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साधना के विघ्न


पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी

साधना की कभी राह न छोड़, अगर आत्मतत्त्व को पाना है।

संयम की नौका पर चढ़, तुझे भवसागर तर जाना है।।

मत फँस प्यारे तू जीवन की, छोटी, सँकरी गलियों में।

एक लक्ष्य बनकर पहुँच वहाँ, जहाँ औरों को पहुँचाना है।।

आत्मदेव की साधना का मार्ग कहीं फूलों से बिछी राह है तो कहीं काँटों से लबरेज (पूर्णतः भरा हुआ) है लेकिन इन विघ्न-बाधाओं को पार करने की जिसने हिम्मत जुटायी है, वही अपने सत्यस्वरूप की मंजिल को प्राप्त कर पाया है।

इस पथ पर असफल वे ही होते हैं जिनमें श्रद्धा, संयम, तत्परता और विश्वास की कमी होती है और जिन्हें अपनी सर्वोच्च आवश्यकता का ज्ञान नहीं होता है अथवा जिनका कोई कुशल मार्गदर्शक के रूप में गुरु नहीं है। जीवन में यदि आत्मानुभूति-सम्पन्न किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु का प्रत्यक्ष सान्निध्य अथवा मार्गदर्शन मिल जाय तो कहते हैं कि आधी यात्रा तो उसी दिन पूरी हो जाती है जब निजानंद की मस्ती में जगह हुए ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष कृपाकटाक्ष करते हुए मंजिल पर पहुँचने की दीक्षा देते हैं। शेष आधी यात्रा साधक की दृढ़ता, तत्परता व श्रद्धा से पूर्ण हो जाती है।

अनेक साधक सद्गुरु के दिखलाये मार्ग पर अथवा उनके द्वारा प्रदत्त साधन पर संदेह कर फिसल जाते हैं और पुनः वहीं आ जाते हैं जहाँ से उन्होंने यात्रा शुरु की थी। अतः सद्गुरु व उनके बताये हुए साधन पर कभी संदेह नहीं करना चाहिए, साथ ही यह संशय भी नहीं रखना चाहिए कि वे कब, क्यों, कहाँ, किसके साथ, क्या और कैसा व्यवहार करते हैं। केवल आत्मकल्याण के उद्देश्य के विनम्रतापूर्वक उनके श्रीचरणों में रहना चाहिए।

साधक के लिए बड़े-में-बड़ा विघ्न है लोकैषणा (सम्मान, प्रसिद्धि की चाह)… और लोकैषणा साधक को भटका देती है। साधक जब तक परब्रह्म परमात्मा का पूर्ण रूप से साक्षात्कार न कर ले, तब तक उसे अपने सद्गुरु की मीठी छाया में, निगाह में बार-बार आना होता है और उनके आदेशानुसार ही यात्रा करनी होती है। वित्तैषणा, पुत्रैषणा आदि तो मनुष्य छोड़ सतका है लेकिन लोकैषणा बड़ा भारी विघ्न है। लोगों द्वारा की जाने वाली वाहवाही तो यहीं धरी रह जाती है पर आदमी मरता है तो संस्कारों के कारण बेचारे की जन्म-मरण की यात्रा बनी रहती है। इसलिए जब तक परब्रह्म परमात्मा में पूर्ण रूप से विश्रांति प्राप्त न हो तब तक साधक को कुछ बातों से बिल्कुल सावधान रहना चाहिए। अपनी साधना को वाहवाही के मूल्य पर नहीं बेचना चाहिए। अपनी साधना को यश, धन या मान के मूल्य पर कभी खर्च नहीं करना चाहिए। जब तक पूर्ण रूप से परमात्मप्रसाद की प्राप्ति न हो तब तक लोकैषणा से, भोगियों के संग से, क्रोधियों व कामियों के संग से अपने को बचाये रखें।

जो उन्नत किस्म के भगवद्भक्त है अथवा ईश्वर के आनंद में रमण करने वाले तत्त्ववेत्ता संत हैं, ऐसे महापुरुषों के सत्संग में आदरपूर्वक जावें…. दर्शक बनकर नहीं याचक बनकर, एक नन्हें-मुन्ने निर्दोष बालकर बनकर, तो साधक के दिल का खजाना भरता रहता है।

सो संगति जय जाय जिसमें कथा नहीं राम की।

बिन खेती के बाड़ किस काम की ?

