(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)
उद्धव ने देखा कि अब सोने की द्वारिका के साथ पूरा यदुवंश यानी भगवान का पूरा परिवार उनकी आँखों के सामने खत्म हो रहा है, फिर भी श्रीकृष्ण को कोई शोक नहीं, आसक्ति नहीं। वे आत्मा में निष्ठ हैं, तत्त्व में खड़े हैं। वे प्रपंच को सत्य नहीं मानते। सब प्रपंच मिथ्या है।
यह मिथ्या प्रपंच का विसर्जन हो रहा था। उद्धव ने देखा कि भगवान अपनी माया समेट रहे हैं। अब वे स्वधाम जाने की तैयारी में हैं। उन्होंने कहाः “प्रभु ! दया करो। मुझे साथ में ले चलो।”
श्रीकृष्ण ने कहाः “उद्धव ! साथ में कोई आया नहीं और साथ में कोई जायेगा नहीं।
यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः।
नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम्।।
(श्रीमद् भागवतः 11.7.7)
मन से, वाणी से, आँख से, कान से जो कुछ अनुभव में आता है वह सब नश्वर है, मनोमय है, मायामात्र है – ऐसा समझ लो। हे उद्धव ! मैं तुझे तत्त्वज्ञान सुनाता हूँ। वह सुनकर तू बदरिकाश्रम चला जा, एकांत में बैठ जा। ‘मैं आत्मा हूँ तो कैसा हूँ ?’ यह खोज। ‘मैं कौन हूँ….? मैं कौन हूँ ?’ यह अपने आपको गहराई से पूछ।”
बच्चा ‘यह क्या है ? वह क्या है ? यह कौन है ?’ ऐसा पूछता है लेकिन ‘मैं कौन हूँ ?’ ऐसा संसार के किसी बच्चे ने नहीं पूछा। वह आत्मज्ञान का खजाना बंद का बंद रह गया।
अब तुम अपने-आपसे पूछोः ‘मैं कौन हूँ ?’ खाओ, पियो, चलो, घूमों फिर पूछोः ‘मैं कौन हूँ?’
‘मैं रमणलाल हूँ।’
यह तो तुम्हारी देह का नाम है। तुम कौन हो ? अपने को पूछा करो। जितनी गहराई से पूछोगे, उतना दिव्य अनुभव होने लगेगा। एकांत में, शांत वातावरण में बैठकर ऐसा पूछो…. ऐसा पूछो कि बस, पूछना ही हो जाओ। एक दिन, दो दिन, दस दिन में यह काम नहीं होगा। खूब अभ्यास करोगे तब ‘मैं कौन हूँ?’ यह प्रगट होने लगेगा और मन की चंचलता मिटने लगेगी, बुद्धि के विकार नष्ट होने लगेंगे तथा शरीर का तूफान शांत होने लगेगा। यदि ईमानदारी से साधना करने लगो न, तो छः महीने में वहाँ पहुँच जाओगे, जहाँ छः साल बैलगाड़ी चले और छः घण्टे हवाई जहाज उड़े तो कौन आगे पहुँचेगा ? तत्त्वज्ञान हवाई जहाज की यात्रा है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- “हे उद्धव ! तू बदरिकाश्रम चला जा। कोई किसी का नहीं है। कोई किसी के साथ आया नहीं, कोई किसी के साथ जायेगा नहीं। तू बोलता है कि मैं तुम्हारे साथ चलूँ लेकिन तू मेरे साथ आया नहीं, न मैं तेरे साथ आया हूँ। सब अकेले-अकेले जायेंगे। मुझसे तू तत्त्वज्ञान सुन ले। फिर मुझसे तू ऐसा मिलेगा कि बिछुड़ने का दुर्भाग्य ही नहीं आयेगा।”
ऐसे तो श्रीकृष्ण उद्धव के सिर पर हाथ रख देतेः ‘फुर्रर्र…. ! तू मुक्त हो गया !’ नहीं, श्रीकृष्ण ने तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया और कहा कि ‘जो उपदेश दिया है, उसका बराबर अनुभव कर !’
पशु होते हैं न, वे पहले घास ऐसे ही खाते हैं, फिर बैठे-बैठे जुगाली करते हैं। ऐसे ही तुम भी कथा-सत्संग सुन लो, फिर एकांत में जाकर उसका चिंतन-मनन करो।
जितनी देर सुनते हो उससे दस गुना मनन करना चाहिए। मनन से दस गुना निदिध्यासन करना चाहिए। हम भी डीसा में अपने-आपमें डूबे रहते थे। पूज्यपाद गुरुदेव के आशीर्वाद के बाद तुरंत निकल पड़ते समाज में हुश हो…. हुश हो…. तो काम नहीं बनता। सुनो और एकांत में बैठकर जमाओ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 24,26, अंक 219
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