Monthly Archives: March 2011

हवाई जहाज की यात्राः तत्त्वज्ञान


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

उद्धव ने देखा कि अब सोने की द्वारिका के साथ पूरा यदुवंश यानी भगवान का पूरा परिवार उनकी आँखों के सामने खत्म हो रहा है, फिर भी श्रीकृष्ण को कोई शोक नहीं, आसक्ति नहीं। वे आत्मा में निष्ठ हैं, तत्त्व में खड़े हैं। वे प्रपंच को सत्य नहीं मानते। सब प्रपंच मिथ्या है।

यह मिथ्या प्रपंच का विसर्जन हो रहा था। उद्धव ने देखा कि भगवान अपनी माया समेट रहे हैं। अब वे स्वधाम जाने की तैयारी में हैं। उन्होंने कहाः “प्रभु ! दया करो। मुझे साथ में ले चलो।”

श्रीकृष्ण ने कहाः “उद्धव ! साथ में कोई आया नहीं और साथ में कोई जायेगा नहीं।

यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः।

नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम्।।

(श्रीमद् भागवतः 11.7.7)

मन से, वाणी से, आँख से, कान से जो कुछ अनुभव में आता है वह सब नश्वर है, मनोमय है, मायामात्र है – ऐसा समझ लो। हे उद्धव ! मैं तुझे तत्त्वज्ञान सुनाता हूँ। वह सुनकर तू बदरिकाश्रम चला जा, एकांत में बैठ जा। ‘मैं आत्मा हूँ तो कैसा हूँ ?’ यह खोज। ‘मैं कौन हूँ….? मैं कौन हूँ ?’ यह अपने आपको गहराई से पूछ।”

बच्चा ‘यह क्या है ? वह क्या है ? यह कौन है ?’ ऐसा पूछता है लेकिन ‘मैं कौन हूँ ?’ ऐसा संसार के किसी बच्चे ने नहीं पूछा। वह आत्मज्ञान का खजाना बंद का बंद रह गया।

अब तुम अपने-आपसे पूछोः ‘मैं कौन हूँ ?’ खाओ, पियो, चलो, घूमों फिर पूछोः ‘मैं कौन हूँ?’

‘मैं रमणलाल हूँ।’

यह तो तुम्हारी देह का नाम है। तुम कौन हो ? अपने को पूछा करो। जितनी गहराई से पूछोगे, उतना दिव्य अनुभव होने लगेगा। एकांत में, शांत वातावरण में बैठकर ऐसा पूछो…. ऐसा पूछो कि बस, पूछना ही हो जाओ। एक दिन, दो दिन, दस दिन में यह काम नहीं होगा। खूब अभ्यास करोगे तब ‘मैं कौन हूँ?’ यह प्रगट होने लगेगा और मन की चंचलता मिटने लगेगी, बुद्धि के विकार नष्ट होने लगेंगे तथा शरीर का तूफान शांत होने लगेगा। यदि ईमानदारी से साधना करने लगो न, तो छः महीने में वहाँ पहुँच जाओगे, जहाँ छः साल बैलगाड़ी चले और छः घण्टे हवाई जहाज उड़े तो कौन आगे पहुँचेगा ? तत्त्वज्ञान हवाई जहाज की यात्रा है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- “हे उद्धव ! तू बदरिकाश्रम चला जा। कोई किसी का नहीं है। कोई किसी के साथ आया नहीं, कोई किसी के साथ जायेगा नहीं। तू बोलता है कि मैं तुम्हारे साथ चलूँ लेकिन तू मेरे साथ आया नहीं, न मैं तेरे साथ आया हूँ। सब अकेले-अकेले जायेंगे। मुझसे तू तत्त्वज्ञान सुन ले। फिर मुझसे तू ऐसा मिलेगा कि बिछुड़ने का दुर्भाग्य ही नहीं आयेगा।”

ऐसे तो श्रीकृष्ण उद्धव के सिर पर हाथ रख देतेः ‘फुर्रर्र…. ! तू मुक्त हो गया !’ नहीं, श्रीकृष्ण ने तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया और कहा कि ‘जो उपदेश दिया है, उसका बराबर अनुभव कर !’

