नंगा होना तो कोई विरला जाने !

नंगा होना तो कोई विरला जाने !


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

गांधारी ने दुर्योधन को कहा किः “मैंने आँखों पर पट्टी बाँध रखी है। मेरा तप इतना है कि आँख पर से पट्टी खोलूँ तो जैसा चाहूँ वैसा हो जायेगा। बेटे ! तू सुबह एकदम नग्न होकर आ जाना। मैं तुझे वज्रकाय हो जायेगा, फिर तेरे को कोई मार नहीं सकेगा।”

गांधारी की तपस्या सब लोग जानते थे। पांडवों में सनसनी फैल गयी। ‘दुर्बुद्धि दुर्योधन वज्रकाय हो जायेगा, अमर हो जायेगा तो धरती पर अच्छे आदमी का रहना मुश्किल हो जायेगा ! क्या करें ?….’ इस प्रकार पांडव बड़े दुःखी, चिंतित थे। भगवान श्रीकृष्ण आये। पांडव बोलेः “गोविन्द ! क्या आपने सुना, गांधारी ने दुर्योधन को बुलाया है कि एकदम निर्वस्त्र होकर आ, मैं पट्टी खोलकर तुझे देखूँगी तो तू वज्रकाय हो जायेगा और तुझे कोई मार नहीं सकेगा।”

श्रीकृष्ण हँसे। पांडव बोलेः “माधव ! आपको तो सब विनोद लगता है।”

“अरे ! विनोद ही है। सारा प्रपंच ही विनोद है, सारी सृष्टि विनोदमात्र है। जैसे नाटिका में उग्र रूप, सामान्य रूप, स्नेहमय रूप दुष्टों का क्रूर रूप…. जो कुछ दिखाते हैं, वह सब दर्शक के विनोद के लिए होता है। ऐसे ही यह सारी सृष्टि ब्रह्म के विनोदमात्र के लिए है, इसमें ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है।”

“लेकिन वह दुर्योधन नंगा होकर जायेगा….”

“अरे ! वह बेवकूफ नंगा होना जानता ही नहीं है। नंगा होना जानता तो बेड़ा पार हो जाता। उसने तो अपने ऊपर काम के, क्रोध के, लोभ के, अहंता के विचारों के कई आवरण लगा दिये हैं।”

दुर्योधन नंगा होना जानता ही नहीं है, नंगा होना तो महापुरुष जानते हैं। अन्नमय कोष मैं नहीं हूँ, प्राणमय कोष मैं नहीं हूँ, मनोमय कोष मैं नहीं हूँ, विज्ञानमय कोष मैं नहीं हूँ, आनंदमय कोष मैं नहीं हूँ, बचपन मैं नहीं हूँ, जवानी मैं नहीं हूँ, बुढ़ापा मैं नहीं हूँ, सुख मैं नहीं हूँ, दुःख मैं नहीं हूँ…. इन सबको जाननेवाला मैं चैतन्य आत्मा हूँ – यह है नंगा होना।

खुश फिरता नंगम-नंगा है, नैनों में बहती गंगा है।

जो आ जाये सो चंगा है, मुख रंग भरा मन रंगा है।।

देखो रमण महर्षि कितने नंगे थे ! एक बार एक पंडित ने महर्षि के पास आकर लोगों को प्रभावित करने के लिए कई प्रश्न पूछे। महर्षि ने उठाया डंडा और पंडित को भगाने लगे। भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई, विदेशी पत्रकार पॉल ब्रंटन जैसे जिनके चरणों में बैठते थे, ऐसे रमण महर्षि कितने नंगे ! कोई आवरण नहीं। लोग सोच भी नहीं सकते कि शांत आत्मा, ब्रह्म-स्वरूप, सबमें अद्वैत ब्रह्म देखने की पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए रमण महर्षि को ऐसा भी क्रोध आता है !

अरे, क्रोधी तो अपने को जलाता है, वे महापुरुष तो क्रोध का भी उपयोग करते हैं। आ गया गुस्सा तो आ गया, किसी का अहित करने के लिए नहीं परंतु व्यवस्था सँभालने के लिए। देखो, महापुरुष कितने नंगम नंगे हैं ! कोई आवरण नहीं। तो दुर्योधन नंगा होना नहीं जानता और गांधारी पट्टी खोलना नहीं जानती। पट्टी खोलती है पर मोह-ममता चालू रखती है तो पट्टी क्या खोली ! अपनी वर्षों की तपस्या अपने रज से उत्पन्न एक जीव के पीछे नष्ट कर रही है ! मासिक धर्म के रक्त को पीकर जो शरीर बना है और अधर्म कर रहा है, उसके पीछे गांधारी अपनी तपस्या खत्म कर रही है। धर्म के पक्ष में निर्णय लेना चाहिए, वह तो ममता में निर्णय लेकर अपने पापी बेटे को दीर्घ जीवन देना चाहती है तो उसने पट्टी नहीं खोली, बेवकूफी की पट्टी बाँधे रखी।

