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दीक्षा से सुधरती है जीवन-दशा


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

उस मनुष्य का जीवन बेकार है जिसके जीवन में किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की दीक्षा नहीं है । दीक्षारहित जीवन विधवा के श्रृंगार जैसा है । बाहर की शिक्षा तुम भले पाओ किंतु उस शिक्षा को वैदिक दीक्षा की लगाम देना जरूरी है । दीक्षाविहीन मनुष्य का जीवन तो बर्बाद होता ही है, उसके संपर्क में आने वालों का भी जीवन बर्बाद होने लगता है…. खाया-पिया, दुःखी-सुखी हुए और अमर तत्त्व को जाने बिना मर गये ।

दीक्षा के बिना सांसारिक आवागमन से मनुष्य की मुक्ति नहीं हो सकती । यदि कोई अंधा व्यक्ति अकेला सड़क पर दौड़ रहा है तो वह दौड़ तो सकता है किंतु दुर्घटना का होना निश्चित है । गुरु के बिना इस संसार की असारता का रहस्य-विषयक ज्ञान नहीं हो सकता और ज्ञान के बिना जीव की मुक्ति नहीं हो सकती, जैसे दिशाविहीन नौका गहन समुद्र में कभी तट को प्राप्त नहीं कर सकती । धन, मान या पद से कोई गुरु से दीक्षा प्राप्त नहीं कर सकता । दीक्षा तो श्रद्धावान, सौम्य गुणवाले, विनीत शिष्य ही प्राप्त कर सकते हैं । धन का, सत्ता का अहंकार तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सब विकार श्रद्धारूपी रसायन में पिघल जाते हैं ।

यह श्रद्धरूपी रसायन चिंता, भय को अलविदा कर देता है और परमात्मा-रस से भरा दीवाना बना देता है । नश्वर शरीर से संबंधित अपनी हीनता भी याद नहीं रहती और अपना अहंकार भी याद नहीं रहता अपितु श्रद्धालु दीक्षा पाकर अपनी शाश्वतता की तरफ उन्मुख होने लगता है । इसलिए जीवन में दीक्षा, श्रद्धा और सत्संग की अनिवार्य आवश्यकता है ।

मंत्रदीक्षा देने वाले गुरु तीन प्रकार के होते हैं । एक होते हैं बाजारू गुरु, जो मंत्रदीक्षा का धंधा लेकर चल पड़ते हैं ।

कन्या-मन्या कुर्र… तू मेरा चेला मैं तेरा गुर्र…।

दर्क्षिणा धर्र… तू चाहे तर्र चाहे मर्र….।।

अला बाँधूँ, बला बाँधँ….. भूत बाँधूँ, प्रेत बाँधूँ…

डाकिनी बाँधूँ, शाकिनी बाँधूँ….

इस प्रकार के लोग मनचले होते हैं । खुद तो बीड़ी पीना, क्या-क्या गलत कर्म करना और साथ में दूसरों को मंत्र दीक्षा देना ! अरे, मंत्रदीक्षा कोई मजाक की बात है ! इसमें तो बड़ी जिम्मेदारी होती है, अपनी तपस्या का अंख देना होता है । बाजारू लोग यह बात नहीं जानते । विवेकानंद जी ने ऐसे लोगों की अच्छी तरह से खिंचाई की ।

दूसरे होते हैं संप्रदाय-विशेष के गुरु, जो अपने-अपने सम्प्रदाय का मंत्र देते हैं । कोई रामानंदी संप्रदाय के हैहं तो ‘सीताराम-सीताराम’ मंत्र देंगे, वैष्णव संप्रदाय के हैं तो भगवान विष्णु का मंत्र देंगे, शैव संप्रदाय के हैं तो ‘ॐ नमः शिवाय’ देंगे । कोई मुल्ला-मौलवी हैं तो ‘अल्लाहो अकबर…..’ इस प्रकार सिखायेगा अपने संप्रदाय, परम्परा के अनुसार । कोई विरले-विरले होते हैं लोकसंत, जो वैदिक परम्परा के अनुसार मंत्र देते हैं । उनका अपना कोई अलग संप्रदाय नहीं होता, वे तो जिसका जिससे भला होता हो वही मंत्र उसको देते हैं ।

भगवान गणपति की परम्परा वाले गणपति जी का मंत्र देंगे, अच्छा है, गायत्री की परम्परा वाले सबको गायत्री मंत्र देंगे, ठीक है, अच्छा है, यह भी वैदिक परम्परा है, हमारा इससे विरोध नहीं है, ठीक है । उन बाजारू गुरुओं से तो ये बहुत अच्छे हैं लेकिन इनसे भी बढ़कर एक विलक्षण गुरु होते हैं नारद जी जैसे, कबीर जी जैसे, नानकजी जैसे, जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य जी जैसे, भगवत्पाद लीलाशाह जी बापू जैसे, जो सामने वाले का जल्दी-से-जल्दी हित हो इस प्रकार की मंत्रदीक्षा और मंत्र जपने की रीति बताते हैं । हम भी दीक्षा देते समय किस विधि से जप करने पर कौन सा लाभ होता है आदि सब बता देते हैं । दीक्षित साधक एक बार ध्यान योग शिविर में आ जाते हैं न, तो सारी बातें उनको हस्तामलकवत् (हाथ पर रखे आँवले की तरह प्रत्यक्ष) हो जाती हैं, प्रत्यक्ष एहसास हो जाता है । फिर उनको लगता है कि ‘इतने साल हम कहाँ झख मार रहे थे !’ ऐसे-ऐसे खजाने खुलने लगते हैं दीक्षा के बाद, सारे रहस्य खुलने लगते हैं ।

तो आप जहाँ हैं वहीं से आपको यात्रा करनी होगी । जैसे आप दिल्ली में हैं तो यात्रा मुम्बई से थोड़े ही प्रारम्भ करेंगे, दिल्ली से ही प्रारम्भ करनी पड़ेगी, ऐसे ही आपका मन और प्राण कौन-से केन्द्र में ज्यादा रहते हैं उस प्रकार के मंत्र की आपकी पसंदगी होती तो आपके जीवन में परिवर्तन जल्दी होगा । इसीलिए लोकसंत, सद्गुरु सभी को एक प्रकार का मंत्र नहीं देते । वे विद्यार्थियों को सारस्वत्य मंत्र, स्वास्थ्य-अर्थियों को स्वास्थ्य मंत्र, मुक्ति अर्थियों को प्रणव (ॐ) युक्त मंत्र अथवा प्रणव – इस तरह अलग-अलग मंत्र देते हैं, जिनसे उनका  विकास जल्दी होता है ।

मंत्रदीक्षा देते समय हम ऐसे-ऐसे प्रयोग और प्राणायाम सिखा देते हैं, जिससे साधकों की बुद्धि का नाड़ी-जाल शुद्ध हो जाता है, बुद्धि में चमत्कारिक परिवर्तन होने लगते हैं । फिर लोग बोलते हैं कि ‘बापू जी ने चमत्कार कर दिया ।’ वास्तव में चमत्कार का खजाना पड़ा था, मैंने कुंजी दिखा दी और आपके जीवन में फायदे होने लगे । फिर मंत्रजप की और रीति भी बताता हूँ जिससे श्वासों का नियंत्रण होने से अकाल मृत्यु टल जाती है, आयुष्य लम्बा होने में मदद मिलती है और मन एकाग्र करने में बड़ी आसानी हो जाती है । श्वास (प्राण) तो हमारे पूरे शरीर में जाता है तो भगवदीय रस, भगवदीय ऊर्जा, भगवदीय आभा भी पैदा होने लगती है । जैसे जब आप किसी की निंदा सुनते हैं या करते हैं तो एक प्रकार के हानिकारक रसायन आपके शरीर में पैदा होते हैं, वैसे ही जब आप भगवान को प्रेम करते हुए भगवान का नाम लेते हैं तो सत्त्वमय, सुखमय, अमृतमय रसायन पैदा होते हैं, इसीलिए जीवन में परिवर्तन हो जाता है । ‘मैंने दीक्षा ली और यह परिवर्तन हो गया, वह हो गया….।’ इन चमत्कारों का रहस्य यह है कि आपके खजानों की चाबी भी मैं जानता हूँ और ताला भी मैं जानता हूँ । दीक्षा देते समय वह चाबी दे देता हूँ तो चमत्कार होता है ।

तो जो वैदिक दीक्षा लेकर भक्ति करते हैं उनकी भक्ति क्लेशनाशिनी हो जाती है । वे मनमुखी नहीं गुरुमुखी होते हैं । उनकी आधी साधना वैदिक दीक्षा लेने मात्र से पूरी हो जाती है और फिर बताये गये नियम के अनुसार थोड़े दिन की साधना से उनका जीवन जीवनदाता के ज्ञान-ध्यान से, रस से रसमय हो जाता है । वे जीते-जी मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं और मुक्ति पा लेते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 198

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मैं आपका विकास चाहता हूँ-पूज्य बापू जी


