दिव्य औषधिः पंचगव्य

दिव्य औषधिः पंचगव्य


गोमूत्र, गोबर का रस, गोदुग्ध, गोदधि व गोघृत का निश्चित अनुपास में मिश्रण ‘पंचगव्य’ कहलाता है । जैसे पृथ्वी, जल, तेज आदि पंचमहाभूत सृष्टि का आधार हैं, वैसे ही स्वस्थ, सुखी व सुसम्पन्न जीवन का आधार गौ प्रदत्त ये पाँच अनमोल द्रव्य हैं । पंचगव्य मनुष्य के शरीर को शुद्ध कर स्वस्थ, सात्त्विक व बलवान बनाता है । इसके सेवन से तन-मन-बुद्धि के विकार दूर होकर आयुष्य बल और तेज की वृद्धि होती है ।

गव्यं पवित्रं च रसायनं च पथ्यं च हृद्यं बलबुद्धिदंस्यात् ।

आयुं प्रदं रक्तविकारहारि त्रिदोष हृद्रोगविषापहं स्यात् ।।

अर्थात् पंचगव्य परम पवित्र रसायन है, पथ्यकर है । हृदय को आनंद देने वाला तथा आयु-बल-बुद्धि प्रदान करने वाला । यह त्रिदोषों का शमन करने वाला, रक्त के समस्त विकारों को दूर करने वाला, हृदयरोग एवं विष के प्रभाव को दूर करने वाला है ।

इसके द्वारा कायिक, वाचिक, मानसिक आदि पाप संताप दूर हो जाते हैं ।

पंचगव्यं प्राशनं महापातकनाशनम् । (महाभारत)

सभी प्रकार के प्रायश्चितों में, धार्मिक कृत्यों व यज्ञों में पंचगव्य-प्राशन का विधान है । वेदों, पुराणों एवं धर्मशास्त्रों में पंचगव्य की निर्माण-विधि एवं सेवन-विधि का वर्णन आता है । पंचगव्य शास्त्रोक्त रीति से अत्यंत शुचिता, पवित्रता व मंत्रोच्चारण के साथ बनाया जाता है ।

पंचगव्य निर्माण विधिः

धर्मशास्त्रों में प्रसिद्ध ग्रंथ ‘धर्मसिंधु‘ के अनुसार पंचगव्य के पाँचों द्रव्यों का अनुपात इस प्रकार हैः-

गोघृत – 8 भाग, गोदुग्ध 1 भाग, गोदधि – 10 भाग, गोमूत्र – 8 भाग, गोबर का रस – 1 भाग और कुशोदक – 4 भाग ।

बोधायन स्मृति‘ में इन पाँच द्रव्यों का अनुपात इस प्रकार हैः-

गोघृत – 1 भाग, गोदधि 2 भाग, गोबर का रस – आधा भाग, गोमूत्र – 1 भाग, दूध – 3 भाग और कुशोदक – 1 भाग ।

80 वर्ष के एक अनुभवी वैद्य के अनुसार द्रव्यों का अनुपातः-

गोझरण – 20 भाग, गोघृत – ढाई भाग, गोदुग्ध – 10 भाग, गोबर का रस – डेढ़ भाग व गोदधि – 5 भाग ।

विशेष ध्यान देने योग्य बातें-

1. उपर्युक्त द्रव्य देशी नस्ल की स्वस्थ गाय के होने चाहिए ।

2. गोबर को ज्यों-का-त्यों मिश्रण में नहीं डालना चाहिए बल्कि उसकी जगह गोबर के रस का उपयोग करें ।

ताजे गोबर में सूती कपड़ा दबाकर रखें । कुछ समय बाद उसे निकालकर निचोड़ने से गोबर का रस अर्थात् गोमय रस प्राप्त होता है ।

3. कुश (डाभ) का पंचांग एक दिन तक गंगाजल में डुबोकर रखने से कुशोदक बन जाता है ।

गोमूत्र के अधिष्ठातृ देवता वरुण, गोबर के अग्नि, दूध के सोम, दही के वायु, घृत के सूर्य और कुशोदक के देवता विष्णु माने गये हैं । इन सभी द्रव्यों को एकत्र करने तथा पंचगव्य का पान करने आदि के भिन्न-भिन्न मंत्र शास्त्रों में बताये गये हैं । इन सभी द्रव्यों को एक ही पात्र में डालते समय निम्नलिखित श्लोकों का तीन बार उच्चारण करें-

गोमूत्र

गोमूत्रं सर्वशुद्ध्यर्थं पवित्रं पापशोधनम् ।

आपदो हरते नित्यं पात्रे तन्निक्षिपाम्यहम् ।।

गोमय

अग्रमग्रश्चरन्तीनां औषधीनां रसोद्भवम् ।

तासां वृषभपत्नीनां पात्रे तन्निक्षिपाम्यहम् ।।

गोदुग्ध

पयं पुण्यतमं प्रोक्तं धेनुभ्यश्च समुद्भवम् ।

सर्वशुद्धिकरं दिव्यं पात्रे तन्निक्षिपाम्यहम् ।।

गोदधि

चन्द्रकुन्दसमं शीतं स्वच्छं वारिविवर्जितम् ।

किंचिदाम्लरसालं च क्षिपेत् पात्रे च सुन्दरम् ।।

गोघृत

इदं घृतं महद्दिव्यं पवित्रं पापशोधनम् ।

सर्वपुष्टिकरं चैव पात्रे तन्निक्षिपाम्यहम् ।।

कुशोदक

कुशमूले स्थितो ब्रह्मा कुशमध्ये जनार्दनः ।

कुशाग्रे शंकरो देवस्तेन युक्तं करोम्यहम् ।।

सर्वप्रथम उपरोक्त द्रव्यों से संबंधित मंत्रों का उच्चारण करते हुए सभी को एकत्र करें । बाद में प्रणव (ॐ) के उच्चारण के साथ कुश से हिलाते हुए उनको मिश्रित करें ।

