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विचार की शक्ति


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

गाड़ी-मोटर से, जहाज से, एटम बम से भी विचार की शक्ति ज्यादा है । विचारों से एटम बम फोड़े और रोके जाते हैं, खोजे और बनाये जाते हैं इसलिए विचारों की महत्ता है । विचार में जितना भगवान का आश्रय होगा, भगवान को पाने का विचार होगा उतना ही वह सुखदायी होगा । द्वेष का विचार अपनी और दूसरों की तबाही करता है । राग का विचार अपने को और दूसरे को भोगी बनाता है । ईश्वरप्रीति के उद्देश्य से विचार करने से राग और द्वेष शिथिल हो जाते हैं ।

एक विचार मित्रता बना देता है, एक विचार शत्रुता व कलह पैदा कर देता है । एक विचार साधक को गिराकर संसारी बना देता है, एक विचार संसारी को संयमी बनाकर भगवान बना देता है । सिद्धार्थ के एक सुविचार ने उनको संयमी बनाकर भगवान बना दिया । इसलिए सुविचार की बलिहारी है । सुविचार आये तो उसे पकड़ रखना चाहिए ।

एक नीच विचार करोड़ों आदमियों को परेशान कर देता है । रावण के एक छोटे विचार ने देखो, पूरी लंका को परेशान कर दिया, बंदरों को परेशान कर दिया । ऐसे ही सिकंदर के, हिटलर के एक नीच विचार ने कई लोगों की बलि ले ली, तबाही मचा दी ।

ब्रिटेन के विश्वविख्यात ‘कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय’ के अंग्रेज प्रोफेसरों ने अब्दुल लतीफ नाम के एक विद्यार्थी को हलकट विचार दिया कि हिन्दुस्तान का कुछ हिस्सा अलग करके पाकिस्तान बनाया जाय । अब्दुल पाकिस्तान के नक्शे बनाकर उसके संबंध में पोस्टर व छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ छापकर भारत में भेजने लगा । पहले तो किसी ने उसकी सुनी नहीं । मि. जिन्ना भी दंग रह गये कि यह क्या पागलपन है ! यह संभव ही नहीं है । लेकिन कुविचार को हवा देने वालों ने ऐसा सत्यानाश कर दिया कि भारत में से कुछ हिस्सा अलग होकर पाकिस्तान बना और अभी तक हम उसका भोग बन रहे हैं । उसी से आतंक चला और अब भी सज्जन लोग सताये जा रहे हैं । अलग से फौज, अलग से मिसाइलें, अलग से लड़ाई के जहाज…. एक ही हिन्दुस्तान के दो हिस्से हो के आपस में लड़कर अपनी शक्ति का ह्रास कर रहे हैं । कितने अरबों-खऱबों रूपये चट हो गये एक कुविचार के कारण ! उस कुविचार ने उस समय एक करोड़ लोगों को तो बेघर कर दिया था, लाखों निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया, हजारों महिलाओं की इज्जत लूटी व हजारों बच्चों की लाशें गिरा दी थीं ।

मेरे गुरुदेव का एक सुविचार कि उस परमात्मा को खोजोगे, लाखों-लाखो लोगों को भगवान के ज्ञान, सज्जना व सात्त्विक जीवन से मिला रहा है । लोगों का कितना भला हो रहा है ।

सुविचार मिलता है सत्संग से और कुविचार मिलता है भड़काने वालों से । ‘इस्लाम खतरे में…. मारो-काटो काफिरों को !’ – यह कुविचार है लेकिन बख्तू बीबी ने अपने बेटे को कहाः “बेटा ! इस कुविचार का शिकार मत बनना । हिन्दुओं में भी वही अल्लाह है और मुसलमानों में भी वही राम है । ईश्वर-अल्लाह तेरे नाम । सबको सन्मति दें भगवान ।।”

