Monthly Archives: April 2002

संत दर्शन की चाह


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

उड़ीसा के राजा प्रतापरूद्र बड़े धार्मिक एवं साधुसेवी थे। उनका बाहरी वेश तो राजसी था परन्तु भीतर से उनका रोम-रोम भक्ति-भाव से परिपूर्ण था।

वे गौरांग (चैतन्य महाप्रभु) के दर्शन करना चाहते थे लेकिन गौरांग ने उनकी बात ठुकरा दी। राजा ने खूब प्रयत्न किये परन्तु गौरांग नहीं माने। आखिर पुण्यात्मा, धनभागी राजा प्रतापरुद्र ने ठान लिया कि ‘कुछ भी हो, मैं इन महापुरुष की कृपा को पाकर ही रहूँगा। इसके लिए चाहे कुछ भी क्यों न करना पड़े ?’

गौरांग के शिष्यों में पण्डित नाम से प्रसिद्ध एक शिष्य थे। राजा प्रतापरूद्र ने उनको प्रसन्न करके उनके हाथों गौरांग के पास एक प्रार्थनापत्र भेजाः “मैं तो आपके चरणों की धूलि हूँ और आपके चरणों में सिर झुकाना चाहता हूँ। मेरा जीवन यूँ ही बीता जा रहा है। यह कटक का राज्य तो पहले भी मेरा नहीं था और बाद में भी मेरा नहीं रहेगा। मैं आपकी शरण में हूँ। मैं आपका दास हूँ। आपको जब भी, जैसे भी अनुकूल पड़े मेरे यहाँ पधारने की कृपा करें और इस दास की पूजा की जगह को पावन करने की कृपा करें।’

पंडित समय-समय पर गौरांग के पास जाया करते थे। राजा का प्रार्थनापत्र लेकर वे गौरांग के पास गये। उन्हें देखकर गौरांग ने कहाः

“अरे, तुम आज अचानक कैसे ?”

पंडितः “प्रभु ! आज तो दास आपसे कुछ माँगने आया है।”

गौरांगः “तुमको भी माँगने की जरूरत पड़ी ? क्या माँगते हो ?”

पंडितः “आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करना, अस्वीकार मत करना।”

गौरांगः “पंडित जी ! पहले से ही वचनबद्ध क्यों करते हो ? तुम ऐसा कुछ बोलोगे नहीं जो मुझे अस्वीकार करना पड़े ? क्या माँगना चाहते हो ? अच्छे लोग अपनी बात मनवाने का आग्रह नहीं रखते वरन् संत की बात मानते हैं। तुम क्या चाहते हो ?”

पंडितः “राजा प्रतापरुद्र भगवान के बड़े भक्त हैं और आपके दर्शन के लिए तरसते हैं। दिखते हैं राजा लेकिन हैं संतसेवी। बड़ी सेवा करते हैं भगवान जगन्नाथ एवं संतों की। वे आपका स्वागत करना चाहते हैं, आप उनके यहाँ पधारने की कृपा करें।”

गौरांग ने तुरंत कान में उँगलियाँ डालते हुए कहाः “अरररररर… मेरा कौन सा पाप है कि मैं राजा के आमंत्रण की बात सुन रहा हूँ ? जिसको ईश्वरीय मस्ती चाहिए वह राजा के आमंत्रण को कैसे स्वीकार कर सकता है ? रजोगुणी वातावरण में जाने का आमंत्रण ? प्रजा से कर लेकर राजवैभव प्राप्त होता है, उस वैभव में जीने  वाले का आमंत्रण ? राम, राम, राम…. यह तुम कैसी प्रार्थना लेकर आये हो ?”

पंडित ने काफी अनुनय-विनय किया किन्तु गौरांग ने आमंत्रण स्वीकार नहीं किया।

पंडित ने यह बात राजा प्रतापरुद्र को बता दी। प्रतापरुद्र ने पंडित से कहाः

“कैसे भी करके मैं उनकी कृपा पाना चाहता हूँ।”

पंडित ने राजा की तीव्र इच्छा एवं दृढ़ता देखकर कहाः

“राजन् ! परसों जगन्नाथ जी की रथयात्रा है। लाखों लोग जगन्नाथ जी का रथ खींचेंगे। गौरांग भी वहाँ जायेंगे। जब वे रथ को धक्का मारेंगे तभी यात्रा शुरु होगी। उसके बाद दोपहर में वे अमुक बगीचे में विश्राम करेंगे। अगर आप उनकी कृपा पाना चाहते हैं तो आपको एक सेवक का, एक हरि भक्त का वेश बनाकर वहाँ जाना पड़ेगा। आप राजा के  वेश में नहीं, सेवक के वेश में जाकर वहाँ सेवा-टहल करना। अगर उनकी दृष्टि पड़ेगी और आपकी सेवा स्वीकार हो जायेगी तो आपका काम बन जायेगा। आप तो बड़े बुद्धिमान राजा हैं। मैं आपको समय व स्थान बता दिया है।”

