(पूज्य बापू जी का सत्संग-गंगा से)
एक महात्मा हो गये स्वामी राम। स्वामी रामतीर्थ नहीं, दूसरे स्वामी राम। अभी उनका शरीर तो नहीं है पर देहरादून में संस्था है। देश-विदेश में उनके बहुत अनुयायी थे। स्वामी राम के गुरु बड़े उच्चकोटि के संत थे। वे एकांतप्रिय थे, जिस किसी से ज्यादा बात करना या मिलना उन्हें पसंद नहीं था।
स्वामी राम ने अपनी बाल्यावस्था में लिखा है कि भुवाल नाम के एक संन्यासी थे, जो संन्यास-दीक्षा के पहले बंगाल की ‘भवाल’ रियासत के राजकुमार थे। विवाह के बाद वे अपनी पत्नी के साथ दार्जिलिंग में रहते थे। उनकी पत्नी पहले से ही किसी डॉक्टर से प्रेम करती थी लेकिन शादी हो गयी इस राजकुमार से। फिर भी वह डॉक्टर उससे मिलने आता-जाता रहा। उनकी पत्नी और डॉक्टर ने मिलकर राजकुमार को साँप से विष के इंजेक्शन (सुई) लगाने शुरू कर दिये। राजकुमार समझते रहे कि यह विटामिन सी सुई लग रही है। डॉक्टर ने धीरे-धीरे वि, की मात्रा बढ़ायी और कुछ महीनों बाद विष ने अपना प्रभाव दिखाया, राजकुमार की मृत्यु हो गयी। दिखावा किया कि स्वाभाविक ढंग से मृत्यु हुई है।
राजकुमार की शव यात्रा में हजारों लोग एकत्रित हो गये। जलाने के लिए शहर से कुछ दूर एक पहाड़ी नाले के किनारे श्मशानघाट में ले गये। चिता तैयार की गयी लेकिन देव की लीला तो देखो ! एकाएक उस पहाड़ी इलाके में बहुत तेज बरसात आयी, दार्जिलिंग में तो वैसे ही कभी भी बरसात आ जाय। उस पहाड़ी इलाके में बरसात भी तेज आयी। ऐसी मूसलाधार बरसात आयी कि सारे लोग भाग गये। चिता को अग्नि लगी ही थी, शव का कफन थोड़ा-बहुत जला-न जला और बरसात ने सब तहस-नहस कर दिया। बरसात के कारण पहाड़ी नाले में भयंकर बाढ़ आ गयी और वह शव उसमें बह गया।
श्मशानघाट से तीन मील दूर स्वामी राम के गुरु अपने शिष्यों के साथ एक गुफा में ठहरे थे। उन्होंने उस कफन में लिपटे तथा बाँसों में बँधे शव को नाले में बहते देखा तो अपने शिष्यों को बोलेः “इस शव को ले आओ।” शव को नाले से निकालकर अर्थी की लकड़ी आदि जो बाँधी थी रस्सी-वस्सी से, वह खोली। लाश को उठाकर लाया गया। गुरुजी बोलेः “देखो, इसमें प्राण हैं, अभी यह मरा नहीं है। यह पूर्वजन्म का मेरा शिष्य है।” थोड़ा उपचार करके राजकुमार को उठाया लेकिन वे मौत की यह घटना, पूर्व का जीवन सब कुछ भूल गये थे। उनको गुरु ने पुनः दीक्षा दी और अपने साथ रख लिया। वे साधु बन गये। सात वर्ष तक साथ में रहे फिर गुरु जी बोलेः “जाओ बेटा ! देशाटन करो, विचरण करते-करते आगे बढ़ो। कहीं अटकना नहीं, अनुकूलता में रुकना नहीं और प्रतिकूलता को भी सत्य मत मानना। रोज अपना नित्य नियम और भगवद् ध्यान आदि करते रहना। समय पाते सब ठीक हो जायेगा।”
‘जो आज्ञा’ कहकर वे तो रवाना हुए। गुरुजी ने अपने शिष्यों से कहाः “इसकी बहन इसे पहचान लेगी और जब यह अपनी बहन से मिलेगा तब इसकी खोयी हुई स्मृति पुनः लौट आयेगी।”
राजकुमार परिव्राजक के रूप में भ्रमण करते हुए अनजाने में अपनी बहन के द्वार पर जा पहुँचे। बहन ने भैया को पहचान लिया और भैया का नाम लेकर पुकारा। भैया की खोयी हुई स्मृति जागृत हो गयी, उन्होंने अपनी पूरी कहानी बतायी। बात बिजली की नाईं गाँव में फैल गयी। लोग आपस में बोलने लगे कि ‘राजकुमार तो मर गये थे, हम तो श्मशान में छोड़कर आये थे !’
राजकुमार के संबंधियों ने न्यायालय की शरण ली। बाबाजी ने अपने दो शिष्यों को राजकुमार की मदद में भेज दिया। शिष्यों ने भी जब सच्चाईपूर्वक बात कही तो हजारों आदमी उनके पक्ष में हो गये और कौतूहलवश हजारों आदमी दूसरे पक्ष में भी हो गये। दार्जिलिंग के न्यायालय में इतनी भीड़ कभी नहीं हुई थी जितनी इसके निमित्त हुई। लोग उत्सुक थे कि सच्चाई क्या है ?
राजकुमार योग-साधना करते थे, अपनी स्मृति के बल से स्मरण करके न्यायालय में अपना पूरा वृत्तान्त बताया कि ‘ऐसे-ऐसे साँप के जहर के इंजेक्शन मुझे देते थे। मैं समझता था कि विटामिन मिल रहा है। इस तरह से मेरी मृत्यु हुई, ऐसी शवयात्रा हुई। मूसलाधार वर्षा हुई, शव बह गया और इस तरह से गुरुजी ने मुझे बचाया।’
आखिर न्यायालय में यह सिद्ध हो गया कि राजकुमार की पत्नी ने अपने प्रेमी डॉक्टर से मिलकर उनको साँप के जहर के इंजेक्शन दिये थे तथा स्वामी जी ने उनको अपना पूर्व-साधक समझकर मदद की और शेष जिंदगी बचायी है।
राजकुमार की जीत हुई और वे पुनः अपने भवाल नामक राज्य में लौट पड़े। उनके गुरुजी की यही आज्ञा थी। वे एक साल तक रहे फिर शरीर छोड़ दिया।
इन कथाओं से यह बात सामने आती है कि तुमको जितना दिखता है, सुनाई पड़ता है उतना ही जगत नहीं है, जगत और कुछ, बहुत सारा है लेकिन यह अष्टधा प्रकृति के अंदर हैं। जब तक प्रकृति को ‘मैं’ मानते रहेंगे, प्रकृति के शरीर को ‘मैं’ मानते रहेंगे व वस्तुओं को ‘मेरा’ मानते रहेंगे, तब तक असली ‘मैं’ स्वरूप जो परमात्मा है वह छुपा रहता है और जन्म मृत्यु, जरा व्याधि की यातनाओं के कष्ट और शोक तथा राग द्वेष, तपन में जीव तपते रहते हैं। ऐसा भी कोई है जो इन सबसे परे राग-द्वेष, कष्ट, शोक को जान रहा है। जिन्होंने अपने उस चिदानंदस्वरूप को, सत्स्वरूप को ‘मैं’ के रूप में जान लिया वे धन्य हैं ! उनके दर्शन करने वाले भी धन्य हैं ! ब्रह्म गिआनी का दरसु1 बडभागी पाईऐ।(गुरुवाणी) 1 दर्शन.
वह लक्ष्य रखो, ऊँचा उद्देश्य, ऊँचा लक्ष्य रखो।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 211
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