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दरिद्र कौन है ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

मैंने सुनी है एक कहानीः-

एक बाबा जी किसी के यहाँ भोजन करने हेतु गये । भोजन के बाद उसने आग्रह करके दक्षिणा के रूप में बाबा जी को चार पैसे दिये। बाबा जी ने सोचा कि ‘अब इस चार पैसे का क्या करना चाहिए ?’

उन्होंने किसी ब्राह्मण से पूछाः “इस चार पैसे का क्या सदुपयोग हो सकता है ?”

ब्राह्मण इज्जत आबरूवाला था। बोलाः “चार पैसे का सदुपयोग ? इससे होम-हवन तो न हो सकेगा। किसी दरिद्र को दे देना।”

बाबा जी ने एक दरिद्र के पास जाकर कहाः “मैं चार पैसे किसी दरिद्र को देना चाहता हूँ। दरिद्र कौन है ?”

उस जमाने में अपने को दरिद्र अथवा भिखमंगा कहलवाना कोई भी पसंद नहीं करता था। उस गरीब ने कहाः “हम दरिद्र नहीं हैं।”

विरक्त बाबा चौराहे पर खड़े हो गये और दल-बल सहित गुजरते राजा से बोलेः “ये ले लो।”

राजा ने सवारी से उतरकर बाबा जी को प्रणाम किया और बाबा ने राजा के हाथ में चार पैसे रखते हुए कहाः “इतने दिनों तक ढूँढा लेकिन कोई दरिद्र न मिला। आप धन के लिए जा रहे हैं तो मेरी तरफ से इतना ले लीजिये। ताकि मेरी चिंता मिटे।”

राजाः “मेरे पास तो इतना बड़ा राज्य है, विशाल सेना है, कई खजाने हैं तो मैं दरिद्र कैसे ?”

बाबा जीः ” जो हिंसा से, बलात्कार से झूठ-कपट और बेईमानी से किसी का धन हरता है, उससे बढ़कर दरिद्र दूसरा कौन हो सकता है ? दरिद्र वह नहीं है जिसके पास धन नहीं है। वरन् जैसे प्यासा आदमी पानी के लिए छटपटाता है, वैसे ही धन होते हुए भी जो और धन पाने के लिए छटपटाता है वह दरिद्र है।”

आद्यशंकराचार्य ने कहा हैः कोऽवा दरिद्रः विशालतृष्णः। ‘दरिद्र कौन है ? जिसकी तृष्णा विशाल है।’

जिसकी इच्छा-वासनाएँ ज्यादा हैं, जिसकी आवश्यकताएँ ज्यादा हैं वह दरिद्र है।

धन की कमी या अधिकता से कोई निर्धन या धनवान नहीं होता। संतोष की कमी वाला आदमी ही निर्धन है और संतोषी आदमी ही धनवान है। समझ की कमी से आदमी निर्धन होता है और सच्ची समझ होने पर आदमी धनवान होता है।

धन किसलिए है चाहता तू आप मालामाल है।

सिक्के सभी जिससे बने तू वह महा टकसाल है।।

चाह न कर चिंता न कर चिंता ही बड़ी दुष्ट है।

है श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ मगर चाह करके भ्रष्ट है।।

किसी ने कहा हैः

चाह चमारी चूहरी अति नीचन को नीच।

तू तो पूरण ब्रह्म था जो चाह न होती बीच।।

जब हृदय में चाह आ जाती है तब आदमी लघु हो जाता है। जिस समय तृष्णा हृदय पर कब्जा कर लेती है, उस समय आदमी तुच्छ हो जाता है और जिस समय अनजाने में भी तृष्णा नहीं रहती उस समय आदमी के चित्त में आनन्द, प्रेम और दिव्यता छलकती है।

वासना मिटाने का पुरुषार्थ ही वास्तविक पुरुषार्थ है। वासना मिटाने का अर्थ यह नहीं है कि जैसी इच्छा हुई वैसा कर लिया। इससे वासना मिटेगी नहीं वरन् गहरी उतर जायेगी। इसलिए ज्ञान का प्रकाश और विवेक का सहारा लेकर वासना को निवृत्त करने का यत्न करना चाहिए।

‘यह मिल गया, अब यह और मिल जाय….’ ऐसी चाह उचित नहीं। विवेक का उपयोग करें कि जो चाहते हैं उसकी आवश्यकता है कि इच्छा ? जो आवश्यकता होगी वह तो अपने-आप सहज में पूरी होती जायेगी। उसके लिए बेचैनी नहीं रहेगी और अगर व्यर्थ की इच्छा होगी तो पूर्ण होने के बाद भी अहंकार या आसक्ति बढ़ा देगी।

