Monthly Archives: September 2010

जीवन का परम लक्ष्यः आत्मसाक्षात्कार


पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से

पूज्य बापू जी के आत्मसाक्षात्कार-दिवस 9 अक्टूबर पर विशेष

आज के दिन जितना हो सके आप लोग मौन का सहारा लेना। यदि बोलना ही पड़े तो बहुत धीरे बोलना और बार-बार अपने मन को समझाना कि ‘तेरा आसोज सुद दो दिवस कब होगा ? ऐसे दिन कब आयेंगे जिस क्षण तू परमात्मा में खो जायेगा ? ऐसी घड़ियाँ कब आयेंगी जब सर्वव्यापक, सच्चिदानंद परमात्मस्वरूप हो जायेंगे ? ऐसी घड़ियाँ कब आयेंगी जब निःसंकल्प अवस्था को प्राप्त हो जायेंगे ? योगी दिव्य शरीर पाने के लिए योग करते हैं, धारणा करते हैं लेकिन वह दिव्य शरीर भी प्रकृति का होता है और अंत में नाश हो जाता है। मुझे न दिव्य भोग भोगने हैं, न लोक-लोकान्तर में विचरण करना है, न दिव्य देव-देह पाकर विलास करना है। मैं तो सत्, चित्, आनंदस्वरूप हूँ, मेरा मुझको नमस्कार है। ऐसा मुझे कब अनुभव होगा ? जो सबके भीतर-बाहर चिदघनस्वरूप है, सबका आधार है, सबका प्यारा है, सबसे न्यारा है, ऐसे उस सच्चिदानन्द परमात्मा में मेरा मन विश्रान्त कब होगा ?’

दीर्घ ॐकार जपते-जपते मन को विश्रान्ति की तरफ ले जाना। ज्यों-ज्यों मन विश्रांति को उपलब्ध होगा, त्यों-त्यों तुम्हारा तो बेड़ा पार हो ही जायेगा साथ ही तुम्हारा दर्शन करने वाले का भी बेड़ा पार हो जायेगा।

योग की पराकाष्ठा दिव्य देह पाना है, भक्ति की पराकाष्ठा भगवान के लोक में जाना है, धर्म-अनुष्ठान की पराकाष्ठा स्वर्ग सुख भोगना है लेकिन साक्षात्कार की पराकाष्ठा अनंत-अनंत ब्रह्माण्डों में फैल रहा जो चैतन्य है, जिसमें कोटि-कोटि ब्रह्मा होकर लीन हो जाते हैं, जिसमें कोटि-कोटि इन्द्र राज्य करके विनष्ट हो जाते हैं, जिसमें अरबों-खरबों राजा उत्पन्न होकर लीन हो जाते हैं उस चैतन्यस्वरूप से साथ अपने-आपका ऐक्य अनुभव करना है। यह साक्षात्कार की कुछ खबरें हैं। साक्षात्कार कैसा होता है उसको वाणी में नहीं लाया जा सकता।

धर्म में, भक्ति में, योग में और साक्षात्कार में क्या अंतर हैं यह समझना चाहिए। योग मन और इन्द्रियों को शुद्ध करने में एवं हर्ष और शोक को दबाने के काम आता है। धर्म अधर्म से बचने के काम आता है। भक्ति भाव को शुद्ध करने के काम आती है। भोग हर्ष पैदा करने के काम आते हैं। लेकिन साक्षात्कार इन सबसे ऊँची चीज है।

आसोज सुद दो दिवस, संवत बीस इक्कीस।

मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस।।

देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निस्सार।

हुआ आत्मा से तभी, अपना साक्षात्कार।।

धर्म से स्वर्ग आदि की उपलब्धि होती है, स्वर्ग में जाना पड़ता है। भक्ति से वैकुंठ अथवा अपने-अपने उपास्य के लोक में सुख लेने के लिए जाना पड़ता है। योग से दिव्य देह पाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। लेकिन साक्षात्कार सारे कर्तव्य छुड़ा देता है।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।

मोह कभी न ठग सके,

इच्छा नहीं लवलेश।।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।……

सारे कर्तव्य, भोक्तव्य की प्रीति को पार कर अपने सहज-सुलभ आत्मानंद में मस्त हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 2, अंक 213

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हम दुःखी क्यों हैं ?