मुझे आपकी चीज नहीं चाहिए, आपकी वस्तु नहीं चाहिए, आपका प्रणाम तक नहीं चाहिए, आपका फूलहार भी आपको पहनाता हूँ तो मुझे आनंद आता है । मुझे आपसे क्या लेना है ? मुझे तो आपका विकास चाहिए बस । इस विनाश के युग में विकास चाहिए । इस युग में धन बढ़ गया, बम बढ़ गये, ऐश-आराम बढ़ गये, फास्टफूड बढ़ गया, बेशर्माई कि फिल्में बढ़ गयीं, डिस्कों डांस बढ़ गया…. इसलिए हमें आपका विकास चाहिए ।

अमूल्य मानव-जन्म का एक-एक पल बीता जा रहा है । जितनी आयु लेकर आये हैं उसमें से एक-एक साँस कम होती जा रही है । न जाने कब, कहाँ, कैसे साँसों की संख्या पूरी हो जाय और अनाथ होकर, निराश होकर हारे हुए जुआरी की तरह संसार से विदा होना पड़े !

आपकी आँखें देखना बंद कर दें उससे पहले जिससे देखा जाता है, कान सुनना बंद कर दें उससे पहले जिससे सुना जाता है, दिल की धड़कने बंद हो जायें उससे पहले जिसकी सत्ता से दिल धड़कता है उस दिलबर दाता का ज्ञान-ध्यान और शांति का प्रसाद आप लोगों तक पहुँचा सकूँ, भगवान व्यास जी की प्रसादी से, अपने गुरुदेव की प्रसादी से, गीता के, उपनिषदों के ज्ञान से आपका जीवन महका सकूँ जिससे जीते-जी आप मौत के सिर पर पैर रखकर परम शांति और आनंद पा सकें और आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार कर सकें । आपका तन तंदुरुस्त रहे, मन प्रसन्न रहे, बुद्धि में बुद्धिदाता का प्रकाश हो, उसकी प्रेरणा हो, बस यही चाहता हूँ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 20 अंक 198

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भाई मंझ की दृढ़ गुरुभक्ति


जीवन में चाहे कितनी भी विघ्न बाधाएँ आयें और चाहे कितने भी प्रलोभन आयें किन्तु उनसे प्रभावित न होकर जो शिष्य गुरुसेवा में जुटा रहता है, वह गुरु का कृपापात्र बन पाता है । जिसने पूर्ण गुरु की कृपा पचा ली उसे पूर्ण ज्ञान भी पच जाता है । अनेक विषम कसौटियों में भी जिसकी गुरुभक्ति विचलित नहीं होती उसका ही जीवन धन्य है । गुरु अर्जुनदेव जी के पास मंझ नामक एक जमींदार आया और बोलाः “कृपा करके मुझे शिष्य बना लीजिये ।”

गुरु अर्जुनदेव जीः “तुम किसको मानते हो ?”

“सखी सरवर को । हमारे घर पर उनका मंदिर भी है ।”

“जाओ, उनको प्रणाम करके छुट्टी दे दो और मंदिर गिराकर आ जाओ ।”

“जी, जो आज्ञा ।”

मंदिर तोड़ देना कोई मजाक की बात नहीं है किंतु जमींदार की श्रद्धा थी, ‘गुरु की आज्ञा से कर रहा हूँ, कोई बात नहीं’ – यह भाव था, अतः उसने मंदिर तुड़वा दिया । मंदिर तुड़वाने से समाज के लोगों ने उसका बहिष्कार कर दिया और उसकी खूब निंदा करने लगे । इधर जमींदार पहुँच गया गुरु अर्जुनदेवजी के चरणों में । जमींदार की योग्यता को देखकर अर्जुनदेव जी ने उसे दीक्षा दे दी एवं साधना की विधि बतला दी ।

