कर्म कैसे करें ?

कर्म कैसे करें ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के तीसरे अध्याय ‘कर्मयोग’ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्मकर्म परमाप्नोति पूरुषः।।
‘तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भली भाँति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।’ (गीताः 3.19)
मनुष्य जब अनासक्त होकर कर्म करता है, तब उसको परम सत्य की उपलब्धि होती है। परम सत्य क्या है ? – परमात्मा की प्राप्ति।
गीता में परमात्म-प्राप्ति के तीन मार्ग बताये गये हैं- ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, कर्म मार्ग।
शास्त्रों में मुख्यतः दो प्रकार के कर्मों का वर्णन किया गया हैः विहित कर्म और निषिद्ध कर्म। जिन कर्मों को करने के लिए शास्त्रों में उपदेश किया गया है, उन्हें विहित कर्म कहते हैं और जिन कर्मों को करने के लिए शास्त्रों में मना किया गया है, उन्हें निषिद्ध कर्म कहते हैं।
हनुमान जी ने श्रीराम के कार्य के लिए लंका जला दी। उनका यह कार्य विहित कार्य है, क्योंकि उन्होंने अपने स्वामी के सेवाकार्य के रूप में ही लंका जलायी। परंतु उनका अनुसरण करके लोग एक-दूसरे के घर जलाने लग जायें तो यह धर्म नहीं, अधर्म होगा, मनमानी होगी।
हम जैसे-जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही वैसे लोकों की प्राप्ति होती है। इसलिए हमेशा अशुभ कर्मों का त्याग करके शुभ कर्म करने चाहिए।
जो कर्म स्वयं को और दूसरों को भी सुख शांति दें तथा देर-सवेर भगवान तक पहुँचा दें, वे शुभ कर्म हैं और क्षण भर के लिए ही (अस्थायी) सुख दें और भविष्य में अपने को तथा दूसरों को भगवान से दूर कर दें, कष्ट दें, नरकों में पहुँचा दें उन्हें अशुभ कर्म कहते हैं।
किये हुए शुभ या अशुभ कर्म कई जन्मों तक मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते। पूर्व जन्मों के कर्मों के जैसे संस्कार होते हैं, वैसे फल भोगने पड़ते हैं।
महाभारत में एक प्रसंग आता हैः
जब भीष्म पितामह बाणों की शैया पर लेटे हुए थे, तब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से पूछाः “हे केशव ! मैं जानता हूँ कि प्रत्येक प्राणी को अपने कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। मैंने अपने पिछले 72 जन्म देख लिये। उनमें मैंने ऐसा कोई पापकर्म नहीं किया था कि मुझे शरशैया पर सोना पड़े। अब आप ही बताइये कि इसका कारण क्या है ?”
श्रीकृष्ण ने कहाः “पितामह ! आपने पिछले 72 जन्म तो देख लिये, परंतु आप एक जन्म और पीछे जाते तो आप जान लेते कि उस जन्म में आपने एक कीड़े को शूल चुभाकर पीड़ा पहुँचायी थी। उसी पापकर्म का फल आपको इन असंख्य बाणों पर लेटकर भुगतना पड़ रहा है।”
गहना कर्मणो गति….. कर्मों की गति बड़ी गहन होती है। कर्मों की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। कर्म तो जड़ है। कर्मों को पता नहीं है कि ‘मैं कर्म हूँ’। वे वृत्ति से प्रतीत होते हैं। जिस प्रकार के संस्कार होते हैं उसी प्रकार के कर्म प्रतीत होते हैं। यदि विहित संस्कार होते हैं तो पुण्य प्रतीत होता है और निषिद्ध संस्कार होते हैं तो पाप प्रतीत होता है। अतः विहित या शास्त्रोक्त कर्म करें। विहित कर्म भी नियंत्रित होने चाहिए। नियंत्रित विहित कर्म ही धर्म बन जाता है।
सुबह जल्दी उठकर थोड़ी देर के लिए परमात्मा के ध्यान में शांत हो जाना और सूर्योदय से पहले स्नान करना, संध्या-वंदन इत्यादि करना – ये कर्म स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अच्छे हैं और सात्त्विक होने के कारण पुण्यमय भी हैं। परंतु किसी के मन में विपरीत संस्कार पड़े हैं तो वह सोचेगा कि ‘इतनी सुबह उठकर स्नान करके क्या करूँगा ?’ ऐसे लोग सूर्योदय के पश्चात उठते हैं, उठते ही सबसे पहले बिस्तर पर चाय की माँग करते हैं और बिना स्नान किये ही नाश्ता कर लेते हैं – शास्त्रानुसार ये निषिद्ध कर्म हैं। ऐसे लोग वर्त्तमान में भले ही अपने को सुखी मान लें परंतु आगे चलकर शरीर अधिक रोग-शोकग्रस्त होगा। यदि सावधान नहीं रहे तो तमस के कारण नारकीय योनियों में जाना पड़ेगा।
