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कर्म का फल हाथों-हाथ


पुराने पंजाब के मुजफ्फगढ़ जिले के छोटे-से गाँव की यह सत्य घटना है। वहाँ राम दास नाम के एक भगवद्भक्त दर्जी रहते थे, जो आसपास के जमींदार परिवारों के कपड़े सिलकर अपनी आजीविका चलाते थे। वे हमेशा भगवन्नाम-स्मरण और भगवान की लीलाओं के गान में ही तल्लीन रहते थे। कपड़े सिलते समय भी उनका सुमिरन सतत चलता रहता। कभी कपड़ा सिलने की मशीन की टिक-टिक के साथ नामोच्चारण का तार बँध जाता  तो कभी हाथ की सिलाई के साथ लीला-पदों का गान होता रहता।

कलियुग में अनेकों दोष हैं किंतु इसमें एक बहुत बड़ा गुण भी है कि केवल भगवन्नाम का कीर्तन, जप, स्मरण आदि लोगों के पाप, ताप, अशांति व दुःखों को दूर कर ब्रह्म-परमात्म का रस जगा देता है। संत तुलसीदास जी ने कहा हैः

कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।

गावत नर पावहिं भव थाहा।। (श्रीरामचरित. उ.कां. 102,2)

भगवन्नाम कीर्तन से भक्त  रामदास का हृदय निर्मल हो गया था। अब वे शांतिमय तथा संतोषपरायण जीवन व्यतीत करते थे। उन्हें दुःखद घटनाएँ भी दुःखी नहीं कर पाती थीं। सब घटनाओं में वे परमात्म-कृपा का अनुभव करते थे। उनसे सभी लोग बड़े प्रसन्न थे और उन्हें भगत जी कह के पुकारते। रामदास जी का एक मुसलमान पड़ोसी था, जो उनसे द्वेष करता था। इनका शांति और आनंद से रहना उससे सहन नहीं होता था।

वह हमेशा इनको परेशान व दुःखी करने के लिए कुछ-न-कुछ करता रहता पर सफल नहीं हो पाता। वह हमेशा सोचता रहता कि ‘यदि इस काफिर की मशीन न रहे तो यह अपनी आजीविका का अर्जन न कर सकेगा औक दूसरी जगह चला जायेगा।’ एक दिन अवसर पाकर उसने भगत जी की मशीन चुरा ली।

रामदास जी ने सोचा कि ‘मेरे प्रभु को मशीन की टिक-टिक अच्छी नहीं लगती होगी इसलिए उन्होंने उसे उठवा लिया।’ वे प्रसन्न चित्त से हाथ से ही कपड़े सीने लगे। उन्होंने मशीन की चोरी होने की सूचना भी पुलिस में नहीं दी।

भगवान और संत अपने ऊपर आये हुए कष्ट और दुःख तो सहन कर लेते हैं पर अपने भक्तों के ऊपर आयी हुई मुसीबतों को वे नहीं सहन कर पाते। अतः भक्तवत्सल भगवान से यह सहन नहीं हुआ और चोर के दायें हाथ की हथेली में एक भयंकर फोड़ा हो गया। इतनी भयंकर पीड़ा होने लगी कि दिन का चैन व रात की नींद हराम हो गयी। अगले ही दिन डॉक्टर के पास जाकर उसे चीरा लगवाना पड़ा पर कोई आराम नहीं हुआ बल्कि समस्या और बढ़ गयी। औषधि प्रयोग से एक फोड़ा कुछ ठीक होता तो दूसरा निकल आता। बहुत जगह इलाज कराया। झाड़-फूँक, टोना-टोटका… जिसने जो कहा, सब किया पर कुछ फायदा नहीं हुआ। वह बहुत परेशान हो गया। डॉक्टर भी हैरान थे कि सारे प्रयत्न करने पर इसका फोड़ा क्यों ठीक नहीं होता ! आखिर एक डॉक्टर ने थककर रोगी से स्पष्ट कह दिया कि ‘तुमने जरूर इस हाथ से कोई घोर पाप किया है, जिससे मेरी अनुभवसिद्ध औषधियाँ भी काम नहीं कर रही हैं। तुमको अल्लाह से अपना गुनाह बख्शवाना होगा।” उसको तुरंत याद आया कि उसने भक्त रामदास की मशीन चुरायी है, इसी पाप का फल वह भोग रहा है। कर्म का फल कभी समय पाकर मिलता है, जैसे भीष्म पितामह को 72 जन्मों के बाद मिला था।

