संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
उड़ीसा के राजा प्रतापरूद्र बड़े धार्मिक एवं साधुसेवी थे। उनका बाहरी वेश तो राजसी था परन्तु भीतर से उनका रोम-रोम भक्ति-भाव से परिपूर्ण था।
वे गौरांग (चैतन्य महाप्रभु) के दर्शन करना चाहते थे लेकिन गौरांग ने उनकी बात ठुकरा दी। राजा ने खूब प्रयत्न किये परन्तु गौरांग नहीं माने। आखिर पुण्यात्मा, धनभागी राजा प्रतापरुद्र ने ठान लिया कि ‘कुछ भी हो, मैं इन महापुरुष की कृपा को पाकर ही रहूँगा। इसके लिए चाहे कुछ भी क्यों न करना पड़े ?’
गौरांग के शिष्यों में पण्डित नाम से प्रसिद्ध एक शिष्य थे। राजा प्रतापरूद्र ने उनको प्रसन्न करके उनके हाथों गौरांग के पास एक प्रार्थनापत्र भेजाः “मैं तो आपके चरणों की धूलि हूँ और आपके चरणों में सिर झुकाना चाहता हूँ। मेरा जीवन यूँ ही बीता जा रहा है। यह कटक का राज्य तो पहले भी मेरा नहीं था और बाद में भी मेरा नहीं रहेगा। मैं आपकी शरण में हूँ। मैं आपका दास हूँ। आपको जब भी, जैसे भी अनुकूल पड़े मेरे यहाँ पधारने की कृपा करें और इस दास की पूजा की जगह को पावन करने की कृपा करें।’
पंडित समय-समय पर गौरांग के पास जाया करते थे। राजा का प्रार्थनापत्र लेकर वे गौरांग के पास गये। उन्हें देखकर गौरांग ने कहाः
“अरे, तुम आज अचानक कैसे ?”
पंडितः “प्रभु ! आज तो दास आपसे कुछ माँगने आया है।”
गौरांगः “तुमको भी माँगने की जरूरत पड़ी ? क्या माँगते हो ?”
पंडितः “आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करना, अस्वीकार मत करना।”
गौरांगः “पंडित जी ! पहले से ही वचनबद्ध क्यों करते हो ? तुम ऐसा कुछ बोलोगे नहीं जो मुझे अस्वीकार करना पड़े ? क्या माँगना चाहते हो ? अच्छे लोग अपनी बात मनवाने का आग्रह नहीं रखते वरन् संत की बात मानते हैं। तुम क्या चाहते हो ?”
पंडितः “राजा प्रतापरुद्र भगवान के बड़े भक्त हैं और आपके दर्शन के लिए तरसते हैं। दिखते हैं राजा लेकिन हैं संतसेवी। बड़ी सेवा करते हैं भगवान जगन्नाथ एवं संतों की। वे आपका स्वागत करना चाहते हैं, आप उनके यहाँ पधारने की कृपा करें।”
गौरांग ने तुरंत कान में उँगलियाँ डालते हुए कहाः “अरररररर… मेरा कौन सा पाप है कि मैं राजा के आमंत्रण की बात सुन रहा हूँ ? जिसको ईश्वरीय मस्ती चाहिए वह राजा के आमंत्रण को कैसे स्वीकार कर सकता है ? रजोगुणी वातावरण में जाने का आमंत्रण ? प्रजा से कर लेकर राजवैभव प्राप्त होता है, उस वैभव में जीने वाले का आमंत्रण ? राम, राम, राम…. यह तुम कैसी प्रार्थना लेकर आये हो ?”
