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जीवन में हो सर्जन माधुर्य का – पूज्य बापू जी


(नूतन वर्षः 4 अप्रैल पर विशेष)

ॐ मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।

वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधुसंदृशः।।

‘हे मधुमय प्रभो ! आपकी प्रेरणा से सामने उपस्थित योगक्षेम संबंधी कर्तव्यों में मेरी प्रवृत्ति मधुमय हो अर्थात् उससे अपने को और दूसरों को सुख, शांति, आनंद और मधुरता मिले। मेरे दूरगामी कर्तव्य भी मधुमय हों। मैं वाणी से मधुमय ही बोलूँ। सभी लोग मुझे मधुमयी दृष्टि से प्रेमपूर्वक देखें। (अथर्ववेदः 1.34.3)

हे मधुमय प्रभु ! हे मेरे प्यारे ! मेरे चित्त में तुम्हारे मधुर स्वभाव, मधुर ज्ञान का प्राकटय हो। मधुमय, दूरगामी मेरे निर्णय हों। क्योंकि आप मधुमय हो, सुखमय हो, आनंदमय हो, ज्ञानमय हो, सबके परम सुहृद हो और मैं आपका बालक हूँ। मैंने अपनी युक्ति, चालाकी से सुखी रहने का ज्यों-ज्यों यत्न किया, त्यों-त्यों विकारों ने, कपट ने, चालाकियों ने मुझे कई जन्मों तक भटकाया। अब सत्यं शरणं गच्छामि। मैं सत्यस्वरूप ईश्वर की शरण जा रहा हूँ। मधु शरणं गच्छामि। मधुमय ईश्वर ! मैं तुम्हारी शरण आ रहा हूँ। हम युक्ति चालाकी से सुखी रहें, यह भ्रम हमारा टूटा है। आनंद और माधुर्य, परम सुख और परम सम्पदा युक्ति से, चालाकी से नहीं मिलती, अपितु तुम्हारा बनने से ये चीजें सहज में मिलती हैं। जैसे पुत्र पिता का होकर रहता है तो पिता का उत्तराधिकार पुत्र के हिस्से में आता है, ऐसे ही जीव ईश्वर का होकर कुछ करता है तो ईश्वर का ज्ञान, ईश्वर की मधुमयता, ईश्वर का सदभाव, सत्प्रेरणा और साथ उसे मिलता रहता है। सामान्य व्यक्ति और महापुरुषों में यही फर्क है। सामान्य व्यक्ति अपनी पढ़ाई-लिखाई से, चतुराई-चालाकी से दुःख मिटाकर सुखी रहने का व्यर्थ प्रयास करता है। फिर व्यसनों में और कपटपूर्ण कामों में, न जाने किस-किसमें बेचारा फँस जाता है ! लेकिन महापुरुष जानते हैं कि

पुरुषस्य अर्थ इति पुरुषार्थः।

परमात्मा ही पुरूष है। उस परमात्मा (पुरूष के अर्थ जो प्रयत्न करते हैं, वे वास्तविक पुरुषार्थ करते हैं। जिनका वास्तविक पुरूषार्थ है, उन्हें वह वास्तविक ज्ञान मिलता है, जिस सुख से बड़ा कोई सुख नहीं, जिस ज्ञान से बड़ा कोई ज्ञान नहीं, जिस लाभ से बड़ा कोई लाभ नहीं। ‘गीता’ में भगवान ने कहा

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। (6.22)

जिस लाभ से बड़ा कोई लाभ उसके मानने में नहीं आता, जिसके आगे इन्द्रपद का लाभ भी बहुत बौना हो जाता है, छोटा हो जाता है उस लाभ को पाने के लिए मनुष्य जीवन की यह मति-गति है।

अंदर की चतुराई, चालाकी से आनंद को, प्रभु को पाया नहीं जा सकता। इनसे जो मिलेगा वह समय पाकर चला जायेगा। क्रिया से जो मिलेगा, प्रयत्न से जो मिलेगा, चालाकी से जो मिलेगा, वह माया के अन्तर्गत होगा और परमात्मा के साथ-सहयोग सेक जो मिलेगा वह माया के पार का होगा-यह कभी न भूलें। कोई भी लोग कितनी भी चालाकी करें सब दुःखों से पार नहीं हुए हैं, नहीं हो सकते हैं। लेकिन शबरी की नाईं, संत तुकाराम, संत रविदास की नाईं, नानकजी, कबीरजी और तैलंग स्वामी की नाईं अपना प्रयत्न करें और उसमें ईश्वर का सत्ता-सामर्थ्य मिला दें तो सरलता से सब दुःखों से पार हो सकते हैं।

आलसी न हो जायें, भगवान के भरोसे पुरुषार्थ न छोड़ दें। पुरुषार्थ तो करें लेकिन पुरूषार्थ करने की सत्ता जहाँ से आती है और पुरूषार्थ उचित है कि अनुचित है उसकी शुद्ध प्रेरणा भी जहाँ से मिलती है, उस परमात्मा की शरण जायें। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय अर्जुन को कहाः

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शांति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।क

‘हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा शाश्वत परम धाम को प्राप्त होगा।’ (भगवदगीताः 18.62)

अपनी चालाकी, युक्ति, मेहनत से नश्वर स्थान मिलेंगे। आप शाश्वत हैं और आपको जो मिला वह नश्वर है तो आपकी मेहनत-मजदूरी बन-बन के खेल बिगाड़ने में ही लगती रहती है। आप नित्य हैं, शरीर अनित्य है और शरीर-संबंधी सुविधाएँ भी अनित्य हैं। नित्य को अनित्य कितना भी दो-

बिन रघुवीर पद जिय की जरनि न जाई।

जीवात्मा की जलन, तपन भगवत्प्रसाद के बिना नहीं जायेगी। वास्तव में ‘भगवत्प्रसाद’ मतलब भगवान का अनुभव जीवात्मा का अनुभव होना चाहिए। पिता की समझ, पिता का सामर्थ्य बेटे में आना चाहिए, यह प्रसाद है। लोगों ने क्या किया कि प्रसाद बनाया, व्यंजन बनाये, यह किया, वह किया…. चलो, इसके लिए हम इन्कार नहीं करते लेकिन इन बाह्य प्रसादों में रुको नहीं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसाद वह जिससे सारे दुःख मिट जायें। मनमुख थोड़ी देर जीभ का रसास्वाद लेते हैं, उनकी अपेक्षा भक्त भगवान को भोग लगाकर लेते हैं। यह अच्छा है, ठीक है लेकिन वह प्रसाद, तुम्हारी जिह्वा का प्रसाद वास्तविक प्रसाद नहीं है। भगवान और संत चाहते हैं कि तुम्हें वास्तविक प्रसाद मिल जाये।

कई जिह्वाएँ तुमको मिलीं और चली गयीं, जल गयीं, तुम ज्यों-के-त्यों ! तुम शाश्वत हो, परमात्मा शाश्वत हैं।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

‘इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है।’ (गीताः 15.7)

भगवान जो कह रहे हैं, वह तुम मान लो।

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।

‘हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ।’ (गीताः10.20)

सब भूत-प्राणियों में मैं आत्मा चैतन्य ब्रह्म हूँ। जो सब भूत-प्राणियों में है…. मच्छर में भी अक्ल कैसी कि बड़े-बड़े डी.जी.पी. को, ब्रिगेडियरों को, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति को, तुमको-हमको चकमा दे देता है ! यह कला उसमें कहाँ से आती है ? मकड़ा जाला कैसे बुनता है ? उसमें कहाँ से अक्ल आती है ? वह अक्ल जड़ से नहीं आती, चेतन से आती है।

तो मानना पड़ेगा कि उनमें चेतना भी है और ज्ञान भी है। भगवान चैतन्यस्वरूप हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, प्राणिमात्र के सुहृद हैं, उनकी बात मान लो बस ! नूतन वर्ष का यह संदेश है। भगवान कहते हैं-

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।

मैं ही आत्मा ब्रह्म हूँ। सब भूत-प्राणियों में हूँ। जल में रस-स्वाद मेरा है। पृथ्वी में गंध गुण मेरा है। चन्द्रमा और सूर्य में जीवन देने की शक्ति मेरी है।

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।

प्रणवः सर्ववेदुषु शब्दः खे पौरूषं नृषु।।

‘हे अर्जुन ! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।’ (गीताः 7.8)

आप भगवान की यह बात मान लो न ! भगवान की बात मान लेने से क्या होगा ? भगवत्प्राप्ति हो जायेगी। मन की बात मान लेने से क्या होगा कि मन भटका-भटका के न जाने कितनी बार चौरासी लाख योनियों के चक्कर में ले जायेगा। जन्मों-जन्मों से हम-आप अपने को सताते-सताते आये हैं। यह नूतन वर्ष आपको नूतन संदेश देता है कि अब अपने को सताने से बचाना हो, नश्वर आकर्षणों से बचाना हो तो आप शाश्वत रस ले लीजिये। शाश्वत रस, सामर्थ्य की ओर देखिये।

‘भगवान सर्वत्र हैं।’ यह कहते हैं तो आपके हृदय में हैं न ! स्वीकार कर लो।

काहे रे बन खोजन जाई !