बख्तू बीबी ने अपने बेटे फरीद को ऐसा सुविचार दिया कि वह बाबा फरीद हो गया । अब भी मुझे बख्तू बीबी और बाबा फरीद के लिए सद्भाव है, इज्जत है । गाँधी जी ने ‘राजा हरिश्चन्द्र’ नाटक देखा और ऊँचा विचार किया कि झूठा नहीं बोलेंगे, परहित करेंगे तो फायदा भी ऐसा हुआ । सनकादि ऋषियों के ब्रह्मज्ञान के विचार ने नारद जी को ‘श्रीमद्भागवत’ की तरफ प्रेरित कर दिया । राजा परीक्षित का कल्याण करने के निमित्त श्री शुकदेव जी ने ‘भागवत’ कही । उनके विचार ने करोड़ों लोगों का भला किया । अब्दुल के कुविचार ने करोड़ों लोगों की तबाही की तो शुकदेव जी और वेदव्यास जी के सुविचार ने करोड़ों लोगों का भला किया । संत तुलसीदास जी के सुविचार ने करोड़ों लोगों को शांति दी, ‘रामायण’ के रस से आनंदित कर दिया । रामानंद सागर के सुविचार ने हम लोगों को घर बैठे रामायण दिखाया । विचारों की बड़ी भारी महत्ता है । जिसके प्रति द्वेष-विचार आया तो सद्गुण दिखते हैं लेकिन श्रद्धा विचार आया तो उसमें परमात्मा दिखेंगे । नामदेव जी महाराज को भूत में भी परमात्मा दिखा, जिनको गुरु जी में भी परमात्मा नहीं दिखते, कैसे हैं उन लोगों के विचार !

अब्दुल लतीफ का पाकिस्तान बनाने का कुविचार अब भी मानव के गले की फाँसी बन बैठा है । इसलिए जो कुविचार देते हैं वे अपने लिए व दुसरों के लिए मुसीबत करते हैं । कुविचार का जहर घोलने वाले मर-मिट गये हैं लेकिन समाज उनके कुविचारों की पीड़ा से पीड़ित हो रहा है, आतंकित हो रहा है ।

एक नूर ते सब जग उपजा, कौन भले कौन मंदे ?

एक ही उस चैतन्य प्रभु से सब उपजे हैं । कुविचार भड़काने वाले तो चले जाते हैं, फिर न जाने कौन-से नरक में पड़ते हैं लेकिन प्रजा शोषित होती है और सुविचार चलाने वाले तो भगवान को पाते हैं और प्रजा पोषित होती है ।

जहाँ सुविचार मिलते हैं उसको सत्संग कहा जाता है और कुविचार मिलते हैं उसको कुसंग कहा जाता है । विचारवान मनुष्य की पहचान है कि वह सत्संग को खोजेगा, सत्पुरुष को देखते-देखते प्रीतिपूर्वक आनंदित हो जायेगा । एकलव्य विचारवान थे, गुरुमूर्ति को देखते-देखते कैसी विद्या जगा ली ! ध्रुव विचारवान थे, नारद जी का संग करके कितने महान बन गये ! मीरा विचारवान थी, गुरु रविदास जी की कृपा कैसे पचा ली !

छल, छिद्र, कपट मनुष्य को कुविचारी बना देता है, तबाह कर देता है । ये तीन दुर्गुण जिसमें नहीं हैं वह तो संत बन जायेगा । ईश्वर के सिवाय कौन-सी चीज हमारी रहेगी, विचार करके देखो । किसके लिए कपट करना, किसके लिए द्वेष करना, किसके लिए पापकर्म करना ? क्यों दोषारोपण करना ? सब अपने-अपने प्रारब्ध और प्राकृतिक स्वभाव के अनूरूप जीते हैं बेचारे । ‘सबका मंगल, सबका भला…’ ऐसा विचार करके आदमी सुखी हो जाता है ।