भगवान श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में कहा भी है कि मुझे इन तीन लोकों में न तो कोई कर्तव्य है और न ही प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु अप्राप्त है। फिर भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ।’
इसलिए विहित और नियंत्रित कर्म करें। ऐसा नहीं कि शास्त्रों के अनुसार कर्म तो करते रहे किंतु उनका कोई अंत ही न हो ! कर्मों का इतना अधिक विस्तार न करें कि परमात्मा के लिए घड़ी भर भी समय न मिले। स्कूटर चालू करने के लिए व्यक्ति ‘किक’ लगाता है परंतु चालू होने के बाद भी वह ‘किक’ ही लगाता रहे तो उसके जैसा मूर्ख इस दुनिया में कोई नहीं होगा।
अतः कर्म तो करो परंतु लक्ष्य रखो केवल आत्मज्ञान पाने का, परमात्मसुख पाने का। अनासक्त होकर कर्म करो, साधना समझकर कर्म करो। ईश्वर परायण कर्म, कर्म होते हुए भी ईश्वर को पाने में सहयोगी बन जाता है।
आज आप किसी कार्यालय में काम करते हैं और वेतन लेते हैं तो वह है नौकरी, किंतु किसी धार्मिक संस्था में आप वही काम करते हैं, वेतन नहीं लेते तो आपका वही कर्म धर्म बन जाता है।
धर्म ते बिरती योग ते ज्ञाना….. धर्म से वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्य से मनुष्य की विषय-भोगों में फँस मरने की वृत्ति कम हो जाती है। अगर आपको संसार से वैराग्य उत्पन्न हो रहा है तो समझना कि आप धर्म के रास्ते पर हैं पर अगर राग उत्पन्न हो रहा है तो समझना कि आप अधर्म के मार्ग पर हैं।
विहित कर्म से धर्म उत्पन्न होगा, धर्म से वैराग्य उत्पन्न होगा। पहले जो रागाकार वृत्ति आपको इधर-उधर भटका रही थी, वह शांतस्वरूप में आयेगी तो योग बन जायेगी। योग में वृत्ति एकदम सूक्ष्म हो जायेगी तो बन जायेगी – ऋतम्भरा प्रज्ञा।
विहित संस्कार हों, वृत्ति सूक्ष्मतम हो और ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं के वचनों में श्रद्धा हो तो ब्रह्म का साक्षात्कार करने में देर नहीं लगेगी।
संसारी विषय-भोगों को प्राप्त करने के लिए कितने भी निषिद्ध कर्म करके भोग-भोगे, किंतु भोगने के बाद खिन्नता, बहिर्मुखता अथवा बीमारी के सिवा क्या हाथ लगा ? विहित कर्म करने से जो भगवत्सुख मिलता है वह अंतरात्मा को असीम सुख देने वाला होता है।
जो कर्म होने चाहिए वे ब्रह्मवेत्ता की उपस्थिति मात्र से स्वयं ही होने लगते हैं और जो नहीं होने चाहिए वे कर्म अपने-आप छूट जाते हैं। परमात्मा की दी हुई कर्म करने की शक्ति का सदुपयोग करके परमात्मा को पाने वाले ब्रह्मज्ञानी समस्त कर्मबंधनों से मुक्त हो जाते हैं।
‘गीता’ में भगवान ने कहा भी है कि ‘ब्रह्मज्ञानी महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। वे कर्म तो करते हैं परंतु कर्मबंधन से रहित हो जाते हैं।
एक ब्रह्मज्ञानी महापुरुष पंचदशी पढ़ रहे थे। किसी ने पूछाः “बाबा जी ! आप तो ब्रह्मज्ञानी हैं, जीवन्मुक्त हैं फिर आपको शास्त्र पढ़ने की क्या आवश्यकता है ? आप तो अपनी मस्ती में मस्त हैं फिर पंचदशी पढ़ने का क्या प्रयोजन है ?”
बाबा जीः “मैं देख रहा हूँ कि शास्त्रों में मेरी महिमा का कैसा वर्णन किया गया है।”
अपनी करने की शक्ति का सदुपयोग करके जो ब्रह्मानंद को पा लेते हैं वे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष ब्रह्म से अभिन्न हो जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश उन्हें अपने ही स्वरूप दिखते हैं। वे ब्रह्मा होकर जगत की सृष्टि करते हैं, विष्णु होकर जगत का पालन करते हैं और रुद्र होकर संहार भी करते हैं।
आप भी अपनी करने की शक्ति का सदुपयोग करके उस अमर पद को पा लो। जो भी करो ईश्वर को पाने के लिए ही करो। अपनी अहंता-ममता को आत्मा-परमात्मा में मिलाकर परम प्रसाद में पावन होते जाओ…..
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 3-5, अंक 117
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