संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से
गीता में भगवान कहते हैं-
जन्म कर्म चे मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
व्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोsर्जुन।।
‘हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं – इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से मुझे जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है।’ (गीताः4.7)
भगवान अपने जन्म और कर्म दिव्य क्यों बता रहे हैं ? इसलिए कि सुनने वालों के कर्म भी दिव्य हो जायें।
भगवान जो बताते हैं हम लोगों के मंगल के लिये ही बताते हैं। जैसे साधारण व्यक्ति का जन्म होता है कर्मबन्धन से, वासना वेग से, दुःख-सुख की थप्पड़ें खाने के लिए-ऐसा भगवान का जन्म नहीं होता। भगवान एवं कारक पुरुषों का जन्म वासना के वेग से नहीं होता, करुणा-कृपा से होता है। परहित से भरे अंतःकरण से होता है।
भगवान का जन्म दिव्य है अर्थात् भगवान देह को ‘मैं’ नहीं मानते और स्वयं को कर्मों का कर्त्ता-भोक्ता नहीं मानते, कर्म के फल की इच्छा नहीं रखते। जैसे भगवान अपने को देह नहीं मानते वैसे ही आप भी इस पंचभौतिक शरीर को ‘मैं’ न मानें तो आपका कर्म भी दिव्यता की खबर देगा। आप अपने को कर्मों का कर्त्ता न मानें, दूसरे को नीचा दिखाने के लिए दिखाने के लिए कर्म न करें, कर्म में लापरवाही न रखें तो आपके कर्म दिव्य हो जायेंगे।
जैसे, दीया जगमगाता है और प्रकाश देता है, ऐसे ही भगवान का जन्म और कर्म हम लोगों को प्रकाश देता है। महापुरुषों के जन्म और कर्म हम लोगों के लिए प्रकाशदायी हैं।
जन्म तो मेरा नहीं हुआ है शरीर का हुआ है और आपको भी याद दिलाता हूँ कि आप भी ऐसा जन्म दिन मनाना कि शरीर होते हुए भी शरीर से न्यारे…..
देह छता जेनी दशा वर्ते देहातीत।
ते ज्ञानीनां चरणमां हो वंदन अगणित।।
भगवान की दिव्यता स्वतः सिद्ध है और हमें साधन से सिद्ध करनी पड़ती है, कर्मों से सिद्ध करनी पड़ती है। कर्म दिव्य कैसे बनायें ?
किसी व्यक्ति को नीचा दिखाने के लिए कर्म करते हैं, अहंकार सजाने के लिए कर्म करते हैं, वासना-पूर्ति के लिए कर्म करते हैं तो कर्म बन्धन रूप हो जाता है लेकिन भगवदप्रीति के लिए, भगवद आनन्द उभारने के लिए, अपना असली सुख, आत्मप्रकाश जगमगाने के लिए जब कर्म किये जाते हैं तो कर्म दिव्य हो जाते हैं। फिर चाहे गुरु आश्रम में शबरी भीलन की बुहारी हो या मीरा का मेवाड़ में कीर्तन…. चाहे भर्तृहरि का तप हो या गोपीचंद का त्याग… उनके कर्म दिव्य हो गये।
वेद मे ‘सेतूगान’ आता हैः ‘अश्रद्धा की दीवार को श्रद्धा से तोड़ दें, असत्य की दीवार को सत्य से तोड़ दें, क्रोध की दीवार को अक्रोध से तोड़ दें और लोभ की दीवार को दान से तोड़ दें।
जीवात्मा को बंधन में डालने वाली ये चार दीवारें हैं। इन चार दीवारों को तोड़कर हम अपने मुक्त ज्ञानस्वभाव में जग जायें। जैसे, दिया जगमग-जगमग प्रकाशता है ऐसे ही हम साक्षी, अमर आत्मस्वभाव में प्रकाशित हो जायें….
बड़े में बड़ा दुर्भाग्य है कर्म बन्धन बढ़ाते जाना। कर्मों को कर्मों से काटने की कैंची या युक्ति सत्संग से ही मिलती है। इसीलिए राजे-महाराजे राजपाट छोड़कर महापुरुषों को खोजते थे, सत्संग खोजते थे। सत्संग से कर्मों में दिव्यता आती है और कर्मों की दिव्यता आपके जन्म को भी सफल बना देती है।
भगवान और साधारण व्यक्ति के जन्म में, कारक पुरुष और साधारण व्यक्ति के जन्म में फर्क है, लेकिन भगवान ने सबको ऐसा अवसर दिया है कि अपने कर्मों को दिव्य बना सकें। जिसके कर्म दिव्य हो गये उसका जन्म का फल भी दिव्य हो जाता है। उसका दुबारा जन्म ही नहीं होगा तो फल दिव्य हो गया….