लोग समझते हैं कि नंगा होने में क्या है, कपड़े उतार दिये तो हो गया नंगा ! अरे ! कपड़े उतारने से कोई नंगा होता है क्या ! वह तो बेशर्म आदमी है। अहं की चादरें पड़ी हैं, विकारों की चादरें पड़ी हैं, मान्यताओं की चादरें पड़ी हैं……। नंगा तो कोई भाग्यशाली हो। लोग फोटो में देखते हैं कि श्रीकृष्ण ने चीर हरण किया और गोपियों को नंगा किया। चित्रकार भी ऐसे ही चित्र बना देते हैं कि गोपियाँ बेचारी चिल्ला रही हैं और श्रीकृष्ण कपड़े ऊपर ले गये। यह बेवकूफी है। श्रीकृष्ण ने ग्वाल गोपियों को नंगा किया, मतलब ‘मैं गोपी हूँ, मैं ग्वाल हूँ, मैं अहीर हूँ, मैं फलाना हूँ…..’ इन मान्यताओं की परतें हटायीं।

पाँच शरीर होते हैं और हर शरीर में अपने-अपने विकार होते हैं। वही चादरें ओढ़कर जीव जी रहा है, नंगा होना जानता ही नहीं।

हम अमेरिका में स्वीमिंग पूल देखने गये थे। वह सब पुरुषों के शरीर पर कोई कपड़ा नहीं था, एकदम नंगे। ऐसे नंगा होने से तो पाप लगता है। शरीर को नंगा करना शास्त्रविरूद्ध है। स्नानागार में भी नंगा नहीं रहना चाहिए। कोई-न-कोई वस्त्र कटि पर होना चाहिए।

श्रीकृष्ण ने कहाः “गांधारी पट्टी खोलना नहीं जानती है और दुर्योधन नंगा होना नहीं जानता है। तुम चिंता क्यों करते हो ?”

“माधव ! लेकिन वह देख लेगी तो ?”

“अरे ! तुम देखो तो सही। वह किस रास्ते से जाता है, मैंने पता करके रखा है।”

दुर्योधन एकदम नंगधड़ंग होकर जा रहा था तो श्रीकृष्ण ने देख लिया। अब ढकने को कुछ था नहीं तो ऐसे ही बैठ गया। श्रीकृष्ण ने कहाः “अरे दुर्योधन ! तू इतना समझदार और ऐसे जा रहा है ! वह तेरी माँ है और तू इतनी बड़ी उम्र का है, मैं तो पुरुष हूँ, जब मेरे सामने तेरे को इतना संकोच होता है तो माँ के सामने जाने पर कैसा होगा ! कम-से-कम कटिवस्त्र तो पहन ले।”

दुर्योधन को लगा कि बात तो ठीक कहते हैं। उसने कटिवस्त्र (कमर से घुटने तक शरीर ढकने का वस्त्र) पहन लिया।

दुर्योधन गया गांधारी के पास और गांधारी ने संकल्प किया कि ‘दुर्योधन के शरीर पर जहाँ-जहाँ मेरी नजर पड़े, वे सभी अंग वज्रसमान हो जायें।’ सारी तपस्या दाँव पर लगा दी। पट्टी खोली तो देखती है कि दुर्योधन ने कटिवस्त्र पहना है। उसको देखकर बोलने लगीः “अरे अभागे ! यह क्या कर दिया तूने !”

श्रीकृष्ण ने भीम को कहाः “अब दुर्योधन को कहाँ मारने से मरेगा, वह उपाय समझ लें। इधर-उधर गदा मारने की जरूरत नहीं है कमर पर ही गदा मारना, गांधारी ने उसके मरने का रास्ता बता दिया है।”

गांधारी ईश्वर विधान को जानती तो थी, धर्म का उसे ज्ञान तो था लेकिन उसका धन मोहवश अधर्म की पीठ ठोंकता है। किसी भी व्यक्ति-वस्तु परिस्थिति में ममता हुई, आसक्ति हुई, मोह हुआ तो समझो की मरे ! इसलिए मोह-ममता नहीं होनी चाहिए और वह सदगुरु की कृपा बिना नहीं मिटती।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 23, 24 अंक 211

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *