Yearly Archives: 2009

निष्काम कर्मयोग


एक बार श्री रमण महर्षि से ‘वूरीज कॉलेज, वैलोर’ के तेलगु पंडित श्री रंगचारी ने निष्काम कर्म-विषयक जानकारी के लिए जिज्ञासा प्रकट की । महर्षि ने कोई उत्तर नहीं दिया । कुछ समय पश्चात महर्षि पर्वत पर घूमने गये । पंडित सहित कुछ अन्य व्यक्ति भी उनके साथ थे । मार्ग में एक काँटेदार लकड़ी पड़ी थी । महर्षि ने उसे उठा लिया और वहीं बैठकर धीरे-धीरे उसे ठीक करना प्रारम्भ कर दिया ।

काँटे तोड़े गये, गाँठें घिसकर समतल की गयीं, पूरी छड़ी एक खुरदरे पत्ते से रगड़कर चिकनी बनायी गयी । इस पूरे कार्य में लगभग छः घंटे लगे । एक काँटेदार लकड़ी से इतनी सुंदर छड़ी बन जाने पर सब आश्चर्य कर रहे थे । जैसे ही सब चले, मार्ग में एक गडरिया लड़का दिखा । उसकी छड़ी खो गयी थी इसलिए वह परेशान था । महर्षि ने तुरंत वह नयी छड़ी उस लड़के को दे दी और चल दिये ।

तेलगू पंडित ने कहाः “यह मेरे प्रश्न का यथार्थ उत्तर है ।”

तेलगू पंडित को अपने प्रश्न का उत्तर कैसे मिला, सोचें । पाठक इसमें अपनी मति लगायें ।

ममतावालों की परेशानी मिटानी स्वार्थ है । जिनसे ममता नहीं है उनकी परेशानी मिटाना यह निष्काम कर्म है । निरूद्देश्य कर्म नहीं, स्वार्थपूर्ण कर्म नहीं, कर्म से पलायनता नहीं, कर्म में डूबे रहना भी नहीं, कर्म के फल की लोलुपता भी नहीं !

विचरते-विचरते निर्लेप नारायण में थोड़ा शांत होना शुरु करो… फिर विचारो, फिर शांत हो । ॐकार का दीर्घ जप भी परम सत्कर्म है । ध्यान, शास्त्र-पठन और दूसरों को संस्कृति के प्रचार की ओर मोड़ना यह सीधा कर्मयोग है । धनभागी हैं ‘ऋषि प्रसाद’ की सेवा करने वाले ! धनभागी हैं समाज में सद्विचार, सद्भाव व सत्शास्त्र का प्रचार करने वाले ! जैसे गडरिये को सहारा मिला छड़ी का, ऐसे ही संसार में सद्विचार का सहारा मिलता है । यह निष्काम कर्म, ज्ञान की छड़ी लोक परलोक में भी रक्षा करती है । ॐ श्री परमात्मने नमः । ॐ शांति… हे स्वार्थ ! हे छल, छिद्र, झूठ, कपट ! दूर हटो । निश्छल नारायण में, सत्यस्वरूप प्रभु में, ज्ञानस्वरूप-साक्षीस्वरूप में वासनाओं की क्या आवश्यकता है ? छल, छिद्र कपट की क्या आवश्यकता है ? ॐ…ॐ…ॐ…

भगवान राम कहते हैं

मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।

स्वार्थ में ही छल, छिद्र, कपट होते हैं । ऊँचे उद्देश्य में कहाँ छल, छिद्र, कपट और वासना ! आपका ऊँचा ‘मैं’, ब्रह्मस्वभाव प्रकट करो । देर मत करो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 11 अंक 194

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नरक पावे सोई


भगवत्पाद पूज्य श्री लीलाशाह जी महाराज

मानव बनो, मानवता के गुण सीखो और प्राप्त करो । इन्सान वह है जो सबका भला सुने और करे । मीरा ने कहाः

जो निंदा करे हमारी, नरक पावे सोई ।

आप जाये नरक में, पाप हमारे धोई ।।

अपने को तो पहचाना नहीं और दूसरों की पहचान करने में लग गयाः ‘यह ऐसा है, वह ऐसा है….।’ अपने को अर्थात् आत्मा को । कोई विरला होता है, जो अपने आपको पहचानता है । प्रत्येक कहेगा कि मैं सही हूँ । तुम कहोगे कि स्वामी जी ! यह बात (अपने आपको पहचानना) आवश्यक है क्या ?’ अरे हाँ ! जिसने स्वयं को न पहचाना, वह दूसरों को क्या पहचानेगा ? वह तो पशु है !

मनुष्य-शरीर प्राप्त करके यदि तुमने सद्स्वभाव धारण नहीं किया, हृदय में ज्ञन के सूर्य को नहीं जगाया, अपने-आपको नहीं पहचाना तो फिर संसार में आकर तुमने क्या किया ? अपने-आपको पहचान लेने से ही मानव का कल्याण है ।

निंदा-स्तुति जीव को फँसाने वाली है । निंदा, द्वेष, चालबाजी, कपट – इनसे आप अपनी व समाज की हानि कर रहे हैं और न जाने कितनी योनियों में निंदा एवं कपट का फल भोगेंगे !