अब वह जमींदार इधर-उधर के रीति-रिवाजों में नष्ट न करते हुए गुरुमंत्र का जप करने लगा, ध्यान करने लगा । उसका पूरा रहन-सहन बदल गया । खेती-बाड़ी में ध्यान कम देने लगा । उसकी एक के बाद एक परीक्षाएँ होने लगीं । उसका घोड़ा मर गया, कुछ बैल मर गये । चोरों  ने उसकी कुछ सम्पत्ति को चुरा लिया । समाज के लोगों द्वारा अब ज्यादा विरोध होने लगा और सभी लेनदारों ने उससे एक साथ पैसे माँगे । जमींदार मंझ ने अपनी जमीन गिरवी रखकर सबके पैसे चुका दिये और स्वयं किसी के खेत में मजदूरी करने लगा । उस समय ब्याज की दर ऐसी थी कि जो जमीन गिरवी रख देता था उसका ऊपर उठना असंभव-सा था । एक समय का जमींदार मंझ अब स्वयं एक मजदूर के रूप में काम करने लगा, फिर भी गुरु के श्रीचरणों में उसकी प्रीति कम न हुई । कुछ समय बाद मंझ को गाँव छोड़कर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अन्य गाँव जाना पड़ा । वह घास काटकर उसे बेचके गुजारा करने लगा । अर्जुनदेव जी जाँच करवायी तो पता चला कि पूरे समाज से वह अलग हो गया है, समाज ने उसे बहिष्कार कर दिया है फिर भी उसकी श्रद्धा नहीं टूटी है । यह जानकर वे बहुत प्रसन्न हुए । समाज से बहिष्कृत मंझ ने गुरु के हृदय में स्थान बना लिया ।

कुछ समय पश्चात गुरु ने पुनः जाँच करवायी तो पता चला कि उसकी आय ऐसी है कि कमाये तो खाये और न कमाये तो भूखा रहना पड़े । गुरु ने शिष्य के हाथों मंझ को चिट्ठी भेजी । शिष्य को समझा दिया था कि “बीस रूपये चढ़ावा लेने के बाद ही यह चिट्ठी उसे देना ।”

गुरु को कहाँ रूपये चाहिए ? किंतु शिष्य की श्रद्धा को परखने एवं उसकी योग्यता को बढ़ाने के लिए गुरु कसौटी करते हैं । सच ही तो है कि कंचन को भी कसौटी पर खरा उतरने के लिए कई बार अग्नि में तपना पड़ता है ।

गुरु की चिट्ठी पाने के लिए मंझ ने पत्नी से कहाः “बीस रूपये चाहिए ।”

उस जमाने के बीस रूपये आज के पाँच-सात हजार से कम नहीं हो सकते । पत्नी बोलीः “नाथ ! मेरे सुहाग की दो चूड़ियाँ हैं और जेवर हैं । उन्हें बेच दीजिये और गुरुदेव को रूपये भेज दीजिये ।”

चूड़ियाँ और जेवर बेचकर बीस रूपये गुरु के पास भिजवा दिये । गुरुदेव ने देखा कि अब भी श्रद्धा नहीं डगमगायी ! कुछ समय के बाद दूसरी चिट्ठी भेजी, इस बार पच्चीस रूपये की माँग की गयी थी ।

अब रूपये कहाँ से लायें ? घर में फूटी कौड़ी भी न थी । मंझ को याद आया कि ‘गाँव के मुखिया ने अपने बेटे के साथ मेरी बेटी के विवाह का प्रस्ताव रखा था ।’ उस समय जातिवाद का बोलबाला था और मंझ की तुलना में मुखिया की जाति छोटी थी । मंझ ने मुखिया के आगे प्रस्ताव रखाः “मैं अपनी बेटी की सगाई आपके बेटे से कर सकता हूँ लेकिन मुझे आपकी तरफ से केवल पच्चीस रूपये चाहिए और कुछ भी नहीं ।”

मंझ ने एक छोटे खानदान के लड़के से अपनी बेटी की शादी करने में छोटी जाति का, छोटे विचार के लोगों, किसी का भी ख्याल नहीं किया । धन्य है उसकी गुरुनिष्ठा !

गुरु ने देखा कि अब भी इसकी श्रद्धा नहीं टूटी । गुरु ने संदेश भेजाः “इधर आकर आश्रम का रसोई घर सँभालो । रसोईघर में काम करो और लोगों को भोजन बनाकर खिलाओ ।

मंझ गुरु आज्ञा शिरोधार्य करके रसोईघर में काम करने लगा । कुछ समय के बाद गुरु ने अपने एक शिष्य से पूछाः “मंझ रसोई घर तो सँभालता है किंतु खाना कहाँ खाता है ?”