वे नूर बेनूर भले जिनमें पिया की प्यास नहीं।।

जिनमें यार की खुमारी नहीं, ब्रह्मानंद की मस्ती नहीं, वे नूर बेनूर होते तो कोई हरकत नहीं। प्रसिद्धि होने पर साधक के इर्दगिर्द लोगों की भीड़ बढ़ेगी, जगत का संग लगेगा, परिग्रह बढ़ेगा और साधन लुट जायेगा। अतः अपने-आपको साधक बतलाकर प्रसिद्ध न करो, पुजवाने और मान की चाह भूलकर भी न करो। जिस साधक में यह चाह पैदा हो जाती है, वह कुछ ही दिनों में भगवत्प्राप्ति का साधक न रहकर मान-भोग का साधक बन जाता है। अतः लोकैषणा का विष के समान त्याग करना चाहिए।

ध्यान करने से सत्त्वगुण की वृद्धि होती है तो अत्यधिक आनंद आने लगता है। साक्षी भाव है, फिर भी एक रुकावट है। ‘मैं साक्षी हूँ, मैं आनंदस्वरूप हूँ, मैं आत्मा हूँ…..’ आरम्भ में ऐसा चिंतन ठीक है लेकिन बाद में यहीं रुकना ठीक नहीं। ‘मैं आत्मा हूँ, ये अनात्मा हैं, ये दुःखरूप हैं…’ इस परिच्छिन्नता के बने रहने तक परमानंद की प्राप्ति नहीं होती। सात्त्विक आनंद से भी पार जो ऊँची स्थिति है, वह प्राप्त नहीं होती। अतएव फिर उसके साथ योग करना पड़ता है कि ‘यह आनंदस्वरूप आत्मा वहाँ भी है और यहाँ भी है। मैं यहाँ केवल मेरी देह की इन चमड़े की दीवारों को ‘मैं’ मानता हूँ, अन्यथा मैं तो प्रत्येक स्थान पर आनंदस्वरूप हूँ।’

ऐसा निश्चय करके जब उस योगी को अभेद ज्ञान हो जाता है तो उसकी स्थिति अवर्णनीय होती है, लाबयान होती है, वह जीवन्मुक्त हो जाता है। वह जीवन्मुक्त महात्मा बाहर से तो हम जैसा ही दिखेगा, जिसकी जैसी दृष्टि, जैसी भावना होगी उसको वह वैसा दिखेगा लेकिन भीतर से देखो तो बस…. अनंत ब्रह्माण्डों में फैला हुआ जो चैतन्य वपु है, वही महात्माओं का अपना-आपा है, वही ब्रह्मज्ञानी का अपना आपा है। ॐ…. ॐ…. ॐ….

साधना के पथ में आलस्य, प्रमाद, अधैर्य, अपवित्रता, पुजवाने की इच्छा, परदोषदर्शन, निंदा, विलासिता, अनुचित अध्ययन, माता-पिता व गुरुजनों का तिरस्कार, शास्त्र व संतों के वचनों में अविश्वास, अभिमान, लक्ष्य की विस्मृति आदि प्रमुख दोष हैं। अतः साधक को इनसे सदैव परहेज रखना चाहिए व अपनी वृत्ति ईश्वर की ओर लगानी चाहिए। धनभागी है वे शिष्य जो तत्परता से ऐसी ऊँची स्थिति में लग जाते हैं ! साधना में जो रुकावटें हैं उन सबको उखाड़कर फेंकते जाओ। असम्भव कुछ नहीं, सब कुछ सम्भव है। धैर्य मत खोओ। उत्तम लक्ष्य का कभी त्याग न करो। शाबाश वीर ! शाबाश !!

