Yearly Archives: 2002

दो प्रकार के साधन


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
वेदों में मुख्य रूप से दो प्रकार के साधन बताये गये हैं- विधेयात्मक और निषेधात्मक।
यजुर्वेद के बृहदारण्यक उपनिषद् में आता है अहं ब्रह्मास्मि। अर्थात् ‘मैं ब्रह्म हूँ…’ तो जो मैं-मैं बोलता है, वह वास्तव में ब्रह्म है। लेकिन देह को मैं मानकर आप ब्रह्म नहीं होगे। आपका जोर देह पर है कि चेतन पर ? अहं पर जोर है कि ब्रह्म पर ? अहं ब्रह्मास्मि। ‘मैं ब्रह्म हूँ… मैं साक्षी हूँ….’ तो स्थूल ‘मैं’ पर जोर है कि शुद्ध ‘साक्षी’ पर ? यदि ‘मैं’ पर जोर है तो इससे अहंकार बढ़ने की संभावना है और ‘ब्रह्म1 पर जोर है तो अहंकार के विसर्जन की संभावना है। यह साधना है विधेयात्मक।
‘बीमारी होती है तो शरीर को होती है। दुःख होता है तो मन को होता है। राग-द्वेष होता है तो बुद्धि को होता है। गरीबी-अमीरी सामाजिक व्यवस्था में होती है। मैं इन सबसे निराला हूँ। बीमारी के समय में भी मैं बीमारी का साक्षी हूँ। दुःख के समय भी मन में दुःखाकार वृत्ति हुई उस वृत्ति का मैं साक्षी हूँ….’ इस प्रकार साक्षी स्वभाव…. ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की भावना वाली साधना को बोलते हैं कि विधेयात्मक साधना। किन्तु इसमें अहंकार होने की संभावना है कि ‘मैं ब्रह्म हूँ…. मैं चेतन हूँ… मैं साक्षी हूँ…. ये लोग संसारी हैं। मैं अकर्त्ता हूँ, ये लोग कर्त्ता हैं।’
दूसरी जो निषेधात्मक साधना है उसमें अहंकार के घुसने की जगह नहीं है। कैसे ?
निषेधात्मक साधना में साधक यह चिंतना करता हैः ‘ मैं शरीर नहीं हूँ… इन्द्रियाँ नहीं हूँ… चित्त नहीं हूँ… अहंकार नहीं हूँ…’ इत्यादि। इस प्रकार ‘यह नहीं…. यह नहीं…… नेति…. नेति….. ‘ करते-करते फिर जो बाकी उसमें वह शांत होता जायेगा।
‘मैं आत्म-साक्षात्कार करके ही रहूँगा….’ इसमें अहंकार हो सकता है। ‘मुझे आत्म-साक्षात्कार नहीं करना है…’ यह भी अहंकार है, परंतु ‘मुझे तो पाना है… मुझे अपना अहं मिटाना है….’ तो मिटने में अहंकार को घुसने की जगह नहीं मिलती है। इसलिए वह बड़ा सुरक्षित मार्ग हो जाता है।
इस तरह निषेधात्मक साधना भी विधेयात्मक साधना से ज्यादा सुरक्षित रूप से हमें परमात्मा की विश्रांति में पहुँचा देती है। लेकिन जो निराशावादी हैं उनके लिए निषेधात्मक साधना की अपेक्षा विधेयात्मक साधना ज्यादा लाभकारी है। इसीलिए वेदों में दोनों मार्ग बताये गये हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2002, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 115
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दासबोध


चार प्रकार की मुक्तियाँ होती हैं-
सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य। जिस देवता का भजन-पूजन किया, उसी देवता के लोक में निवास, इसे सालोक्य मुक्ति कहा जाता है।
देवता के समीप रहना – यह सामीप्य मुक्ति है। प्रिय देवता के समान रूप प्राप्त होना – यह सारूप्य मुक्ति है।
स्वर्गलोक में पुण्यों के समाप्त होने पर प्राणी को पुनः मृत्युलोक में धकेल दिया जाता है, अतः ये तीनों मुक्तियाँ विनाशी हैं। केवल सायुज्य मुक्ति अविनाशी और शाश्वत है। महाप्रलय में ब्रह्माण्ड डूब जायेगा, तब पृथ्वी, सुमेरू पर्वत, देवता और उनके लोक आदि सब नष्ट हो जायेंगे। ये सब चंचल हैं। निश्चय ही परब्रह्म मात्र शाश्वत है। उनके साथ तन्मयता अर्थात् सायुज्यता ही शाश्वत है।
सायुज्य मुक्ति का कल्पांत में भी नाश नहीं होता। अन्य तीन मुक्तियाँ सालोक्य, सामीप्य और सारूप्य नाशवान हैं, पर तीनों लोकों का नाश होने पर भी सायुज्य मुक्ति का नाश नहीं हो सकता।
सदगुरु और उनके वचनों पर पूर्ण विश्वास होने पर ही शिष्य सायुज्य मुक्ति अर्थात् मोक्ष का अधिकारी होकर सांसारिक दुःखों से सदा के लिए छुटकारा पा सकता है और शाश्वत सुख को पा लेता है।
जो जीव और शिव, भक्त और ईश्वर का भेद दूर कर भक्त का भगवान से संयोग करा दें, वे ही सदगुरु है।