बिन जरूरी इच्छा अहंकार बढ़ा देती है। शरीर का गुजारा चलाने के लिए रोजी-रोटी, वस्त्र और मकान की आवश्यकता है। ‘इसके पास एक फ्लैट है तो मेरे पास दो हैं।’ इस प्रकार के भाव से एक फ्लैटवाले के आगे दो फ्लैटवाले का अहंकार खड़ा हो जायेगा। पड़ोसी की पत्नी लड़ाकू होगी तो लगेगा, ‘हम भाग्यशाली हैं कि अच्छी पत्नी मिली है।’

लेकिन भैया ! दो फ्लैट भी कब तक और अच्छी पत्नी भी कब तक ? पत्नी भी कभी बीमार पड़ेगी तो कभी मायके चली जायेगी। इसी प्रकार या तो धन चला जायेगा या धन को छोड़कर आप चले जायेंगे। जहाँ चाह रखी, वहीं नियति कुछ-न-कुछ मुसीबत जरूर खड़ी कर देगी। भोले बाबा ने कहा हैः

मानव तुझे नहीं याद क्या ? तू ब्रह्म का ही अंश है।

कुल गोत्र तेरा ब्रह्म है, सद्ब्रह्म तेरा वंश है।।

संसार तेरा घर नहीं, दो चार दिन रहना यहाँ।

कर याद अपने राज्य की, स्वराज्य की निष्कंटक जहाँ।।

अपनी असलियत को जान लो कि आप वास्तव में कौन हो ? आपका वास्तविक स्वरूप क्या है ? आप कितने महिमावान हो ? आप कितने धनवान हो ?

फिर चाहे आयकर वाले छापा मारें या कोई बम-धड़ाका करे लेकिन वे आपका बाल तक बाँका नहीं कर सकते, आप (आपका आत्मा) इतने महान हो।

अपनी महिमा को नहीं जानते इसीलिए आप परेशान रहते हो। सात्विक साधना और दिव्य स्वभाव के अपने आत्मप्रभाव को नहीं जानते इसीलिए आप परिस्थितियों के गुलाम हो जाते हो, यह जानते हुए भी कि परिस्थितियाँ सदा एक जैसी नहीं रहती हैं।

जो विश्वास अपने अंतर्यामी परमात्मा पर करना चाहिए वह विश्वास अगर अपनी तंदुरुस्ती पर किया तो जरूर बीमारी आ जायेगी। जो विश्वास अपने आत्मस्वरूप पर करना चाहिए वह अगर धन पर किया तो धन में गड़बड़ हो जायेगी। जो विश्वास अपने ईश्वर पर करना चाहिए वह विश्वास यदि अपने मित्रों सम्बन्धियों पर किया तो वे अवश्य धोखा दे देंगे। जो विश्वास अपने स्वरूप पर होना चाहिए वह विश्वास अगर व्यक्तियों, स्थूल परिस्थितियों तथा स्थूल पदार्थों पर किया तो अवश्य पछताना पड़ेगा।

यह दैवी सिद्धान्त है कि ज्यों-ज्यों आप अपनी आत्मा पर निर्भर होते हो, त्यों-त्यों जगत की चीजें आपकी सहायता हेतु, सेवा के लिए आकर्षित हो जाती है और ज्यों-ज्यों आप अपने अंतर्यामी से विमुख होने जाते हो, त्यों-त्यों वे चीजें आपसे दूर भागने लगती हैं। यदि आप सूर्य की तरफ आगे बढ़ते हो तो छाया आपके पीछे आती है और यदि सूर्य को पीठ देकर छाया को पकड़ने जाते हो तो छाया दूर-दूर भागती है।

अतः सदैव अपने अंतर्यामी ईश्वर पर भरोसा रखें। अपनी इच्छाएँ-वासनाएँ घटाते जायें और ईश्वर प्रीति बढ़ाते जायें क्योंकि इच्छा ही मनुष्य को सब होते हुए भी दरिद्र बना देती है। जिसके पास बाहर का पूरा साम्राज्य होते हुए भी अगर भीतर में वासना है तो वह सम्राट होते हुए भी कंगाल है और जिसके पास ठीक से रहने को झोंपड़ा नहीं है, ठीक से खाने को अन्न नहीं है, ठीक से पहनने को वस्त्र नहीं है फिर भी यदि उसके जीवन में कोई इच्छा-वासना नहीं है तो वह परम धनवान है। उसके जैसा सुखी त्रिलोकी में कोई नहीं….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 4-6, अंक 114

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जैसा खाओ अन्न….