(पूज्य बापू जी की बोधमयी अमृतवाणी)

लोग बोलते हैं हम दुःखी हैं, दुःखी हैं, दुःखी हैं लेकिन वेदान्त कहता है दुःख का वजन कितना है ? 50 ग्राम, 100 ग्राम, 200 ग्राम, किलो, आधा किलो ? दुःख का कोई वजन देखा ? नहीं दुःख का रंग क्या है ? कोई भी रंग नहीं। दुःख का रूप क्या है ? रूप भी कोई नहीं। दुःख की ताकत कितनी है ? उसकी अपनी ताकत भी कुछ नहीं। दुःख ईश्वर के पास भी नहीं है, दुःख हम चाहते भी नहीं है फिर भी हम दुःखी हैं। दुःख ईश्वर ने बनाया नहीं, दुःख प्रकृति ने बनाया नहीं। माँ बच्चे के लिए दुःख बनाती है क्या ? फिर बच्चे दुःखी क्यों होते हैं ? नासमझी से। स्कूल जाने में फायदा है लेकिन माँ वहाँ ले जाती है तो दुःखी होते हैं, क्यों ? बेवकूफी से। स्नान करने से उनका मैल कटता है लेकिन ॐऽऽऽ करते हैं। दुःखी होते हैं। तो नासमझी के सिवाय दुःख का न रंग है, न रूप है, न वजन है।

