सत्संग
हम जो भोजन लें वह ऐसा सात्विक और पवित्र होना चाहिए कि उसको लेने के बाद हमारा मन निर्मल हो जाय। ऐसा भोजन नहीं करना चाहिए जिससे आलस्य आये या तुरन्त नींद आ जाय। भोजन के बाद शरीर में उत्तेजना उत्पन्न हो जाय – ऐसा भोजन भी नहीं करना चाहिए।
भोजन केवल मुँह से ही नहीं किया जाता, कान से भी किया जाता है, आँख से भी किया जाता है, त्वचा से भी किया जाता है, नाक से भी किया जाता है और यहाँ तक कि मन से भी किया जाता है। शंकराचार्य जी का कहना हैः आहार्यन्ते इति आहारः। हम जो बाहर से भीतर ग्रहण करते हैं उसका नाम आहार है।
हम कान से जो भोजन करते हैं उसका हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जब आपको कोई किसी की निन्दा सुनाता है तब आप भले ही उसे सच न मानें, लेकिन वह आपके मन में कम से कम संशय तो भरता ही है। यदि आप संशय को छोड़ भी दें तो निन्दा करने वाले ने आपके मन में किसी के प्रति घृणा हुई तो वह व्यक्ति तो चाहे जैसा भी हो परन्तु आपके मन में किसी के प्रति घृणा या द्वेष तो उत्पन्न कर ही दिया। यदि किसी के प्रति घृणा हुई तो वह व्यक्ति तो चाहे जैसा भी हो परन्तु आपके मन तो घृणा उत्पन्न हो ही गयी, आपके मन में तो द्वेष आ ही गया। आपके कान से ऐसी चीज खायी जिसने आपके हृदय में संशय, घृणा व द्वेष भर दिया। इसलिए सावधान ! जैसे आप भोजन करने में अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखते हैं, वैसे ही सुनने में भी अपने हृदय के स्वास्थ्य का ध्यान रखिये। आप अपने कानों से ईश्वर-चर्चा, कीर्तन, सत्संग सुनेंगे तो आपका अन्तःकरण निर्मल होगा।
त्वचा द्वारा स्पर्श करते समय भी ध्यान रखिये क्योंकि स्पर्श भी त्वचा के द्वारा प्राप्त भोजन है। आप जानते हैं कि बिजली को छूयेंगे तो करन्ट लगेगा और प्राण जाने की सम्भावना है इसलिए आप उसे नहीं छूते। ऐसे ही उत्तेजक वस्तु का स्पर्श नहीं करना चाहिए। जो वस्तु आपके मन में कामविकार उत्पन्न करे उसे स्पर्श नहीं करना चाहिए। त्वचा वायु, ताप ग्रहण करती है। जब आप सूर्य-प्रकाश में अपने शरीर को ले जाते हैं तब सूर्य की रश्मियाँ आपके शरीर में ले जाते हैं तब सूर्य की रश्मियाँ आपके शरीर में प्रवेश करके आपका आहार बनती हैं, भोजन बनती हैं। जब आप शुद्ध वायु में रहते हैं तब वायु आपके शरीर में लगकर आपका भोजन शुद्ध बनती है। इसलिए ऐसे वातावरण में रहिये, जहाँ आपकी त्वचा को भी बढ़िया भोजन मिलता हो।
आप आँखों से क्या देखते हो ? जो चीज आप देखते हैं उसे देखकर आपके मन में काम, क्रोध, लोभ आदि आते हैं कि भगवद्भाव आता है ? किसी का सुन्दर मकान देखा, फर्नीचर देखा तो मन में विचार आया कि ऐसा हमारे पास भी हो। आँख से देखी चीज तो बाहर रह गयी और मन में उदय हो गया लोभ। फिर उस चीज को पाने के लिए आपने अपनी बुद्धि लगाई और प्रयत्न किया। आपने आँखों से ऐसी चीजें खायीं कि वे चीजें आपके पास न होने पर आपको हीनता का, अभाव का अनुभव होने लगा और उनके प्राप्त होने पर आपकी उन वस्तुओं में ममता हो गयी, आप उनसे बँध गये। भगवत्प्राप्त महापुरुषों, भगवान के अवतारों, संतों के चित्रों को देखकर एवं हयात सत्पुरुषों के दर्शन करके आप अपने मन-मति को पावन करके अपने जीवन को ऊर्ध्वगामी दिशा भी दे सकते हैं अथवा टी.