पूज्य बापू जी का साक्षात्कार दिवसः 18 अक्टूबर 2001
(जीवन में सदगुरु की कितनी आवश्यकता है इस विषय पर चेटीचंड 2001 के ध्यान योग शिविर में शिविरार्थियों को समझाते हुए पूज्य बापू जी कह रहे हैं-)
प्रसादे सर्वदुःखानां….. परमात्मशांति के प्रसाद से सारे दुःखों का अंत होता है और बुद्धि परमात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित होती है।
जीव बेचारा इन्द्रियों एवं मन से जुड़कर संसार में सुखी होने को भटकता है लेकिन सुख की जगह पर दुःख और जिम्मेदारियाँ, क्लेश और बीमारियाँ मिलती हैं। धर्मयुक्त जीवन होता है तो धर्म संयम सिखाता है, वासनाओं को नियंत्रित करता है लेकिन वासनावाला अनुकूल में राग और प्रतिकूल में द्वेष करने लगता है। मनुष्य बेचारा राग-द्वेष में फंस जाता है।
अऩुकूल परिस्थितियों से उत्पन्न राग और प्रतिकूल परिस्थितियों से उत्पन्न द्वेष मानव की शांति का, माधुर्य का, समझ का अपहरण कर लेता है इसलिए ईश्वरोपासना की आवश्यकता पड़ती है। ईश्वर की उपासना किये बिना राग-द्वेष मिटता नहीं है। ईश्वर की उपासना से राग-द्वेष शिथिल होता है, धर्म का अनुष्ठान करने से वासना नियंत्रित होती है। इससे सज्जनता एवं सदगुण आने लगते हैं। यदि सदगुण आते हैं तो अहंरूपी असुर घुस जाता हैः ‘मैं सदगुणी हूँ… मैं सयंमी हूँ… मैं धर्मात्मा हूँ…. मैं भक्त हूँ… मैं मक्का गया, मैं काशी गया….’ और यह अहं आकर सब चुरा लेता है।
इस अहं को हटाने के लिए अहं की खोज करें- ‘मैं-मैं कौन करता है ?’ मन तू ज्योतिस्वरूप अपना मूल पिछान। तू तो साक्षीस्वरूप परमात्मा का अविभाज्य अंग है लेकिन जो इसको नहीं जानने देती है वह – अविद्या महारानी।
अविद्या के कारण जीव मन के गुणों को अपना गुण मानता है, चित्त के गुण-दोषों को अपना गुण दोष मानता है और अहं सजाता है। फिर मन के अनुकूल होता है तो सुख होता है, मन के प्रतिकूल होता है तो दुःख होता है। इसी से भिड़ते-भिड़ते जीव बेचारा अपना जीवन खत्म कर देता है।
शास्त्र कहते हैं- तस्मात् गुरु अभिमुखात् गच्छेत्। गुरु के अभिमुख जाओ। अन्यथा ये माया और अहं तुम्हें कहीं-न-कहीं भटका देंगे। गुरु भी कैसे हों ? श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ…. जिन्हें शास्त्रों का ज्ञान हो, अविद्या को भगाने का एवं राग-द्वेष को मिटाने का जिन्हें अनुभव हो, जो ब्रह्मनिष्ठ परमात्मा में प्रतिष्ठित हों, ऐसे गुरु की खोज करें।
तुलसीदास जी कहते हैं-
तन सुकाय पिंजर कियो धरे रैन दिन ध्यान।
तुलसी मिटे न वासना बिना विचारे ज्ञान।।
शरीर को सुखाकर पिंजर जैसा बना लें, दिनरात ध्यान जैसा ऊँचा साधन करें, फिर भी ज्ञान का विचार किये बिना अविद्या-वासना मिटती नहीं है।
जब ज्ञान का विचार मिलता है, तब अविद्या बोलती हैः ये बाद में कर लेंगे अभी तो जरा पिता को सँभाल लूँ, जरा पत्नी को सँभाल लूँ, जरा परिवार को सँभाल लूँ…. फिर आराम से भजन करूँगा।’ ऐसा करते-करते जीव उलझ जाता है।