शिष्य ने कहाः “गुरुदेव ! वह लंगर (भण्डारा) में सबको जिमाकर फिर वहीं पर भोजन पा लेता है ।”

गुरु बोलेः “मंझ सच्ची सेवा नहीं करता । वह कार्य के बदले में भोजन प्राप्त करता है । यह निष्काम सेवा नहीं है ।”

गुरु का संकेत मंझ ने शिरोधार्य किया । दूसरे दिन से मंझ दिन में रसोई घर में सेवा करके जंगल में जाता लकड़ियाँ काटके बाजार में बेचता और अपने परिवार के आहार की व्यवस्था करता । कुछ दिन ऐसा चलता रहा । एक दिन गुरुद्वारे में लकड़ी की कमी होने से भाई मंझ शाम के वक्त लकड़ियाँ लेने जंगल में गया । लकड़ियाँ काटने के बाद तूफान के कारण मंझ लकड़ियों का गट्ठर सिर पर रखकर पेड़ के नीचे आश्रय लेने गया लेकिन हवा के तीव्र वेग से वह एक कुएँ में गिर गया ।

एकाएक गुरु अर्जुनदेव ने अपने कुछ शिष्यों को बुलाया और एक लम्बा रस्सा तथा लकड़ी का तख्ता लेकर जंगल की ओर चल दिये । शिष्यों को आश्चर्य हुआ । एक कुएँ के पास जाकर गुरु ने कहाः “इस कुएँ के तले में मंझ है । उसे आवाज दो और कहो कि रस्से से बाँधकर हम तख्त को उतारते हैं । तुम उसे पकड़ लेना, तब ऊपर खींच लेंगे ।”

बाद में कुछ बातें एक व्यक्ति के कान में कहीं और वह बात भी मंझ को बताने का संकेत किया । उस व्यक्ति ने मंझ से कहाः “भाई ! तुम्हारी दयनीय दशा हो गयी । तुम ऐसे क्रूर गुरु को क्यों मानते हो ? तुम उनका त्याग क्यों नहीं करते ? तुम उनको भूल जाओ ।”

मंझ ने भीतर से तेज आवाज में उत्तर दियाः “मेरे गुरु क्रूर हैं ऐसी बात कहने की तुम हिम्मत कैसे करते हो ! मेरे लिए उनके दिल में सिर्फ करूणा है । ऐसे बेशर्मी के शब्द कभी मत कहना !”

गुरु ने उस आदमी को स्वयं भेजा था मंझ की श्रद्धा तुड़वाने के लिए किंतु वाह रे मंझ ! मंझ ने कहाः “गुरुनिंदा सुनने के बजाय कुएँ में भूखा मरूँगा लेकिन गुरु का होकर मरूँगा, निगुरों-निंदकों का होकर नहीं मरूँगा । निगुरों का, निंदकों का होकर अमर होना भी बुरा है, गुरु का होकर मरना भी भला है ।”

भाई मंझ ने पहले सिर पर उठाकर रखी हुई सूखी लकड़ियाँ तख्त पर रख दीं और कहाः “पहले इन लकड़ियों को बाहर निकालो । ये गुरु के रसोई घर के लिए हैं । ये गीली हो जायेगी तो जलाने के काम नहीं आयेगी ।”

लकड़ियाँ बाहर निकाली गयीं । बाद में मंझ को भी बाहर निकाला गया । बाहर निकलते ही मंझ ने गुरु को देखा । उनके चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया । मंझ को उठाकर उसके कंधों को थपथपाते हुए गुरु अर्जुनदेव ने कहाः “मुझे तुम पर गर्व है ! तुमने अडिग श्रद्धा, साहस और भक्ति के साथ सब कसौटियों का सामना किया और उनमें सफल हुए हो । तुमको तीनों लोक देकर मुझे प्रसन्नता होगी ।”

भाई मंझ की आँखों से अश्रुधाराएँ बहने लगीं । उसने कहाः “मैं वरदान के रूप में आपसे आपको ही माँगता हूँ, और किसी वस्तु में मेरी प्रीति नहीं है ।”

गुरु ने मंझ को आलिंगन कर लिया और कहाः

“मंझ पिआरा गुरु का, गुरु मंझ पिआरा ।

मंझ गुरु का बोहिथा, जग लंघणहारा ।।

मंझ गुरु का प्यारा है और गुरु मंझ को प्यारे हैं । मंझ भवपार लगाने वाली गुरु की नौका है ।”

गुरु ने मंझ को सत्य का बोध करा दिया । कैसी विषम परिस्थितियाँ ! फिर भी मंझ हारा नहीं । कितने प्रयास किये गये श्रद्धा हिलाने के लिए किंतु मंझ की श्रद्धा डिगी नहीं । तभी तो उसके लिए गुरु के हृदय से भी निकल पड़ाः ‘मंझ तो मेरा प्यारा है । मंझ भवपार लगाने वाली गुरु की नौका है ।’

धन्य है मंझ की गुरुभक्ति ! धन्य है उसकी निष्ठा और धन्य है उसका गुरुप्रेम !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 5-7 अंक 198

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