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शिवाजी की दयालुता


शिवाजी जयंतीः 19 फरवरी 2002

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

छत्रपति शिवाजी समर्थ रामदासजी के श्रीचरणों में जाते थे। दरबारी के बेटे शिवाजी ने समर्थ की कृपा से मुट्ठीभर मराठों को लेकर तोरण का किला जीत लिया। इसके अलावा उन्होंने की मुगलों को भी हराया। मुगलों की नाक में दम ला दिया था शिवाजी ने…

औरंगजेब ने देखा कि शिवाजी को वश करना बड़ा मुश्किल है। यह बड़ा प्राणबलवाला व्यक्ति है। अतः औरंगजेब ने युक्ति से काम लेते हुए समझौता करने के बहाने शिवाजी को बुलाया।

शिवाजी ने भी सोचा कि युद्ध की अपेक्षा मित्रता से जीना अच्छा है। दोस्ती का हाथ सदा साथ…. शिवाजी ने अपने बेटे शंभाजी और सेनापति तानाजी तथा अन्य सहायकों को साथ लेकर दिल्ली गये।

समझौते के बहाने दिल्ली बुलाकर औरंगजेब ने शिवाजी को जेल में बन्द कर दिया। शिवाजी ने देखा कि ‘औरंगजेब ने धोखे से हमें जेल में डाल दिया है लेकिन इसमें चिंता की कोई बात नहीं।’ वे गुरुकृपा से, युक्ति से जेल से फरार हो गये।

रात्रि को शिवाजी रास्ता तय करते और दिन को कहीं छिपकर रहते। चलते-चलते जंगल के कंटकीले रास्तों को पार करते-करते एक रात्रि को आगरा के पास सुलतानपुर के जंगल में पहुँचे। रात्रि को पानी पीने के लिए गये तो एक शेर ने उन पर हमला कर दिया। शिवाजी बिना हथियार के शेर से जूझे एवं शेर को मार तो गिराया लेकिन शेर के पंजे ऐसे गहरे लगे कि शिवाजी के शरीर के कई अंगों से मांस बाहर निकल आया।

पीड़ित शिवाजी का इलाज बस्ती में ही हो सकता था। अतः उन्हें बस्ती की शरण लेनी पड़ी। पास की बस्ती में वे विनायक ब्राह्मण के घर रहे। वह ब्राह्मण बड़ा गरीब था। उसकी गरीबी देखकर शिवाजी ने अपने साथियों को वहाँ से रवाना कर दिया और अकेले ही उसके घर में रहे।

एक दिन विनायक ब्राह्मण ने शिवाजी को भोजन करा दिया लेकिन स्वयं भोजन नहीं किया। शिवाजी ने पूछाः “आपने भोजन क्यों नहीं किया ?”

विनायक ब्राह्मण पहले तो टालता रहा लेकिन बार-बार पूछने पर कहाः “मैं गरीब ब्राह्मण हूँ। आज मुझे भिक्षा में इतना ही मिला था कि अतिथि को खिला पाता। मैं घर से दुःखी होकर इधर एकांत में रह रहा था और आपकी सेवा मिल गयी।”

शिवाजी का हृदय पसीज उठा। उनको हुआ कि ‘महाराष्ट्र में होता तो इसे हीरे-मोती से तौल देता। लेकिन यह महाराष्ट्र आयेगा नहीं और भेजूँगा तो इसके हाथ पहुँचेगा भी नहीं क्या पता ? अगर मिल भी गया तो विनायक ब्राह्मण चुप नहीं बैठेगा और औरंगजेब इसको सतायेगा। चलो, मैं चिट्ठी ही लिख देता हूँ।’

शिवाजी ने चिट्ठी लिखी और विनायक ब्राह्मण को कहाः “आप इसे सुलतान के सूबेदार को दे आयें।”

सूबेदार को चिट्ठी मिली उसमें लिखा थाः ‘अगर शिवाजी की कोई खबर देगा तो उसे दो हजार रुपये इनाम मिलेगा – औरंगजेब का ऐसा ढँढेरा है। तू दो हजार रुपये ले आओ। शिवाजी विनायक ब्राह्मण के घर पर मिल जायेगा। ऐ सूबेदार के बच्चे ! अगर खाली हाथ मुझे पकड़ने आया तो तुम्हारी ऐसी की तैसी कर दूँगा।’

शिवाजी का हौसला कितना बुलंद रहा होगा ! जेल से भाग निकले हैं, शेर के दो-दो पंजे लगे हुए हैं… विपत्ति में पड़कर विनायक ब्राह्मण के यहाँ रहना पड़ रहा है… उसके यहाँ भोजन कर रहे हैं तो उसका कैसा बदला चुका रहे हैं !