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2011, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 226

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भगवत्स्मृति से भगवत्साक्षात्कार-पूज्य बापू जी


‘भगवद्गीता’ में अर्जुन कहते हैं- नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा….. मोह अर्थात् जो उल्टा ज्ञान था, शरीर को मैं मानता था, संसार को सच्चा मानता था, वह मेरा मोह नष्ट हो गया । स्मृतिर्लब्धा… अर्थात् मुझे स्मृति हुई । कैसी स्मृति हुई ? कि ‘मैं सत्-चित्-आनंदस्वरूप आत्मा हूँ….’ अपने आत्मस्वभाव की स्मृति हुई, ब्रह्मस्वभाव की स्मृति हुई । सभी सत्कर्मों का फल भी यही है कि आपके ब्रह्मस्वभाव की स्मृति जग जाय, आपको ब्रह्मज्ञान हो जाय । संत कबीर जी कहते हैं-

सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट ।

मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा होठ ।।

मन अपने आत्मा-परमात्मा, ईश्वर में लीन हो तो ईश्वरीय सुख, ईश्वरीय शांति, ईश्वर-प्रसादजा बुद्धि बन जाती है । भगवत्स्मृति करके भगवद्विश्रांति, भगवत्सुख में स्थिति करनी है ।

बुध विश्राम सकल जन रंजनि ।

रामकथा कलि कलुष बिभंजनि ।। (श्री रामचरित. बाल. कां. 30.3)

भगवत्कथा कलियुग के दोषों को मिटाती है और भगवान की स्मृति का सुख-सामर्थ्य देती है । लक्ष्मणजी ने भगवान राम से पूछा कि

कहहु ग्यान बिराग अरू माया ।

ज्ञान किसको बोलते हैं ? वैराग्य किसको बोलते हैं ? माया किसको बोलते हैं ?

कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ।। (श्री रामचरित. अर.कां. 13.4)

उस भक्ति को कहिये जिसके कारण आपकी दया और सुख का प्रसाद मिले ।

ईश्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ।

ईश्वर किसको बोलते हैं ? जीव किसको बोलते हैं ? इसका सारा भेद मुझे समझाइये ।

जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ।। (श्री रामचरित. अर.का. 14)

जिससे भगवान के चरणों में प्रीति हो और हमारा शोक, मोह और भ्रम सदा के लिए मिट जाय ।

राम जी के चरणों में लक्ष्मण जी ने ऐसे प्रश्न किये हैं । राम जी कृपा करके लक्ष्मण को सत्संग सुनाते हैं । जो राम जी का दर्शन करता है, राम जी की सेवा करता है, राम जी का भाई है, उसको भी सत्संग की जरूरत है ।

रावण के पास सोने की लंका, पूरी जमीन-जायदाद, उड़ने की शक्ति थी लेकिन ब्रह्मज्ञान के सुख के अभाव में विकारी आकर्षण नहीं गया । रावण की क्या गति हुई दुनिया जानती है । बड़े-बड़े धनी लोग, बड़े-बड़े सत्तावान लोग भगवद रस और भगवत् सत्संग के बिना दुराचार, विकार व्यसन में पड़कर अपना जन्म-जन्मांतर खराब कर लेते हैं बेचारे !

बिनु सतसंग बिबेक न होई ।

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।। (श्री रामचरित. बा.कां. 2.4)

बिना सत्संग के इस जीवात्मा को अपने परमात्मस्वरूप का विवेक नहीं होता  और भगवान की कृपा के बिना सत्संग नहीं मिलता ।

देखें रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ ।। (श्री रामचरित. अयो.कां. 182)

भगवत्शांति, भगवद्ज्ञान, भगवत्सुख के बिना जीवात्मा को सताने वाली यह वासना नहीं मिटती, दुःख नहीं मिटते । श्री राम जी की सेवा करते-करते लक्ष्मण भैया सत्संग में गति करते हैं और प्रश्न पूछते हैं कि माया क्या है, ईश्वर क्या है, ब्रह्म क्या है, जगत क्या है और भगवद् रस में, भगवत्सुख में प्रीति कैसे जगह ?