साधारण व्यक्ति कर्म करता है तो कर्म का कर्त्तापन मौजूद होता है लेकिन भगवान कर्म करते हैं तो कर्त्तापन न होने के कारण भगवान के उन कर्मों से नये कर्म नहीं बनते। भगवान के भी नहीं बनते और भगवान को जिन्होंने जान लिया उनके भी नहीं बनते। ये हो गयी दिव्यता….
साधारण जन्म और कर्म एवं दिव्य जन्म और कर्म में जो ठीक से फर्क जान लेता है और दृढ़ता से मान लेता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
भगवान के दिव्य जन्म और कर्मों को जाने और लाभ उठायें। भगवान परमात्मा हैं और हम उसके सनातन अंश आत्मा हैं।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
जो भगवान का आत्म चैतन्य है, उसी से अभिन्न हमारा चैतन्य है। जैसे, जिस विद्युत से राष्ट्रपति का पूजागृह जगमगा रहा है उसी विद्युत से गरीब मोहताज का बाथरूम भी प्रकाशित हो रहा है। विद्युत तत्त्व वही का वही है। काँच के महल में दिया जगमगा रहा है और मिट्टी की हाँडी में दिया जगमगा रहा है तो काँच के महल की चमक कुछ सुहावनी दिख रही है और मिट्टी की हाँडी के दिये की चमक नपी तुली है लेकिन स्वभाव दोनों का एक है। ऐसे ही तुम्हारे अंतःकरण में जो ज्ञानस्वरूप ईश्वर है, जिसका कभी जन्म हुआ ही नहीं और जिसकी कभी मौत होती ही नहीं है ऐसा तुम्हारा ज्ञानस्वरूप आत्मा और परमात्मा दोनों एक हैं।
मन तू ज्योतिस्वरूप, अपना मूल पिछान।
आपके शरीर के जन्म को अपना जन्म न मानो, शरीर के बुढ़ापे को अपना बुढ़ापा मत मानो, शरीर की बीमारी को अपनी बीमारी मत मानो, शरीर की पीड़ा को अपनी पीड़ा मत मानो…. शरीर की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानोगे तो हो जायेगा दुःख और शरीर की पीड़ा को शरीर की पीड़ा मानोगे, ज्ञान से देखोगे तो हो जायेगी तपस्या !
‘जेलर’ होकर जेल में चक्कर लगाओगे तो वेतन भी मिलेगा और सलामी भी…. लेकिन कैदी होकर जेल में धकेले गये तो बेइज्जती होगी। है तो दोनों जेल में। ऐसे ही आप शरीर में धकेले जाते हो तो हो जाती है कैद, लेकिन ज्ञान है और अपने ढंग से जीते हो, शरीर में होते हुए भी शरीर से पृथक होकर जीते हो तो हो जाते हो मुक्त…
शास्त्र, संत और भगवान जिसके लिए मना करते हैं वह न करें तो आप अपने ज्ञान में आ जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं लेकिन शास्त्र, संत और भगवान जिसके लिए मना करते हैं वही करें तो आप हल्की योनियों में धकेल दिये जाते हैं, कैद हो जाते हैं। किसी को भी पकड़कर जेल में नहीं डाला जाता। कानूनी अपराध होता है, अपराध साबित होता है तभी कोई जेल में भेजता है। ऐसे ही प्रकृति के नियम तोड़ने से, ईश्वरीय नियम तोड़ने से, मनमाना करने से रजो-तमोगुणी स्वभाव बन जाता है।
भगवान अपने जन्म-कर्म की दिव्यता बताते हुए कहते हैं कि आप भी अपने स्वभाव में दिव्यता लायें अपने कर्म में दिव्यता लायें। दिव्यता मतलब ? अपने स्वभाव में, अपने कर्म में ज्ञान का प्रकाश लायें। क्या करना क्या न करना ? क्या खाना क्या न खाना ? आदि का विवेक करते हुए अपने कर्मों को दिव्य बनायें तो आपका जन्म फल भी दिव्य हो जायेगा फिर मोक्षफल मिल जायेगा। भगवान की ‘मैं’ के साथ आपकी ‘मैं’ मिल जायेगी तो जैसे भगवान का जन्म-कर्म दिव्य हैं वैसे ही आत्म परायण होकर आपके जन्म कर्म भी दिव्य हो जायेंगे…. अतः अपने जन्म-दिवस या किसी के जन्म दिवस के अवसरों पर भगवान के इन वचनों को विचारें और रहस्य समझें तथा परम रहस्यमय परमात्म सुख पा लें। ॐ शांति…. ॐ…. ॐ….
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2001, पृष्ठ संख्या 3,4 अंक 100
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