(जाबल्य ऋषि की तपस्थली, साबरमती के तट पर बने मोटेरा आश्रम में पूज्य श्री ने अंतःकरण के मुख्य दोषों पर प्रकाश डालते हुए अपने प्यारे साधकों को कहाः)
भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग का आखिरी फल तो एक ही हैः उस परमतत्व को जानना, जो सत्यस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है और अनंत है। श्रुति कहती हैः
सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म।
लेकिन बाबा ! भक्ति के, ज्ञान के और कर्म के आरम्भ में क्या कोई फर्क है ?
हाँ थोड़ा होता है। भक्ति सगुण, साकार ब्रह्म के लिए प्रेम उभारने हेतु अंतःकरण की भावमय, रसमय दशा है। निष्काम कर्म सेवामय वृत्ति बनाकर अंतःकरण को सुख देने वाला है और जहाँ से भक्ति का भाव या रस आता है अथवा जहाँ से सेवा के फलस्वरूप शांति या सुख आता है, उस मूल के विचार को बोलते हैं-तत्वज्ञान।
अंतःकरण के तीन दोष हैं- मल, विक्षेप और आवरण।
मल क्या है ? उचित-अनुचित का विचार किये बिना मन में जैसा आये वैसा करके सुख लेना।
या पर्यंत जीवेत् सुखेन जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत्।
‘जब तक जीयें, सुख से जीयें, ऋण करके भी घी पियें….।’ मल माने, न करने जैसा करके भी मजा लेना, न खाने जैसा खाकर भी मजा लेना, न बोलने जैसा बोलकर भी मजा लेना…. अर्थात् केवल मजे के लिए लपक पड़ना। जैसे, मछली स्वाद के मजे के लिए लपक पड़ती है और फँस जाती है, पतंगा रूप के मजे के लिए दीये पर लपक पड़ता है और जल मरता है, भ्रमर सुगंध के मजे के लिए लपक पड़ता है और कमल में कैद हो जाता है, हिरण शब्द के मजे के लिए लपक पड़ता है और मारा जाता है, हाथी स्पर्श के मजे के लिए लपक पड़ता है और जीवनभर महावत की गुलामी करता है। ऐसे ही हम लोगों का मन लपक पड़ता हैः ‘पान मसाला खाऊँ, बीड़ी पीऊँ, शराब पीऊँ, दुराचार करूँ, चोरी करूँ…. कुछ भी करके मजा लूँ।’ यह अन्तःकरण की मलीनता का प्रभाव है। पाप-वासना, अशुद्ध आसक्ति, भोग-वासनाएँ, ये मल दोष हैं।
निष्काम कर्म करके अंतःकरण का मलदोष निकाला जा सकता है। बाहर के सुख की वासना मिटाने के लिए निष्काम कर्म सहायक होते हैं। औरों को सुख देने के कार्य करने से अपने सुख की वासना निवृत्त होती है और मलदोष निवृत्त होने लगता है।
भक्तियोग से भी मलदोष निवृत्त होता है। निगुरे और अभक्त लोग जितना शास्त्र-मर्यादा का उल्लंघन करते हैं और उनका मन जहाँ-तहाँ लपक पड़ता है, उतना भक्तों और सगुरों के द्वारा नहीं होता। भक्तों और सगुरों के जीवन में पचासों गलतियाँ दिखेंगी लेकिन वे भक्त या शिष्य नहीं बनते तो पाँच सौ गलतियाँ करते और गलती को गलती नहीं मानते। भक्त या शिष्य गलती को गलती तो मानते हैं।