वह व्यक्ति उसी समय घर गया और मशीन लाकर रामदास जी को वापस देते हुए उनके चरणों में गिरकर माफी माँगने लगाः “भगत जी ! मुझे क्षमा कर दीजिये। मैं आपकी मशीन चुरायी थी। मुझे द्वेषवश आपका शांतिमय तथा संतोषपरायण जीवन अच्छा नहीं लगता था। अल्लाह ने मुझे सबक सिखा दिया है, अब कभी भी किसी भगवद्भक्त को सताने का मन में सोचूँगा तक नहीं।” इस प्रकार बोलते हुए वह फूट-फूटकर रोया। उसकी आँखों से पश्चात्ताप के आँसुओं की धाराएँ बहने लगीं।

भक्त रामदास ने उसे उठाया और आँसू पोंछते हुए कहाः “भाई ! पश्चात्ताप से सब धुल जाते हैं, मन पवित्र हो जाता है। अपनी भूल जिसको समझ में आ जाय और जो की हुई गलती दुबारा न करने का प्रण कर ले, उसके पापों को भगवान क्षमा कर देते हैं। अब तुम शांतिपूर्वक घर जाओ और भगवान का भजन करना। परमात्मा परम दयालु हैं, वे सब ठीक कर देंगे।”

उसी समय से उसे दर्द में आराम पड़ने लगा और कुछ ही दिनों में उसके हाथ का फोड़ा भी ठीक हो गया। फिर तो वह भक्त रामदास के पास आता और बड़े प्रेम से भगवान के लीला-पदों को  सुनता और भगवत्प्रेम व भगवद्-आनंद में डूब जाता। इस प्रकार उसका पूरा जीवन ही बदल गया। उसके जीवन में रामायण का यह वचन प्रत्यक्ष हुआः

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। (श्री रामचरित. बा.कां. 2.5)

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तुम लगे रहो…. पूज्य बापू जी


समत्व योग बड़ा महत्त्वपूर्ण योग है। इस योग को समझने के लिए, इसमें प्रवेश करने के लिए धारणा, ध्यान, समाधि करो। समाधि करना अच्छा है, सेवा करना अच्छा है लेकिन इन सबका फल यह है कि तुम विदेही की नाईं शोभा पा लो।

एक महात्मा बड़े सूक्ष्म विषय पर प्रवचन करते थे। वेदांत की गूढ़ बातें साधकों को समझाते थे। एक भक्त खोमचा लेकर साधकों की ग्राहकी भी कर लेता था और महात्मा का प्रवचन भी सुन लेता था। भक्त और साधक जब सत्संग सुनते थे तो वह भी सत्संग एक एकतान हो जाता। कई महीने सत्संग सुनने के बाद एक बार वह बाबा जी के चरणों में दंडवत् प्रणाम करके कहता हैः “गुरु महाराज ! मैंने वेदांत को सुन लिया, समझ लिया कि यह (संसार) सरकने वाली चीज है। अन्वय (संबंध) और व्यतिरेक (असमानता) का सिद्धान्त मैंने जान लिया। जाग्रत का व्यतिरेक स्वप्न में हो जाता है, स्वप्न का व्यतिरेक सुषुप्ति में हो जाता है लेकिन आत्मा का तीनों अवस्थाओं में अन्वय है। दुःख है, दुःख आया तो सुख गायब हो गया। सुख आया तो दुःख गायब हो गया। चिंता आयी तो आनंद गायब हो गया, हर्ष गायब हो गया और हर्ष आया तो चिंता गायब हो गयी किंतु इनमें आत्मा ज्यों-का-त्यों है। यह मैं जान तो गया। बचपन आया, चला गया लेकिन बचपन का द्रष्टा रहा। जवानी आयी, चली गयी लेकिन उसको देखने वाला रहा। बुढ़ापा आया, मौत आयी परंतु मौत के बाद भी मैं रहता हूँ। मर जाने के बाद भी सुखी रहूँ – ऐसा भाव हम लोगों का होता है। यह बात आपकी मैंने गुरु महाराज ! अच्छी तरह से समझ ली, लेकिन आत्मा की मुक्तता का अनुभव मुझे नहीं हो रहा है। आत्मा मुक्त है, शरीर संसारी है। शरीर की संसार के साथ और आत्मा की परमात्मा के साथ एकता अनुभव करने की आपश्री की तरफ जो वाणी थी, वह वाणी मैं समझ तो गया किंतु गुरु महाराज ! हे कृपानाथ ! हे प्राणिमात्र के परम मित्र, परम हितैषी गुरुवर ! मैं तो एक छोटा-सा धंधेवाला दिख रहा हूँ, खोमचे वाला, चना बेचने वाला। आपके वचन समझ तो गया हूँ लेकिन आत्मा का आनंद प्रकट नहीं हुआ। ”

बाबा जी ने कहाः “कोई प्रतिबंधक प्रारब्ध, रुकावट का कोई प्रारब्ध होगा इसीलिए तुम समझ गये फिर भी आनंद प्रकट नहीं होता है। तुम लगे रहना।”

गर्मियों के दिन थे, धूप तड़ाके की थी, लू चल रही थी। एक मोची उस गर्मी में, लू में नंगे पैर, नंगे सिर कष्ट का शिकार होता हुआ लथड़ता-लथड़ता आकर एक पेड़ के करीब बेहोश होकर गिरा। खोमचे वाले ने देखा कि गर्मी के मारे इसके प्राण सूख रहे हैं, कंठ सूख गया है। उसने उसके सिर पर हलकी सी तेल मालिश की। शरबत बनाकर उसके मुँह में थोड़ा-थोड़ा डालाष फिर चने वने खिलाकर उसको जरा तसल्ली दी। वह आदमी उठ खड़ा हुआ। जब वह जाने लगा तो धन्यवाद से, कृतज्ञता से उसकी आँखें भर गयीं। बार-बार उसकी आँखों से कुछ टपक रहा है। कुछ आशीर्वाद का भाव टपक रहा है। वह मोची तो चला गया लेकिन मोची के द्वारा वह अंतर्यामी परमात्मा इस पर बरस पड़ा। इसके हृदय में वह आनंद छलकने लगा। ‘मोची के वेश में, खोमचे वाले के वेश में, श्रोताओं के वेश में, धनवान के वेश में और निर्धन के वेश में यह जो दिख रहा है, वह उसकी माया है लेकिन इसको जो बोल रहा है वह महेश्वर है। वह सच्चिदानंद सोऽहम् है। वही मैं हूँ। – ऐसा बोध प्रकट होने लगा। चित्त में बड़ी शांति, बड़ी निर्मलता, बड़ी आध्यात्मिक पूँजी प्रकट होने लगी। गुरु जी  के पास गया। प्रणाम करके अपनी स्थिति का वर्णन करने लगा कि थोड़ी सी सेवा करने से यह आत्मानंद प्रकट हुआ है।

बाबा ने कहा कि “निष्काम भाव से किये हुए कर्म अंतःकरण को शुद्ध करते हैं और शुद्ध हृदय में अपना मुख दिखता है। जैसे साफ आइने में अपने चेहरा दिखता है, ऐसे ही शुद्ध हृदय में अपने स्वरूप का बोध होता है। तेरा प्रतिबंधक प्रारब्ध हट गया।”

घटना घट जाय तो घड़ी भर में काम हो जाता है। लगे रहें, कोई-न-कोई ऐसी घड़ी आती है जब सुने उस तत्त्वज्ञान का, उसकी गरिमा का हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ॐ…..ॐ…ॐ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 14 अंक 225

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साक्षात्कार करना तो है लेकिन…