मायाजाल में फँसकर संसार के दुःखों से पीड़ित हुए जीवों को शांति प्रदान कराने वाले सदगुरु ही हैं।
वासनारूपी महानदी की बाढ़ में डूबते हुए दीनजनों को सदगुरु ही बचाते हैं।
गर्भवास के कारण दुःख से तथा नाना प्रकार की विषय-वासनाओं के शिकार हुए भयभीत जीवों को ज्ञान देकर सदगुरु ही सन्मार्ग पर लगाते हैं।
शब्दार्थों का अचूक विश्लेषण कर उनके सारभूत परमात्म-वस्तु का दर्शन कराने वाले अनाथों के नाथ सदगुरु ही है।
जो एकदेशीय कल्पना से दीन बने हुए जीव को तत्काल ‘तत्त्वमसि’ इस महावाक्य का रहस्य समझाकर ब्रह्मरूपता (देशातीत सत्ता) प्रदान करते हैं, वे ही सदगुरु हैं।
वेदों के अंतरंग में जो गूढ़ परमामृत ज्ञान है उसका वचनमात्र से शिष्य को पान कराने वाले सदगुरु के सिवाय और कौन हो सकते हैं ? वेदशास्त्र और संत दोनों के अनुभव समान हैं और उन अनुभवों की एकरूपता प्राप्त करना यही सदगुरु का स्वरूप है।
जिनमें सद्विद्या के अनंत गुण हैं और जो शिष्य के प्रति अत्यंत आत्मीयता रखते हैं, ऐसे सदगुरु का लाभ जिस शिष्य को मिल जाय, उसका ही जीवन सार्थक है और वही इस संसार में धन्य है। प्रत्येक मुमुक्षु और भक्त को ऐसे ही सदाचारी, पूर्णज्ञानी और लोकमंगल के लिए सेवारत सदगुरु का आश्रय लेना चाहिए। लोगों के दिल में दिलबर का आनंद उभारने वाले मरने के बाद नहीं जीते-जी आत्मसुख में सराबोर करने वाले सदगुरु का आश्रय अहंकार, आसक्ति और ईर्ष्या छोड़कर लेना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2002, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 115
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गुरुमन्त्रपरित्यागी….


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
महाराष्ट्र में समर्थ रामदासजी महाराज प्रसिद्ध संत हो गये। वे छत्रपति शिवाजी के गुरु थे। उनके पास भीतर-बाहर दोनों प्रकार का वैभव था। जबकि तुकाराम जी सीधे-सादे, सरल संत थे। उनका नियम था कि कहीं भी कीर्तन करने जाते तो कीर्तन कराने वालों के घर का भी हलवा पूरी आदि कुछ भी नहीं लेते थे। जाने के लिए रथ आदि का उपयोग नहीं करते वरन् पैदल ही जाते थे। वे बड़ा संयमी और तपस्वी जीवन जीते थे।
संत तुकाराम जी की मण्डली के एक शिष्य ने देखा की समर्थ रामदास जी महाराज की मण्डली के लोग बड़े मजे से जीते हैं। वे अच्छे कपड़े पहनते हैं, हलवा-पूरी खाते हैं। समर्थ शिवाजी जैसे राजा के गुरु हैं, अतः उनके पास खूब अमन-चमन है और उनके शिष्यों को भी खूब मान मिलता है। जबकि हमारे गुरुदेव तुकाराम जी के पास तो कुछ भी नहीं है। न हलवा-पूरी, न गादी-तकिये…
संतों के पास सब प्रकार के लोग होते हैं क्योंकि सब संसार से ही तो आते हैं। आश्रम में आने वाले सब अच्छे ही होते हैं क्या ? इसका मतलब सब खराब हैं – ऐसी बात नहीं है और सब दूध के धोये हुए हैं – ऐसी बात भी नहीं है, फिर भी उन लोगों को धन्यवाद है कि वे संत के पास तो आ गये।
कभी-कभी राजसी-तामसी भक्तों को देखकर सात्त्विक भक्तों की श्रद्धा भी डगमगाने लगती है लेकिन उन्हें चाहिए के वे डगमगायें नहीं, वरन् अपने को समझायें-
वैरी भयंकर हैं विषय, कीड़ा न बन तू भोग का।
चंचलपना मन का मिटा, अभ्यास करके योग का।।
यह चित्त होता मुक्त है, सब ब्रह्म है यह जानकर।
कर दरश सबमें ब्रह्म का, सर्वात्म अनुसंधान कर।।
अपने भक्त का विवेक दृढ़ करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं-
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।
‘इस लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म-मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना चाहिए।’ (गीताः 13.8)
‘तुकाराम जी के पास तो कोई सुविधा नहीं है’ –
ऐसा फरियादात्मक चिंतन करते-करते उस शिष्य को समर्थ रामदास की मण्डली के प्रति आकर्षण हुआ और तुकाराम जी का वह शिष्य समर्थ के पास गया और समर्थ को प्रणाम करके उसने कहाः
“महाराज ! हमें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लीजिये। हम आपकी मण्डली में रहेंगे, कीर्तन आदि करेंगे, सेवा करेंगे।”
समर्थः “तू पहले किसका शिष्य था ?”