सेवन-विधिः पंचगव्य सुवर्ण अथवा चाँदी के पात्र में या पलाश-पत्र के दोने में लेकर निम्न मंत्र के तीन बार उच्चारण के पश्चात खाली पेट सेवन करना चाहिए ।

यत् त्वगस्थिगतं पापं देहे तिष्ठति मामके ।

प्राशनात् पंचगव्यस्य दहत्वग्निरिवेन्धनम् ।।

अर्थात् त्वचा, मज्जा, मेधा, रक्त और हड्डियों तक जो पाप मुझमें प्रविष्ट हो गये हैं, वे सब मेरे इस पंचगव्य-प्राशन से वैसे ही नष्ट हो जायें, जैसे प्रज्जवलित अग्नि में सूखी लकड़ी डालने पर भस्म हो जाती है । (महाभारत)

पंचगव्य सेवन की मात्राः बच्चों के लिए 10 ग्राम और बड़ों के लिए 20 ग्राम । पंचगव्य सेवन के पश्चात कम-से-कम 3 घंटे तक कुछ भी न खायें ।

पंचगव्य के नियमित सेवन से मानसिक व्याधियाँ पूर्णतः नष्ट हो जाती हैं । विषैली औषधियों के सेवन से तथा लम्बी बीमारी से शरीर में संचित हुए विष का प्रभाव भी निश्चितरूप से नष्ट हो जाता है । गोमाता से प्राप्त होने वाला, अल्प प्रयास और अल्प खर्च में मानव-जीवन को सुरक्षित  बनाने वाला यह अद्भुत रसायन है ।

पंचगव्य घृत

गौ-प्रदत्त उपरोक्त पाँचों द्रव्यों को समान मात्रा में मिलाकर तत्पश्चात अग्नि पर पकाकर ‘पंचगव्य घृत’ बनाया जाता है । इसका उपयोग विशेषतः मानसिक विकारों में किया जाता है । इसके नियमित सेवन से मनोदैन्य, मनोविभ्रम, मानसिक अवसाद (डिप्रैशन) आदि लक्षण तथा उन्माद, अपस्मार आदि मानसिक व्याधियाँ धीरे-धीरे दूर होने लगती हैं ।

बनाने की विधिः गोमूत्र, गोबर का रस, दूध, दही तथा घी समान मात्रा में लें । कढ़ाई में पहले घी गर्म करें । गर्म घी में क्रमशः गोबर का रस, दही, गोमूत्र व अंत में दूध डालें । कलछी से मिश्रण को हिलाते हुए धीमी आँच पर घी पकायें । घृत सिद्ध होने पर छानकर काँच अथवा चीनी मिट्टी के बर्तन में भरकर रखें ।

सिद्ध घृत का परीक्षणः घी सिद्ध होने पर घृत में उत्पन्न बुलबुलों का आकार छोटा होने लगता है । ऊपर का झाग शांत होने लगता है । कल्क (गाढा अवशेष) नीचे जमा हो जाता है व ऊपर स्वच्छ घी मात्र शेष रहता है ।

कढ़ाई में नीचे जमा कल्क अग्नि में डालते ही बिना आवाज किये जलने लगे तो घृत सिद्ध हो चुका है, ऐसा समझना चाहिए ।

मात्राः 10 से 15 ग्राम घी सुबह खाली पेट गुनगुने पानी से लें ।

इसके स्निग्ध व शीत गुणों से मस्तिष्क के उपद्रव शांत हो जाते हैं । स्नायु व नाड़ियों में बल आने लगता है । यह क्षय, श्वास (दमा), खाँसी, धातुक्षीणता, पाण्डु, जीर्णज्वर, कामला आदि व्याधियों में भी उपयुक्त है । पेट, वृषण (अण्डकोश) तथा हाथ-पैरों की सूजन में यह बहुत ही लाभदायी है । रोगी तथा निरोगी, सभी इसका सेवन कर स्वास्थ्य व दीर्घायुष्य की प्राप्ति कर सकते हैं ।

विधिवत् पंचगव्य घृत बनाना सबके लिए सम्भव न हो पाने के कारण ‘साँईं श्री लीलाशाह जी उपचार केन्द्र, सरत’ के साधकों ने यह शरीरशोधक, बलवर्धक, पापनाशक सिद्ध गोघृत बनाना शुरु किया है ।

घर पर इसे बनाते समय विधिवत् बनाने की सावधानी बरतें । दीर्घ, निरोग और प्रसन्न जीवन के लिए गोघृत वरदानस्वरूप है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2009, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 202

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