सूबेदार बीस पठानों के साथ दो हजार रुपये की थैली लेकर पहुँचा और थैली देकर शिवाजी को गिरफ्तार कर लिया।

अतिथि को गिरफ्तार देखकर ब्राह्मण सिर पटक-पटककर रोने लगा। ताना जी उसके पड़ोस में छिपकर रहते थे। ब्राह्मण का रुदन सुनकर वहाँ आये तो देखा कि ‘सूबेदार शिवाजी को बंदी बनाकर ले जा रहा था।’।

ताना जी ने विनायक ब्राह्मण से सारी बात जान ली। विनायक ब्राह्मण ताना जी से कहता हैः

“आप यह दो हजार रुपये की थैली ले लो। मुझे फाँसी पर चढ़ा दो लेकिन मेरे अतिथि को बचा लो। मेरे घर से एक मुसलमान मेरे हिन्दू भाई को बंदी बनाकर ले गया। यह मैं कैसे सह सकता हूँ ?”

ताना जीः “ना, ना। मैं यह अधर्म नहीं करूँगा लेकिन आपको पता है कि अतिथि कौन था ?”

विनायकः “नाम तो नहीं बताया था। उन्होंने बात को गुप्त रखने का वचन लिया था तो मैं कैसे पूछता कि अतिथि कौन है ? लेकिन अतिथि मेरे देश का था, हिन्दू था।”

ताना जी ने कहाः “आप अपना हौसला बुलंद रखें घबराये नहीं और भावुकता में भी न बहें। वे अतिथि थे – महाराष्ट्र के छत्रपति शिवाजी।”

यह सुनकर ब्राह्मण के तो होश ही उड़ गये ! वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। ताना जी ने पानी छिड़कर कर उसकी मूर्छा दूर की। उसको सांत्वना दी और हिम्मत बँधाई।

भाव के साथ विचार और श्रद्धा का होना अत्यंत जरूरी है। जिसके पास केवल विचार है और श्रद्धा नहीं है वह मनुष्य कहलाने के लायक ही नहीं है और जिसके पास श्रद्धा है, भाव है और विचार का आश्रय नहीं लेता है वह भाव के बहाव में ही बह जाता है।

विनायक ब्राह्मण कहता हैः “कुछ भी करो लेकिन शिवाजी को बचाओ।”

ताना जीः “सब ठीक हो जायेगा। आप चिंता न करें।”

ताना जी दो हजार रुपये लेकर चल दिये। सारी जानकारी एकत्रित कर ली कि सूबेदार शिवाजी को औरंगजेब के पास किस रास्ते से ले जायेगा और साथ में कितने पठान होंगे।

ताना जी को युक्ति सूझ गयी। उन्होंने पचास लड़ाकू स्वभाव के व्यक्तियों को पगार पर रख लिया। उन पचास व्यक्तियों में जोश भरकर उन्हें तैयार किया और जिस रास्ते से शिवाजी को ले जाने वाले थे, उस रास्ते में सब छिप गये।

ज्यों ही सुलतान शिवाजी को लेकर वहाँ से निकला, त्यों ही ताना जी ने पचास व्यक्तियों समेत उस पर धावा बोल दिया। ताना जी ने सुलतान समेत पच्चीस पठानों को यमपुरी पहुँचा दिया और शिवाजी को महाराष्ट्र ले गये।

कैसा व्यक्तित्व था, भारत के उस छत्रपति का ! अपनी सुरक्षा के लिए विनायक ब्राह्मण के घर रहे लेकिन देखा कि मेरे कारण ब्राह्मण को भूखा रहना पड़ा तो अपनी जान तक को जोखिम में डाल दिया ! ऐसे व्यक्ति ही इतिहास में अमर हो पाते हैं जो मानवीय संवेदना और सत्शास्त्रों की सूझ-बूझ से सम्पन्न हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 19,20 अंक 110