प्रतापरुद्र ने रथयात्रा के दिन एक सामान्य भक्त का वेश धारण किया और उस बगीचे में पहुँचे जहाँ गौरांग अपने भक्तों के साथ विश्राम कर रहे थे। दोपहर का समय था, रथयात्रा के श्रम से थके होने का कारण गौरांग लेटे हुए थे। राजा ने जाकर सभी भक्तों को दंडवत् प्रणाम किया। कोई भी पहचान न पाया कि ये स्वयं राजा प्रतापरुद्र हैं। सबके हृदय में हुआ कि यह भक्त कितना नम्र है ! सबके हृदय में उनके प्रति सहानुभूति जाग उठी।

ऐसा करते-करते प्रतापरुद्र गौरांग प्रभु के नजदीक गये एवं देखा कि वे बड़े थके हैं, अतः धीरे-धीरे उनके चरण सहलाने लगे।

गौरांग को थोड़ा आराम का एहसास हुआ। प्रतापरुद्र राजा थे, चरणचंपी करवा चुके थे। इसलिए उनको पता था कि कैसी चरणचंपी करने से नींद अच्छी आती है और थकान मिटती है।

ऐसा करते-करते काफी देर हो गयी। राजा ने देखा कि अब गौरांग प्रभु आराम कर चुके हैं। अतः वे चरण सहलाते-सहलाते ‘श्रीमद्भागवत’ का ‘गोपीगीत’ मधुर स्वर से गुनगुनाने लगे-

‘भगवान कृष्ण ! आप कहाँ गये ? हे केशव ! आप हमें छोड़कर कहाँ चले गये ? हमारे साथ होते हुए भी आप कहाँ अदृश्य हो गये ? कोई तो बता दो मेरे कृष्ण का पता….’ राजा प्रतापरुद्र बड़े ही भावपूर्ण हृदय से भागवत के ‘गोपीगीत’ का गायन कर रहे थे।

गौरांग नींद से उठे। उठते ही इतने मधुर स्वर एवं भावपूर्ण हृदय से गाये जा रहे ‘गोपी गीत’ सुनकर उनका हृदय भी पिघलता गया। जैसे वेदान्त की सारगर्भित बात सुनकर वेदान्ती का हृदय छलकता है, वैसे ही ‘गोपी गीत’ सुनकर गौरांग का हृदय छलक उठा। उन्होंने कहाः “फिर से गाओ, जरा फिर से।”

गौरांग की प्रसन्नता देखकर राजा पुलकित होकर फिर से गाने लगे। ऐसा करते-करते गौरांग का हृदय ऐसा छलका कि वे उठ बैठे और बोले-

“तुम कौन हो ? कहाँ से आये हो ? तुम्हारा यह गीत सुनकर मेरी सारी थकान मिट गयी।”

शरीर की थकान नींद से इतनी नहीं मिटती जितनी मन की प्रसन्नता से मिटती है। तीन घंटे आप सोओ और 21 घंटे काम करो यह संभव है। किन्तु मन में यह नहीं होना चाहिए कि ‘मैंने बहुत काम कर लिया, मैं बहुत थक गया हूँ।’ तो शारीरिक तनाव होता है। शारीरिक और मानसिक तनाव से संयुक्त होने पर ही मन फिर सिगरेट, सुरा, सुन्दरी आदि की खोज करता है।

शारीरिक एवं मानसिक तनाव दूर करने के लिए सुन्दर उपाय है – अजपा गायत्री। शरीर को खूब खींचे फिर ढीला छोड़ दें। मन-ही-मन चिंतन करें कि ‘मैं स्वस्थ हूँ… शरीर की थकान मिट रही है…’ इस प्रकार शारीरिक आराम लेकर फिर श्वासोच्छ्वास का गिनती करें। इससे शारीरिक एवं मानसिक तनाव मिटेंगे।

प्रतापरुद्र ने कहाः “भगवन् ! मैं उड़ीसा का हूँ। आपके दासों का दास हूँ।”

गौरांगः “अरे भैया ! आज तो तुमने मुझे ऋणी बना दिया। कृष्ण का गोपी गीत तुमने कितना सुंदर गाया ! कितनी शांति दी ! तुम क्या चाहते हो ?”