जो लोग फरियाद करते रहते हैं- ‘ऐसा नहीं है, वैसा नहीं है’, वे लोग अपने विचारों से ही अपना गला घोंटते हैं । फरियादात्मक विचार नहीं, ऐसे उन्नत विचार करो जिससे आत्मा-परमात्मा की भूख  जगे । गलत विचार करने से सत्यानाश हो जाता है । फरियादात्मक विचार, द्वेषपूर्ण विचार, झगड़ा करने-कराने वाले विचार से तो आदमी की कीमत नष्ट हो जाती है । तोड़ने वाला आदमी खुद ही टूट जाता है । फरिदायादात्मक विचार व्यक्ति को खिन्न बना देते हैं, तुच्छ बना देते हैं । दुर्जन सज्जन हो जाय, सज्जन को शांति मिले, शांत मुक्तात्मा हो जाय और मुक्तात्मा ब्रह्मज्ञानी दया करके संसारी लोगों के बीच में आयें-जायें, रहें ताकि संसारी ऊपर उठें, नहीं तो पशु की नाईं नीचे गिरेंगे ।

विचार करो ! मन में जैसा आया ऐसा भजन तो सभी लोग करते हैं । सारी जिंदगी कर-करके बूढ़े होकर, दुःखी होके मर रहे हैं । कौन दुःखों के ऊपर पैर रखकर महान हुआ ? ऐसा विचार करके ऐसे मुक्तात्मा गुरु की शरण में जाओ, ऐसे गुरु से वफादार रहो । वफादारी होगी सद्विचार से, गद्दारी होगी अविचार से । द्वेष होगा अविचार से, समता आयेगी विचार से ।

‘श्री योगवासिष्ठ’ में वसिष्ठ जी कहते हैं- “हे राम जी ! विचार से जीव ऐसे पद को प्राप्त होता है जो नित्य, स्वच्छ, अनंत पर परमानंदरूप है उसको पाकर फिर उसके त्याग की इच्छा नहीं होती है ।

जब ब्रह्मविचार की प्राप्ति हो तब जगत-भ्रम नष्ट हो जाय । कीचड़ का कीट, गर्त का कंटक और अँधेरे बिल में सर्प होना भला है परंतु विचार से रहित होना तुच्छ है ।”

उतना रुदन रोगी और कष्टवान पुरुष भी नहीं करता जितना रुदन विचारहीन व्यक्ति दुःख, पीड़ा, क्लेश, कलह, निंदा, बकबक, झकझक करके परेशान होकर करता है ।

वसिष्ठ जी कहते हैं- “जो पुरुष विचार से रहित होकर भोग में दौड़ता है वह श्वान है ।”

कुत्ते जैसे विचारहीन होकर भौंकते रहते हैं, कितने परेशान होते है ! एक कुत्ता भौंके तो उसके सामने दूसरा भी भौंकता है । रात भर दो-तीन गुट बनाकर भौंकते रहते हैं । देखो तो कुछ अर्थ नहीं निकलता । राग-द्वेष से प्रेरित होकर कर्म करना, अपने अहं को पोसना यह विचाररहित होना है । ‘अपना अहं ईश्वर में कैसे विसर्जित हो ?’ – यह सुविचार है ।

ऐसा विचार करें कि ‘मैं कौन हूँ ? यह जगत क्या है ? दुःख किसको होता है ? सुख किसको होता है ? जन्म-मरण क्यों होता है ? जन्म-मरण से पार कैसे होऊँ ? भगवान अपने आत्मा होकर बैठे हैं तो भी मिले नहीं हैं, तो कैसे पायें ?’ – ऐसे ऊँचे विचार को पकड़कर लग जाना चाहिए । नीच लोग नीच विचार को पकड़कर लग जाते हैं लेकिन ऊँचे लोगे ऊँचे विचार को पकड़कर फिर छोड़ देते हैं, उसमें महत्त्वबुद्धि नहीं रखते !

ऊँचे  विचारों में सबसे ऊँचा विचार है आत्मा – परमात्मा को पाने का, उससे ऊँचा और कोई विचार नहीं है । परमात्मा को पाने का विचार हो और अपनी योग्यता के अनुसार साधन करे । अपनी योग्यता के अनुसार साधन करे । अपनी योग्यता के अनुसार साधन आदमी को परम लक्ष्य परमात्मप्राप्ति तक पहुँचा देता है । लेकिन अपनी योग्यता का पता कैसे चले ? भगवान कहते हैं इसके लिए ज्ञानियों के पास जाओ ।

तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।

‘उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे ।’ (भगवद्गीताः 4.34)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2009, पृष्ठ संख्या 2-4 अंक 195