बासमती चावल बेचने वाले एक सेठ की स्टेशन मास्टर से साँठ-गाँठ हो गयी। सेठ को आधी कीमत पर बासमती चावल मिलने लगा। सेठ को हुआ कि इतना पाप हो रहा है तो कुछ धर्म-कर्म भी करना चाहिए।

एक दिन उसने बासमती चावल की खीर बनवायी और किसी साधु बाबा को आमंत्रित कर भोजन प्रसाद लेने के लिए प्रार्थना की।

साधु बाबा ने बासमती चावल की खीर खायी। दोपहर का समय था। सेठ ने कहाः

“महाराज ! अभी आराम कीजिए। थोड़ी धूप कम हो जाय फिर पधारियेगा।”

साधु बाबा ने बात स्वीकार कर ली। सेठ ने 100-100 रूपये वाली 10 लाख जितनी रकम की गड्डियाँ उसी कमरे में चादर से ढँककर रख दी।

साधु बाबा आराम करने लगे। खीर थोड़ी हजम हुई। चोरी के चावल थे। साधु बाबा के मन में हुआ  कि इतनी सारी गड्डियाँ पड़ी हैं, एक-दो उठाकर झोले में रख लूँ तो किसको पता चलेगा ? साधु बाबा ने एक गड्डी उठाकर रख ली। शाम हुई तो सेठ को आशीर्वाद देकर चल पड़े।

सेठ दूसरे दिन रूपये गिनने बैठा तो 1 गड्डी (दस हजार रुपये) कम निकली। सेठ ने सोचा कि महात्मा तो भगवत्पुरुष थे, वे क्यों लेंगे ? नौकरों की धुलाई-पिटाई चालू हो गयी। ऐसा करते-करते दोपहर हो गयी।

इतने में साधु बाबा आ पहुँचे तथा अपने झोले में से गड्डी निकाल कर सेठ को देते हुए बोलेः

“नौकरों को मत पीटना, गड्डी मैं ले गया था।”

सेठ ने कहाः “महाराज ! आप क्यों लेंगे ? जब यहाँ नौकरों से पूछताछ शुरु हुई तब कोई भय के मारे आपको दे गया होगा और आप नौकर को बचाने के उद्देश्य से ही वापस करने आये हैं क्योंकि साधु तो दयालु होते हैं।”

साधुः “यह दयालुता नहीं है। मैं सचमुच में तुम्हारी गड्डी चुराकर ले गया था। सेठ ! तुम सच बताओ कि तुम कल खीर किसकी और किसलिए बनायी थी ?”

सेठ ने सारी बात बता दी कि स्टेशन मास्टर से चोरी के चावल खरीदता हूँ, उसी चावल की खीर थी।

साधु बाबाः “चोरी के चावल की खीर थी इसलिए उसने मेरे मन में भी चोरी का भाव उत्पन्न कर दिया। सुबह जब पेट खाली हुआ, तेरी खीर का सफाया हो गया तब मेरी बुद्धि शुद्ध हुई कि ‘हे राम…. यह क्या हो गया ? मेरे कारण बेचारे नौकरों पर न जाने क्या बीत रही होगी। इसलिए तेरे पैसे लौटाने आ गया।”

इसीलिए कहते हैं किः

जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन। जैसा पीओ पानी वैसी होवे वाणी।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 17 अंक 114

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जल-पान विचार


तृप्ति, संतोष व उत्साह की उत्पत्ति, अन्न के पाचन, रसादि धातुओं के रूपान्तरण और सम्पूर्ण शरीर में रक्त के यथायोग्य परिभ्रमण के लिए जल तथा अन्य पेय पदार्थों की आवश्यकता होती है। सभी पेय पदार्थों में पानी सर्वश्रेष्ठ है। इसे जीवन कहा गया है। शारीरिक बल, आरोग्य और पुष्टि की वृद्धि में जल सहायक होता है।

पानी कब, कितना और कैसे पीना चाहिए ? इसके बारे में संशय उत्पन्न हो जाय, इतने मत-मतान्तर प्रचलित हैं। आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार पानी का समयानुसार प्रयोग अलग-अलग परिणाम दिखाता है।

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्।

भोजने चामृतं वारि भोजनान्ति विषप्रदम्।।

‘अर्थात् अजीर्ण होने पर जलपान औषधवत् काम करता है। भोजन के पच जाने पर अर्थात् दो घंटे बाद पानी पीना बलदायक होता है। भोजन के मध्यकाल में पानी पीना अमृत के समान और भोजन के अंतकाल में विष के समान अर्थात् पाचनक्रिया के लिए हानिकारक होता है।’