अपने कर्तव्य का जब तक सूक्ष्म अभिमान है, तब तक परमात्मा की पूर्णता का अनुभव नहीं होगा। साधन तो करें लेकिन हमारे साधन के बल से विश्वनियंता पकड़ में आ जाये – ये संभव नहीं है। साधन करते-करते यह महसूस हो, कि मेरा करा-कराया अल्प है, ईश्वर की कृपा ही सर्वस्व है। इससे ईश्वर की महती कृपा जीव को मिलती है।
फिर चाहे ईश्वर को निराकार मानो, चाहे साकार मानो, चाहे बंसीधर मानो, चाहे धनुषधारी मानो, चाहे सबसदाशिव मानो, चाहे पाण्डुरंग मानो, चाहे गजानन के रूप में मानो, चाहे प्राणिमात्र के आधारस्वरूप निर्गुण निराकार आत्मरूप में मानो लेकिन ईश्वर की शरणागति स्वीकार करने से ईश्वरकृपा अवश्य मिलती है।
शरीर से जो कुछ करो ईश्वर की प्रसन्नता के लिए मन, से जो कुछ करो ईश्वर की प्रसन्नता के लिए, बुद्धि से जो कुछ सोचो उसी के विषय में। ‘अहं, अहं’ नहीं, आत्मारामी बनो।
संसार का सहज कार्य भी मार्गदर्शक के बिना नहीं होता। कबीरजी कहते हैं-
सहजो कारज संसार को गुरु बिन होत नाहीं।
हरि तो गुरु बिन क्या मिले समझ ले मनमाहीं।।
फिर यह तो अनजाना देश है और अनमिला पिया है। यहाँ मन, बुद्धि, अहं अपना कोई-न-कोई षड्यंत्र करके साधक को उलझा देते हैं।
ऐसा नहीं है कि लोगों में श्रद्धा नहीं है। श्रद्धा तो है। साधन नहीं करते ऐसी बाते भी नहीं है। गुरु नहीं है ऐसी बात है क्या ? नहीं, गुरु भी हैं। लेकिन गुरु की सूक्ष्मता का फायदा, साधना की सूक्ष्मता का फायदा, श्रद्धा की सूक्ष्मता का फायदा कोई-कोई विरले ही ले पाते हैं, आखिरी तक निभा पाते हैं। स्थूल मतिवाले तो अपनी तराजू से तोलेंगेः पहले ऐसा था, ‘अब ऐसा है…. इतना लाभ हुआ, इतना नहीं हुआ…।’
इसलिए बहुत-बहुत साहस और समझ की आवश्यकता है। नानकजी ने कहा हैः
घर विच आनंद रहया भरपूर, मनमुख स्वाद न पाया।
अपने मन से निर्णय कर लिया कि मैं यहाँ जाकर भजन करूँगा… मैं ऐसा अनुष्ठान करूँगा… मैं उधर जाकर रहूँगा… ये आपके जीवन में आता है – ऐसी बात नहीं है। मेरे जीवन में भी आया था और मैंने गुरुओं को चिट्ठी लिखी थीः “डीसा में आश्रम की कुटिया के चारों तरफ झोंपड़े हैं और बच्चों की गाली-गलौज सुनाई पड़ती है। दिनभर शोरगुल रहता है। नर्मदा किनारे एकांत गुफा है वहाँ जाकर साधना करूँ ?”
गुरु जी ने उत्तर दियाः “नहीं, वहीं रहो।”
‘चलो, जैसी गुरु-आज्ञा।’ फिर परेशानियाँ बढ़ीं। रातभर कुत्ते भौंके, दिनभर लड़के गालियाँ बकें। दीवारों पर भी कोयले से गंदी-गंदी गालियाँ लिखा करें। मन में होता थाः यहाँ कैसे साधना हो ? कैसे ईश्वरप्राप्ति हो ? फिर से गुरु जी को चिट्ठी लिखीः ‘रात भर कुत्ते भौंकते हैं, यहाँ जो कुटिया है, वह भी किसी राजनेता ने षड्यंत्र करके जमीन हड़पने के लिए बनायी थी। जब उसके विरोधियों ने आवाज उठायी तो उसने लिखवा दियाः ‘श्री लीलाशाह बापू आश्रम।’ ऐसा करके आपके नाम का उपयोग किया है और हमको भी ऐसी-ऐसी प्रतिकूलता है।’
बापू ने उत्तर दियाः ‘कुत्ते भौंकते हैं तो ‘ॐ….ॐ….’ बोलते हैं ऐसी भावना करो और राजनेता जो करेगा, वह भरेगा तुम वहीं रहो।’