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शरीर का तीसरा उपस्तंभः ब्रह्मचर्य


ब्रह्मचर्य शरीर का तीसरा उपस्तंभ है । (पहला उपस्तंभ आहार व दूसरा निद्रा है, जिनका वर्णन पिछले अंकों में किया गया है । ) शरीर, मन, बुद्धि व इन्द्रियो को आहार से पुष्टि, निद्रा, मन, बुद्धि व इऩ्द्रियों को आहार से पुष्टि, निद्रा से विश्रांति व ब्रह्मचर्य से बल की प्राप्ति होती है ।

ब्रह्मचर्य परं बलम् ।

ब्रह्मचर्य का अर्थः

कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा ।

सर्वत्र मैथुनत्यागो ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते ।।

‘सर्व अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म तीनों से मैथुन का सदैव त्याग हो, उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं ।’ (याज्ञवल्क्य संहिता)

ब्रह्मचर्य से शरीर को धारण करने वाली सप्तम धातु शुक्र की रक्षा करती है । शुक्र सम्पन्न व्यक्ति स्वस्थ, बलवान, बुद्धिमान व दीर्घायुषी होते हैं । वे कुशाग्र व निर्मल बुद्धि, तीव्र स्मरणशक्ति, दृढ़ निश्चय, धैर्य, समझ व सद्विचारों से सम्पन्न तथा आनंदवान होते हैं । वृद्धावस्था तक उनकी सभी इन्द्रियाँ, दाँत, केश व दृष्टि सुदृढ़ रहती है । रोग सहसा उनके पास नहीं आते । क्वचित् आ भी जायें तो अल्प उपचारों से शीघ्र ही ठीक हो जाते हैं ।

भगवान धन्वंतरि ने ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन करते हुए कहा हैः

मृत्युव्याधिजरानाशि पीयूषं परमौषधम् ।

सौख्यमूलं ब्रह्मचर्यं सत्यमेव वदाम्यहम् ।।

‘अकाल मृत्यु, अकाल वृद्धत्व, दुःख, रोग आदि का नाश करने के सभी उपायों में ब्रह्मचर्य का पालन सर्वश्रेष्ठ उपाय है । यह अमृत के समान सभी सुखों का मूल है यह मैं सत्य कहता हूँ ।’

जैसे दही में समाविष्ट मक्खन का अंश मंथन प्रक्रिया से दही से अलग हो जाता है, वैसे ही शरीर के प्रत्येक कण में समाहित सप्त धातुओं का सारस्वरूप परमोत्कृष्ट ओज मैथुन प्रक्रिया से शरीर से अलग हो जाता है । ओजक्षय से व्यक्ति असार, दुर्बल, रोगग्रस्त, दुःखी, भयभीत, क्रोधी व चिंतित होता है ।

शुक्रक्षय के लक्षण (चरक संहिता) शुक्र के क्षय होने पर व्यक्ति में दुर्बलता, मुख का सूखना, शरीर में पीलापन, शरीर व इन्द्रियों में शिथिलता (अकार्यक्षमता), अल्प श्रम से थकावट व नपुंसकता ये लक्षण उत्पन्न होते हैं ।

अति मैथुन से होने वाली व्याधियाँ- ज्वर (बुखार), श्वास, खाँसी, क्षयरोग, पाण्डू, दुर्बलता, उदरशूल व आक्षेपक (Convulsions- मस्तिष्क के असंतुलन से आनेवाली खेंच) आदि ।