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शासक को पुरस्कार


भारत के चक्रवर्ती सम्राट अशोक का जन्म दिवस था। जन्मदिवस पर चारों दिशाओं से आये हुए अपने शासकों से अशोक ने समाचार पूछे।

पूर्वी दिशा से आये हुए शासक ने कहाः

“महाराज की जय हो। हमने अपनी सेना दुगनी कर ली है और ऐसा कड़ा प्रबंध किया है कि राज्य के विरोधी अब हमारी ओर आँख तक उठाकर नहीं देख सकते।”

उत्तर दिशा के शासक ने कहाः

“सम्राट के जन्म दिवस पर कोटि-कोटि बधाइयाँ। महाराज खूब जियें। शुभ समाचार यह है कि उत्तरी शासन की आय तिगुनी हो गयी है। सम्राट के खजाने में अब तिगुनी सम्पत्ति भेजी जा सकेगी।”

दक्षिण दिशा के शासक ने कहाः

“महाराज की जय हो। दक्षिणी शासन की ओर से दुगना सोना भेजा जा सकेगा।”

पश्चिम दिशा के मगध के शासक ने कहाः

“महाराज ! क्षमा करें। आपके राज्य में इस साल आय भेज पायेंगे अथवा नहीं, इसमें संदेह है क्योंकि हमने प्रजा पर से कर का बोझ कम कर दिया है और जो रिश्वत लेकर गुजारा करते थे उन अधिकारियों की आवश्यकता देखकर उनका वेतन बढ़ा दिया है। महाराज ! हमने पाठशालाएँ खुलवायी हैं। नगरजनों के बच्चों को उचित शिक्षा मिल सके एवं वे पढ़ाई में कमजोर न रह जायें इसके लिए ईमानदार अधिकारियों की नियुक्ति कर दी है।

इसके अलावा हमने अलग-अलग स्थानों पर कुएँ, बावड़ियाँ, धर्मशालाएँ आदि बनवायी हैं। इन सबमें हमने राज्य का धन खर्च कर दिया है। महाराज ! हमारे यहाँ आवश्यकतानुसार खर्च करने के उपरांत धन बचेगा तो आपके यहाँ भेजेंगे। महाराज ! फिर जैसी आपकी आज्ञा।”

सम्राट अपने सिंहासन से उठ खड़े हुए एवं बोलेः “आज मेरे जन्म दिवस पर पुरस्कार किसे दिया जाये ? क्या मेरे खजाने में तीन गुनी संपदा जमा करने वाले को अथवा सैन्यशक्ति बढ़ाने वाले को ? नहीं। मानवता की शक्ति, शांति और माधुर्य बढ़ाने वाले इस सत्पात्र मगध शासक का मैं जितना भी आदर करूँ, मुझे कम लगता है।

आओ मित्र ! गले लगो। संकोच छोड़ो, इस पुरस्कार से अन्य शासकों को प्रेरणा मिलेगी कि शासक कैसा होना चाहिए। मेरे पवित्र सिद्धान्तों पर चलने वाले पवित्रात्मा मेरे ही स्वरूप हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 17,18 अंक 110

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मानव-जीवन के बीस दोष


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

महाभारत के अनुशासन पर्व में देवगुरु बृहृस्पति एवं धर्मराज युधिष्ठिर का संवाद आता है। धर्मराज युधिष्ठिर के पूछने पर धर्मशास्त्रज्ञ, संयममूर्ति, देवों से पूजित, देवगुरु बृहस्पतिजी जीव के दोषों एवं उनकी गति का वर्णन करते हुए कहते हैं-

1.जो ब्राह्मण चारों वेदों का अध्ययन करने के बाद भी मोहवश पतित व्यक्ति का दान लेता है, वह 15 वर्ष तक गधे की योनि में रहकर 7 वर्ष तक बैल बनता है। बैल का शरीर छूटने पर 3 मास तक ब्रह्मराक्षस होता है।

2.जो ब्राह्मण पतित पुरुष का यज्ञ कराता है, वह मरने के बाद 15 वर्ष कीड़ा बनता है। फिर 5 वर्ष गधा, 5 वर्ष शूकर, 5 वर्ष मुर्गा, 5 वर्ष सियार और 1 वर्ष कुत्ता होता है।

3.धर्मराज युधिष्ठिर हाथ जोड़कर नम्रता से प्रश्न करते हैं- “हे देवगुरु बृहस्पति जी ! जो शिष्य मूर्खतावश गुरु का अपराध करता है, गुरु हित चाहते हैं फिर भी गुरु की बात को महत्त्व नहीं देता है और अपने मान-अपमान को पकड़कर, गुरु के कहने का सीधा अर्थ नहीं लेता है उसकी क्या गति होती है ?”

