जीवन में चाहे कितनी भी विघ्न बाधाएँ आयें और चाहे कितने भी प्रलोभन आयें किन्तु उनसे प्रभावित न होकर जो शिष्य गुरुसेवा में जुटा रहता है, वह गुरु का कृपापात्र बन पाता है । जिसने पूर्ण गुरु की कृपा पचा ली उसे पूर्ण ज्ञान भी पच जाता है । अनेक विषम कसौटियों में भी जिसकी गुरुभक्ति विचलित नहीं होती उसका ही जीवन धन्य है । गुरु अर्जुनदेव जी के पास मंझ नामक एक जमींदार आया और बोलाः “कृपा करके मुझे शिष्य बना लीजिये ।”
गुरु
अर्जुनदेव जीः “तुम किसको मानते हो ?”
“सखी सरवर को । हमारे घर पर उनका मंदिर भी है ।”
“जाओ, उनको प्रणाम करके छुट्टी दे दो और मंदिर गिराकर
आ जाओ ।”
“जी, जो आज्ञा ।”
मंदिर
तोड़ देना कोई मजाक की बात नहीं है किंतु जमींदार की श्रद्धा थी, ‘गुरु की आज्ञा से कर
रहा हूँ, कोई बात नहीं’ – यह भाव था, अतः उसने मंदिर तुड़वा दिया । मंदिर
तुड़वाने से समाज के लोगों ने उसका बहिष्कार कर दिया और उसकी खूब निंदा करने लगे ।
इधर जमींदार पहुँच गया गुरु अर्जुनदेवजी के चरणों में । जमींदार की योग्यता को
देखकर अर्जुनदेव जी ने उसे दीक्षा दे दी एवं साधना की विधि बतला दी ।
अब
वह जमींदार इधर-उधर के रीति-रिवाजों में नष्ट न करते हुए गुरुमंत्र का जप करने
लगा, ध्यान करने लगा । उसका पूरा रहन-सहन बदल गया । खेती-बाड़ी में ध्यान कम देने
लगा । उसकी एक के बाद एक परीक्षाएँ होने लगीं । उसका घोड़ा मर गया, कुछ बैल मर गये
। चोरों ने उसकी कुछ सम्पत्ति को चुरा
लिया । समाज के लोगों द्वारा अब ज्यादा विरोध होने लगा और सभी लेनदारों ने उससे एक
साथ पैसे माँगे । जमींदार मंझ ने अपनी जमीन गिरवी रखकर सबके पैसे चुका दिये और
स्वयं किसी के खेत में मजदूरी करने लगा । उस समय ब्याज की दर ऐसी थी कि जो जमीन
गिरवी रख देता था उसका ऊपर उठना असंभव-सा था । एक समय का जमींदार मंझ अब स्वयं एक
मजदूर के रूप में काम करने लगा, फिर भी गुरु के श्रीचरणों में उसकी प्रीति कम न
हुई । कुछ समय बाद मंझ को गाँव छोड़कर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अन्य गाँव जाना
पड़ा । वह घास काटकर उसे बेचके गुजारा करने लगा । अर्जुनदेव जी जाँच करवायी तो पता
चला कि पूरे समाज से वह अलग हो गया है, समाज ने उसे बहिष्कार कर दिया है फिर भी
उसकी श्रद्धा नहीं टूटी है । यह जानकर वे बहुत प्रसन्न हुए । समाज से बहिष्कृत मंझ
ने गुरु के हृदय में स्थान बना लिया ।
कुछ
समय पश्चात गुरु ने पुनः जाँच करवायी तो पता चला कि उसकी आय ऐसी है कि कमाये तो
खाये और न कमाये तो भूखा रहना पड़े । गुरु ने शिष्य के हाथों मंझ को चिट्ठी भेजी ।
शिष्य को समझा दिया था कि “बीस रूपये चढ़ावा लेने
के बाद ही यह चिट्ठी उसे देना ।”
गुरु
को कहाँ रूपये चाहिए ? किंतु शिष्य की श्रद्धा को परखने एवं उसकी योग्यता
को बढ़ाने के लिए गुरु कसौटी करते हैं । सच ही तो है कि कंचन को भी कसौटी पर खरा
उतरने के लिए कई बार अग्नि में तपना पड़ता है ।
गुरु
की चिट्ठी पाने के लिए मंझ ने पत्नी से कहाः “बीस रूपये चाहिए ।”
उस