ब्रह्मचर्य रक्षा के उपायः

ब्रह्मचर्य-पालन का दृढ़ शुभसंकल्प, पवित्र, सादा रहन-सहन, सात्त्विक, ताजा अल्पाहार, शुद्ध वायु-सेवन, सूर्यस्नान, व्रत-उपवास, योगासन, प्राणायाम, ॐकार का दीर्घ उच्चारण, ‘ॐ अर्यामायै नमः’ मंत्र का पावन जप, शास्त्राध्ययन, सतत श्रेष्ठ कार्यों में रत रहना, सयंमी व सदाचारी व्यक्तियों का संग, रात को जल्दी सोकर ब्राह्ममुहूर्त में उठना, प्रातः शीतल जल से स्नान, प्रातः-सांय शीतल जल से जननेन्द्रिय-स्नान, कौपीन धारण, निर्व्यसनता, कुदृश्य-कुश्रवण-कुसंगति का त्याग, पुरुषों के लिए परस्त्री के प्रति मातृभाव, स्त्रियों के लिए परपुरुष के प्रति पितृ या भ्रातृ भाव – इन उपायों से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है । स्त्रियों के लिए परपुरुष के साथ एकांत में बैठना, गुप्त वार्तालाप करना, स्वच्छंदता से घूमना, भड़कीले वस्त्र पहनना, कामोद्दीपक श्रृंगार करके घूमना – ये ब्रह्मचर्य पालन में बाधक हैं । जितना धर्ममय, परोपकार-परायण व साधनामय जीवन, उतनी ही देहासक्ति क्षीण होने से ब्रह्मचर्य का पालन सहज-स्वाभाविक रूप से हो जाता है । नैष्ठिक ब्रह्मचर्य आत्मानुभूति में परम आवश्यक है ।

गार्हस्थ्य ब्रह्मचर्यः

श्री मनु महाराज ने गृहस्थाश्रम में ब्रह्मचर्य की व्याख्या इस प्रकार की हैः

ऋतुः स्वाभाविकः स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः ।

चतुर्भिरितरैः सार्द्धं अहोभिः सद्विगर्हिते ।।

अपनी धर्मपत्नी के साथ केवल ऋतुकाल में समागम करना, इसे गार्हस्थ्य ब्रह्मचर्य कहते हैं ।

रजोदर्शन के प्रथम दिन से सोलहवें दिन तक ऋतुकाल माना जाता है । इसमें मासिक धर्म की चार रात्रियाँ तथा ग्यारहवीं व तेरहवीं रात्रि निषिद्ध है । शेष दस रात्रियों से दो सुयोग्य रात्रियों में स्वस्त्री-गमन करने वाला व्यक्ति गृहस्थ ब्रह्मचारी है ।

श्री सुश्रुताचार्य जी ने इस गार्हस्थ्य ब्रह्मचर्य की प्रशंसा करते हुए कहा हैः

आयुष्मन्तो मन्दजरा वपुर्वर्णबलान्विताः ।

स्थिरोपचितमासाश्च भवन्ति स्त्रीषु संयता  ।।

‘स्त्रीप्रसंग में संयमी पुरुष आयुष्मान व देर से वृद्ध होने वाले होते हैं । उनका शरीर शोभायमान, वर्ण और बल से युक्त तथा स्थिर व मजबूत मांसपेशियों वाला होता है ।’

(सुश्रुत संहिताः चिकित्सास्थानम् 24.112)

इस प्रकार आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य का युक्तिपूर्वक सेवन व्यक्ति को स्वस्थ, सुखी व सम्मानित जीवन की प्राप्ति में सहायक होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 194

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चल-अचल


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

संत कबीर जी ने सार बात कहीः

चलती चक्की देखके दिया कबीरा रोय ।

दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय ।।

चक्की चले तो चालन दे तू काहे को रोय ।

लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय ।।

चक्की में गेहूँ डालो, बाजरा डालो तो पीस देती है लेकिन वह दाना पिसने से बच जाता है जो कील के साथ सटा रह जाता है, अबदल को छुए रहता है ।

यह बताने वाला जो चल रहा है, वह अचल के सहारे चल रहा है । जैसे बीच में कील होती है उसके आधार बर चक्की घूमती है, साईकिल या मोटर साइकिल का पहिया एक्सल पर घूमता है । एक्सल ज्यों-का-त्यों रहता है । पहिया जिस पर घूमता है, वह घूमने की क्रिया से रहित है । न घूमने वाले पर ही घूमने वाला घूमता है । ऐसे ही अचल पर ही चल चल रहा है, जैसे – अचल आत्मा के बल से बचपन बदल गया, दुःख बदल गया, सुख बदल गया, मन बदल गया, बुद्धि बदल गयी, अहं भी बदलता रहता है – कभी छोटा होता है, कभी बढ़ता है ।