वी., सिनेमा देखकर समय, चरित्र और ऊर्जा के नाश से नारकीय जीवन को प्राप्त हो सकते हैं। अतः, सतत ध्यान रखिये कि आपकी आँखें जहाँ तहाँ न चली जायें। इसी प्रकार आप नाक से भी ऐसी चीजें नहीं तो सूँघते हैं कि जिससे आपका अन्तःकरण अपवित्र-मलिन हो जाय।
लोग अपने शरीर, घर, मकान को तो साफ-स्वच्छ रखते हैं परन्तु अपने अन्तःकरण की पवित्रता, निर्दोषता की ओर ध्यान नहीं देते। इसलिए बाहर की सुख-सुविधाएँ होते हुए भी भीतर से दुःखी, चिन्तित और अशांत हो जाते हैं। बाहर की चीजें तो संभव है कि साथ रहें या न रहें लेकिन आपका मन तो आपके बिल्कुल निकट है, सदा साथ है। यदि आपका मन दुःखी रहेगा, अज्ञान में रहेगा, भय में रहेगा, शोक में रहेगा तो आपके बाहर चाहे कितनी भी चीजें हों, उनसे आप कभी सुखी नहीं रह सकेंगे। आप अपने मन के धरातल पर उन्हीं विचारों को महत्व दें जिनसे आपका जीवन उन्नत हो, सफल हो और ईश्वराभिमुख हो। आप अपने मन से ऐसा न सोचें जो क्रूर हो, दूसरों को दुःख देने वाला हो। अतः, मन से जो विचार करें वह ऐसा निर्मल हो कि उससे निर्मल वातावरण बन जाय।
हमारे मानसिक भावों का, विचारों का एक परिमंडल हमारे चारों ओर बनता है। किसी का मण्डल बड़ा बनता है तो किसी का मण्डल छोटा बनता है। जैसे कभी-कभी सूर्य-चन्द्र के चारों ओर परिमण्डल दिखाई पड़ता है, वैसे ही हमारे शरीर से जो तन्मात्राएँ निकलती हैं, विचारों के जो सूक्ष्म कण प्रवाहित होते हैं, वे हमें चारों ओर से घेरे रहते हैं। यदि वे रश्मियाँ, तन्मात्राएँ, किरणें, शांति-सौम्यता-सद्भाव से सम्पन्न हों तो हमारे पास आने वाला, हमारे वातावरण में रहने वाला भी पवित्र विचारों से सम्पन्न हो जाता है। इसलिए हमारे मन की जो पवित्रता है, उससे केवल अपना ही कल्याण नहीं है बल्कि वह सम्पूर्ण समाज के लिए, सम्पूर्ण विश्व के लिए मंगलमय है।
इसलिए आप मन में जिन विचारों को महत्व देकर आश्रय देते हैं अर्थात् ग्रहण करते हैं या मन से जो भोजन करते हैं उससे घृणा न आये, द्वेष न आये, व्यर्थ की निद्रा-तन्द्रा न आये, विकार न आये इसका आप ध्यान रखिये।
इसलिए केवल मुँह से किया जाने वाला भोजन ही आहार नहीं है अपितु हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों से जो ग्रहण करते हैं, वह भी हमारा आहार है, हमारा भोजन है। यदि आप सावधान न रहे तो उससे बड़ा अनिष्ट हो सकता है। आप अपनी ज्ञानेन्द्रियों से ऐसा भोजन करें जिससे आपका अन्तःकरण निर्मल बनें।
निर्मल मन जन सो मोहिं पावा।
मोह कपट छल-छिद्र न भावा।।
जो निर्मल है वही परमात्मा से प्यार कर सकता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2002, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 112
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