जठराग्नि प्रदीप्त रखने के लिए थोड़ा-थोड़ा पानी बार-बार पीना चाहिए। भोजन से पहले पानी पीने से जठराग्नि मंद हो जाती है, शरीर कृश हो जाता है। भोजन के बाद तुरंत पानी पीने से स्थूलता आती है परन्तु भोजन के बीच में पानी पीने से पाचनक्रिया ठीक होती है, धातुसाम्य व शरीर का संतुलन बना रहता है।

आमाशय के चार भाग मानकर दो भाग अन्न सेवन करें। एक भाग जल तथा पेय पदार्थों से भरें और एक भाग वायु के संचरण के लिए रखें। यह उचित भोजन पद्धति है। इससे भोजन के बाद पेट में भारीपन, हृदय की गति में अवरोध अथवा श्वासोच्छ्वास में कष्ट का अनुभव नहीं होता है।

स्वस्थ, निरोगी अवस्था में पानी की अधिक आवश्यकता नहीं होती। ग्रीष्म व शरद ऋतु को छोड़कर अन्य ऋतुओं में पानी कम मात्रा में ही पीना चाहिए। इन दो ऋतुओं में नैसर्गिक उष्णता व पित्त प्रकोप हो जाने के कारण पानी की अधिक आवश्यकता होती है।

जल पान के साथ इस बात पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि भोजन में पानी का उपयोग, द्रव-तरल व स्निग्ध पदार्थों का समावेश सही मात्रा में हो। भोजन रूखा-सूखा नहीं होना चाहिए। भोजन में पतली दाल, सब्जी, कढ़ी, रस, छाछ आदि का समावेश करने से पानी की आवश्यक मात्रा की पूर्ति अपने-आप हो जाती है।

ऊषःपान

ऊषःपान अर्थात् सूर्योदय से पहले पानी पीना। आयुर्वेद के ‘योगरत्नाकर ग्रंथ’ में इसके बारे में लिखा गया हैः

विगत घननिशीथे प्रातरूत्थान नित्यं।

पिबति खलु नरो यो घ्राणरन्ध्रेण वारि।।

स भवतिमतिपूर्णश्चक्षुषातार्क्ष्यतुल्यः।

वलियलितविहीनः सर्वरोगविमुक्तः।।

प्रातः सूर्योदय से पहले, कुल्ला करके, रात का रखा हुआ दो से चार बड़े गिलास अर्थात् आधे से सवा लीटर पानी रोज नियमित रूप से पीने से सब रोगों से मुक्ति होती है। ऊषःपान से मति व दृष्टि गरूड़ के समान तीक्ष्ण हो जाती है।

अनेक कष्टसाध्य बीमारियों जैसे-मधुमेह, दमा, संधिवात, अम्लपित्त, मोटापा तथा पेट के विविध प्रकार के रोगों, स्त्रियों के अनियमित मासिक तथा श्वेतप्रदर में इस प्रयोग से चमत्कारिक लाभ दिखायी देते हैं।

यह अत्यंत सरल प्रयोग प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है। प्रारम्भ में एक साथ चार गिलास पानी नहीं पी सकें तो एक गिलास से शुरु करके धीरे-धीरे एक-एक गिलास बढ़ाते जायें। फिर नियमित रूप से यह प्रयोग जारी रखें। प्रातः पानी पीने के बाद लगभग एक घंटे तक कुछ खाये पियें नहीं। सुबह के अल्पाहार तथा दोपहर व रात्रि के भोजन के बाद दो घंटे बीत जाने पर ही पानी पीयें।

जल पान के लिए ताम्र का पात्र आरोग्यप्रदायक व पवित्र माना जाता है। जल चिकित्सा (हाइड्रोथैरेपी) के अनुसार रात भर ताँबे के बर्तन में रखा हुआ पानी अधिक लाभदायी है। ताँबे का बर्तन भी जमीन के ऊपर न रखा हो। उसे लकड़ी जैसे विद्युत के कुचालक पदार्थ पर रखना चाहिए। सुबह वह पानी पीते समय पीने वाले के पैर भी जमीने का स्पर्श न करें यानी कम्बल या टाट पर बैठकर पानी पीना चाहिए।