पंडित ने काफी अनुनय-विनय किया किन्तु गौरांग ने आमंत्रण स्वीकार नहीं किया।
पंडित ने यह बात राजा प्रतापरुद्र को बता दी। प्रतापरुद्र ने पंडित से कहाः
“कैसे भी करके मैं उनकी कृपा पाना चाहता हूँ।”
पंडित ने राजा की तीव्र इच्छा एवं दृढ़ता देखकर कहाः
“राजन् ! परसों जगन्नाथ जी की रथयात्रा है। लाखों लोग जगन्नाथ जी का रथ खींचेंगे। गौरांग भी वहाँ जायेंगे। जब वे रथ को धक्का मारेंगे तभी यात्रा शुरु होगी। उसके बाद दोपहर में वे अमुक बगीचे में विश्राम करेंगे। अगर आप उनकी कृपा पाना चाहते हैं तो आपको एक सेवक का, एक हरि भक्त का वेश बनाकर वहाँ जाना पड़ेगा। आप राजा के वेश में नहीं, सेवक के वेश में जाकर वहाँ सेवा-टहल करना। अगर उनकी दृष्टि पड़ेगी और आपकी सेवा स्वीकार हो जायेगी तो आपका काम बन जायेगा। आप तो बड़े बुद्धिमान राजा हैं। मैं आपको समय व स्थान बता दिया है।”
प्रतापरुद्र ने रथयात्रा के दिन एक सामान्य भक्त का वेश धारण किया और उस बगीचे में पहुँचे जहाँ गौरांग अपने भक्तों के साथ विश्राम कर रहे थे। दोपहर का समय था, रथयात्रा के श्रम से थके होने का कारण गौरांग लेटे हुए थे। राजा ने जाकर सभी भक्तों को दंडवत् प्रणाम किया। कोई भी पहचान न पाया कि ये स्वयं राजा प्रतापरुद्र हैं। सबके हृदय में हुआ कि यह भक्त कितना नम्र है ! सबके हृदय में उनके प्रति सहानुभूति जाग उठी।
ऐसा करते-करते प्रतापरुद्र गौरांग प्रभु के नजदीक गये एवं देखा कि वे बड़े थके हैं, अतः धीरे-धीरे उनके चरण सहलाने लगे।
गौरांग को थोड़ा आराम का एहसास हुआ। प्रतापरुद्र राजा थे, चरणचंपी करवा चुके थे। इसलिए उनको पता था कि कैसी चरणचंपी करने से नींद अच्छी आती है और थकान मिटती है।
ऐसा करते-करते काफी देर हो गयी। राजा ने देखा कि अब गौरांग प्रभु आराम कर चुके हैं। अतः वे चरण सहलाते-सहलाते ‘श्रीमद्भागवत’ का ‘गोपीगीत’ मधुर स्वर से गुनगुनाने लगे-
‘भगवान कृष्ण ! आप कहाँ गये ? हे केशव ! आप हमें छोड़कर कहाँ चले गये ? हमारे साथ होते हुए भी आप कहाँ अदृश्य हो गये ? कोई तो बता दो मेरे कृष्ण का पता….’ राजा प्रतापरुद्र बड़े ही भावपूर्ण हृदय से भागवत के ‘गोपीगीत’ का गायन कर रहे थे।
गौरांग नींद से उठे। उठते ही इतने मधुर स्वर एवं भावपूर्ण हृदय से गाये जा रहे ‘गोपी गीत’ सुनकर उनका हृदय भी पिघलता गया। जैसे वेदान्त की सारगर्भित बात सुनकर वेदान्ती का हृदय छलकता है, वैसे ही ‘गोपी गीत’ सुनकर गौरांग का हृदय छलक उठा। उन्होंने कहाः “फिर से गाओ, जरा फिर से।”
गौरांग की प्रसन्नता देखकर राजा पुलकित होकर फिर से गाने लगे। ऐसा करते-करते गौरांग का हृदय ऐसा छलका कि वे उठ बैठे और बोले-
“तुम कौन हो ? कहाँ से आये हो ? तुम्हारा यह गीत सुनकर मेरी सारी थकान मिट गयी।”
शरीर की थकान नींद से इतनी नहीं मिटती जितनी मन की प्रसन्नता से मिटती है। तीन घंटे आप सोओ और 21 घंटे काम करो यह संभव है। किन्तु मन में यह नहीं होना चाहिए कि ‘मैंने बहुत काम कर लिया, मैं बहुत थक गया हूँ।’ तो शारीरिक तनाव होता है। शारीरिक और मानसिक तनाव से संयुक्त होने पर ही मन फिर सिगरेट, सुरा, सुन्दरी आदि की खोज करता है।
शारीरिक एवं मानसिक तनाव दूर करने के लिए सुन्दर उपाय है – अजपा गायत्री। शरीर को खूब खींचे फिर ढीला छोड़ दें। मन-ही-मन चिंतन करें कि ‘मैं स्वस्थ हूँ… शरीर की थकान मिट रही है…’ इस प्रकार शारीरिक आराम लेकर फिर श्वासोच्छ्वास का गिनती करें। इससे शारीरिक एवं मानसिक तनाव मिटेंगे।
प्रतापरुद्र ने कहाः “भगवन् ! मैं उड़ीसा का हूँ। आपके दासों का दास हूँ।”
गौरांगः “अरे भैया ! आज तो तुमने मुझे ऋणी बना दिया। कृष्ण का गोपी गीत तुमने कितना सुंदर गाया ! कितनी शांति दी ! तुम क्या चाहते हो ?”
प्रतापरुद्रः “महाराज ! केवल आपकी कृपा चाहता हूँ।”
ऐसा करते-करते गौरांग की कृपा पा ली राजा प्रतापरुद्र ने।
संत की कृपा पाने के लिए राजा प्रतापरुद्र ने कितने प्रयत्न किये… आखिर अपना राजवेश छोड़कर एक सामान्य भक्त का वेश बनाया…. लगन और दृढ़ता थी संत-दर्शन की तो दर्शन पाकर ही रहे।
सचमुच में वे बड़े भाग्यशाली हैं जो संत-दर्शन की महत्ता जानते हैं और संत की कृपा को पाने के अधिकारी बन पाते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2002, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 112
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