक बात की मुझे प्रसन्नता है कि अभी तक भारतीय संस्कृति का ज्ञान, उनकी साधना-पद्धति लोगों को सुख-शांति देने का सामर्थ्य अपने भीतर संजोयी हुई है। उसकी गरिमा को समझकर हम पुनः भारत की प्राचीन महानता को प्राप्त कर सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2001, पृष्ठ संख्या 23,24,25 अंक 99

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