ऐसा करके मैं सात साल वहीं रहा, गुरु-आज्ञा मानकर। तब पता चला कि गुरु जी का आज्ञा की अगर थोड़ी सी भी अवहेलना करता तो ऐसा ही होता जैसे ईश्वरप्राप्ति के लिए कई लोग निकलते हैं, साधु भी बन जाते हैं लेकिन फिर बेचारे खड़ियापलटन वाले रह जाते हैं अथवा किसी छोटे-मोटे मठ-मंदिर के पुजारी हो जाते हैं या महंत मंडलेश्वर बनकर रह जाते हैं। ईश्वरतत्त्व की अनुभूति कोई विरला ही कर पाता है। क्यों ? क्योंकि अविद्या का, माया का बड़ा सूक्ष्म खेल है।
आद्यशंकराचार्य जी कहते हैं-
नास्ति अविद्या मनसोतिरिक्ताः मन एव अविद्या भवबंध हेतु।
तस्मिन् विलिने सकलं विलीनं तस्मिन जिगीर्णे सकलं जिगिर्णम्।।
अपना मन ही धर्मात्मा बनकर प्रेरणा देता हैः ‘मेरा निर्णय सही है।’ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः।
मन ही मनुष्य के बंधन एवं मुक्ति का कारण है। यदि मन में जैसा आया वैसा करने लगे तो मन ही बंधन में भटकायेगा। धार्मिक होकर भी कहीं-न-कहीं बाँध देगा, त्यागी होकर भई कहीं-न-कहीं बाँध देगा, योगी होकर भी कहीं-न-कहीं बाँध देगा।
ज्ञानी की गुरु की आज्ञा-आदेश के पालन और उनके सहयोग के बिना संसार-सागर से पार होना संभव ही नहीं है। ज्ञानी गुरुदेव कह दो अथवा ज्ञानस्वरूप ईश्वर की विशेष कृपा कह दो, एक ही बात है।
गुरु बिनु भवनिधि तरहिं न कोई।
जो विरंचि संकर सम होई।।
ब्रह्माजी और शिवजी जैसे समर्थ हों फिर भी ‘मैं समर्थ हूँ’ – यह जीवभाव बना रहेगा। ‘अपना ‘मैं’ विराट ब्रह्म के साथ एकाकार है, अभिन्न है’ ऐसा बोध जिन सत्पुरुषों को हुआ, उनकी दृष्टि से जब तक अपनी आंतरिक सूक्ष्म दृष्टि नहीं मिलती तब तक संसार का दुःख पूरान नहीं मिटता है। अगर संसार की चीज वस्तुएँ पाकर ही दुःख मिटता हो तो सभी देशों के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री निर्दुःख होने चाहिए, धनी लोग निर्दुःख होने चाहिए। निर्दुःख तो वही हैं, जिन्होंने निर्दुःख परमात्मातत्त्व को अपने आत्मरूप में जाना है, परमेश्वरतत्त्व का जिनको आधार है।
अपने साधन का आधार नहीं, अपनी चतुराई का आधार नहीं, अपनी अकल होशियारी का आधार नहीं, परमात्मस्वरूप का आधार परमात्मस्वरूप में जगे हुए महापुरुषों का ही मार्गदर्शन आखिरी दम तक चाहिए।
अगर मैं गुरु जी की आज्ञा की अवहेलना करके सोचताः पत्नी बेचारी रोती होगी…. माँ वृद्धा है आँसू बहाती होगी…. भैया बेचारा मेरे सहयोग से ही कारोबार करता था… बैंक में, इधर-उधर मेरा हस्ताक्षर ही चलता था, अब पैसे कैसे निकालेगा ? दुकान पर उगाही कैसे आयेगी ? जरा जाऊँ-जरा जाऊँ….. मैं जरा जरा में ही जा मिटता ! लेकिन झटका मारके निकल गया तो निकल गया। वमन किया हुआ फिर क्या चाटना !
डीसा से अमदावाद 150 कि.मी. ही दूर था लेकिन 7 साल तक घरवालों को पता नहीं चलने दिया कि हम डीसा में रहते हैं क्योंकि घर से सम्पर्क रहेगा तो किसी-न-किसी काम में उलझायेंगे…. इसलिए जरा दृढ़ होना पड़ता है। शास्त्र कदम-कदम पर सावधान करते हैं-
गुरुकृपा ही केवलम् शिष्यस्य परम मंगलम्।
अगर डीसा छोड़कर चले जाते अथवा गुरु जी ने कहाः ‘वहीं रहो’ तब हम सोचतेः ‘नहीं, हमें नर्मदा किनारे रहना है। आपने खूब प्यार दिया, आपने खूब मार्गदर्शन दिया, हम आपके आभारी हैं लेकिन अब हम चले जा रहे हैं…. तो हमारी क्या दशा होती ?
