सत्शास्त्रों का आदर

सत्शास्त्रों का आदर


ग्रंथों में देखा जाय तो कागज और स्याही होती है और होते हैं वर्णमाला के अक्षर, जो तुम विद्यालय में पढ़े हो, पढ़ाते हो । लेकिन फिर भी वे अक्षर सत्संग के द्वारा दुहराये जाते हैं और उस ढंग से छप जाते हैं तब वह पुस्तक नहीं रहती, वह स्याही और कागज नहीं रहता, वह शास्त्र हो जाता है और हम उसे शिरोधार्य करके, उसकी शोभायात्रा निकालकर अपने प्रेम और पुण्य स्वभाव को जागृत करते हैं । जिन ग्रंथों में संतों की वाणी है, संतों का अनुभव है, उन ग्रंथों का आदर होना ही चाहिए । हमारे जीवन में ये सत्शास्त्र अत्यधिक उपयोगी हैं । उनका आदरसहित अध्ययन करके एवं उनके अनुसार आचरण करके हम अपने जीवन को उन्नत कर सकते हैं ।

स्वामी विवेकानंद तो यहाँ तक कहते हैं कि जिस घर में सत्साहित्य नहीं वह घर नहीं वरन् श्मशान है, भूतों का बसेरा है ।

अतः अपने घर में तो सत्साहित्य रखें और पढ़ें ही किंतु औरों को भी सत्साहित्य पढ़ने की प्रेरणा देते रहें । उसमें आपका तो कल्याण होगा ही, औरों के कल्याण में भी आप सहभागी बन जायेंगे ।

मुँह से उँगली गीली करके सत्पुरुषों की वाणी का पन्ना नहीं पलटना चाहिए । पवित्रता  और आदर से संतों की वाणी को पढ़ने वाला ज्यादा लाभ पाता है । सामान्य पुस्तकों की तरह सत्संग की पुस्तक पढ़कर इधर उधऱ नहीं रख देनी चाहिए । जिसमें परमात्मा की, महापुरुषों की अनुभूति है, जो परमात्मशांति देने वाली है वह तो पुस्तक नहीं शास्त्र है । उसका जितना अधिक आदर, उतना अधिक लाभ !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 23 अंक 200

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *