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शासक को पुरस्कार


भारत के चक्रवर्ती सम्राट अशोक का जन्म दिवस था। जन्मदिवस पर चारों दिशाओं से आये हुए अपने शासकों से अशोक ने समाचार पूछे।

पूर्वी दिशा से आये हुए शासक ने कहाः

“महाराज की जय हो। हमने अपनी सेना दुगनी कर ली है और ऐसा कड़ा प्रबंध किया है कि राज्य के विरोधी अब हमारी ओर आँख तक उठाकर नहीं देख सकते।”

उत्तर दिशा के शासक ने कहाः

“सम्राट के जन्म दिवस पर कोटि-कोटि बधाइयाँ। महाराज खूब जियें। शुभ समाचार यह है कि उत्तरी शासन की आय तिगुनी हो गयी है। सम्राट के खजाने में अब तिगुनी सम्पत्ति भेजी जा सकेगी।”

दक्षिण दिशा के शासक ने कहाः

“महाराज की जय हो। दक्षिणी शासन की ओर से दुगना सोना भेजा जा सकेगा।”

पश्चिम दिशा के मगध के शासक ने कहाः

“महाराज ! क्षमा करें। आपके राज्य में इस साल आय भेज पायेंगे अथवा नहीं, इसमें संदेह है क्योंकि हमने प्रजा पर से कर का बोझ कम कर दिया है और जो रिश्वत लेकर गुजारा करते थे उन अधिकारियों की आवश्यकता देखकर उनका वेतन बढ़ा दिया है। महाराज ! हमने पाठशालाएँ खुलवायी हैं। नगरजनों के बच्चों को उचित शिक्षा मिल सके एवं वे पढ़ाई में कमजोर न रह जायें इसके लिए ईमानदार अधिकारियों की नियुक्ति कर दी है।

इसके अलावा हमने अलग-अलग स्थानों पर कुएँ, बावड़ियाँ, धर्मशालाएँ आदि बनवायी हैं। इन सबमें हमने राज्य का धन खर्च कर दिया है। महाराज ! हमारे यहाँ आवश्यकतानुसार खर्च करने के उपरांत धन बचेगा तो आपके यहाँ भेजेंगे। महाराज ! फिर जैसी आपकी आज्ञा।”

सम्राट अपने सिंहासन से उठ खड़े हुए एवं बोलेः “आज मेरे जन्म दिवस पर पुरस्कार किसे दिया जाये ? क्या मेरे खजाने में तीन गुनी संपदा जमा करने वाले को अथवा सैन्यशक्ति बढ़ाने वाले को ? नहीं। मानवता की शक्ति, शांति और माधुर्य बढ़ाने वाले इस सत्पात्र मगध शासक का मैं जितना भी आदर करूँ, मुझे कम लगता है।

आओ मित्र ! गले लगो। संकोच छोड़ो, इस पुरस्कार से अन्य शासकों को प्रेरणा मिलेगी कि शासक कैसा होना चाहिए। मेरे पवित्र सिद्धान्तों पर चलने वाले पवित्रात्मा मेरे ही स्वरूप हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 17,18 अंक 110

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मानव-जीवन के बीस दोष


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

महाभारत के अनुशासन पर्व में देवगुरु बृहृस्पति एवं धर्मराज युधिष्ठिर का संवाद आता है। धर्मराज युधिष्ठिर के पूछने पर धर्मशास्त्रज्ञ, संयममूर्ति, देवों से पूजित, देवगुरु बृहस्पतिजी जीव के दोषों एवं उनकी गति का वर्णन करते हुए कहते हैं-

1.जो ब्राह्मण चारों वेदों का अध्ययन करने के बाद भी मोहवश पतित व्यक्ति का दान लेता है, वह 15 वर्ष तक गधे की योनि में रहकर 7 वर्ष तक बैल बनता है। बैल का शरीर छूटने पर 3 मास तक ब्रह्मराक्षस होता है।

2.जो ब्राह्मण पतित पुरुष का यज्ञ कराता है, वह मरने के बाद 15 वर्ष कीड़ा बनता है। फिर 5 वर्ष गधा, 5 वर्ष शूकर, 5 वर्ष मुर्गा, 5 वर्ष सियार और 1 वर्ष कुत्ता होता है।

3.धर्मराज युधिष्ठिर हाथ जोड़कर नम्रता से प्रश्न करते हैं- “हे देवगुरु बृहस्पति जी ! जो शिष्य मूर्खतावश गुरु का अपराध करता है, गुरु हित चाहते हैं फिर भी गुरु की बात को महत्त्व नहीं देता है और अपने मान-अपमान को पकड़कर, गुरु के कहने का सीधा अर्थ नहीं लेता है उसकी क्या गति होती है ?”

