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भारतीय संस्कृति, हिन्दू धर्म, संतों और मानवता पर हो रहा आक्रमण


जुलाई 2008 में आश्रम के अहमदाबाद गुरुकुल के दो बच्चों की आकस्मिक मृत्यु हुई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ कि मृत्यु नदी में डूब जाने से हुई है। गुजरात सरकार द्वारा नियुक्त त्रिवेदी जाँच आयोग ने भी इस घटना को हत्या नहीं बताया है फिर भी गुजरात पुलिस की सी.आई.डी. क्राईम ब्रांच ने आश्रम के सात संचालकों-ट्रस्टियों पर धारा 114 व 304 के अन्तर्गत मुकद्दमा दायर कर दिया। गुजरात हाई कोर्ट ने इस बेबुनियाद मुकद्दमे के लिए भी सी.आई.डी. क्राईम कड़ी फटकार लगायी तथा साधकों पर कोई भी कार्यवाही करने पर फिलहाल रोक लगा दी है।

घटनाक्रम की सत्यता यह होते हुए भी गुजरात के ‘संदेश’ अखबार द्वारा संत श्री आसाराम जी बापू एवं आश्रम के विरूद्ध द्वेष एवं ईर्ष्या से प्रेरित होकर बिना सबूत के झूठे, कपोलकल्पित, अश्लील समाचार एवं लेख छापे जाते रहे हैं। इससे करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँची है। इसके विरोध में दिनांक 28 नवम्बर को हजारों लोगों द्वारा गाँधीनगर में प्रतिवाद रैली निकाली गयी थी। इस रैली में कुप्रचारकों के सुनियोजित षडयंत्र के तहत ‘संदेश’ के गुंडों ने साधकों जैसे कपड़े पहन कर भीड़ में घुसकर पथराव किया, जिसके प्रत्युत्तर में क्रुद्ध पुलिस ने साधकों भक्तों एवं आम जनता पर, जिनमें अनेक महिलाएँ भी थीं, न सिर्फ बुरी तरह लाठियाँ बरसायीं बल्कि आँसू गैसे के 60 गोले और 8 हैंडग्रेनेड छोड़े, जैसे ये लोग आम जनता नहीं कोई खूँखार, देशद्रोही आतंकवादी हों। इसमें सैंकड़ों लोग बुरी तरह से  घायल हुए। बहुत से लोगों के हाथ-पैर भी फ्रैकचर हो गये। उनमें से 234 साधकों-भक्तों को पुलिस ने लाठियों से पीटकर घसीटते हुए अपनी गाड़ियों में डालकर थाने में बन्द कर दिया। पुलिस लाठीचार्ज में घायल जो लोग अस्पताल में भर्ती हुए थे, उन्हें भी मरहम पट्टी होने के बाद सीधा अस्पताल से उठाकर जेल में डाल दिया गया।

‘संदेश’ के लोगों द्वारा बापू जी व उनके साधकों को बदनाम करने के लिए अत्यंत सुनियोजित ढंग से यह सारा षडयंत्र रचा गया था व ‘संदेश’ के विरूद्ध हो रहे जन-आन्दोलन का रूख मोड़ने के लिए उन्होंने भी पुलिस क साधकों के खिलाफ भिड़ाना चाहा था, जबकि साधकों भक्तों ने तो 4 कि.मी. लम्बी यात्रा शांतिपूर्ण ढंग से पूरी की थी किंतु पुलिस ने इस ओर जरा भी गौर किये बिना जिस बर्बर ढंग से लाठीचार्ज किया वह अत्यंत शर्मनाक व निन्दनीय है। पुलिस के द्वारा पकड़े गये सभी लोगों को अगले दिन धारा 143, 147, 148, 149, 332, 333, 337, 338, 120(B), 186 बी.पी. एक्ट कल्म 135 आदि तथा हत्या से संबंधित धारा 307 के अंतर्गत कोर्ट में पेश कर जेल भिजवा दिया गया।