भक्त कभी यह न सोचेः ‘अरे रे रे…. मुझमें इतनी गलतियाँ हैं, मुझमें इतने दोष हैं…. भगवान ! मैं तेरे दर्शन के योग्य नहीं हूँ।’ नहीं, नहीं, भक्त ऐसा न सोचे और न ही भक्ति छोड़कर संसारियों के खिंचाव में आकर्षित हो जाय। वरन् वह प्रार्थना करेः ‘अपने दोष छोड़ने में मैं असमर्थ हूँ प्रभु ! लेकिन मैं तेरा हूँ… अब तू ही कृपा कर।‘ भक्त जब भगवान का बनता है तो दोष भक्त के नहीं रहते, भगवान अपने समझकर उनको हटाने का सामर्थ्य दे देते हैं।
दूसरी बात, यदि भक्त अपने में दोष मानता है तो दोष को बल मिलता है। भक्त अंतःकरण में दोष देखे, अपने में नहीं। ‘दोष अंतःकरण में होते हैं, मल अंतःकरण में होता है, विक्षेप अंतःकरण में होता है, आवरण अंतःकरण में होता है। मुझमें तो परमात्मा है और मैं परमात्मा में हूँ।’ इस प्रकार का चिंतन करने से भी अंतःकरण के दोष जल्दी निवृत्त होते हैं।
किसी के अंतःकरण में कोई गुण है लेकिन भक्ति नहीं है, भगवान का आश्रय नहीं है तो वह गुण ज्यादा समय नहीं टिक सकता। रावण, कंस, दुर्योधन, हिटलर, सिकंदर आदि एकदम गये-बीते नहीं थे। उनमें भी गुण थे। रावण और कंस के पास इतना सामर्थ्य था कि देवता तक उनसे काँपते थे। दुर्योधन ऐसा प्राणनिरोध करता था कि जल में समाधिस्थ हो जाता था। हिटलर, सिकंदर भी एकाग्रता में आगे थे। लेकिन…..
गुण होते हैं उस दैव के, आत्मचैतन्य के, इसीलिए गीता में 26 गुणों को दैवी सम्पदा कहा गया है। अभय, सत्य, संशुद्धि…. आदि 26 गुणों का वर्णन गीता के 16वें अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में आता है, जिन्हें बोलते हैं दैवी गुण। दैवी गुण माने, जो गुण उस देव के हैं, लेकिन उस देव का आश्रय नहीं है तो अहं अपने गुण मान लेता है तथा उसमें उलझ जाता है और वे गुण दुर्गुण हो जाते हैं।
अगर भक्त में अवगुण हैं तो वह अपने को अवगुणी न माने और गुण हैं तो गुणवान न माने। लेकिन अपने को भगवान का माने और भगवान को अपना माने तो भगवान का देवत्व अपने में बढ़ते-बढ़ते दैवी गुण बढ़ जायेंगे और वे दैवी गुण अवगुणों को समाप्त कर डालेंगे। इससे अंतःकरण का मलदोष निवृत्त होगा।
दूसरा होता है अंतःकरण का विक्षेप। जैसे दर्पण गंदा है तो समझो मल है और दर्पण हिलडुल रहा है तो है विक्षेप। हिलते डुलते दर्पण में चेहरा ठीक से नहीं दिखेगा। यदि दर्पण स्थिर होगा तभी चेहरा ठीक से दिखेगा। ऐसे ही अंतःकरण पवित्र तो है लेकिन जप-ध्यान करने बैठते हैं तो बस, जैसे फिल्म की पट्टी चलती वैसे विचार-पर-विचार आने लगते हैं, यह है विक्षेप।
मलदोष निवृत्त होता है सेवा, सत्कर्म, दान पुण्य आदि स और विक्षेप दूर होता है भक्ति उपासना, जप-ध्यान आदि से। इसके बाद एक ही दोष रहता है, ईश्वरप्राप्ति में एक ही सोपान बाकी रहता है आवरण अर्थात् अज्ञान। वस्तुतः ‘मैं क्या हूँ’ इसका पता नहीं है और देह को ‘मैं’ मानकर ‘मैं फलाना हूँ, मैं फलानी हूँ….’ मान बैठे। मैं वास्तव में क्या हूँ’ इसका अज्ञान ही आवरण है।
आवरण दो प्रकार का होता हैः
असत्वादपादक आवरण और अभानापादक आवरण।
असत्वादपादक आवरण आम आदमी को होता है। उसे ईश्वर के अस्तित्व का पता नहीं होता। वह सोचता हैः ‘भगवान होते तो दिखते….’