बृहस्पति जी बोलेः “इस अपराध से वह मरने के बाद कुत्ते की योनि में जाता है और भौं-भौं करता रहता है, बकवास करता है। गुरु अपने हित की बात बतायें और वह सफाई देता है तो देता रहे… रात भर भौंकता रहे, ऐसी कुत्ते की योनि उसे मिलती है। उसके बाद राक्षस एवं गधे की योनि में भटकता है, फिर प्रेत-योनि में भटकता है। इस प्रकार अनेक कष्ट भुगतने के बाद उसे मनुष्य योनि मिलती है।”

4.जो शिष्य मूर्खतावश गुरु की बात का अनादर करता है उसको पशु योनि मिलती है और हिंसक मनुष्यों के बाण सहने पड़ते हैं। गुरु हित की बात करें और शिष्य न सुने तो फिर वह ऐसी पाशवी नीच योनियों में जायेगा कि दुःख-पीड़ा सहेगा, मरेगा-जन्मेगा और अन्य पशुओं से, शिकारियों से शोषित होगा….

5.जो पुत्र अपने माता-पिता का अनादर करता है वह भी मरने के बाद पहले 10 साल तक गधे का शरीर पाता है। फिर 1 साल तक घड़ियाल की योनि में रहने के बाद मानव-योनि का अवसर पाता है।

6.जिस पुत्र पर माता-पिता रुष्ट हों, उसकी क्या गति होती है ? वह मरकर 10 मास तक गधे की योनि में, 14 महीने तक कुत्ते की योनि में और 7 माह तक बिलाव की योनि में भटककर फिर मनुष्य होने का अवसर पाता है।

7.जो व्यक्ति माता-पिता को गाली देता है, तू कहकर बुलाता है – ‘ऐ बुढ़िया ! तू चुप रह। ऐ बुड्ढे ! तू चुप रह। तू क्या जाने ?’ ऐसा व्यक्ति मरने के बाद मैना बनता है।

8.जो माता-पिता को मारता है वह 10 वर्ष तक कछुआ होता है। वैसे तो कछुए की आयु लंबी होती है लेकिन वह 10 वर्ष तक कछुआ रहकर मर जाता है फिर 3 वर्ष तक साही और 6 महीने तक सर्प होता है।

9.जो किसी राजा का सेवक होते हुए भी मोहवश राजा के शत्रुओं की सेवा करता है अथवा जो गुरु का सेवक है लेकिन गुरु की सेवा के बहाने उनकी अवहेलना करके उनके उपदेश के विपरीत काम करता है, वह मरने के बाद 10 वर्ष तक वानर, 5 वर्ष चूहा और 6 महीने तक कुत्ता होकर फिर मनुष्य-शरीर को पाता है।

10.दूसरों की धरोहर हड़पने वाला मनुष्य यमलोक में जाता है और क्रमशः सौ योनियों में भ्रमण करके अंत में 15 वर्ष तक कीड़ा होता है।

11.जो दूसरों के दोष देखता है और एक दूसरे को चिढ़ाता रहता है वह हिरण की योनि में जन्म लेता है।

12.दूसरों से विश्वासघात करने वाला 8 वर्ष तक मछली की योनि में भटकता है, 4 मास तक मृग बनता है, 1 वर्ष तक बकरा होने के बाद कीड़े की योनि में जन्म लेता है। इस प्रकार की नीच योनियों को भोगने के बाद उसे मनुष्य योनि मिलती है।

13.जो अनाज चुराता है वह मरने के बाद पहले चूहा बनता है। फिर गोदाम में से अनाज चुराते रहो और बिल में ले जाओ….। चूहे की योनि के बाद सूअर की योनि पाता है। वह सुअर जन्म लेते ही रोग से मर जाता है। फिर 5 वर्ष तक कुत्ता होने के पश्चात मनुष्य जन्म पाता है।

14.परस्त्रीगमन का पाप करके मनुष्य क्रमशः भेड़िया, कुत्ता, सियार, गीध, साँप, कंक (सफेद चील) और बगुला होता है।