श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी कहते हैं-

दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।

मनुष्यतं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः।।

‘भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महान पुरुषों का संश्रय (सान्निध्य) – ये तीनों दुर्लभ हैं।’ (विवेक चूड़ामणिः3)

एक व्यक्ति ने किसी आध्यात्मिक ग्रंथ में पढ़ा कि मनुष्य जीवन ईश्वर-साक्षात्कार करने के लिए ही होता है। अगर वह नहीं किया तो जीवन निष्फल हो जाता है। उसने अपनी तरफ से बहुत प्रयास किया, तरह-तरह की साधनाएँ कीं, तीर्थों में भटका परंतु कुछ रास्ता न मिला। भगवान के लिए कोई सच्चाई से चलता है तो वे उसे अपने प्यारे संतों की संगति देते है। एक बार मार्ग में उसने देखा कि किन्ही महात्मा का सत्संग हो रहा है। उसने सोचा, ‘हो सकता है यहाँ कोई उपाय मिल जाय।’

जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु संगति पाइये। (विनयपत्रिकाः 136.10)

महात्मा का सत्संग सुनने के बाद तो उसके हृदय में ईश्वर का साक्षात्कार करने की धुन सवार हो गयी। उसने सोचा, ‘अब तो मुझे इन्हीं की शरण में रहना है।’ सत्संग पूरा होने के बाद सब चले गये पर वह देर रात तक वहीं बैठा रहा। महात्मा जी ने उसे अपने पास बुलाया और पूछाः “बेटा ! क्या चाहते हो ?”

“स्वामी जी ! मैं ईश्वर का साक्षात्कार करना चाहता हूँ। क्या मुझे वह हो सकता है ?”

“क्यों नहीं, कल सुबह आना। हम लोग सामने के पहाड़ की चोटी पर चलेंगे। वहाँ मैं तुम्हें उसके रहस्य की प्रत्यक्ष अनुभूति कराऊँगा।”

अगले दिन वह एकदम सुबह-सुबह महात्मा के पास पहुँचा। संत बोलेः “तुम इस गठरी को सिर पर रख लो और मेरे साथ चलो।”

वह बड़ी उमंग से चल पड़ा। पहाड़ की चोटी काफी ऊँची थी। थोड़ी देर बाद वह बोलाः “स्वामी जी ! मैं थक गया हूँ, चला नहीं जाता।”

स्वामी जी ने सहज भाव से कहाः “कोई बात नहीं, गठरी में पाँच पत्थर हैं। एक निकालकर फेंक दो। इससे गठरी कुछ हलकी हो जायेगी।”

उसने एक पत्थर फेंक दिया। कुछ ऊपर चढ़ने पर फिर उसे थकान होने लगी। महात्मा ने कहाः “एक पत्थर और कम कर दो।”

इस प्रकार वह ज्यों-ज्यों ऊपर की ओर बढ़ता जाता, त्यों-त्यों कम वज़न भी भारी लगने लगता। महात्मा जी ने एक-एक करके सभी पत्थर फिंकवा दिये। फिर तो केवल कपड़ा बचा। उसे कंधे पर डालकर वह बड़ी सरलता से चोटी पर पहुँच गया। उसने महात्मा जी से कहाः”स्वामी जी ! हम चोटी पर तो आ गये, अब ईश्वर साक्षात्कार कराइये।”

स्वामी जी मुस्कराते हुए बोलेः “बेटे ! जब पाँच पत्थर की गठरी उठाकर तू पहाड़ पर नहीं चढ़ सका तो काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद की चट्टानें सिर पर रखकर ईश्वर का साक्षात्कार कैसे कर सकता है !”

उसको अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने विनम्रता से प्रार्थना करते हुए कहाः “स्वामी जी ! अब आप ही मेरा मार्गदर्शन करने की कृपा करें।”

महात्मा ने उसे दीक्षा दी, साधना की पद्धति बतायी और निःस्वार्थ भाव से सेवा करने को कहा। फिर तो वह उन महात्मा की शरण में रहकर उनके बताये अनुसार साधना करके अपने महान उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल हो गया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 10 अंक 225

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