प्रतापरुद्रः “महाराज ! केवल आपकी कृपा चाहता हूँ।”

ऐसा करते-करते गौरांग की कृपा पा ली राजा प्रतापरुद्र ने।

संत की कृपा पाने के लिए राजा प्रतापरुद्र ने कितने प्रयत्न किये… आखिर अपना राजवेश छोड़कर एक सामान्य भक्त का वेश बनाया…. लगन और दृढ़ता थी संत-दर्शन की तो दर्शन पाकर ही रहे।

सचमुच में वे बड़े भाग्यशाली हैं जो संत-दर्शन की महत्ता जानते हैं और संत की कृपा को पाने के अधिकारी बन पाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2002, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 112

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शास्त्र-अमृत


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

पौरूष दो प्रकार का होता है – एक शास्त्र के अनुसार और दूसरा शास्त्र विरूद्ध। जो शास्त्र को त्याग करके अपनी इच्छा के अनुसार विचरता है वह सिद्धता नहीं पायेगा। जो शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ करता है वह सिद्धता को प्राप्त होगा।

जो पुरुष व्यवहार तथा परमार्थ में आलसी होकर और परमार्थ को त्यागकर मूढ़ हो रहे हैं, वे दीन होकर पशुओं के सदृश दुःख को प्राप्त हो रहे हैं, वे दीन होकर पशुओं के सदृश दुःख को प्राप्त हुए हैं। तुम पुरुषार्थ का आश्रय लो। सत्संग और सत्शास्त्ररूपी आदर्श के द्वारा अपने गुण-दोष को देखकर दोष का त्याग करो और शास्त्रों के सिद्धान्तों पर अभ्यास करो। जब दृढ़ अभ्यास करोगे तब शीघ्र ही आनंदवान होगे।

श्रेष्ठ पुरुष वही है जिसने सत्संग और सत्शास्त्र द्वारा बुद्धि को तीक्ष्ण करके संसार-समुद्र से तरने का पुरुषार्थ किया है। जिसने सत्संग व सत्शास्त्र द्वारा बुद्धि तीक्ष्ण नहीं की और पुरुषार्थ को त्याग बैठा है, वह पुरुष नीच-से-नीच गति को पायेगा। जो श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे अपने पुरुषार्थ से परमानंद पद को पायेंगे और फिर दुःखी न होंगे।

मनुष्यों को सत्शास्त्रों और सत्संग से शुभ गुणों को पुष्ट करके दया, धैर्य, संतोष और वैराग्य का अभ्यास करना चाहिए। शुभ गुणों से बुद्धि पुष्ट होती है और शुद्ध बुद्धि से शुभ गुण पुष्ट होते हैं। जब शुभ गुण होते हैं तब आत्मज्ञान आकर विराजता है। शुभ गुणों में आत्मज्ञान रहता है।

संतों और सत्शास्त्रों के अनुसार संवेदन, मन और इन्द्रियों का विचार रखना। जो इनसे विरुद्ध हों उनको न करना। इससे  तुमको संसार का राग-द्वेष स्पर्श न करेगा। संतजन और सत्शास्त्र वही हैं जिनके विचार व संगति से चित्त संसार की ओर से हटकर उनकी ओर हो।

जो कुछ पूर्व की वासना दृढ़ हो रही है उसके अनुसार जीव विचरता है पर श्रेष्ठ पुरुष अपने पुरुषार्थ से पूर्व के मलिन संस्कारों को शुद्ध करता है। जब तुम सत्शास्त्रों और ज्ञानवानों के वचनों के अनुसार दृढ़ पुरुषार्थ करोगे तब मलिन वासना दूर हो जायेगी।

यदि चित्त विषय और शास्त्र विरुद्ध मार्ग की ओर जाय, शुभ की ओर न जाय तो जानो कि कोई पूर्व का मलिन कर्म है। जो संतजनों और सत्शास्त्रों के अनुसार चेष्टा करे और संसार मार्ग से विरक्त हो तो जानों कि पूर्व का शुभ कर्म है। यदि तुम्हारा चित्त शुभमार्ग में स्थिर नहीं होता है तो भी दृढ़ पुरुषार्थ करके संसार-समुद्र से पार हो। श्रेष्ठ पुरुष वही है जिसका पूर्व का संस्कार यद्यपि मलिन था, परन्तु संतों और सत्शास्त्रों के अनुसार दृढ़ पुरुषार्थ करके सिद्धता को प्राप्त हुआ है।

यह चित्त जो संसार के भोग की ओर जाता है उस भोगरूपी खाई में चित्त को गिरने मत दो।

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भगवान श्री रामचन्द्र जी ने अपने सदगुरुदेव वशिष्ठ जी महाराज से  पूछाः “हे भगवन् ! आप कहते हैं कि ‘भावना के वश से असत् भी सत् हो जाता है।’ इसका क्या आशय है ?” वशिष्ठ जी ने कहाः ” हे रामचन्द्रजी ! देश, काल, क्रिया, द्रव्य और संपदा इन पाँचों से भावना होती है। जैसी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है। पुत्र, दारादिक बांधव सब वासना रूप हैं। धर्म की वासना होती है तो बुद्धि में प्रसन्नता उपज आती है और पुण्य कर्मों से पूर्व भावना नष्ट हो शुभगति प्राप्त होती है। इससे अपने कल्याण के निमित्त शुभ का अभ्यास करना चाहिए।”