गुरू जी के हृदय को सुना-अनसुना करके धोखे से चले जाते अथवा जबरन आज्ञा लेकर जले जाते तो हमारी क्या हालत होती ? हम कल्पना नहीं कर सकते। शक्कर की एक दुकान थी तो दो-पाँच करते और क्या करते ? अथवा तो मठाधीश होकर और लोग जीते हैं वैसे ही जीते। बुढ़ापा आता तो हम सोचतेः ‘हम बूढ़े हो गये….’ बीमारी आती तो हम सोचतेः ‘हम बीमार हो गये…’ शरीर की मौत आने वाली होती तो लगताः ‘हम मर जायेंगे….’ मौत आती तो मर भी जाते… लेकिन अब मौत का बाप भी हमारे आगे खड़ा नहीं रह सकता।
‘मौत होगी तो तन की होगी, मैं काल का भी काल हूँ। मौत की भी मौत हो जाय अगर मेरी तरफ आँख उठाकर देखे तो….’ यह अनुभव तो गुरुकृपा के बिना सँभव ही नहीं था ! बहुत-बहुत ऊँची यात्रा है। इसमें आप टिक जाओ तो आपके दर्शनमात्र से लोगों का मंगल हो सकता है। आपका कुल तर जायेगा।
लेकिन आजकल के शिष्य तो…. ईश्वरप्राप्ति की पूर्ण यात्रा करने की तो उनकी मति-गति नहीं है। जब पूछते हैं- “मैं फलानी जगह जाऊँ” उस समय अगर ‘ना’ बोलें तब भी जायेंगे, इसलिए बोलना पड़ता हैः ‘चलो बाबा ! जाओ। जैसा तुमको ठीक लगे।’
गुरु को कहना पड़ता हैः ‘जैसा तुमको ठीक लगे वैसा करो।’ तो इसका मतलब है कि शिष्य मनमुख है। शिष्य समर्पित तो है, गुरु के द्वार पर तो रहता है लेकिन मन का दास है। जहाँ गुरु की नजर है और गुरु उसकी जितनी उन्नति, जितनी ऊँचाई चाहते हैं वहाँ के लिए तो गुरु को बोलना पड़ेगाः ‘ये नहीं, ये….’ लेकिन शिष्य फिर दूसरा कुछ करेगा या तो भाग जायेगा।
अब भाग जाय उसकी अपेक्षा अथवा नाता तोड़ दे उसकी अपेक्षा ‘चलो, लगा रहे’ कभी न कभी चल पड़ेगा।’ सौ-सौ बातें शिष्य की माननी पड़ती हैं। सौ-सौ नखरे और बेवकूफियाँ स्वीकार करनी पड़ती हैं उसकी, ताकि कभी-न-कभी, इस जन्म में नहीं तो किसी और जन्म में पूर्णता को पा लेगा।
गुरु को क्या लेना है ? अगर गुरु को कुछ लेना है और इसलिए गुरु बने हैं तो वे सचमुच में गुरु भी नहीं हैं। सदगुरु को तो देना-ही-देना है। सारा संसार मिलकर भी सदगुरु की सहायता नहीं कर सकता है और अकेले सदगुरु पूरे संसार की सहायता कर सकते हैं। सदगुरु ऐसे होते हैं लेकिन संसार उनको सदगुरु के रूप में समझे, माने, मार्गदर्शन ले, तब।
जिसकी ईश्वर प्राप्ति की तड़प जितनी ज्यादा है उतनी ही ईमानदारी से वह गुरु की आज्ञा मानेगा। अपने हृदय में ईश्वरप्राप्ति की प्यास, ईश्वरप्राप्ति की तड़प बढ़ायें। ईश्वरप्राप्ति की प्यास और तड़प बढ़ने से अंतःकरण की सारी वासनाएँ, कल्मष और दोष तप-तप कर प्रभावशून्य हो जाते हैं। जैसे, गेहूँ को भून दें तो वे गेहूँ के दाने बोने के काम में नहीं आयेंगे। चने आदि को भून दिया फिर उनका विस्तार नहीं होगा। ऐसे ही ईश्वरप्राप्ति की तड़प बढ़ा कर वासनाएँ भून डालो। फिर वे वासनाएँ संसार के विस्तार में नहीं ले जायेंगी।
प्रकृति के अनेक उपहार हैं-अन्न, जल, तेज, वायु, आकाश, धरती, फल आदि। इनका उपयोग करके सब आनंद से जी सकते हैं, मुक्तात्मा हो सकते हैं लेकिन राम में, द्वेष में, अधिक खाने में, विकार भोगने में खप रहे है बेचारे ! जो ईश्वरप्राप्ति के लिए ही यत्न करते हैं, उधर की मति-गति करते हैं उनका वह ज्ञान नित्य नवीन रस देता है, नित्य नवीन प्रकाश देता है… वे जीवन्मुक्त पुरुष हो जाते हैं, वे परम सुख में विराजते हैं, वे परम आनंद में, परम ज्ञान में, परम तत्त्व में एकाकार रहते हैं। यह बहुत ऊँची स्थिति है ! मानवता के विकास की पराकाष्ठा है यह।
अपना ऊँचा लक्ष्य बनाओ। सप्ताह में कई बार दोहराओः
लक्ष्य न ओझल होने पाये, कदम मिलाकर चल। (शास्त्र-गुरु के अनुभव से)
सफलता तेरे कदम चूमेगी, आज नहीं तो कल।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्टूबर 2001, पृष्ठ संख्या 11-14, अंक 106
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