पशु होते हैं न, वे पहले घास ऐसे ही खाते हैं, फिर बैठे-बैठे जुगाली करते हैं। ऐसे ही तुम भी कथा-सत्संग सुन लो, फिर एकांत में जाकर उसका चिंतन-मनन करो।

जितनी देर सुनते हो उससे दस गुना मनन करना चाहिए। मनन से दस गुना निदिध्यासन करना चाहिए। हम भी डीसा में अपने-आपमें डूबे रहते थे। पूज्यपाद गुरुदेव के आशीर्वाद के बाद तुरंत निकल पड़ते समाज में हुश हो…. हुश हो…. तो काम नहीं बनता। सुनो और एकांत में बैठकर जमाओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 24,26, अंक 219

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गर्मियों के लिए प्रकृति का उपहारः संतरा


ग्रीष्म में सूर्य की प्रखर किरणें शरीर का स्निग्ध व जलीय अंश को सोखकर उसे दुर्बल बना देती हैं। संतरा अपने शीतल, मधुर व शीघ्र बलवर्धक गुणों से इसकी पूर्ति कर देता है। सेवन के बाद तुरंत ताजगी, शक्ति व स्फूर्ति देना इसका प्रमुख गुण है। यह अनेक पौष्टिक गुणों से भरपूर है। इसमें विटामिन ‘ए’ व ‘बी’ मध्यम मात्रा में व ‘सी’ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह आँतों को साफ करने वाला व वायुशामक है। हृदयरोग, नेत्ररोग, वातविकार, पेट की गड़बड़ियाँ, खून की कमी, आंतरिक गर्मी, पित्तजन्य विकार, दुर्बलता व कुपोषण के कारण उत्पन्न होने वाले रोगों में संतरा लाभदायी है।

अत्यंत कमजोर व्यक्ति को संतरे का रस थोड़ी-थोड़ी मात्रा में दिन में 2-3 बार देने से शरीर पुष्ट होने लगता है। बच्चों के सूखा रोग में जब शरीर का विकास रुक जाता है तब संतरे का रस पिलाने से उसे नवजीवन प्राप्त होता है।

सुबह दो संतरे के रस में थोड़ा ताजा ठंडा पानी मिलाकर नियमित लेने से पुराना से पुराना कब्ज दूर हो जाता है।

संतरे के रस में थोड़ा सा काला नमक व सोंठ मिलाकर लेने से अजीर्ण, अफरा, अग्निमांद्य आदि पेट की गड़बड़ियों में राहत मिलती है।

गर्भवती महिलाओं को दोपहर के समय संतरा खिलाने से उनकी शारीरिक शक्ति बनी रहती है तथा बालक स्वस्थ व सुंदर होता है। इसके सेवन से सगर्भावस्था में जी मिचलाना, उलटी आदि शिकायतें भी दूर होती हैं।

पायरिया (दाँत से खून, मवाद आना) में संतरे का सेवन व उसकी छाल के चूर्ण का मंजन लाभदायी है।

संतरे के ताजे छिलकों को पीसकर लेप करने से मुँहासे व चेहरे के दाग मिट जाते हैं, त्वचा का रंग निखरता है।

संतरे का शरबतः पाव किलो संतरे के रस में एक किलो मिश्री चाशनी बनाकर काँच की बोतल में रखें। ताजे संतरे न मिलने पर इसका उपयोग करें।

सावधानीः कफजन्य विकार, त्वचारोग, सूजन व जोड़ों के दर्द में तथा भोजन के तुरंत बाद संतरे का सेवन न करें। संतरा खट्टा न हो, मीठा हो इसकी सावधानी रखें।

एक दिव्य औषधिः वटवृक्ष

भारतीय शास्त्रों में वटवृक्ष को ‘गुणों की खान’ कहा गया है। वटवृक्ष मानव-जीवन कि लिए अत्यंत कल्याणकारी है। यदि व्यक्ति इसके पत्ते, जड़, छाल एवं दूध आदि का सेवन करता है तो रोग उससे कोसों दूर रहते हैं। वट के विभिन्न भागों का विशेष महत्त्व हैः

दूधः स्वप्नदोष आदि रोगों में बड़ का दूध अत्यन्त लाभकारी है। सूर्योदयक से पूर्व 2-3 बताशों में 3-3 बूँद बड़ का दूध टपकाकर उन्हें खा जायें। प्रतिदिन 1-1 दिन बूँद मात्रा बढ़ाते जायें। 8-10 दिन के बाद मात्रा कम करते-करते अपनी शुरूवाली मात्रा पर आ जायें। यह प्रयोग कम से कम 40 दिन अवश्य करें। बवासीर, धातु-दौर्बल्य, शीघ्र पतन, प्रमेह, स्वप्नदोष आदि रोगों के लिए यह अत्यंत लाभकारी है। इससे हृदय व मस्तिष्क को शक्ति मिलती है तथा पेशाब की रूकावट में आराम होता है। यह प्रयोग बल-वीर्यवर्धक व पौष्टिक है। इसे किसी भी मौसम में किया जा सकता है। इसे सुबह-शाम करने से अत्यधिक मासिक स्राव तथा खूनी बवासीर में रक्तस्राव बंद हो जाता है।

