मनुष्य दुःखी क्यों है ?

मनुष्य दुःखी क्यों है ?


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

मनुष्य को अपने चित्त को किसी भी परिस्थिति व प्रसंग में दुःखी नहीं होने देना चाहिए । अगर चित्त दुःखी हुए बिना नहीं रहता है तो भगवान के चरणों में प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘हे प्रभु ! इस दुःखरूप संसार से बचाकर हमें आत्मज्ञान के प्रकाश की ओर ले चल, मोह-माया से छुड़ाकर सत्यस्वरूप आत्मा की ओर ले चल ।’ इस तरह करुण प्रार्थना करके भगवान या गुरु के निमित्त बनाकर उनके आगे अपने दुःख को बाहर निकाल देना चाहिए, उसे पी नहीं जाना चाहिए ।

वास्तव में मनुष्य दुःखी क्यों है ? क्योंकि जो वर्तमान में है उसकी कद्र नहीं और दूसरे को देखकर फरियाद करता रहता है । मैंने सुनी है एक कथाः

मोर का बच्चा रो रहा था । मोरनी बोलीः “बिट्टू क्यों रोता है ?”

बच्चा बोलाः “देखो, मैना का बच्चा कितना सुंदर है, कितना बढ़िया है !”

मोरनी बोलीः “चल, मैं तुझे उसके पास ले चलती हूँ ।”

गये तो मैना का बच्चा रो रहा था ।

मैना ने अपने बच्चे से पूछाः “तू क्यों रोता है ?”

बोलाः “मोर का बच्चा कितना सुंदर है !”

तो मोर का बच्चा समझता है कि मैना का बच्चा बढ़िया है और मैना का बच्चा समझता है मोर का बच्चा बढ़िया है । सेठ समझता है कि अफसर की मौज है और अफसर समझता है सेठों की मौज है । कुछ पुरुषों को यह भ्रम है कि स्त्रियाँ सुखी हैं और कुछ स्त्रियों को भ्रम है कि पुरुष सुखी हैं ।

‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ काकभुशुण्डिजी वसिष्ठ जी से कहते हैं- ‘हे मुनीश्वर ! जो कुछ ऐश्वर्यसूचक सुंदर पदार्थ हैं वे सब असत् रूप हैं । पृथ्वी पर चक्रवर्ती राजा और स्वर्ग में गंधर्व, विद्याधर, किन्नर, देवता और उनकी स्त्रियाँ व देवताओं की सेना आदि सब नाशवान हैं । मनुष्य, दैत्य, देवता तथा पहाड़, सरोवर, नदियाँ आदि जो कुछ बड़े पदार्थ हैं वे सभी नाशवान हैं  स्वर्ग, पृथ्वी व पाताल लोक में जो कुछ भोग हैं वे सब असत् और अशुभ हैं । कोई पदार्थ श्रेष्ठ नहीं । न पृथ्वी का राज्य श्रेष्ठ है, न देवताओं का रूप श्रेष्ठ है और न नागों का पाताल लोक श्रेष्ठ है, न बहुत जीना श्रेष्ठ है, न मूढ़ता से मर जाना श्रेष्ठ है, न नरक में पड़ना श्रेष्ठ है और न इस त्रिलोकी में अन्य कोई पदार्थ श्रेष्ठ है । जहाँ संत का मन स्थित है वही श्रेष्ठ है ।’

सुबह  उठकर उस सुखस्वरूप प्रभु में बैठ जाओः ‘मेरा परमात्मा सत् है, चित् है, आनंदस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है । हे मेरे प्यारे !

दीन दयाल बिरिदु संभारी ।

हरहु नाथ मम संकट भारी ।।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।’

तुम तो भगवत्स्मृति करो, भगवदाकार वृत्ति करो । शत्रुआकार वृत्ति होगी तो अंदर में जलन होगी । भयाकार वृत्ति, द्वेषाकार वृत्ति, रागाकार वृत्ति, मोहाकार वृत्ति – ये सब हम लोगों को फँसाने वाली वृत्तियाँ हैं । वृत्ति में डर आ गया तो भय पैदा होगा  अथवा राग पैदा होगा, द्वेष पैदा होगा, चिंता पैदा होगी और इससे हमारी शक्तियों का ह्रास होता है । तो क्या करें ?

हम भगवान के हैं, भगवान हमारे हैं और भगवान हमारे परम हितैषी हैं, परम सुहृद हैं । भगवान को अपना मान लो, जो कुछ सुख-दुःख आता है उसको साक्षीभाव से देखो, यथोचित व्यवहार करो, अपना उद्देश्य ऊँचा रखो । इससे सारे दुःखों के सिर पर पैर रखने की कला आ जायेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 194

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