राम जी कहते हैं-

थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई ।

सुनहु तात मति मन चित लाई ।। (श्री रामचरित. अर.कां. 14.1)

सुनो लक्ष्मण ! तुम अपने मन को भी लगाओ, अपनी बुद्धि को भी लगाओ, अपने चित्त को भी लगाओ, मैं थोड़े में तुमको सब बताता हूँ ।

भगवान रामचन्द्र जी लक्ष्मण को थोड़े में ही सब बताते हैं । विभीषण मंदोदरी को सत्संग की बात सुनाते हैं, रावण को भी सुनाते हैं । रावण को हनुमान जी भी सत्संग सुनाते हैं । मंदोदरी भी रावण को सत्संग की बात सुनाती है । कई पात्रों ने रावण को सत्संग सुनाया लेकिन रावण ने सत्संग का आदर नहीं किया । अपने अहं में, अपनी मान्यता में, असत्य संसार में, असत्य शरीर में जिसकी प्रीति होती है, वह सत्संग का इतना फायदा नहीं लेता है जितना फायदा सत्यस्वरूप ईश्वर में प्रीति करने वाले ले लेते हैं । जैसी-जैसी अंदर की रूचि होती है वैसी-वैसी व्यवस्था आदमी करता है । सत्संग में आने की रूचि होती है तो इधर पहुँचने की व्यवस्था भी करते हो ।

राजा भर्तृहरि को सत्संग के द्वारा भगवत्प्राप्ति की रूचि हुई तो राज्य छोड़कर भी लग गये और भगवान को पा लिया । राजा भगीरथ ने भी भगवत्प्रीति के बाद लोक-मांगल्य किया । जो राजा होने पर भी नहीं कर पाये ते वह स्थायी लोक-कल्याण भगवत्प्राप्ति के बाद करने में सफल हुए । स्थायी लोक-कल्याण करके वास्तव में समाजोद्धार किया । जो वास्तविक तत्त्व को नहीं पाता, उसकी सेवा से भी वास्तविक कल्याण सम्भव नहीं । राजा भगीरथ राजपाट छोड़कर त्रितल ऋषि के चरणों में ब्रह्मज्ञन पाने के लिए तत्पर हो गये ओ। परमार्थप्राप्ति के बाद गंगा जी को धरती पर ले आये । भगीरथ संकल्प से भागीरथ कहलाये । न जाने कितने करोड़ों लोगों का मंगल कर चुके और आगे भी होता रहेगा । भगवत्प्राप्त महापुरुषों के द्वारा उनकी हयाती के बाद भी सच्ची उन्नति होती रहती है ।

जिसके जीवन में सत्संग का महत्त्व है वह पार हो जाता है । तपस्या से भी ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के सत्संग का महत्त्व ज्यादा है । लल्लू-पंजू लोग सत्संग के नाम पर भाषण करते हैं… इधर-उधर के शास्त्रों से उठाया हुआ रटा-रटी का भाषण ! सत्संग तो सत्य का साक्षात्कार किये हुए महापुरुषों का ही होता है । महापुरुषों का साहित्य पढ़कर भाषण करना अलग बात है और महापुरुषों का सत्संग अलग बात है ।

दुनिया में एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ वस्तुएँ हैं लेकिन सबसे श्रेष्ठ है कल्पवृक्ष, जो हर कामना पूरी करता है लेकिन उसमें भी श्रेष्ठ है सत्संग, जो नश्वर आकर्षण और नश्वर कामनाओँ को मिटाकर शाश्वत परमात्मा के प्रेम-प्रसाद से परितृप्त कर देता है । भगवान की और सब कृपाओं से बड़ी कृपा है कि

जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु-संगति पाइये । (विनय पत्रिकाः 136.10)

जब भगवान बहुत ज्यादा प्रसन्न होते हैं तब संतों का संग देते हैं ।

यह भगवत्कृपा सबसे श्रेष्ठ है, विशेष कृपा है । जैसे माँ कृपा करती है, कभी माँ बच्चे को बहुत प्रेम करती है तो उसके स्तन से दूध बह चलता है, ऐसे ही भगवत्कृपा विशेष होती है तो संतों के सत्संग में आनंद, माधुर्य आने लगता है । राम जी लक्ष्मण को सत्संग की भगवत्कृपामयी प्रसादी देते हैं ।

मैं अरु तोर मोर तैं माया ।

जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ।। (श्री रामचरित. अर. कां. 14.1)