हिन्दू धर्म, संस्कृति में आस्था रखने वाले इन सीधे सादे आम लोगों को इतना कठोर दण्ड दे देने पर भी गुजरात पुलिस को संतोष नहीं हुआ। 27 नवम्बर को पुलिस की लगभग 25 गाड़ियों, 200 पुलिसकर्मियों तथा बहुत से मीडियाकर्मियों के साथ पुलिस ने आश्रम पर अचानक धावा बोल दिया। आश्रम में जो भी, जहाँ भी, जिस स्थिति में भी मिला – लातों, जूतों, लाठियों और बंदूक के कुंदों से बुरी तरह पीटते हुए दौड़ा-दौड़ा पुलिस की गाड़ियों में ठूँस दिया गया। आश्रम के मुख्य श्रद्धा केन्द्र मोक्ष कुटीर, सिद्ध वटवृक्ष, मौन साधना गृह, साधक व संत निवास के कमरे, सत्साहित्य केन्द्र, आरोग्य केन्द्र (दवाखाना), टेलिफोन ऑफिस, ऋषि प्रसाद आदि में पुलिसवालों ने स्वयं लाठियों व बंदूकों के मुट्ठों से बुरी तरह तोड़-फोड़ की एवं अंदर का सामान तहस-नहस कर दिया। शो-केस व खिड़कियों के शीशे अकारण तोड़ डाले गये। बाहर से आये कितने ही जप-अनुष्ठान कर रहे वृद्ध साधकों तथा माताओं बहनों एवं कुछ नाबालिग बच्चों को भी पीटते हुए पुलिस की गाड़ियों में भर दिया गया। यहाँ तक कि मौन मंदिर में एक सप्ताह की मौन साधना कर रहे एक साधक को दरवाजा तोड़कर बालों से पकड़कर घसीटते हुए तथा अनेक पुलिसकर्मियों द्वारा डंडे बरसाते हुए ले जाया गया। भक्तों तथा पीले कपड़े पहने साधुओं को पुलिस ने विशेष रूप से ढूँढ-ढूँढकर मारा। भजन कर रहे साधकों-साधुओं को और भी बुरी तरह से पीटा गया। बार-बार, छः-छः पुलिसवालों ने मिलकर एक-एक को मारा, क्या यही गुजरात पुलिस की इंसानियत है ? इस समस्त घटनाक्रम का साक्षी पुलिस के साथ आया हुआ इलेक्ट्रानिक मीडिया स्वयं है, जिन्होंने पुलिस के इस बर्बर कृत्य का प्रसारण अपने चैनलों पर किया।

सत्साहित्य विभाग, ऋषि प्रसाद, लोक कल्याण सेतु, कैसेट विभाग आदि के काउंटरों पर जो कुछ रुपये पैसे थे, वे भी पुलिस ने लूट लिये। साधकों को आतंकित करने के लिए पुलिस ने नदी किनारे फायरिंग भी की।

आश्रम से ले जाने के बाद गाड़ियों से उतरने के स्थान से लगभग 50 मीटर दूर बंदी साधकों को मैदान में बैठाया जाना था। उस पूरे रास्ते के दोनों तरफ लट्ठधारी पुलिस के बीसों जवान जमकर साधकों पर लाठियाँ बरसा रहे थे। सबसे ज्यादा शर्म की बात तो यह है कि गाँधीनगर पुलिस इन 200 से भी ज्यादा साधकों को 26 घँटे तक बिना किसी एफ.आई.आर., बिना किसी केस के बंदी बनाकर उनकी मार-पिटाई करती रही और भयंकर मानसिक प्रताड़ना देती रही। सारी रात गाँधीनगर पुलिस भक्तों-आश्रमवासियों को शराब पीकर पीटती रही, उन्हें मांस खाने व मदिरा पीने के लिए मजबूर करने का प्रयास करती रही। संत श्री आसाराम जी बापू के फोटो पर इन भक्तों को थूकने, जूते मारने के लिए तथा बापू जी के लिए गंदी गालियाँ बोलने के लिए मजबूर करने के भी प्रयास किये गये। भक्तों-साधकों के ऐसा करने से मना करने पर उन्हें और भी पीटा गया। 27 नवम्बर को शाम के 4 बजे जिन्हें बंदी बनाया गया था, उनमें से 192 व्यक्तियों को 28 नवम्बर को शाम 6 बजे घायल अवस्था में आश्रम लाकर छोड़ा गया। उनमें से कितने ही लोगों के हाथ पैर सिर फूट गये थे, जिन्हें सिविल व प्राइवेट अस्पतालों में तुरंत दाखिल कराना पड़ा।

मानवता को दहला देने वाले इस दृश्य के सूत्रधार ‘संदेश’ अखबार वाले थे, जिन्होंने धर्मांतरण वालों के विदेशी पैसों के बल से डेढ़ वर्ष से पाप के बाप – लोभ के प्रभाव में आकर उनका हत्था बनकर बापू जी के विरूद्ध क्या-क्या आरोप नहीं लगाये, क्या-क्या साजिशें नहीं करवायीं ! सभी कुप्रचारों, षडयंत्रों में इनके सीधे जुड़े होने की खबर ‘साजिश का पर्दाफाश’ सी.डी. द्वारा जगजाहिर हो जाने से ‘संदेश’ वालों ने कुटिलतापूर्ण चाल द्वारा रैली में अशांति फैलाकर पुलिस को आश्रम के साथ उलझा दिया और अपने पूरे आर्थिक, राजनैतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इस पूरी घटना को इस तरह अंजाम दिया।