15.जो भाई की स्त्री के साथ व्यभिचार करता है, वह 1 वर्ष तक कोयल की योनि में पड़ा रहता है।

16.जो मित्र, गुरु और राजा की पत्नी के साथ कुकर्म करता है वह 5 वर्ष तक सुअर, 10 वर्ष तक भेड़िया, 5 वर्ष तक बिलाव, 10 वर्ष तक मुर्गा, 3 महीने तक चींटी और 14 महीने तक कीड़े की योनि में रहता है। ऐसे करते-कराते फिर मनुष्य योनि में आने का वह अवसर पाता है।

17.जो यज्ञ, दान अथवा विवाह के शुभ वातावरण में विघ्न डालता है वह 15 वर्ष तक कीड़े की योनि में जन्म लेता है।

18.बड़ा भाई पिता के समान होता है। जो बड़े भाई का अनादर करता है उसे मृत्यु के बाद 1 वर्ष तक क्रौंच पक्षी की योनि में रहना पड़ता है। फिर वह चीरक की जाति का पक्षी होता है, उसके बाद मनुष्य योनि में आता है।

19.जो कृतघ्न है अर्थात् किसी के द्वारा की गयी भलाई या उपकार को न मानने वाला, ऐसे व्यक्ति को यमलोक में बड़ी कठोर यातनाएँ मिलती हैं। उसके पश्चात 15 वर्ष तक कीड़े की योनि में जन्मता है। फिर पशुओं के गर्भ में आकर गर्भावस्था में ही मर जाता है। इस प्रकार सौ बार गर्भ की यंत्रणा भोगकर फिर तिर्यग (पक्षी) योनि में जन्म लेता है। इन योनियों में बहुत वर्षों तक दुःख भोगने के पश्चात वह फिर कछुआ होता है।

20.जो मानव विश्वासपूर्वक रखी हुई किसी की धरोहर को हड़प लेता है, वह मछली की योनि में जन्म पाता है। फिर मनुष्य बनता है लेकिन उसकी आयु बहुत कम होती है। मनुष्य तो बनता है, गर्भ की पीड़ा सहता है, बचपन की मारपीट सहता है और कुछ समझने की उम्र आती है तब तक तो मर जाता है। जैसे तुम्हारी मानवीय सृष्टि में 307 के केस की कितनी सज़ा…. पहले से निर्धारित है, ऐसे ही ईश्वरीय सृष्टि का कायदा भी पहले से ही बना-बनाया है। इन कर्मजन्य, भावजन्य, विचारजन्य, संगजन्य आदि दोषों से बचने का उपाय है-सत्संग एवं भगवन्नाम-जप, जिनसे अपनी मति-गति एवं कर्म ऊँचे बन जाते हैं और ईश्वरार्पण बुद्धि से किये गये सत्कर्म नैष्कर्म सिद्धि देकर ईश्वरप्राप्ति करा देते हैं। अतः बुद्धिमान मनुष्यों को चाहिए कि वे नीच कर्मों से बचें एवं ईश्वरीय आनंद ईश्वरीय सुख को पा लें और मुक्त हो जायें। नीच कर्मवाले निगुरे व्यक्ति नीच योनियों में भटकते हैं और सत्कर्म में रत सत्संगी-सन्मार्गी सत्पद को पाते हैं।

जिसके जीवन में सत्संग नहीं होगा, भगवन्नाम-जप नहीं होगा, जो सावधान नहीं होगा, वह, इन 20 दोषों में से किसी-न-किसी दोष का शिकार बन जायेगा। चाहे विश्वासघाती बने, चाहे कृतघ्नी बने, चाहे विघ्न डालने वाला बने, चाहे बड़े भाई का अनादर करने वाला बने, चाहे माता-पिता का अनादर करने वाला बने…. लेकिन ईश्वर के मार्ग पर चलने से भाई, माता-पिता, कुटुम्बी कोई भी रोके तो उनकी बात की अवहेलना करने से कोई पाप नहीं लगता है। इन 20 दोषों से बचने हेतु सत्शास्त्र का पठन-मनन और सच्चे संतों का सत्संग सर्वोपरि है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 12, अंक 110