कहा गया हैः

कपट गाँठ मन में नहीं, सबसे सरल स्वभाव ।

नारायण वा वास की, लगी किनारे नाव ।।

अतः कपटरहित होकर भगवत्प्रेमी महापुरुष का संग करके, सत्संग करके अपने-आपको पहचान लो तो जन्म-मृत्यु के दुःखों से सदा के लिए छूट जाओ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 14 अंक 194

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मनुष्य दुःखी क्यों है ?


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

मनुष्य को अपने चित्त को किसी भी परिस्थिति व प्रसंग में दुःखी नहीं होने देना चाहिए । अगर चित्त दुःखी हुए बिना नहीं रहता है तो भगवान के चरणों में प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘हे प्रभु ! इस दुःखरूप संसार से बचाकर हमें आत्मज्ञान के प्रकाश की ओर ले चल, मोह-माया से छुड़ाकर सत्यस्वरूप आत्मा की ओर ले चल ।’ इस तरह करुण प्रार्थना करके भगवान या गुरु के निमित्त बनाकर उनके आगे अपने दुःख को बाहर निकाल देना चाहिए, उसे पी नहीं जाना चाहिए ।

वास्तव में मनुष्य दुःखी क्यों है ? क्योंकि जो वर्तमान में है उसकी कद्र नहीं और दूसरे को देखकर फरियाद करता रहता है । मैंने सुनी है एक कथाः

मोर का बच्चा रो रहा था । मोरनी बोलीः “बिट्टू क्यों रोता है ?”

बच्चा बोलाः “देखो, मैना का बच्चा कितना सुंदर है, कितना बढ़िया है !”

मोरनी बोलीः “चल, मैं तुझे उसके पास ले चलती हूँ ।”

गये तो मैना का बच्चा रो रहा था ।

मैना ने अपने बच्चे से पूछाः “तू क्यों रोता है ?”

बोलाः “मोर का बच्चा कितना सुंदर है !”

तो मोर का बच्चा समझता है कि मैना का बच्चा बढ़िया है और मैना का बच्चा समझता है मोर का बच्चा बढ़िया है । सेठ समझता है कि अफसर की मौज है और अफसर समझता है सेठों की मौज है । कुछ पुरुषों को यह भ्रम है कि स्त्रियाँ सुखी हैं और कुछ स्त्रियों को भ्रम है कि पुरुष सुखी हैं ।

‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ काकभुशुण्डिजी वसिष्ठ जी से कहते हैं- ‘हे मुनीश्वर ! जो कुछ ऐश्वर्यसूचक सुंदर पदार्थ हैं वे सब असत् रूप हैं । पृथ्वी पर चक्रवर्ती राजा और स्वर्ग में गंधर्व, विद्याधर, किन्नर, देवता और उनकी स्त्रियाँ व देवताओं की सेना आदि सब नाशवान हैं । मनुष्य, दैत्य, देवता तथा पहाड़, सरोवर, नदियाँ आदि जो कुछ बड़े पदार्थ हैं वे सभी नाशवान हैं  स्वर्ग, पृथ्वी व पाताल लोक में जो कुछ भोग हैं वे सब असत् और अशुभ हैं । कोई पदार्थ श्रेष्ठ नहीं । न पृथ्वी का राज्य श्रेष्ठ है, न देवताओं का रूप श्रेष्ठ है और न नागों का पाताल लोक श्रेष्ठ है, न बहुत जीना श्रेष्ठ है, न मूढ़ता से मर जाना श्रेष्ठ है, न नरक में पड़ना श्रेष्ठ है और न इस त्रिलोकी में अन्य कोई पदार्थ श्रेष्ठ है । जहाँ संत का मन स्थित है वही श्रेष्ठ है ।’

सुबह  उठकर उस सुखस्वरूप प्रभु में बैठ जाओः ‘मेरा परमात्मा सत् है, चित् है, आनंदस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है । हे मेरे प्यारे !

दीन दयाल बिरिदु संभारी ।

हरहु नाथ मम संकट भारी ।।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।’

तुम तो भगवत्स्मृति करो, भगवदाकार वृत्ति करो । शत्रुआकार वृत्ति होगी तो अंदर में जलन होगी । भयाकार वृत्ति, द्वेषाकार वृत्ति, रागाकार वृत्ति, मोहाकार वृत्ति – ये सब हम लोगों को फँसाने वाली वृत्तियाँ हैं । वृत्ति में डर आ गया तो भय पैदा होगा  अथवा राग पैदा होगा, द्वेष पैदा होगा, चिंता पैदा होगी और इससे हमारी शक्तियों का ह्रास होता है । तो क्या करें ?

हम भगवान के हैं, भगवान हमारे हैं और भगवान हमारे परम हितैषी हैं, परम सुहृद हैं । भगवान को अपना मान लो, जो कुछ सुख-दुःख आता है उसको साक्षीभाव से देखो, यथोचित व्यवहार करो, अपना उद्देश्य ऊँचा रखो । इससे सारे दुःखों के सिर पर पैर रखने की कला आ जायेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 194

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