संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से
दो प्रकार के मनुष्य होते हैं- आस्तिक और नास्तिक
आस्तिक एक की शरण लेता है जबकि नास्तिक को हजारों की शरण लेनी पड़ती है। नास्तिक हजार-हजार जगह खुशामद करता है, फिर भी उसका बेड़ा गर्क हो जाता है जबकि आस्तिक केवल एक भगवान की शरण लेता है और उसका बेड़ा पार हो जाता है।
नास्तिक भी दो प्रकार के होते हैं- नकारात्मक और उदासीन।
पहले प्रकार के मनुष्य घोर नास्तिक होते हैं। वे मानते हैं कि ईश्वर जैसी चीज कुछ है ही नहीं। वे संतों एवं साधु पुरुषों की निंदा भी करते हैं। वे ऐसा मानते हैं किः ‘यह शरीर मैं हूँ और मैं ही सब कुछ हूँ…’ ऐसे मनुष्य कालांतर में वृक्ष, पशु, पक्षी आदि योनियों को प्राप्त होते हैं।
दूसरे होते हैं उदासीन या अर्द्ध नास्तिक जिन्हें ईश्वर की कुछ पड़ी ही नहीं होती किः ‘ईश्वर का अस्तित्व हो या न हो, अपने को क्या ? अपने को तो नौकरी-धंधा करके कमाना-खाना है और जीना है।’ ऐसे लोगों को समय पर सुख-दुःख की थपेड़ें खानी पड़ती हैं।
आस्तिक मनुष्य भी दो प्रकार के होते हैं-
एक ऐसे होते हैं जो ईश्वर एवं संतों को मानते हैं, भगवान की पूजा-अर्चना करते हैं ताकि जीवन में कोई विघ्न न आये, कोई दुःख मुसीबत सहन न करनी पड़े। वे ईश्वर को तो स्वीकारते हैं लेकिन संसार के सुख की इच्छा करते हैं। वे चाहते हैं कि उनकी संसार की गाड़ी ठीक से चलती रहे। ऐसे आस्तिकों की प्रीति संसार में होती है और आवश्यकता भगवान की पड़ती है। ऐसे भक्तों को बहुत समय बाद भगवद् प्राप्ति होती है।
दूसरे आस्तिक होते हैं जो संतों से लाभ उठा लेते हैं। वे भगवान को मानते हैं और भगवद् प्राप्ति के बिना जीवन व्यर्थ है’ यह भी जानते हैं, सत्शास्त्रों का पठन-मनन करते हैं, इसी जन्म में ईश्वरप्राप्ति का दृढ़ संकल्प करते हैं और ईश्वरीय शांति, ईश्वरीय आनंद पा लेते हैं।
कहते हैं कि मंदिर जाने एवं मूर्तिपूजा करने से एकतरफा पुण्यलाभ होता है किन्तु जिनको परमात्मा का साक्षात्कार हुआ है, ऐसे महापुरुषों का पूजन करने से दोतरफा लाभ होता है। मूर्ति अपनी ओर से भक्त के लिए शुभ संकल्प नहीं करती बल्कि भक्त को उसकी भावना के अनुसार फल मिलता है। लेकिन आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष के पूजन-अर्चन में हमारी भावना तो काम करती ही है, साथ ही उनकी दृष्टि, उनके संकल्प एवं दिव्य परमाणुओं से भी हमारा शुभ संकल्प फलित होने लगता है।
अखा भगत कहते हैं-
सजीवाए निर्जीवाने घड्यो अने पछी कहे मन कई दे।
अखो तमने ई पूछे के तमारी एक फूटी के बे ?
‘सजीव ने (मनुष्य ने) निर्जीव (पत्थर की मूर्ति को) बनाया और फिर उसी से माँगने लगा किः ‘मुझे कुछ दो।’ अखा भगत आपको यह पूछता है कि आपको एक आँख फूट गई है कि दोनों ?”
मूर्तिपूजा करके जितना लाभ उठाया जा सकता है, उससे कई गुना लाभ ज्ञानी महापुरुष की पूजा करने से होता है।
ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर। ब्रह्मज्ञानी को ढूँढे महेश्वर।।
शंकरजी ढूँढते रहते हैं किः ‘मुझे कहीं कोई ब्रह्मज्ञानी मिल जाये।’ मूर्ति से जितना लाभ मिलता है, वह अपनी श्रद्धा से मिलता है। जितनी श्रद्धा मूर्ति में होगी, उससे उतना ही लाभ होगा। मूर्ति स्वयं किसी के लिए लाभ का संकल्प नहीं करती।
जागृत महापुरुषों के हृदय में तो संकल्प होता है किः ‘चलो, इसका मंगल हो… कल्याण हो…. यह और प्रसिद्ध हो…. यशस्वी हो…. तेजस्वी हो… बुद्धिमान हो…. ज्ञानवान हो….’ संत के हृदय में तो परहित की भावना होती है। इसीलिए मूर्तिपूजा की अपेक्षा ज्ञानी-महापुरुषों की पूजा श्रेष्ठ है। तीर्थ में जाने की अपेक्षा ज्ञानी महापुरुषों के पास जाना श्रेष्ठ है।
तीर्थ में तो जितनी तीर्थत्व बुद्धि होगी, उतना ही फल मिलेगा जबकि ज्ञानी-महापुरुषों के पास तो आत्मतीर्थ का वातावरण होता है जहाँ गंगा भी आकर पवित्र होती है एवं तीर्थराज प्रयाग भी पवित्र होने को आते हैं। अतः तीर्थ में जाने की अपेक्षा आत्मज्ञानी महापुरुष के यहाँ जाना हजारगुना अच्छा है।
चांद्रायण व्रत अथवा दूसरे व्रत करने की अपेक्षा ज्ञानी का प्रसाद ग्रहण करणा श्रेष्ठ है क्योंकि ज्ञानी की पूजा में श्रद्धालु की श्रद्धा और ज्ञानी-महापुरुष का संकल्प दोनों मिल जाते हैं। इससे उसमें द्विगुण बल आ जाता है। श्रीहरि बाबा जी महाराज कभी-कभी कहते थे कि यदि संसार में दो व्यक्तियों के मन सर्वथा मिल जायें तो वे विश्वविजयी हो जायेंगे।
दो मन एक हो जायें तो बल बढ़ जाता है। शुंभ-निशुंभ दैत्य थे। उन दोनों के मन मिल गये तो उन्होंने देवताओं की की नाक में दम कर दिया। दो समकक्ष मन मिल जायें तो कार्य बन जाता है।
अतः श्रुति ज्ञानी की विभूति का वर्णन करके उसकी पूजा का विधान करती है।
जिसकी संसारी कामना है वह भी आत्मज्ञानी संत का यजन-पूजन करे एवं जो निष्कामी है वह भी निष्कामता के फल को पाने के लिए, निष्कामता में दृढ़ होने के लिए ज्ञानी का पूजन करे। जिसको ज्ञान चाहिए वह भी ज्ञानी का आदर करे और जिसको भोग चाहिए वह भी ज्ञानी का पूजन करे।
ज्ञानी-महापुरुषों के संग की महिमा का वर्णन करते हुए भगवान कृष्ण ‘श्रीमद् भागवत’ में कहते हैं-
न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्तयागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा।।
व्रतानि यज्ञश्छन्दासि तीर्थानि नियमा यमाः।
यथावरुन्धे सत्संगः सर्वसंगापहो हि माम्।।
‘हे उद्धव जी ! अन्य सब संगों को दूर करने वाला सत्संग जैसे मुझे वश में करता है, वैसे योग, सांख्य, धर्म, स्वाध्याय, तप, त्याग, इष्टापूर्त (अग्निहोत्रादि इष्ट, कूप-तड़ागादि पूर्त), दक्षिणा, व्रत, यज्ञ, छन्द, तीर्थ, नियम और यम – ये सब साधन में वश में नहीं करते।’
श्रीमद् भागवतः 11.12.1,2
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2001, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 100
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