जो अचल है वह असलियत है और जो चल है वह माया है । कोई दुःख आये तो समझ लेना यह चल है, सुख आये तो समझ लेना यह चल है, चिंता आये तो समझ लेना चल है, खुशी आये तो समझ लेना चल है । जो आया है वह सब चल है ।

अचल के बल से चल दिखता है । अचल सदा एकरस रहता है, चल चलता रहता है । तो दो तत्त्व है – प्रकृति ‘चल’ है और परमेश्वर आत्मा ‘अचल’ है । अचल में जो सुख है, ज्ञान है, सामर्थ्य है उसी से चल चल रहा है । जो दिखता है वह चल है, अचल दिखता नहीं । जैसे मन दिखता है बुद्धि से, बुद्धि दिखती है विवेक से और विवेक दिखता है अचल आत्मा से । मेरा विवेक विकसित है कि अविकसित है यह भी दिखता है अचल आत्मा से ।

अचल से ही सब चल दिखेगा, सारे चल मिलकर अचल को नहीं देख सकते । अचल को बोलते हैं- 1 ओंकार सतिनामु करता पुरखु…. कर्ता-धर्ता वही है अचल । वह अजूनी सैभं…. अयोनिज (अजन्मा) और स्वयंभू है । चल योनि (जन्म) में आता है, अचल नहीं आता । तो मिले कैसे ? बोलेः गुर प्रसादि । गुरु कृपा से मिलता है । चल के आदि में जो था, चल के समय  में भी है, चल मर जाय फिर भी जो रहता है वह सचु जुगादि.… युगों से अचल है ।

भगवान नारायण देवशयनी एकादशी से लेर देवउठी एकादशी तक अचल परमात्मा में शांत हो जाये हैं । साधु-संत भी चतुर्मास में अचल में आने के लिए कुछ समय ध्यानस्थ होते हैं, एकांत में बिताते हैं । भगवान श्री कृष्ण 13 अचल में रहे ।

आप हरि ओ….म्… इस प्रकार लम्बी उच्चारण करके थोड़ी देर शांत होते हैं तो आपका मन उतनी देर अचल में रहता है । थोड़े ही समय में लगता कि तनावमुक्त हो गये, चिंतारहित हो गये – यह ध्यान का तरीका है ।

ज्ञान का तरीका है कि एक चल है, दूसरा अचल है । अचल आत्मा है और चल शरीर है, संसार है, मन है, बुद्धि है । चल कितना ही बदल गया, देखा अचल ने । सुख-दुःख को जानने वाला भी अचल है । अगर इस अचल में प्रीति हो जाय, अगर अचल का ज्ञान पाने में लग जायें अथवा ‘मैं कौन हूँ’ ? यह खोजने में लग जायें तो यह अचल परमात्मा दिख जायेगा अथवा परमात्मा कैसे मिलें ?’ इसमें लगोगे तो अपने ‘मैं’ का पता चल जायेगा । क्योंकि जो मैं हूँ वही आत्मा है और जो आत्मा है वह अचल परमात्मा है । जो बुलबुला है वही पानी है और पानी ही सागर के रूप में लहरा रहा है । बोलेः “बुलबुला सागर कैसे हो सकता है ?”

बुलबुला सागर नहीं है लेकिन पानी सागर है । ऐसे ही जो अचल आत्मा है वह परमात्मा का अविभाज्य अंग है । घड़े का जो आकाश है, थोड़ा दिखता है लेकिन है यह महाकाश ही ।

जो अचल है उसमें आ जाओ तो चल का प्रभाव दुःख नहीं देगा । नहीं तो चल कितना भी ठीक करो, शरीर को कभी कुछ-कभी होता ही रहता है । ‘यह होता है तो शरीर को होता है, मुझे नहीं होता’ – ऐसा समझकर शरीर का इलाज करो लेकिन शरीर की पीड़ा अपने में मत मिलाओ, मन की गड़बड़ी अपने अचल आत्मा में मत मिलाओ तो जल्दी मंगल होगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 24, 15 अंक 194

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