वशिष्ठ महाराज के अमृतवर्षी उपदेश सुनकर आत्मस्वरूपस्थ रामचन्द्रजी कह उठेः “हे मुनीश्वर ! आपका उपदेश दृश्यरूपी तृणों का नाशकर्त्ता दावाग्नि है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तापों का शांतकर्त्ता चन्द्रमा है। आपके उपदेश से मैं ज्ञातज्ञेय (जानने योग्य जान लिया) हुआ हूँ और पाँच  विकल्प मैंने विचारे हैं। प्रथम यह है कि यह जगत मिथ्या है और इसका स्वरूप अनिर्वचनीय है, दूसरा यह कि आत्मा में आभास है, तीसरा यह है कि इसका स्वभाव परिणामी है, चौथा यह कि अज्ञान से उपजा है और पाँचवाँ यह कि अनादि अज्ञान पर्यन्त है।”

भगवान श्री रामजी  द्वारा विचारे इन पाँच विकल्पों को हम अपना बना लें तो कितना अच्छा हो !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2002, पृष्ठ संख्या 5, अंक 112

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राष्ट्रपति भवन में झाड़ू


अमेरिका में राष्ट्रपति के रूप में आइजन हॉवर को चुना गया। टेलीफोन और तार से लोगों की बधाइयाँ मिलने लगीं और राष्ट्रपति भवन में उपहारों का ढेर लग गया। आइजन हॉवर ने सबकी सौगातें (उपहार) स्वीकार की। सौगात के रूप में एक झाड़ू भी मिली और साथ में लिफ़ाफ़ा भी था।

आइजन हॉवर ने सारी कीमती सौगातें सरकारी भंडारगृह में जमा करवा दी परन्तु झाड़ू को अपने कार्यालय में रखवा दिया। जो भी व्यक्ति राष्ट्रपति से मिलने आता उसकी नज़र उस झाड़ू पर अवश्य पड़ती थी। किन्तु झाड़ू को कार्यालय में क्यों रखा है यह पूछने की हिम्मत कोई नहीं कर पाता था।

एक बार किसी अन्य देश के राष्ट्रपति अमेरिका के अतिथि हुए। वे अपने मंत्रियों के साथ राष्ट्रपति के कार्यालय में बैठे हुए थे। विदेश के राष्ट्रपति और उनके मंत्रियों की नज़र बार-बार उस झाड़ू पर जा रही थी। उनकी मनोदशा को भाँपते हुए आइजन हॉवर ने मुस्कराते हुए कहाः

“आप लोग इस झाड़ू को देखते ही फिर मेरी ओर देखकर कुछ सोचते हो। आपकी आँखों से ऐसा लग रहा है कि आपके मन में प्रश्न उठ रहे हैं कि राष्ट्रपति भवन के कार्यालय के ‘शोकेस’ में झाड़ू। मैं इसकी कथा आपको सुनाता हूँ-

मैं जब राष्ट्रपति चुनकर आया तब लोगों ने बहुत सारी सौगातें भेजी। उनमें यह झाड़ू भी सौगात के रूप में आयी और इसके साथ एक चिट्ठी भी थी, जिसमें लिखा हैः

‘आप चुनाव के दिनों में ढिंढोरा पीटते थे कि मैं भ्रष्टाचार और गंदगी को साफ करूँगा। इसलिए आपको भेंट में मैं एक झाड़ू भेज रहा हूँ ताकि आपको सफाई करने की स्मृति बनी रहे। प्रजा को दिया हुआ वचन पालने की याद बनी रहे।’

मुझे और सौगातों ने इतना प्रभावित नहीं किया जितना इस झाड़ू ने किया। इस झाड़ू भेजने वाले ने मुझे सचेत कर दिया। इसीलिए मैंने इसे ऐसी जगह पर रखा जहाँ मेरी रोज नजर आती है। मैं सफाई का काम करने का रोज़ प्रयत्न करता हूँ और कुछ सफाई हो भी रही है।”

प्रजा में से किसी व्यक्ति ने झाड़ू भेजा और आइजन हॉवर ने उसे अपने कार्यालय में रख दिया। मैं तुम्हें झाड़ू तो नहीं देता परन्तु तुम्हारे सामने हरिनाम कथा रखता हूँ ताकि तुम भी उससे प्रतिदिन अपने दिल को साफ करके दिलबर का आनंद उभार सको, दिलबर के माधुर्य को पा सको। दिलबर की शांति में डूब सको।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2002, पृष्ठ संख्या 15 अंक 112

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