जमाने के बीस रूपये आज के पाँच-सात हजार से कम नहीं हो सकते । पत्नी बोलीः “नाथ ! मेरे सुहाग की दो
चूड़ियाँ हैं और जेवर हैं । उन्हें बेच दीजिये और गुरुदेव को रूपये भेज दीजिये ।”
चूड़ियाँ
और जेवर बेचकर बीस रूपये गुरु के पास भिजवा दिये । गुरुदेव ने देखा कि अब भी
श्रद्धा नहीं डगमगायी ! कुछ समय के बाद दूसरी चिट्ठी भेजी, इस बार पच्चीस
रूपये की माँग की गयी थी ।
अब
रूपये कहाँ से लायें ? घर में फूटी कौड़ी भी न थी । मंझ को याद आया कि ‘गाँव के मुखिया ने
अपने बेटे के साथ मेरी बेटी के विवाह का प्रस्ताव रखा था ।’ उस समय जातिवाद का
बोलबाला था और मंझ की तुलना में मुखिया की जाति छोटी थी । मंझ ने मुखिया के आगे
प्रस्ताव रखाः “मैं अपनी बेटी की सगाई आपके बेटे से कर सकता हूँ
लेकिन मुझे आपकी तरफ से केवल पच्चीस रूपये चाहिए और कुछ भी नहीं ।”
मंझ
ने एक छोटे खानदान के लड़के से अपनी बेटी की शादी करने में छोटी जाति का, छोटे
विचार के लोगों, किसी का भी ख्याल नहीं किया । धन्य है उसकी गुरुनिष्ठा !
गुरु
ने देखा कि अब भी इसकी श्रद्धा नहीं टूटी । गुरु ने संदेश भेजाः “इधर आकर आश्रम का रसोई
घर सँभालो । रसोईघर में काम करो और लोगों को भोजन बनाकर खिलाओ ।
मंझ
गुरु आज्ञा शिरोधार्य करके रसोईघर में काम करने लगा । कुछ समय के बाद गुरु ने अपने
एक शिष्य से पूछाः “मंझ रसोई घर तो
सँभालता है किंतु खाना कहाँ खाता है ?”
शिष्य
ने कहाः “गुरुदेव ! वह लंगर (भण्डारा)
में सबको जिमाकर फिर वहीं पर भोजन पा लेता है ।”
गुरु
बोलेः “मंझ सच्ची सेवा नहीं करता । वह कार्य के बदले में
भोजन प्राप्त करता है । यह निष्काम सेवा नहीं है ।”
गुरु
का संकेत मंझ ने शिरोधार्य किया । दूसरे दिन से मंझ दिन में रसोई घर में सेवा करके
जंगल में जाता लकड़ियाँ काटके बाजार में बेचता और अपने परिवार के आहार की व्यवस्था
करता । कुछ दिन ऐसा चलता रहा । एक दिन गुरुद्वारे में लकड़ी की कमी होने से भाई
मंझ शाम के वक्त लकड़ियाँ लेने जंगल में गया । लकड़ियाँ काटने के बाद तूफान के
कारण मंझ लकड़ियों का गट्ठर सिर पर रखकर पेड़ के नीचे आश्रय लेने गया लेकिन हवा के
तीव्र वेग से वह एक कुएँ में गिर गया ।
एकाएक
गुरु अर्जुनदेव ने अपने कुछ शिष्यों को बुलाया और एक लम्बा रस्सा तथा लकड़ी का
तख्ता लेकर जंगल की ओर चल दिये । शिष्यों को आश्चर्य हुआ । एक कुएँ के पास जाकर
गुरु ने कहाः “इस कुएँ के तले में मंझ है । उसे आवाज दो और कहो कि
रस्से से बाँधकर हम तख्त को उतारते हैं । तुम उसे पकड़ लेना, तब ऊपर खींच लेंगे ।”
बाद
में कुछ बातें एक व्यक्ति के कान में कहीं और वह बात भी मंझ को बताने का संकेत
किया । उस व्यक्ति ने मंझ से कहाः “भाई ! तुम्हारी दयनीय दशा
हो गयी । तुम ऐसे क्रूर गुरु को क्यों मानते हो ? तुम उनका त्याग क्यों
नहीं करते ? तुम उनको भूल जाओ ।”
मंझ
ने भीतर से तेज आवाज में उत्तर दियाः “मेरे गुरु क्रूर हैं
ऐसी बात कहने की तुम हिम्मत कैसे करते हो ! मेरे लिए उनके दिल
में सिर्फ करूणा है । ऐसे बेशर्मी के शब्द कभी मत कहना !”