शरीर को मैं मानते हैं, संसार को सच्चा मानते हैं । ‘यह मेरा है, यह तेरा है’, इसी झूठे ज्ञान को माया बोलते हैं, धोखा । जैसे सभी तरंगे पानी हैं, ऐसे ही सब लोग चैतन्य हैं । शरीर में आकर जीने की इच्छा करता है वह जीव है और माया को वश करके जो चैतन्य संसार का नियमन करता है उसको ईश्वर बोलते हैं ।

जीव ईश्वर नहीं बनता है लेकिन जीवात्मा और ईश्वर का आत्मा दोनों एक हैं । जीवात्मा ईश्वर के आत्मा से अपने मिलन का अनुभव करके मुक्तात्मा हो जाता है । जीव-ईश्वर एक हैं तो ऐसा नहीं कि जीव चतुर्भुजी होकर सृष्टि कर लेगा । जीव चतुर्भुजी नारायण की आकृति धारण करके ईश्वर के धाम में जा सकता है लेकिन ईश्वर का सृष्टि करने का सामर्थ्य तो ईश्वरीय सत्ता के पास ही होता है । जैसे केबिन का आकाश और घड़े का आकाश एक है तो घड़ा केबिन नहीं बन सकता और केबिन घड़ा नहीं बन सकती, लेकिन केबिन और घड़ा हटा दो तो आकाश दोनों का एक है । ऐसे ही गंगू तेली का तेल का धंधा छोड़ दो और राजा भोज की राजगद्दी छोड़ दो तो मानवता तो दोनों में एक हैं । ऐसे ही छोटा बुलबुला बड़ी तरंग नहीं बनता, बड़ी तरंग छोटा बुलबला नहीं है फिर भी दोनों पानीरूप से एक हैं ।

नाक में पहनी आधे ग्राम की बाली भी सोना है और हाथ में पहना 50 ग्राम का कंगन भी सोना है । बाली कंगन नहीं है, कंगन बाली नहीं है लेकिन दोनों सोना हैं, ऐसे ही जीव और ईश्वर दोनों चैतन्य हैं, ब्रह्म हैं । ऐसे जो ब्रह्मस्वभाव का चिंतन करता है वह दुःखों से, शोकों से पार हो जाता है । उसकी बुद्धि ब्रह्ममय हो जाती है ।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष ।

इस प्रकार का सत्संग-प्रसाद भगवान राम जी ने लक्ष्मण को दिया ।

भगवान में प्रीति कैसे हो ? अऩेक में एक देखें और एक में से ही अनेक की लीला देखें तो भगवान की जहाँ-तहाँ स्मृति होती है । इससे भगवत्प्रसादजा मति बन जाती है । मति से ही आदमी की ऊँचाई-नीचाई होती है । छोटी मति होती है तो छोटा जीवन होता है, ऊँची मति होती है तो ऊँचा जीवन होता है । राजसी मति होती है तो राजसी, सात्त्विक मति होती है तो सात्त्विक जीवन होता है । भगवत्-अर्थदा मति होती है तो भगवत्-अर्थदा जीवन होता है, भगवत्प्रसादाजा मति बनती है ।

ज्यों-जयों सत्संग सुनते हैं, ध्यान करते हैं और नियम करते हैं त्यों-त्यों अपनी मति भगवान के प्रसाद से पावन हो जाती है । जैसे बच्चा ज्यों-ज्यों ध्यान से पढ़ता है त्यों-त्यों वह उस विषय में मास्टरी ले लेता है, एम. ए. हो जाता है, ऐसे ही सत्संग से भगवत्स्मृति हो जाती है और भगवत्साक्षात्कार होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2011, पृष्ठ संख्या 16-18 अंक 226

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आत्मनिर्भर बनें


हाथी शेर अपेक्षा अधिक बलवान है । उसका शरीर बड़ा और भारी है फिर भी अकेला शेर दर्जनों हाथियों को मारने-भगाने में समर्थ होता है । शेर की ताकत का रहस्य क्या है ?