पुलिस का यह घिनौना आचरण मानवता व लोकतंत्र के नाम पर कलंक है। इसकी जितनी भर्त्सना की जाय कम है। आज तक कितनी ही धार्मक एवं राजनैतिक रैलियाँ निकाली होंगी, कलेक्टर को ज्ञापन दिये गये होंगे परंतु इतनी बर्बरतापूर्वक कभी भी पुलिस ने लाठीचार्ज, इतने आँसू गैस तथा हैंडग्रेनेड का इस्तेमाल नहीं किया होगा।

पूज्य बापू जी के खिलाफ चलाये जा रहे षडयंत्रों की पराकाष्ठा अब यहाँ तक पहुँची है कि अपराधी मनोवृत्तिवाले, चरित्रहीन राजू चांडक के मात्र कह देने भर से, बिना किसी सबूत एवं गवाह के, उस पर किये गये हमले का दोषी बापू जी को करार देते हुए उसी दिन एफ.आई.आर. दर्जद कर दी गयी। जबकि पुलिस द्वारा 27 नवम्बर को अहमदाबाद आश्रम के साधकों की बेरहमी से की गयी पिटाई व आश्रम में की गयी तोड़फोड़ के बारें में बार-बार निवेदन करने के बावजूद भी अभी तक कोई भी एफ.आई.आर. दर्ज नहीं की गई।

पूज्य बापूजी से भयंकर द्वेष रखने वाले राजू चांडक द्वारा इस मामले में  बापूजी तथा उनके दो साधकों पर संदेह करना एकदम झूठा, आधारहीन तथा पूर्वाग्रह से ग्रस्त आरोप है। वस्तुतः साजिश का पर्दाफाश सी.डी. द्वारा अपने सारे झूठे आरोपों की पोल खुल जाने से बौखलाये हुआ राजू प्रतिशोधात्मक कार्यवाही के रूप में अपने ऊपर हुए गोलीकांड का दोष यदि बापू जी पर लगाता है तो इसकी सत्यता में कितना दम हो सकता है यह बात पुलिस अच्छी तरह समझ सकती है। ऐसे में केवल राजू चांडक जैसे अपराधी के कह देने मात्र से बापू जी जैसे विश्ववंदनीय संत पर पुलिस द्वारा हत्या के षडयंत्र जैसा संगीन आरोप लगाना कितना हास्यास्पद एवं आधारहीन है यह सभी लोग समझ सकते हैं। इस प्रकरण में एक प्रतिशत का हजारवाँ हिस्सा भी साधकों का हाथ नहीं हो सकता। यह नाटक भी हो सकता है और सच्चाई भी, और सचमुच में गोली लगी हो तो वह इन्हीं की टोला के लोगों की घिनौनी साजिश है। हो सकता है राजू लम्बू के स्टिंग ऑपरेशन के दौरान जिन लोगों के नाम उजागर हुए, उन लोगों ने यह करवाया हो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद दिसम्बर 2009 अंक 204

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उत्तम साधन


(बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

जब सब ब्रह्म है तो आप पूछोगे कि ‘कृष्ण के साकार रूप की उपासना करें कि निराकार की करें ? वह घोड़े की बागडोर लिये हुए काला-कलूटा कृष्ण-कन्हैया बैठा है, उसको ही भगवान मानें कि उसके अंदर जो आत्मा है उसको भगवान मानें ?’

भाई ! जिसमें तेरी प्रीति हो । तेरे पास गोपी और ग्वाल का हृदय है तो बाल-गोपाल मान ले अथवा मुरलीधर या गीतागायक आचार्य महोदय श्रीकृष्ण मान ले ।

‘आहा ! कृष्ण कन्हैया !…’ तो कन्हैयाकार, कृष्णाकार वृत्ति होगी और जगदाकार वृत्ति टूट जायेगी । इस वृत्ति में आनंद आने लगेगा, तुम अंतर्मुख होने लगोगे, धीरे-धीरे निराकार भी छलकने लगेगा, एक ही बात है ।

अर्जुन का प्रश्न थाः ‘जो भक्त निरंतर आपकी उपासना करते हैं और जो अक्षर अव्यक्त की उपासना करते हैं, उन दोनों में उत्तम योगवेत्ता कौन है ?’