बृहस्पति जी बोलेः “इस अपराध से वह मरने के बाद कुत्ते की योनि में जाता है और भौं-भौं करता रहता है, बकवास करता है। गुरु अपने हित की बात बतायें और वह सफाई देता है तो देता रहे… रात भर भौंकता रहे, ऐसी कुत्ते की योनि उसे मिलती है। उसके बाद राक्षस एवं गधे की योनि में भटकता है, फिर प्रेत-योनि में भटकता है। इस प्रकार अनेक कष्ट भुगतने के बाद उसे मनुष्य योनि मिलती है।”

4.जो शिष्य मूर्खतावश गुरु की बात का अनादर करता है उसको पशु योनि मिलती है और हिंसक मनुष्यों के बाण सहने पड़ते हैं। गुरु हित की बात करें और शिष्य न सुने तो फिर वह ऐसी पाशवी नीच योनियों में जायेगा कि दुःख-पीड़ा सहेगा, मरेगा-जन्मेगा और अन्य पशुओं से, शिकारियों से शोषित होगा….

5.जो पुत्र अपने माता-पिता का अनादर करता है वह भी मरने के बाद पहले 10 साल तक गधे का शरीर पाता है। फिर 1 साल तक घड़ियाल की योनि में रहने के बाद मानव-योनि का अवसर पाता है।

6.जिस पुत्र पर माता-पिता रुष्ट हों, उसकी क्या गति होती है ? वह मरकर 10 मास तक गधे की योनि में, 14 महीने तक कुत्ते की योनि में और 7 माह तक बिलाव की योनि में भटककर फिर मनुष्य होने का अवसर पाता है।

7.जो व्यक्ति माता-पिता को गाली देता है, तू कहकर बुलाता है – ‘ऐ बुढ़िया ! तू चुप रह। ऐ बुड्ढे ! तू चुप रह। तू क्या जाने ?’ ऐसा व्यक्ति मरने के बाद मैना बनता है।

8.जो माता-पिता को मारता है वह 10 वर्ष तक कछुआ होता है। वैसे तो कछुए की आयु लंबी होती है लेकिन वह 10 वर्ष तक कछुआ रहकर मर जाता है फिर 3 वर्ष तक साही और 6 महीने तक सर्प होता है।

9.जो किसी राजा का सेवक होते हुए भी मोहवश राजा के शत्रुओं की सेवा करता है अथवा जो गुरु का सेवक है लेकिन गुरु की सेवा के बहाने उनकी अवहेलना करके उनके उपदेश के विपरीत काम करता है, वह मरने के बाद 10 वर्ष तक वानर, 5 वर्ष चूहा और 6 महीने तक कुत्ता होकर फिर मनुष्य-शरीर को पाता है।

10.दूसरों की धरोहर हड़पने वाला मनुष्य यमलोक में जाता है और क्रमशः सौ योनियों में भ्रमण करके अंत में 15 वर्ष तक कीड़ा होता है।

11.जो दूसरों के दोष देखता है और एक दूसरे को चिढ़ाता रहता है वह हिरण की योनि में जन्म लेता है।

12.दूसरों से विश्वासघात करने वाला 8 वर्ष तक मछली की योनि में भटकता है, 4 मास तक मृग बनता है, 1 वर्ष तक बकरा होने के बाद कीड़े की योनि में जन्म लेता है। इस प्रकार की नीच योनियों को भोगने के बाद उसे मनुष्य योनि मिलती है।

13.जो अनाज चुराता है वह मरने के बाद पहले चूहा बनता है। फिर गोदाम में से अनाज चुराते रहो और बिल में ले जाओ….। चूहे की योनि के बाद सूअर की योनि पाता है। वह सुअर जन्म लेते ही रोग से मर जाता है। फिर 5 वर्ष तक कुत्ता होने के पश्चात मनुष्य जन्म पाता है।