दो प्रकार की दुनिया होती है। एक होती है – ईश्वर की दुनिया, उसमें दुःख नहीं है। दूसरी दुनिया हम बेवकूफी से बनाते हैं। जैसे हीरा-मोती, माणिक – ये ईश्वर ने बनाये लेकिन ये हीरे, मोती, माणिक इसके पास हैं, मेरे पास नहीं हैं….’ यह सोचकर दूसरा दुःखी हो रहा है। किन्तु जिसके पास हैं वह भी तो छोड़कर मरेगा। मेरे पास होंगे को तू भी छोड़कर मरेगा। अभी तू अंतरात्मा, परमात्मा को धन्यवाद दे कि खाने को है, रहने को है, ये पत्थर नहीं है तो क्या है, होंगे तो क्या है ! उसके पास है तो उसे अहंकार हो रहा है कि ‘मेरे पास हीरे हैं, मोती हैं, माणिक हैं।’ वह अहंकार से फँस रहा है और तू बेवकूफी से फँस रहा है। ईश्वर की सृष्टि में न हीरे दुःख देते हैं, न सुख देते हैं। ईश्वर तो कई रूप, कई रंग, कई प्रसंग पैदा करके तुम्हें आह्लादित करते हैं, आनंदित करते हैं, तुम्हारा ज्ञान बढ़ाते हैं, तुम्हारी प्रीति बढ़ाते हैं, तुम्हारी भक्ति बढ़ाते हैं। तुम जन्म लेकर माँ की गोद में आये तो तुम्हारे लिए दूध माँ ने नहीं बनाया, बाप ने नहीं बनाया, बाप-के-बाप ने भी नहीं बनाया। माँ तो रोटी-सब्जी खाती है लेकिन तुम्हारे आने से पहले ही भगवदसत्ता ने शरीर में दूध बना दिया। जब चाहिए, जितना चाहिए, सकुर, सकुर, सकुर पिया, फिर मुँह घुमा दिया। वह जूठा नहीं माना जाता, गर्म नहीं करना पड़ता, फ्रिज में नहीं रखना पड़ता। यह किसने बनाया ? परम दयालु की सत्ता ने ही तो बनाया। न ज्यादा ठंडा न ज्यादा गर्म, न ज्यादा मीठा न ज्यादा फीका, यह इतना बढ़िया, अनुकूल दूध किसी जड़ मशीन ने बनाया कि चेतन परमात्मा की सत्ता से बना ? बोलो ! किसी दुश्मन ने बनाया कि परम हितैषी ईश्वर ने बनाया, समझदारी से बनाया, करूणा से बनाया। भगवान कभी-कभी अनुकूलता देते हैं तो हमें उत्साहित करते हैं और कभी प्रतिकूलता देते हैं तो हमें सावधान करते हैं और कि हेकड़ी न लाओ। कभी बीमारी देते हैं कि बदपरहेजी न करो और कभी तंदरुस्ती देते हैं कि सेवा करो, भजन करो, मुझे पहचानो। तो बताओ भगवान दुःख देते हैं कि उन्नति देते हैं ! भगवान हमारे हितैषी हैं कि हमारे दुश्मन हैं ? हितैषी हैं। जब भगवान हमारी उन्नति चाहते हैं, हमारे हितैषी हैं, हम भी उन्नति चाहते हैं, अपना हित चाहते हैं फिर भी दुःख है तो क्यों है ? क्योंकि हम भगवान की हाँ-में-हाँ नहीं करते। हम अपनी बेवकूफी से भगवान को अपने ढंग से चलाना चाहते हैं – ऐसा कर दे, ऐसा कर दे, ऐसा हो जाये, ऐसा हो जाये…. सिनेमा में अच्छा महल, माड़ियाँ, बगीचे दिखते हैं। अब देखने वाला बोलेः “बस यही दिखेंगे, डाकू भी दिखेंगे, लवर-लवरियाँ भी दिखेंगे। ये सारे सिनेमा के बदलते हुए दृश्य हैं। अब कोई बोलेः ‘ये नहीं आयें, ऐसा ही हो, यह रूका रहे।’ तो तुम्हारे कहने से रूकेगा नहीं, थमेगा नहीं और चाहो कि चला जाय तो जायेगा नहीं। यह तो फिल्म है तुम्हें आह्लादित करने के लिए आनंदित करने के लिए, सुझबूझ बढ़ाने के लिए।

तो भगवान ने तो शास्त्र बनाये। ज्ञान का, भक्ति का, सत्कर्म का मार्ग बनाया। गुरुमंत्र पाने का सौभाग्य उपलब्ध किया। भगवान तो हमारा हित चाहते हैं। अब हम फिलम देखें, कूड़ कपट करें, शराब पियें, जुआ खेलें, दूसरे की निंदा करें तो हम ही तो दुःख बनाते हैं न !

तो दुःख का कोई रूप नहीं, दुःख का कोई रंग नहीं, दुःख का कोई वजन नहीं । बेवकूफी का नाम है दुःख। नासमझी का नाम है दुःख। दुराग्रह का नाम है दुःख।

कोई मरता है तो उसका दुःख नहीं लेकिन यदि उसके साथ ‘यह मेरा है’ की मान्यता है तो दुःख होता है। कोई जन्मता है तो उसका सुख नहीं किंतु ‘यह मेरे घर जन्मा है’। – यह मान्यता जुड़ी है तो सुख होता है तो हम शरीर को ‘मैं’ मानतें और संबंधों को ‘मेरा’ मानते हैं पर मैं जहाँ से स्फुरित होता है उस आत्मा-परमात्मा को मेरा मानें और संसार को सपना माने, यथायोग्य व्यवहार करें तो बहुत खुशी रहती है, आनंद रहता है। ‘ये हीरे मेरे हैं, ये मोती मेरे हैं, यह मकान मेरा है….’ अरे,यह है उसके पहले किसी के पास था, बाद में किसी के पास रहेगा। जिस जमीन को अपनी मानते हो वह पहले किसी की थी और तुम्हारे मरने के बाद या पहले किसी दूसरे की हो जायेगी। तो ‘ये चीजें मेरी हैं।’ नहीं, मेरी मानना ऊपर से, अंदर से समझो कि ‘यह सब सपना है। इसको जानने वाला मेरा प्रभु अपना है। मरने के बाद भी जो साथ नहीं छोड़ता वह प्रभु अपना है।’ इस प्रकार का ज्ञान आने से सदा आनंद है।