दाँतों में इसका दूध लगाने से दाँत का दर्द समाप्त हो जाता है। हाथ पैर में बिवाइयाँ फटी हों तो उसमें बरगद का दूध लगाने से ठीक हो जाती हैं। चोट-मोच और गठिया रोग में सूजन पर इसके दूध का लेप करने से आराम मिलता है। यह सूजन को बढ़ने से रोकता है। दूध को नाभि में भरकर थोड़ी देर लेटने से अतिसार में आराम होता है। शरीर में कहीं गठान हो तो प्रारम्भिक स्थिति में तो गाँठ बैठ जाती है और बढ़ी हुई स्थिति में पककर फूट जाती है।

10 बूँद बरगद का दूध, लहसुन का रस आधा चम्मच तथा तुलसी का रस आधा चम्मच इन तीनों को मिलाकर चाटने से निम्न रक्तचाप में आराम मिलता है।

बल-वीर्य की वृद्धिः कच्चे फल छाया में सुखा के चूर्ण बना लें। बराबर मात्रा में मिश्री मिलाकर रख लें। 10 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम दूध के साथ 40 दिन तक सेवन करने से बल-वीर्य और स्तम्भन (वीर्यस्राव को रोकने की) शक्ति में भारी वृद्धि होती है।

गर्भस्थापन के लिएः ऋतुकाल में यदि वन्ध्या स्त्री पुष्य नक्षत्र में लाकर रखे हुए वटशुंग (बड़ के कोंपलों) के चूर्ण को जल के साथ सेवन करे तो उसे अवश्य गर्भधारण होता है। – आयुर्वेदाचार्य शोढल

पक्षाघात (लकवा)- बरगद का 5 ग्राम दूध महानारायण तेल में मिलाकर मालिश करें।

बड़ की छाल और काली मिर्च दोनों 100-100 ग्राम पीसकर 250 ग्राम सरसों के तेल में पकायें फिर लकवाग्रस्त अंग पर लेप करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 219

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बड़ा सरल है उसे पाना


कुलपति स्कंधदेव के गुरुकुल में प्रवेशोत्सव समाप्त हो चुका था। कक्षाएँ नियमित रूप से चलने लगी थीं। उनके योग और अध्यात्म संबंधित प्रवचन सुनकर विद्यार्थी उनसे बड़े प्रभावित होते थे। एक दिन प्रश्नोत्तर काल में शिष्य कौस्तुभ ने स्कंधदेव से प्रश्न कियाः “गुरुदेव ! क्या इसी जीवन में ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है ?”

स्कंधदेव एक क्षण तो चुप रहे, फिर कुछ विचार कर बोलेः “तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर तुम्हे कल मिल जायेगा और आज सायंकाल तुम सब लोग निद्रा देवी की गोद में जाने से पूर्व भगवान का ध्यान करते हुए बिना माला के 108 बार वासुदेव मंत्र का जप करना तथा प्रातःकाल उसकी सूचना मुझे देना।”

जब प्रातःकाल स्कंधदेव के प्रवचन का समय आया तो सब विद्यार्थी अनुशासनबद्ध होकर आ बैठे। स्कंधदेव ने अपना प्रवचन प्रारम्भ करने से पूर्व पूछा कि “कल सायंकाल तुममें से किस-किसने सोने से पूर्व कितने-कितने मंत्रों का उच्चारण किया ?” कौस्तुभ को छोड़कर सब विद्यार्थियों ने अपने-अपने हाथ उठा दिये। किसी ने भी भूल नहीं की थी। सबने 108 बार वासुदेव मंत्र का जप व भगवान का ध्यान कर लिया था। स्कंधदेव ने कौस्तुभ को बुलाया और पूछाः “क्यों कौस्तुभ ! तुमने सोने से पूर्व 108 बार मंत्र का उच्चारण क्यों नहीं किया ?”

कौस्तुभ ने सिर झुका लिया और विनीत वाणी में बोलाः “गुरुदेव ! कृपया मेरा अपराध क्षमा करें। मैंने बहुत प्रयत्न किया किंतु जब चित्त जप की संख्या गिनने में चला जाता था तो भगवान का ध्यान नहीं रहता था और जब भगवान का ध्यान करता तो गिनती भूल जाता। सारी रात ऐसे ही बीत गयी और मैं आपका दिया नियम पूरा न कर सका।”

स्कंधदेव मुस्कराये और बोलेः “कौस्तुभ ! तुम्हारे कल के प्रश्न का यही उत्तर है। जब हम संसार के सुख सम्पत्ति, भोग की गिनती में लग जाते हैं तब हम भगवान के प्रेम को भूल जाते हैं। ईश्वर ने मनुष्य-शरीर देकर हमें संसार में जिस काम के लिए भेजा है, उसे हम भोगों में आसक्त रहकर नहीं कर पाते लेकिन अगर कोई इन सबसे चित्त हटाकर भगवान में अपना चित्त लगाता है तो उसे कोई भी पा सकता है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 25, अंक 219

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