गुरु
ने उस आदमी को स्वयं भेजा था मंझ की श्रद्धा तुड़वाने के लिए किंतु वाह रे मंझ ! मंझ ने कहाः “गुरुनिंदा सुनने के बजाय कुएँ में भूखा
मरूँगा लेकिन गुरु का होकर मरूँगा, निगुरों-निंदकों का होकर नहीं मरूँगा । निगुरों
का, निंदकों का होकर अमर होना भी बुरा है, गुरु का होकर मरना भी भला है ।”
भाई
मंझ ने पहले सिर पर उठाकर रखी हुई सूखी लकड़ियाँ तख्त पर रख दीं और कहाः “पहले इन लकड़ियों को
बाहर निकालो । ये गुरु के रसोई घर के लिए हैं । ये गीली हो जायेगी तो जलाने के काम
नहीं आयेगी ।”
लकड़ियाँ
बाहर निकाली गयीं । बाद में मंझ को भी बाहर निकाला गया । बाहर निकलते ही मंझ ने
गुरु को देखा । उनके चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया । मंझ को उठाकर उसके कंधों को
थपथपाते हुए गुरु अर्जुनदेव ने कहाः “मुझे तुम पर गर्व है ! तुमने अडिग श्रद्धा,
साहस और भक्ति के साथ सब कसौटियों का सामना किया और उनमें सफल हुए हो । तुमको
तीनों लोक देकर मुझे प्रसन्नता होगी ।”
भाई
मंझ की आँखों से अश्रुधाराएँ बहने लगीं । उसने कहाः “मैं वरदान के रूप में
आपसे आपको ही माँगता हूँ, और किसी वस्तु में मेरी प्रीति नहीं है ।”
गुरु
ने मंझ को आलिंगन कर लिया और कहाः
“मंझ पिआरा गुरु का, गुरु मंझ पिआरा ।
मंझ गुरु का बोहिथा, जग लंघणहारा ।।
मंझ
गुरु का प्यारा है और गुरु मंझ को प्यारे हैं । मंझ भवपार लगाने वाली गुरु की नौका
है ।”
गुरु
ने मंझ को सत्य का बोध करा दिया । कैसी विषम परिस्थितियाँ ! फिर भी मंझ हारा नहीं
। कितने प्रयास किये गये श्रद्धा हिलाने के लिए किंतु मंझ की श्रद्धा डिगी नहीं ।
तभी तो उसके लिए गुरु के हृदय से भी निकल पड़ाः ‘मंझ तो मेरा प्यारा है
। मंझ भवपार लगाने वाली गुरु की नौका है ।’
धन्य
है मंझ की गुरुभक्ति ! धन्य है उसकी निष्ठा और धन्य है उसका गुरुप्रेम !
स्रोतः
ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 5-7 अंक 198
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