हाथी अपने शरीर पर भरोसा करता है, जबकि शेर अपनी शक्ति (प्राणबल) पर भरोसा करता है । हाथी झुण्ड बनाकर चलते हैं और जब विश्राम करते हैं तो एक हाथी को पहरेदार के रूप में नियुक्त करते हैं । उन्हें सदा यह डर लगा रहता कि कहीं शेर उन पर आक्रमण न कर दे ।

यदि हाथी को अपनी ताकत पर भरोसा हो तो वह कई शेरों को सूँड से उठाकर पटक सकता है, अपने पैरों से कुचल सकता है । परंतु बेचारे हाथी को अपने पर विश्वास नहीं होता, इसलिए उसमें सदा साहस का अभाव बना रहता है ।

स्वयं को नीच, अधम, दुःखी, पापी या अभागा नहीं मानना चाहिए । आप अपनी आंतरिक शक्ति पर पूर्ण विश्वास करें । स्वामी रामतीर्थ कहते हैं- ‘यदि कोई मुझसे एक शब्द में तत्त्वज्ञान पूछे तो मैं कहूँगा कि आत्मनिर्भरता या आत्मबोध । यह सत्य है, सर्वथा सत्य है कि जब आप स्वयं अपनी सहायता करते हैं तभी परमात्मा आपकी सहायता करता है ।’ दैव आपकी सहायता करने के लिए बाध्य है, लेकिन तब जब आप स्वयं पर निर्भर रहें । आप सभी सब कुछ पा सकते हैं । आपके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है ।

एक बार दो सगे भाई मुकद्दमेबाजी के कारण न्यायाधीश के सम्मुख आये । उनमें से एक बहुत धनवान था जबकि दूसरा कंगाल । न्यायाधीश ने धनवान से प्रश्न कियाः “तुम इतने धनी हो तो तुम्हारा भाई निर्धन कैसे ?”

धनवान ने कहाः “पाँच वर्ष पहले हमें एक समान पैतृक सम्पत्ति प्राप्त हुई थी । मेरा भाई स्वयं को धनवान मानकर सुस्त हो गया । उसने सभी कार्य अपने नौकरों के सुपुर्द कर दिये । उसे जब भी कोई काम करना होता तो वह अपने नौकरों को बुलाकर कहताः ‘जाओ, यह काम करो, जाओ वह काम करो ।’ इस प्रकार वह सुख-आराम, विषय-विकारों में समय गँवाने लगा । इसके विपरीत मैं किसी सेवक पर निर्भर नहीं हुआ । मैं अपने काम अधिक-से-अधिक स्वयं करता रहा । यदि सेवक के सहयोग की आवश्यकता होती तो कहता थाः ‘आओ-आओ ! यह काम करने में मेरी मदद करो ।’

भाई सदा जाओ-जाओ कहता रहा और मैं आओ-आओ कहता रहा । इसलिए मेरे पास नौकर चाकर, इष्ट मित्र व धन सम्पत्ति आती गयी, जबकि मेरा भाई अपना सब गँवा बैठा ।”

जब हम दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं तब कहते हैं- ‘जाओ-जाओ’ । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु दूर चली जाती है व जब आत्मनिर्भर बनते हैं, तब संसार के सभी पदार्थ हमारी ओर खिंचे चले आते हैं ।

यदि आप अपने को निर्धन, तुच्छ जीव मानते हैं तो आप वही हो जायेंगे । इसके विपरीत यदि आप आत्मसम्मान की भावना से परिपूर्ण हैं तथा आत्मनिर्भर हैं तो आपको सम्मान, स्नेह, सफलता प्राप्त होती है । स्वयं को दीन-हीन, दुर्बल, भाग्यहीन कभी न समझें । आप जैसा सोचेंगे वैसे ही बन जायेंगे । सदगुरु-कृपा से स्वयं को नित्यमुक्त अविनाशी आत्मा जानेंगे तो मुक्त हो जायेंगे ।

जब तक आप बाह्य शक्तियों पर निर्भर रहेंगे, परावलम्बी रहेंगे तब तक आपके कार्यों का परिणाम असफलता ही रहेगा ।

सत्य में सदैव विश्वास रखें । जब आप हृदय में विराजमान ईश्वर पर भरोसा करते हुए शरीर को काम में नियुक्त कर देंगे तो आपकी सफलता निश्चित हो जायेगी । स्वयं पर विश्वास करें, स्वयं पर निर्भर होने की आदत डालें । फिर देखिये, सफलता कैसे नहीं मिलती !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2011, पृष्ठ संख्या 27, 30 अंक 226

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