“तुकाराम जी महाराज का।”
श्री समर्थ ने सोचा कि ‘जिनकी सत्य में प्रीति है, ऐसे तुकाराम जी जैसे गुरु का त्याग ! आत्म-साक्षात्कारी पुरुष जहाँ हैं वहाँ तो वैकुण्ठ है। ऐसे महापुरुष का त्याग करने की बात इसको कैसे सूझी ?’
समर्थः “तुकाराम जी का शिष्य होते हुए मैं तुझे मंत्र कैसे दे सकता हूँ ? अगर मुझसे मंत्र लेना है, मेरा शिष्य बनना है तो तुकाराम जी की कंठी तुकाराम जी को वापस कर दे और उनका दिया मंत्र भी उन्हें लौटा कर आ।”
समर्थ ने सत्य समझाने के लिए ऐसा कहा था। वह तो खुश हो गया कि ‘मैं अभी तुकाराम जी का त्याग करके आता हूँ और उनका दिया मंत्र और कंठी उनको लौटा देता हूँ।’
‘गुरुभक्तियोग’ में लिखा है कि ‘एक बार सदगुरु करने के बाद उनका कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए। ऐसा करे, इससे तो अच्छा है कि पहले से ही गुरु न करे, चौरासी का चक्कर खाता रहे। जन्म-मृत्यु में भटकता रहे।’
‘श्रीगुरुगीता’ में भगवान शिवजी कहते हैं-
गुरुत्यागाद् भवेन्मृत्युर्मन्त्रत्यागाद्दरिद्रता।
गुरुमन्त्रपरित्यागी रौरवं नरकं व्रजेत्।।
गुरु का त्याग करने से आध्यात्मिक मृत्यु होती है। मंत्र को छोड़ने से दरिद्रता आती है और गुरु तथा मंत्र दोनों का त्याग करने से रौरव नरक मिलता है।
वह शिष्य तुकाराम जी के पास जाकर बोलाः “महाराज ! अब मुझे आपका शिष्य नहीं रहना है।”
तुकाराम जी ने कहाः “मैंने तुझे शिष्य बनाया ही कब था ? तू अपने-आप बना था, भाई ! मैंने कहाँ तुझे चिट्ठी लिखी थी की आ जा। मैंने कहाँ तुझे जबरदस्ती कंठी पहनायी थी। कंठी तो तूने स्वयं अपने हाथों से बाँधी थी और मेरे गुरु ने जो मंत्र दिया है, वही मैंने तुझे सुना दिया था। इसमें मेरा तो कुछ भी नहीं है।”
कैसी निरभिमानिता ! कैसी करुणा !
“महाराज ! मुझे आपकी कंठी नहीं चाहिए।”
तुकाराम जीः “नहीं चाहिए तो तोड़ दे।”
उसने तुरंत कंठी तोड़ दी और बोलाः
“महाराज ! अब अपना मंत्र भी ले लो।”
तुकाराम जी “मंत्र मेरा नहीं है, मेरे गुरुदेव का मंत्र है। ‘आपा जी चैतन्य’ का प्रसाद है। मेरा तो कुछ नहीं है।”
“मुझे नहीं चाहिए आपका मंत्र, मुझे तो दूसरे गुरु करने हैं।”
तुकाराम जीः “मेरे सामने मंत्र बोलकर पत्थर पर थूक दे। मंत्र का त्याग हो जायेगा।”
उस अभागे ने गुरुमंत्र त्यागने के लिए मंत्र बोलकर पत्थर पर थूक दिया। इतने में क्या देखता है वह मंत्र पत्थर पर अंकित हो गया !