अभानापादक आवरण भक्तों को, साधकों को होता है। उनको ईश्वर के अस्तित्व का भान नहीं होता है। वे मानते तो हैं कि भगवान हैं, उनकी प्रेरणा भी मानते हैं, उन्हें ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तो समझ तो आता है लेकिन अनुभव नहीं होता है।
असत्वापादक आवरण गुरु के ज्ञान से हट जाता है। भक्त ने, साधक ने, जिसने सत्संग सुना है, वह मानता है कि भगवान हैं और मेरी आत्मा होकर बैठे हैं।
‘भ’ माने भरण-पोषण की सत्ता, ‘ग’ माने गमनागमन की सत्ता, ‘वा’ माने वाणी का उदगम स्थान, ‘न’ माने यह सब नहीं होने के बाद भी जो रहता है, वह भगवान मेरा आत्मा है। यह सार सत्संग के द्वारा वह समझ तो लेता है लेकिन अभी केवल समझा है अनुभव नहीं हुआ। इसे बोलते हैं अभानापादक आवरण।
जब तक यह आवरण दूर नहीं हुआ, जब तक ईश्वर का अनुभव नहीं हुआ तब तक यात्रा अधूरी है। ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हुआ तब तक जीवन अधूरा है।
अभानापादक आवरण दूर करने के लिए आत्मा-परमात्मा के विषय में ‘श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण’, ‘ब्रह्मसूत्र‘ व उपनिषदों का श्रवण करें, सुने हुए का मनन करें, निदिध्यासन करें (अर्थात् गोता मारें)।
मुझे थोड़ा आनंद आता था, थोड़ी अनुभूतियाँ भी हुई थीं लेकिन मन में होता था कि ‘पूज्य श्री लीलाशाह बापू को साक्षात्कार हुआ उतना तो मुझे नहीं हुआ। बापू को इतना लोग मानते हैं, मुझे तो कोई चिड़िया भी नहीं मानती।’ यह अभानापादक आवरण खटक रहा था। मेरा यह आवरण मिटाने के लिए मेरे गुरु जी को भी कसम खानी पड़ी, लीला करनी पड़ी थी।
पूज्य गुरुदेव उपदेश देते तब तो लगता थाः “स्थूल शरीर मैं नहीं, आनंदमय कोष भी मैं नहीं, मैं तो साक्षी हूँ, आनंदस्वरूप हूँ, ब्रह्म हूँ।” ये सब बुद्धिपूर्वक मान लिया था, ध्यान में थोड़ा आनंद भी आता था लेकिन अभानापादक आवरण खटक रहा था। पूर्णता की कमी खटक रही थी।
सुबह में गुरु जी किसी को वेदांत का शास्त्र पढ़ने के लिए देते थे। गुरुजी अपने नियम करते और शास्त्र भी सुनते। बीच में पर्दा रहता था। कभी कभी गुरुजी पर्दा हटा लेते थे। कमरे में हम 4-5 साधक ही रहते।
एक दिन गुरु जी को आ गयी मौज…. गुरु जी सीधा प्रहार नहीं करते थे, सांकेतिक भाषा में कहते थे। गुरु जी ने कहाः “कुछ लोग बेचारे….” ऐसा कहकर गुरु जी ने मेरी ओर देखा। मैं समझ गया कि इशारा मेरी ओर है। उस दिन हम तीन ही थे।
गुरु देव ने कहाः “कुछ बेचारे यह सोचते रहते हैं कि हूँ तो मैं ब्रह्म, शरीर मैं नहीं हूँ लेकिन मेरे गुरु जी को कितने लोग जानते हैं, उतने मुझे नहीं जानते। गुरु जी के अनुभव में और मेरे अनुभव में कुछ कमी है। वे कमी है की बात मानकर कमी बना लेते हैं। मुझमें दोष हैं, मुझमें दोष हैं ऐसा करके दोष बना लेते हैं। मैं ऐसे लोगों को क्या कहूँ ?”