भगवान का जवाब थाः ‘जो परम श्रद्धालु नित्ययुक्त रहकर मुझ में अपना मन आविष्ट कर देते हैं और मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मत में उत्तम योगवेत्ता है ।’

महाराज ! आप साइकिल पर जा रहे हो तो 15 कि. मी. प्रति घंटा की रफ्तार बहुत उत्तम है, कार में जा रहे हो तो 60 कि. मी. की रफ्तार उत्तम है और जहाज में जा रहे हैं तो कम-से-कम 250 की रफ्तार उत्तम है और यदि पैदल ही जा रहे हैं तो आपकी 5 कि.मी. की रफ्तार उत्तम है । आप कौन से साधन से जा रहे हैं ?

आपके पास चित्त, वातावरण, समझ – जो है पर्याप्त है । धन्ना जाट जैसा आदमी भी तो प्रभु को मिल सकता है, शबरी भीलन जैसी भी तो मिल सकती है, गोरा कुम्हार भी तो मुलाकात कर सकता है । ध्रुव का ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ साधन था धन्ना जाट का ‘नहा के नहलइयो, खिलाकर खइयो ।’ ‘अब तू खाता नहीं ? आता है कि नहीं आता है, आता है कि नहीं आता है….’ –यह साधन था, लो । तुम ऐसा करोगे तो मजा नहीं आयेगा ।

शबरी का ऐसा चिंतन था कि बाहर की भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी उसको कोई असर नहीं करती क्योंकि सतत चिंतन में ऐसी हो गयी थी कि बाहर की कोई भी प्रतिकूलता, राग-द्वेष का प्रसंग उसके चित्त को बाहर नहीं लाता । उसके लिए यह साधन उत्तम है लेकिन आप यदि शबरी की नकल करने बैठोगे तो मजा नहीं आयेगा । आप श्रीकृष्ण का चिंतन करते हैं कीजिये, अल्लाह का करते हैं कीजिये, झूलेलाल का करते हैं कीजिये और यदि आपके सद्गुरु उपलब्ध हैं, आपके पास बुद्धि उपलब्ध है, आपके पास श्रद्धा उपलब्ध है, आपके पास पुण्य है तो आप चिंतन कीजिये – ‘सच्चिदानंदोऽहम्, शिवोऽहम्, आनन्दस्वरूपोऽहम्… गुरु होकर उपदेश दे रहा हूँ । आहाहा ! शिष्य होकर सुन रहा हूँ । वाह ! वाह !! वाह !!!…. सब मेरे अनेक रूप हैं । कृष्ण होकर मैं आया था, बुद्ध होकर आया, महावीर होकर आया, माई होकर आया, भाई होकर आया… यह शरीर कट जाय, मर जाय फिर भी मेरा नाश नहीं होता क्योंकि अनंत-अनंत शरीरों में मैं हूँ ।’ वाह, क्या मजा है ! असत्, जड़, दुःख के चिंतन से बचने के लिए आप अपने सत्, चित्, आनन्द स्वभाव का, परमात्म स्वभाव का चिंतन करते हुए निश्चिंत नारायण से एकाकार होइये । ब्रह्माकार वृत्ति से आवरण भंग करके ब्रह्मस्वरूप हो जाइये, अपने ब्रह्मस्वभाव को पाइये ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 26 अंक 203

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अनर्थों का मूलः आलस्य


आलस्य मानव की उन्नति में रिपु (शत्रु) है । भले कामों में अथवा कर्तव्य कर्मों में जी चुराने का नाम आलस्य है । आलस्य ऐसा भारी दोष है कि इससे मनुष्य अपना वर्तमान और भविष्य घोर दुःखान्धकार से ही भरा हुआ पाता है । आलस्य के कारण ही मनुष्य बड़े-बड़े लाभ के अवसरों को, अच्छे-अच्छे उन्नति के साधनों को व्यर्थ में ही खो देता है और फिर अपने भाग्य को कोसते हुए मरता है । कर्तव्य से जी चुराना ही आलस्य है ।

शारीरिक स्वस्थता, मानसिक शक्ति, बौद्धिक विकास और ज्ञान-प्रकाश प्राप्त करने का साधन प्रत्येक मनुष्य को सुलभ है, किंतु जो आलसी वह वह दुर्भाग्यवश उन महान लाभों से वंचित रहते हुए पशुवत जीवन काटता रहता है ।

आलस्य के कारण ही मनुष्य अभी का कार्य आगे कर लेने के लिए टालता रहता है । प्रातःकाल का काम दिन चढ़ने पर करता है, मध्याह्न का कार्य दिन ढलने पर आरम्भ करता है ।