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महत्त्वपूर्ण छः बातें


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

कई लोग कहते हैं कि माला करते-करते नींद आने लगती है तो क्या करें ? सतत माला नहीं होती तो आप सेवा करें, सत्शास्त्र पढ़ें।  मन बहुआयामी है तो उसको बहुत प्रकार की युक्तियों से सम्भाल के चलाना चाहिए। कभी जप किया, कभी ध्यान किया, कभी स्मरण किया, कभी सेवा की इस प्रकार की सत्प्रवृत्तियों में मन को लगाये रखना चाहिए।

साधक यदि कुछ बातों को अपनाये तो साधना में बहुत जल्दी प्रगति कर सकता है।

पहली बात है – व्यर्थ की बातों में समय न गवाये। व्यर्थ की बातें करेंगे, सुनेंगे तो जगत की सत्यता दृढ़ होगी जिससे राग-द्वेष की वृद्धि होगी और राग-द्वेष से चित्त मलिन होगा। अतः राग-द्वेष से प्रेरित होकर कर्म न करें।

सेवाकार्य तो करें लेकिन राग-द्वेष से प्रेरित होकर नहीं, अपितु दूसरे को मान देकर, दूसरे को विश्वास में लेकर सेवाकार्य करने से सेवा भी अच्छी तरह से होती है और साधक की योग्यता भी निखरती है। भगवान श्रीरामचन्द्रजी औरों को मान देते और आप अमानी रहते थे। राग-द्वेष में शक्ति का व्यय न हो इसकी सावधानी रखते थे।

दूसरी बात है – अपना उद्देश्य ऊँचा रखें। भगवान शंकर के श्वसुर दक्ष प्रजापति को देवता लोग तक नमस्कार करते थे। ऋषि-मुनि भी उनकी प्रशंसा करते थे। सब लोकपालों में वे वरिष्ठ थे। एक बार देवताओं की सभा में दक्ष प्रजापति के जाने पर अन्य देवों ने खड़े होकर उनका सम्मान किया लेकिन शिवजी उठकर खड़े नहीं हुए तो दक्ष को बुरा लग गया कि दामाद होने पर भी शिवजी ने उनका सम्मान क्यों नहीं किया ?

इस बात से नाराज हो शिवजी को नीचा दिखाने के लिए दक्ष प्रजापति ने यज्ञ करवाया। यज्ञ में अन्य सब देवताओं के लिए आसन रखे गये लेकिन शिवजी के लिए कोई आसन न रखा गया। यज्ञ करना तो बढ़िया है लेकिन यज्ञ का उद्देश्य शिवजी को नीचा दिखाने का था तो उस यज्ञ का ध्वंस हुआ एवं दक्ष प्रजापति की गरदन कटी। बाद में शिवजी की कृपा से बकरे की गरदन उनको लगाई गयी।

अतः अपना उद्देश्य सदैव ऊँचा रखें।

तीसरी बात है – जो कार्य करें उसे कुशलता से पूर्ण करें। ऐसा नहीं कि कोई विघ्न आया और काम छोड़ दिया। यह कायरता नहीं होनी चाहिए। योगः कर्मसु कौशलम्। यही वही है जो कर्म से कुशलता लाये।

चौथी बात है – कर्म तो करें लेकिन कर्त्तापने का गर्व न आये और लापरवाही से कर्म बिगड़े नहीं, इसकी सावधानी रखें। सबके भीतर बहुत सारी ईश्वरीय संपदा है। उस संपदा को पाने के लिए सावधान रहना चाहिए, सतर्क रहना चाहिए।

पाँचवीं बात है – जीवन में केवल ईश्वर को महत्त्व दें। सबमें कुछ न कुछ गुण-दोष होते ही हैं। ज्यों-ज्यों साधक संसार को महत्त्व देगा त्यों-त्यों दोष बढ़ते जायेंगे और ज्यों-ज्यों ईश्वर को महत्त्व देगा त्यों-त्यों सदगुण बढ़ते जायेंगे।

छठी बात है – साधक का व्यवहार पवित्र होना चाहिए, हृदय पवित्र होना चाहिए। लोगों के लिए उसका जीवन ही आदर्श बन जाये, ऐसा पवित्र उसका आचरण होना चाहिए।

इन छः बातों को अपने जीवन में अपनाकर साधक अपने लक्ष्य को पाने में अवश्य कामयाब हो सकता है। अतः लक्ष्य ऊँचा हो। मुख्य कार्य और अवान्तर कार्य भी उसके अनुरूप हों।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 10, अंक 110

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