गुरुदेव के पास ही गीता-ग्रंथ रखा था, उसे उठाते हुए उन्होंने कहाः “लीलाशाह सिर पर गीता रखता है और कसम खाता है कि जो लीलाशाह है वह तू है, जो तू है वही लीलाशाह है। अब तो मान ले, भाई !”
कृपालु गुरुदेव ने इस तरह मेरे अभानापादक आवरण को भी मार भगाया।
यह अभानापादक आवरण हटाने का एक तरीका है शास्त्रीय तरीका। भक्ति करते-करते फिर भीतर से भगवान की आवाज आयेगीः “तू किसको खोजता है ? मैं तेरे साथ हूँ, तू मेरा स्वरूप है।” सोSहं की ध्वनियाँ होने लगेंगी।
सनातन धर्म के जो पाँच प्रमुख देव हैं उन पाँचों में से किसी एक की भी भक्ति आप करें तो उनकी भक्ति में यह ताकत है कि वे आपका लौकिक मनोरथ तो पूरा करते हैं, लेकिन यदि आप किसी लौकिक कामना के बिना ही देवों की भक्ति करते हैं तो देव आपको अलौकिक आत्मसुख देने वाले संत के पास पहुँचा देते हैं।
फिर चाहे कोई शैव उपासक हो और शिव की उपासना करते हो, चाहे वैष्णव हो और भगवान विष्णु के अवतारों की उपासना करता हो, शाक्त उपासक हो और लक्ष्मी माता, सरस्वती देवी, नवदुर्गा या गायत्री आदि की उपासना करता हो चाहे गाणपत्य हो और गणपति जी की उपासना करता हो, चाहे सूर्य उपासक हो। इन पंच देवों की उपासना में बड़ा बल है। इनकी उपासना आपकों संतों से, सदगुरुओं से, सच्चे महापुरुषों से मिला देता है।
असत्वापादक आवरण सत्संग से मिटता है और अभानापादक आवरण साधना एवं गुरुकृपा से मिटता है। दोनों आवरण हट जाने से आत्मा बेपरदा हो जाता है, ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है। आम आदमी को, निगुरे को दोनों आवरण होते हैं। भक्त को, साधक को एक ही आवरण होता है और ज्ञानवान को दोनों ही आवरण नहीं रहते। अपने आत्मा-परमात्मा के अऩुभव में ज्ञानी निरावरण होते हैं। 33 करोड़ देवता और ब्रह्मा, विष्णु, महेश मिलकर भी ज्ञानी के अनुभव की अन्यथा नहीं कर सकते ! ज्ञानी की ऐसी ज्ञाननिष्ठा होती है ! भावना बदल जाती है, मान्यता भी बदल जाती है लेकिन ज्ञान नहीं बदलता, तत्व ज्ञान नहीं बदलता।
जैसे, यह रूमाल है। इसका आपको ज्ञान हो गया कि इस रंग का है, इतना बड़ा है। अब अगर इसको छिपा दिया जाय और आपको अन्य बातों में लगा दिया जाय तो इसका अदर्शन हो सकता है लेकिन इसका अज्ञान नहीं हो सकता है। आपसे इसका ज्ञान कोई छीन नहीं सकता है। आपके इसका ज्ञान कोई छीन नहीं सकता है। रूमाल का तो अदर्शन होगा, विस्मृति भी होगी परन्तु परमात्मा का एक बार दर्शन हो जाने पर, एक बार उसका ज्ञान हो जाने पर, एक बार उसके निरावरण हो जाने पर फिर उसका अदर्शन और उसकी विस्मृति ज्यादा समय नहीं टिकती। ऐसा दिव्य है उस परमात्मा का अनुभव !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 4-7, अंक 107
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मुझे अभानापादक आवरण समझना था और सार सार सरल भाषा मे समझा देतें हैं बापू।
साधो साधो।
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आपका आभार
बापू को शत् शत् प्रणाम।