इस प्रकार दिन का कार्य पूरा न होकर रात्रि में बोझ की तरह भार बनकर मन के ऊपर लदा रहता है । पूर्ण विश्राम की नींद भी सपनों की भरमार से नहीं आ पाती । आलस्यवश ही आज का काम कल के लिए, इस महीने का काम दूसरे महीने के लिए, इस वर्ष का काम दूसरे वर्ष के लिए टलते-टलते जीवन का कार्य इस जीवन में पूरा नहीं होता । इसके परिणामस्वरूप मनुष्य शांतिपूर्वक मर भी नहीं पाता ।

प्रायः मनुष्य आलस्य को विश्राम समझने की भूल किया करता है । कभी वह छोटे या बड़े काम समय और शक्ति के रहते हुए भी आगे के लिए टालता है । आलस्य का ही भुलावा है ।

जो लोग अधिक देर तक सोने के अभ्यासी हो गये हैं उनका चित्त कर्तव्य-कर्मों में सावधान नहीं रहता, उसमें दक्षता नहीं पायी जाती । मनोयोग की कमी और विस्मृति दोष अधिक रहता है । अधिन नींद से आलसी प्रकृति में अधिकाधिक निद्रा का प्रभाव दृढ़ रहता है, ऐसी नींद विश्रामदायी न होकर दुःस्वप्नों से थकाने वाली होती है ओ। जो लोग जागने के समय सोते हैं वे ही सोने के समय जागकर अस्वस्थ होते हैं । जो लोग परिश्रमी नहीं हैं, जो दिन में अपने शरीर और बुद्धि का कार्य-संलग्नता में उपयोग नहीं करते, वे भी एक तरह से निद्रित अवस्था में समय खोने वाले जीव हैं ।

आलस्य तमाम अभावों और कष्टों का मूल है । कुछ विद्यार्थी प्रातःकाल उठने में आलस्य करनके के कारण ही विद्योपार्जन में निर्बल रहते हैं, साथ ही प्रातःकालीन स्वस्थ, शक्तिप्रद वायु तथा सूर्योदय की तमाम प्राणतत्त्व-प्रदायिनी किरणों के अनुपम लाभ से भी वंचित रहते हैं । जिस ऊषाकाल में अचेतन प्रकृति भी जागती जैसी दिखती है, उस समय सचेतन मानव सोता रहे तो यह उसकी मूर्खता है ।

संसार के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, यथार्थदर्शी बुद्धिमान एवं ज्ञानियों तथा बड़े-बड़े कर्मयोगियों से कोई भी पूछकर जान सकता है कि वे आलस्य का त्याग प्रातःकाल से ही आरम्भ कर रात्रि के सोने के समय तक किस प्रकार करते हुए अपने-अपने लक्ष्य-पथ में अग्रसर हुए । एक व्यापारी कभी-कभी आलस्य के कारण ही बड़े-बड़े लाभ के सौदे को हाथ से निकल जाते देखता है और फिर भाग्य को कोसता है । एक सेवक या सिपाही आलस्य के कारण ही उन्नति के अवसरों को खो देता है और सदा के लिए स्वामी की निगाहों में गिर जाता है । आलस्य के कारण ही एक व्यक्ति बहुत आवश्यक कार्यस्थल पर पहुँचने के लिए ज्यों ही स्टेशन पर कुछ मिनट देर से पहुँचता है कि गाड़ी छूटती हुई दिखती है, फिर पश्चाताप की वेदना से दुःखी होता है ।

जिस प्रकार लोहे को उसका जंग खाता है उसी प्रकार शरीर के लिए आलस्य हानिप्रद होता है, अतएव आलस्य छोड़ने के लिए अधिक परिश्रम करके उद्यत रहना चाहिए ।

आलस्यवश ही पुत्र माता-पिता की सेवा का सौभाग्य खो देता है, पत्नी पतिसेवारूपी पुण्य को खो देती है । आलस्य के कारण संतान रोगी और निर्बल होती है ।

बुद्धिमान और सौभाग्यशाली वही है जो विद्योपार्जन में आलस्य न करे । बड़ों के तथा दीन-दुःखियों के आतिथ्य और रोगी की सेवा-सहायता से आलस्य न करे । जिस वस्तु की अभी आवश्यकता है उसे लाने और लायी हुई वस्तु को यथास्थान पहुँचाने में भी आलस्य न करे । शुभ प्रतिज्ञा करे एवं जो प्रतिज्ञा कर ली है उसको पूरा करने में आलस्य न करे । अपनी दैनिक, शारीरिक, मानसिक शुद्धि क्रियाओं में आलस्य न करे । आलस्य बहुत ही अनर्थकारी रोग है । आलस्य के त्याग में भी आलस्य नहीं करना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 203

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