तो दुःख भगवान ने नहीं बनाया लाली ! लाले ! दुःख प्रकृति ने नहीं बनाया भैया ! बहन जी ! आसक्ति, अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष इन्हीं से दुःख होता है। अविद्या मिटेगी तत्त्वज्ञान से, राग-द्वेष मिटेगा ईश्वर की उपासना, ध्यान से। बस, हो गयी ईश्वर की प्रीति, परमानंद की प्राप्ति !

दुःख परमात्मा ने नहीं बनाया और दुःख तुम चाहते नहीं ! बेवकूफी का दूसरा नाम है दुःख और बेवकूफी मिटती है सत्संग से, सत्संग से विवेक जगता है।

बिनु सत्संग बिबेक न होई।

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

(श्री रामचरित. बा.कां. 2.4)

भगवान की सामान्य कृपा हुई तो मनुष्य जन्म मिला। भगवान की विशेष कृपा हुई तो श्रद्धा हुई और गुरु मिले। भगवान की और विशेष कृपा हुई तो गुरुमंत्र की दीक्षा मिली और भगवान प्यारे लगने लगे। भगवान प्यारे लगने लगे तो देर-सवेर उस दुलारे का ज्ञान भी प्रकट होगा, विवेक भी प्रकट होगा।

एक बार मंदी की लहर चली और एक बड़ा स्कूल बंद हो गया। मास्टर बेरोजगार हो गये और बेचारे रोजी-रोटी के लिए इधर-उधर भटकने लगे। कोई सर्कस में गया। सर्कसवाला उससे बोलाः “मास्टर साहब ! तुमको नौकरी तो मिलेगी पर तुमको शेर बनना पड़ेगा।”

“मैं शेर कैसे बनूँगा ?”

“अरे, डरो मत ! थोड़ा पैरों से और हाथों से चलने का प्रशिक्षण ले लो और शेर का मुँह और शेर की खाल पहना देंगे, फिर ऊपर तार पर चलना।”

“शेर की खाल ही पहननी है ?”

“हाँ।”

“बढ़िया नौकरी मिली। चलो, वहाँ गयी तो यहाँ रोजी चालू हो गयी।”

मास्टर ने प्रशिक्षण ले लिया। सर्कस में नाम हुआ। ‘एक नया शेर आया है, शेर-ए-बबर। शेर-ए-बबर तार पर चलेगा और नीचे रहेंगे गुर्राते हुए शेर…. सर्कस देखकर आप ताज्जुब करेंगे। हैरानी हो जाये हैरानी !’ लोगों ने टिकटें खरीदीं। सर्कस हाउसफुल ! मास्टर साहब शेर की खाल पहन कर चले और म्यूजिक से गुर्राता रहे… वह तो सर्कसवाले कर लेते हैं परंतु मास्टर ने देखा कि नीचे चार शेर गुर्रा रहे हैं। मास्टर जी घबराये, बैलेंस छूटा, धड़ाक-धूम ! वे जाली पर गिरे। अब देखा कि कहीं ये शेर खा न जायें ! तब वे जो चार शेर खड़े थे, बोलेः “पागल ! हम भी उसी स्कूल के बेरोजगार लोग हैं, तू डरता काहे को है ? हमारा भी तेरे जैसा मेकअप है।”

