(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
संसारियों को कई गुत्थियों का हल नहीं मिल पाता । यदि मिल भी जाता है तो एक को राज़ी करने के लिए दूसरे को नाराज़ करना पड़ता है । जबकि ज्ञानियों के लिए उन गुत्थियों को हल करना आसान होता है ज्ञानी महापुरुष ऐसी दक्षता से गुत्थी सुलझा देते हैं कि किसी भी पक्ष को खराब न लगे । इसीलिए देवर्षि नारद जी की बातें देव-दानव दोनों मानते थे ।
ऐसी ही एक घटना मेरे गुरुदेव के साथ परदेश में घटी थीः एयरपोर्ट पर गुरुदेव को लेने के लिए बड़ी-बड़ी हस्तियाँ आयी थीं । कई लोग अपनी-अपनी बड़ी आलीशान गाड़ियों में गुरुदेव को बैठाने के लिए उत्सुक थे । एक दो आगेवानों के कहने से और सब तो मान गये लेकिन दो भक्त हठ पर उतर गयेः “गुरुदेव बैठेंगे तो मेरी ही गाड़ी में !” मामला जटिल हो गया । दोनों में से एक भी टस से मस होने को तैयार न था । इन दोनों भक्तों की जिद अन्य भक्तों के लिए सिरदर्द बन गयी ।
एक न कहाः “यदि पूज्य गुरुदेव मेरी गाड़ी में नहीं बैठेंगे तो मैं गाड़ी के नीचे सो जाऊँगा ।”
दूसरे ने कहाः “पूज्य गुरुदेव मेरी गाड़ी में नहीं बैठेंगे तो मैं जीवित न रहूँगा ।”
ऐसी परिस्थिति में क्या करें, क्या न करें यह किसी की समझ में नहीं आ रहा था । दोनों बड़ी हस्तियाँ थीं, अहं का दायरा भी बड़ा था । दोनों में से किसी को भी बुरा न लगे ऐसा सभी भक्त चाहते थे । इतने में तो मेरे गुरुदेव का जहाज हवाई अड्डे पर आ गया । पूज्य गुरुदेव बाहर आये तब समितिवालों ने गुरुदेव का भव्य स्वागत करके खूब नम्रता से परिस्थिति से अवगत कराया एवं पूछाः “साँईं ! अब क्या करें ?”
ब्रह्मवेत्ता महापुरुष कभी-कभी ही परदेश पधारते हैं । अतः स्वाभाविक है कि प्रत्येक व्यक्ति निकट का सान्निध्य प्राप्त करने का प्रयत्न करे । प्रेम से प्रयत्न करना अलग बात है और नासमझ की तरह जिद करना अलग बात है । संत तो प्रेम से वश हो जाते हैं जबकि जिद के साथ नासमझी उपरामता ले आती है । लोगों ने कहाः “दोनों का पास एक दूसरे से टक्कर ले ऐसी गाड़ियाँ एवं निवास हैं । बहुत समझाया पर मानते नहीं हैं । हमारी गाड़ी में बैठकर हमारे घर आयें ऐसी जिद लेकर बैठे हैं । अब आप ही इसका हल बताने की कृपा करें । हमें कुछ सूझता नहीं है ।”
पूज्य गुरुदेव बड़ी सरलता एवं सहजता से बोलेः “भाई ! इसमें चिंता करने जैसी बात ही कहाँ है ? सीधी बात है और सरल हल है । जिसकी गाड़ी में बैठूँगा उसके घर नहीं जाऊँगा और जिसके घर जाऊँगा उसकी गाड़ी में नहीं बैठूँगा । अब निश्चय कर लो ।”
उस जटिल गुत्थी को गुरुदेव ने चुटकी बजाते हल कर दिया कि ‘एक की गाड़ी, दूसरे का घर !’
दोनों पूज्य गुरुदेव के आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गयेः “गुरुदेव ! आप जिस गाड़ी में बैठना चाहते हैं उसी में बैठें । आपकी मर्जी के अनुसार ही होने दें ।”
थोड़ी देर पहले तो हठ पर उतरे थे परंतु संत के व्यवहार-कुशलतापूर्ण हल से दोनों ने जिद छोड़कर निर्णय भी संत की मर्जी पर ही छोड़ दिया ! प्राणिमात्र के परम हितैषी संतजनों द्वारा सदैव सर्व का हित ही होता है ।
ब्रह्मगिआनी ते कछु बुरा न भइया ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 21 अंक 200
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