विविध व्याधियों में जल-पान विचार

1.ज्वरः ज्वर में उबालकर आधा किया हुआ पानी ही पिलायें। तीव्र ज्वर में अधिक पानी की आवश्यकता होती है। 1 लीटर पानी में सोंठ, पित्तपापड़ा, नागरमोथ, खस, कालीखस, चंदन इऩ सबका 1-1 ग्राम चूर्ण मिलाकर पानी एक चौथाई रह जाय तब तक उबालें। फिर छानकर, ठंडा किया हुआ पानी थोड़ा-थोड़ा करके बार-बार रोगी को पिलायें। इस समय 72 घंटे अन्य औषध या आहार न दें। इससे आम का पाचन होने से ज्वर से छुटकारा मिलता है।

2.सूतिकावस्थाः प्रसूति के बाद अजवायन, वायविडंग व जीरा डालकर उबाला हुआ पानी पीने से अनेक व्याधियों से रक्षा होती है। भूख खुलकर लगती है व गर्भाशय की शुद्धि होती है।

3.अजीर्ण, अफरा व पेट के अन्य विकारः एक लीटर पानी में एक चम्मच अजवायन  डालकर उबालें। जब पानी आधा रह जाय तब छानकर गुनगुना पानी बार-बार रोगी को पिलायें।

4.अतिसारः उपरोक्त विधि (नंबर 3) में अजवायन की जगह साबुत सौंठ डालकर पानी बनायें। कपड़े से दो बार छानकर यह पानी दिनभर पीने के काम में लायें। आहार न लें। इससे आम का पाचन व मल का संग्रहण होता है।

बहूमूत्रता (पेशाब का अधिक आना), दमा, श्वास व अन्य कफविकारों में भी यह सिद्ध जल बहुत लाभदायी है। लाभ होने के बाद भी कुछ दिन तक यह प्रयोग चालू रखें।

पित्तविकारः उपरोक्त विधि (नंबर 3) में अजवायन की जगह सूखे धनिये का बनाया हुआ सिद्ध जल शरीर तथा आँखों की जलन, अम्लपित्त, पेट के छाले, खूनी बवासीर में अत्यंत उपयोगी है। मिश्री मिलाकर पीने से अधिक फायदा होता है।

चाय काफी तथा अन्य मादक द्रव्यों का सेवन करने वाले व्यक्तियों हेतु यह प्रयोग विषनाशक है।

उष्णोदक पान

गुनगुना पानी आम का नाश करने वाला, अग्निदीपक व कफ-वातनाशक होता है। उष्णोदक पान (गरम पानी) से मल-मूत्र की प्रवृत्ति साफ होती है। श्वास व कास (खाँसी) व्याधियों में उष्णोदक पान हितावह है।

मोटापे में प्यास लगने पर अथवा भोजन के बीच में भी केवल उष्णोदक पान करने से वज़न घटने लगता है। सुबह हलके गुनगुने पानी में शहद मिलाकर लें। गरम पानी व शहद मिलाकर लेना विरुद्ध आहार होने के कारण निषिद्ध है।

जल-पान निषेध

जलोदर में पानी पूर्णतः निषिद्ध है।

प्लीहावृद्धि, पांडुरोग, अतिसार, बवासीर, ग्रहणी, मंदाग्नि व सूजन में अत्यन्त आवश्यक हो तभी अल्प मात्रा में तथा उपरोक्त विधि से औषध द्रव्यों से बनाया हुआ सिद्ध जल ही देना चाहिए।

अत्यंत शीतल जल का सेवन न करें। इससे गले के रोग, कफ तथा वातविकार व अग्निमांद्य होने की संभावना रहती है।

तेज धूप से आकर व अत्यन्त भूख लगने पर पानी पीना विषपान करने के समान है।

बासी पानी का प्रयोग बहुत प्यास लगने पर भी न करें। यह अम्लधर्मी होने के कारण कफ को बढ़ाता है।

अंजलि से पानी नहीं पीना चाहिए।

आजकल प्यास लगने पर अथवा भोजन के समय भी पानी की जगह कोल्ड ड्रिंक्स अथवा आईसक्रीम का उपयोग फैशन के नाम पर किया जाता है। ये शरीर में थोड़े समय के लिए तो ठंडक उत्पन्न करते हैं परन्तु आंतरिक गर्मी को बढ़ाते हैं, मज्जाजंतुओं को उद्दीप्त करते हैं और कामोत्तेजना बढ़ाते हैं। इनके सेवन से झूठी भूख लगती है व स्थूलता आती है। अतः इनका सेवन न करें।

साँईं श्री लीलाशाह जी उपचार केन्द्र, जहाँगीर पुरा, सूरत।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 114

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