ऐसे ही संसार में कोई किसी धन से, कोई किसी सत्ता से, कोई और किसी से बड़ा तो दिखता है पर अंदर से बेचार सब वही-के-वही हैं, बिना रस के बेचारे ! जैसे बेरोजगार मास्टर, ऐसे ही भगवान से विमुख संसारी बेचारे किसी-न-किसी पीड़ा में मेकअप करके शेर बन के दिखते हैं लेकिन हैं वही-के-वही। कोई किसी दुःख में, कोई किसी चिंता में, कोई किसी तनाव में, कोई किसी समस्या में उलझा हुआ है।

कुल मिलाकर आपका आत्मा शाश्वत है, नित्य है।

ईश्वर अंस जीव अविनासी।

चेतन अमल सहज सुख रासी।।

(श्री रामचरित. उ.कां. 116.1)

आप सहज में सुखराशि हो लेकिन ये आगुतुक चिंता, विकार, मान्यताएँ आपको दुःखी कर देती हैं। आप दुःख चाहते नहीं, ईश्वर ने दुःख बनाया नहीं, माया ने, प्रकृति ने दुःख बनाया नहीं, दुःख अज्ञानता के कारण है। अपने को दुःखी और पीड़ित मानकर दुःख, पीड़ा को गहरा न उतरने दो। ‘दुःख मन में आता है, पीड़ा शरीर में आती है। मैं उन सबको जानने वाला भगवान का अमृतपुत्र हूँ।’ – ऐसा आत्मविचाररूपी उपाय करके दुःख को, पीड़ा को भगा सकते हो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 14,15,16 अंक 213

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भोजन-पात्र विवेक


भोजन शुद्ध, पौष्टिक, हितकर व सात्त्विक बनाने के लिए हम आहार-व्यंजनों पर जितना ध्यान देते हैं उतना ही ध्यान हमें भोजन बनाने के बर्तनों पर भी देना आवश्यक है। अन्न-पदार्थ जिस बर्तन में पकाये जा रहे हैं उस बर्तन के गुण अथवा दोष उस आहार द्रव्य में समाविष्ट हो जाते हैं। अतः किस प्रकार के बर्तनों में भोजन बनाना अथवा करना चाहिए इस पर भी शास्त्रों ने निर्देश दिये हैं।

भोजन के समय खाने व पीने के पात्र अलग-अलग होने चाहिए। वे स्वच्छ, पवित्र व अखंड होने चाहिए। सोना, चाँदी, काँसा, पीतल, लोहा, काँच, पत्थर अथवा मिट्टी के बर्तनों में भोजन करने की पद्धति प्रचलित है। इसमें सुवर्णपात्र सर्वोत्तम तथा मिट्टी के पात्र हीनतम माने गये हैं। सोने के बाद चाँदी, काँसा, पीतल, लोहा और काँच के बर्तन क्रमशः हीन गुण वाले होते हैं।

काँसे के पात्र बुद्धि वर्धक, स्वाद अर्थात् रूचि उत्पन्न करने वाले हैं। अतः काँसे के पात्र में भोजन करना चाहिए। इससे बुद्धि का विकास होता है। उष्ण प्रकृतिवाले व्यक्ति तथा अम्लपित्त, रक्तपित्त, त्वचाविकार, यकृत व हृदयविकार से पीड़ित व्यक्तियों के लिए काँसे के पात्र स्वास्थ्यप्रद हैं। इससे पित्त का शमन व रक्त की शुद्धि होती है। परंतु ‘स्कन्द पुराण’ के अनुसार चतुर्मास के दिनों में ताँबे व काँसे के पात्रों का उपयोग न करके अन्य धातुओं के पात्रों का उपयोग करना चाहिए। चतुर्मास में पलाश (ढाक) के पत्तों में या इनसे बनी पत्तलों में किया गया भोजन चान्द्रायण व्रत एवं एकादशी व्रत के समान पुण्य प्रदान करने वाला माना गया है। इतना ही नहीं, पलाश के पत्तों में किया गया एक-एक बार का भोजन त्रिरात्र व्रत के समान पुण्यदायक और बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला बताया गया है। चतुर्मास में बड़ के पत्तों या पत्तल पर किया गया भोजन भी बहुत पुण्यदायी माना गया है।