शिष्य के कल्याण हेतु तुकाराम जी के संकल्प ने काम किया तभी मंत्र पत्थर पर अंकित हुआ। कैसी होती है महापुरुषों की करुणा-कृपा ! शिष्य के कल्याण के लिए वे कैसी-कैसी युक्तियाँ आजमाते हैं ! फिर भी अभागे शिष्य समझ नहीं पाते।
वह समर्थ के पास गया और बोलाः “महाराज ! मैं मंत्र का त्याग करके आया और कंठी भी तोड़ दी। अब आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिये।”
समर्थ ने पूछाः “मंत्र का त्याग किया उस समय क्या हुआ था ?”
“मंत्र पत्थर पर अंकित हो गया था।”
समर्थः “ऐसे महान गुरुदेव ! जिनका दिया हुआ मंत्र पत्थर पर अंकित हो गया ! पत्थर पर भी उनके दिये मंत्र का प्रभाव पड़ा किन्तु कमबख़्त ! तुझ पर कुछ असर नहीं हुआ तो मेरे मंत्र का भी क्या असर होगा ? तू तो पत्थर से भी गया-बीता है तो इधर क्या करेगा ? हलवा-पूरी खाने के लिए साधु बना है क्या ?”
“मैंने अपने गुरु का त्याग कर दिया और आपने भी मुझे लटकता रखा ?”
समर्थः “तेरे जैसे तो लटकते ही रहेंगे। तेरे लक्षण ही ऐसे हैं। तेरे जैसे गुरुद्रोही को मैं शिष्य बनाऊँगा क्या ? मुझे कहाँ अपराधी बनना है ?”
आत्मज्ञानी सदगुरु का दिया हुआ मंत्र त्यागने से मनुष्य दरिद्र हो जाता है। मंत्र त्यागने से मनुष्य हृदय का अंधा हो जाता है।
कहते हैं- ‘गुरु ने तुमको जो मार्ग बताया, उस मार्ग पर तुम बीसों साल चले, साधना की, फिर गुरु में अश्रद्धा और दोषदर्शन होने लगा तो वहीं पहुँच जाओगे, जहाँ से चलना शुरु किया था। बीसों साल की कमाई का नाश हो जायेगा।’
“महाराज ! मुझे स्वीकार करने की कृपा करें।”
समर्थः “नहीं, यह संभव नहीं है।”
वह शिष्य बहुत रोया-गिड़गिड़ाया। तब करुणा करके समर्थ ने कहाः “तुकाराम जी उदारात्मा हैं। उनसे जाकर मेरी तरफ से प्रार्थना करना कि ‘समर्थ ने प्रणाम कहा है’ और मुझे क्षमा करें।”
वह गया तुकाराम जी के पास और प्रार्थना करने लगा। तुकाराम जी ने सोचा कि समर्थ का भेजा हुआ है तो मैं कैसे इनकार करूँ ? बोलेः
“अच्छा, भाई ! तू आया था, तूने कंठी तोड़ दी। अब फिर से तू ही आया है तो फिर से दे देते हैं। समर्थ ने भेजा है तो चलो ठीक है। समर्थ की जय हो।”
संत-महापुरुष उदारात्मा होते हैं। ऐसे भटके हुए लोगों को थोड़ा सबक सिखाकर ठिकाने लगा देते है। साधक को गिरने से बचा लेते हैं। समर्थ ने समझाया तो समझ गया क्योंकि थोड़ी बहुत भक्ति की हुई थी। आखिर तो तुकाराम जी का शिष्य था, उसमें कुछ सत्त्व तो था ही।
जिसने जीवन में सत्त्व नहीं होता, गुरु का आदर नहीं होता वह कितना भी संसार की चीजों से बचा हुआ दिखे, फिर भी उसका कोई बचाव नहीं होता। उसको यमदूत घसीटकर ले जाते हैं फिर कभी बैल बनता है, कभी पेड़ बनता है, कभी शूकर-कूकर बनता है… बेचारा जीव न जाने कितने-कितने धक्के खाता है और जिसके जीवन में सत्त्व होता है, जो गुरुआज्ञा में चलता है वह फिसलते-फिसलते भी बच जाता है।
जिसे सदगुरु मिल जाते हैं और जो सदगुरु के चरणों में अपना जीवन न्योछावर कर देता है, वह चौरासी के चक्कर से अवश्य बच जाता है।
अनेक कष्ट सहकर भी यदि सदगुरु की प्राप्ति होती है तो सौदा सस्ता है। कबीर जी ने कहा भी हैः
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सिर दीजे सदगुरु मिले, तो भी सस्ता जाना।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2002, अंक 115, पृष्ठ संख्या 20-22
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