14.परस्त्रीगमन का पाप करके मनुष्य क्रमशः भेड़िया, कुत्ता, सियार, गीध, साँप, कंक (सफेद चील) और बगुला होता है।

15.जो भाई की स्त्री के साथ व्यभिचार करता है, वह 1 वर्ष तक कोयल की योनि में पड़ा रहता है।

16.जो मित्र, गुरु और राजा की पत्नी के साथ कुकर्म करता है वह 5 वर्ष तक सुअर, 10 वर्ष तक भेड़िया, 5 वर्ष तक बिलाव, 10 वर्ष तक मुर्गा, 3 महीने तक चींटी और 14 महीने तक कीड़े की योनि में रहता है। ऐसे करते-कराते फिर मनुष्य योनि में आने का वह अवसर पाता है।

17.जो यज्ञ, दान अथवा विवाह के शुभ वातावरण में विघ्न डालता है वह 15 वर्ष तक कीड़े की योनि में जन्म लेता है।

18.बड़ा भाई पिता के समान होता है। जो बड़े भाई का अनादर करता है उसे मृत्यु के बाद 1 वर्ष तक क्रौंच पक्षी की योनि में रहना पड़ता है। फिर वह चीरक की जाति का पक्षी होता है, उसके बाद मनुष्य योनि में आता है।

19.जो कृतघ्न है अर्थात् किसी के द्वारा की गयी भलाई या उपकार को न मानने वाला, ऐसे व्यक्ति को यमलोक में बड़ी कठोर यातनाएँ मिलती हैं। उसके पश्चात 15 वर्ष तक कीड़े की योनि में जन्मता है। फिर पशुओं के गर्भ में आकर गर्भावस्था में ही मर जाता है। इस प्रकार सौ बार गर्भ की यंत्रणा भोगकर फिर तिर्यग (पक्षी) योनि में जन्म लेता है। इन योनियों में बहुत वर्षों तक दुःख भोगने के पश्चात वह फिर कछुआ होता है।

20.जो मानव विश्वासपूर्वक रखी हुई किसी की धरोहर को हड़प लेता है, वह मछली की योनि में जन्म पाता है। फिर मनुष्य बनता है लेकिन उसकी आयु बहुत कम होती है। मनुष्य तो बनता है, गर्भ की पीड़ा सहता है, बचपन की मारपीट सहता है और कुछ समझने की उम्र आती है तब तक तो मर जाता है। जैसे तुम्हारी मानवीय सृष्टि में 307 के केस की कितनी सज़ा…. पहले से निर्धारित है, ऐसे ही ईश्वरीय सृष्टि का कायदा भी पहले से ही बना-बनाया है। इन कर्मजन्य, भावजन्य, विचारजन्य, संगजन्य आदि दोषों से बचने का उपाय है-सत्संग एवं भगवन्नाम-जप, जिनसे अपनी मति-गति एवं कर्म ऊँचे बन जाते हैं और ईश्वरार्पण बुद्धि से किये गये सत्कर्म नैष्कर्म सिद्धि देकर ईश्वरप्राप्ति करा देते हैं। अतः बुद्धिमान मनुष्यों को चाहिए कि वे नीच कर्मों से बचें एवं ईश्वरीय आनंद ईश्वरीय सुख को पा लें और मुक्त हो जायें। नीच कर्मवाले निगुरे व्यक्ति नीच योनियों में भटकते हैं और सत्कर्म में रत सत्संगी-सन्मार्गी सत्पद को पाते हैं।

जिसके जीवन में सत्संग नहीं होगा, भगवन्नाम-जप नहीं होगा, जो सावधान नहीं होगा, वह, इन 20 दोषों में से किसी-न-किसी दोष का शिकार बन जायेगा। चाहे विश्वासघाती बने, चाहे कृतघ्नी बने, चाहे विघ्न डालने वाला बने, चाहे बड़े भाई का अनादर करने वाला बने, चाहे माता-पिता का अनादर करने वाला बने…. लेकिन ईश्वर के मार्ग पर चलने से भाई, माता-पिता, कुटुम्बी कोई भी रोके तो उनकी बात की अवहेलना करने से कोई पाप नहीं लगता है। इन 20 दोषों से बचने हेतु सत्शास्त्र का पठन-मनन और सच्चे संतों का सत्संग सर्वोपरि है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 12, अंक 110

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