केला, पलाश या बड़ के पत्ते रूचि उत्पन्न करने वाले, विषदोष का नाश करने वाले तथा अग्नि को प्रदीप्त करने वाले होते हैं। अतः इनका उपयोग हितावह है।

लोहे की कड़ाही में सब्जी बनाना तथा लोहे के तवे पर रोटी सेंकना हितकारी है इससे रक्त की वृद्धि होती है। परंतु लोहे के बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिए इससे बुद्धि का नाश होता है। स्टील के बर्तन में बुद्धिनाश का दोष नहीं माना जाता। पेय पदार्थ चाँदी के बर्तन में लेना हितकारी है लेकिन लस्सी आदि खट्टे पदार्थ न लें। पीतल के बर्तनों को कलई कराके ही उपयोग में लाना चाहिए।

एल्यूमीनियम के बर्तनों का उपयोग कदापि न करें। वैज्ञानिकों के अनुसार एल्यूमीनियम धातु वायुमंडल से क्रिया करके एल्यूमीनियम ऑक्साइड बनाती है, जिससे इसके बर्तनों पर इस ऑक्साइड की पर्त जम जाती है। यह पाचनतंत्र, दिमाग और हृदय पर दुष्प्रभाव डालती है। इन बर्तनों में भोजन करने से मुँह में छाले, पेट का अल्सर, एपेन्डीसाईटिस, रोग, पथरी, अंतःस्राव, ग्रन्थियों के रोग, हृदयरोग, दृष्टि की मंदता, माईग्रेन, जोड़ों का दर्द, सर्दी, बुखार, बुद्धि की मंदता, डिप्रेशन, सिरदर्द, दस्त, पक्षाघात आदि बीमारियाँ होने की पूरी संभावना रहती है। एल्यूमीनियम के कुकर का उपयोग करने वाले सावधान हो जायें।

आजकल भोजन पकाने के लिए माइक्रोवेव ओवन का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इससे बने भोजन के घटकों में विकृति पैदा होती रहती है तथा भोजन में कैंसर पैदा करने वाले कण पैदा हो जाते हैं। उस भोजन को खाये बिना भी मात्र उसके सम्पर्क में आने से भी शरीर पर कुप्रभाव पड़ता है। इन उपकरणों के 500 मीटर की परिधि में आने वाले जीव-जंतु तथा पेड़-पौधों की जीवनशक्ति का ह्रास होता है।

जलीय कणों में उछाल पैदा करके माइक्रोवेव शरीर के सिर से लेकर पैर के नाखूनों तक की सभी कोशिकाओं के जलीय वितरण में विकृति पैदा कर देती है, जिससे शरीर के सभी अंगों तथा तंत्रों में विकृति पैदा होती है। (मोबाइल फोन भी कान से ढाई से.मी. की दूरी पर रखा जाय।)

माइक्रोवेव ओवन से बने हुए भोजन का उपयोग करने वाले को होने वाली हानियाँ-

यादशक्ति की कमी।

एकाग्रता में कमी।

भावनात्मक अस्थिरता।

बुद्धि की हानि होने की सम्भावना रहती है।

प्लास्टिक की थालियाँ (प्लेट्स) व चम्मच, पेपल प्लेट्स, थर्माकोल की प्लेट्स, सिल्वर फाइल, पालीथिन बैग्ज आदि का उपयोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

पानी पीने के पात्र के विषय में ‘भावप्रकाश’ ग्रंथ में लिखा है कि पानी पीने के लिए ताँबा, स्फटिक या काँच-पात्र का उपयोग करना चाहिए। ताँबा तथा मिट्टी के जलपात्र पवित्र व शीतल होते हैं। टूटे-फूटे बर्तन से अथवा अंजलि से पानी नहीं पीना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 30, 31 अंक 213

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