अपने हृदयेश्वर की उपासना में लगो। हृदय मधुमय रहेगा। कम-से-कम व्यक्तिगत खर्च, कम-से-कम व्यक्तिगत श्रृंगार, बाहरी सुख के गुलाम बनिये नहीं और दूसरों को बनाइये मत। कम-से-कम आवश्यकताओं से गुजारा कर लीजिये और अधिक-से-अधिक अंतर रस पीजियेक। जिनको हृदयेश्वर की उपासना से वह (परमात्मा) मिला है, ऐसे महापुरुषों के वचनों को स्वीकार करके आप तुरंत शोकरहित हो जाओ, द्वंद्वरहित हो जाओ, भयरहित हो जाओ, वैर व राग-द्वेष रहित हो जाओ। नित्य सुख में आप तुरंत जग जाओगे, आप महान हो जाओगे। उस हृदयेश्वर के मिलने में देर नहीं, वह दुर्लभ नहीं, परे नहीं, पराया नहीं….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 12,13,14 अंक 219

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हवाई जहाज की यात्राः तत्त्वज्ञान


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

उद्धव ने देखा कि अब सोने की द्वारिका के साथ पूरा यदुवंश यानी भगवान का पूरा परिवार उनकी आँखों के सामने खत्म हो रहा है, फिर भी श्रीकृष्ण को कोई शोक नहीं, आसक्ति नहीं। वे आत्मा में निष्ठ हैं, तत्त्व में खड़े हैं। वे प्रपंच को सत्य नहीं मानते। सब प्रपंच मिथ्या है।

यह मिथ्या प्रपंच का विसर्जन हो रहा था। उद्धव ने देखा कि भगवान अपनी माया समेट रहे हैं। अब वे स्वधाम जाने की तैयारी में हैं। उन्होंने कहाः “प्रभु ! दया करो। मुझे साथ में ले चलो।”

श्रीकृष्ण ने कहाः “उद्धव ! साथ में कोई आया नहीं और साथ में कोई जायेगा नहीं।

यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः।

नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम्।।

(श्रीमद् भागवतः 11.7.7)

मन से, वाणी से, आँख से, कान से जो कुछ अनुभव में आता है वह सब नश्वर है, मनोमय है, मायामात्र है – ऐसा समझ लो। हे उद्धव ! मैं तुझे तत्त्वज्ञान सुनाता हूँ। वह सुनकर तू बदरिकाश्रम चला जा, एकांत में बैठ जा। ‘मैं आत्मा हूँ तो कैसा हूँ ?’ यह खोज। ‘मैं कौन हूँ….? मैं कौन हूँ ?’ यह अपने आपको गहराई से पूछ।”

बच्चा ‘यह क्या है ? वह क्या है ? यह कौन है ?’ ऐसा पूछता है लेकिन ‘मैं कौन हूँ ?’ ऐसा संसार के किसी बच्चे ने नहीं पूछा। वह आत्मज्ञान का खजाना बंद का बंद रह गया।

अब तुम अपने-आपसे पूछोः ‘मैं कौन हूँ ?’ खाओ, पियो, चलो, घूमों फिर पूछोः ‘मैं कौन हूँ?’

‘मैं रमणलाल हूँ।’

यह तो तुम्हारी देह का नाम है। तुम कौन हो ? अपने को पूछा करो। जितनी गहराई से पूछोगे, उतना दिव्य अनुभव होने लगेगा। एकांत में, शांत वातावरण में बैठकर ऐसा पूछो…. ऐसा पूछो कि बस, पूछना ही हो जाओ। एक दिन, दो दिन, दस दिन में यह काम नहीं होगा। खूब अभ्यास करोगे तब ‘मैं कौन हूँ?’ यह प्रगट होने लगेगा और मन की चंचलता मिटने लगेगी, बुद्धि के विकार नष्ट होने लगेंगे तथा शरीर का तूफान शांत होने लगेगा। यदि ईमानदारी से साधना करने लगो न, तो छः महीने में वहाँ पहुँच जाओगे, जहाँ छः साल बैलगाड़ी चले और छः घण्टे हवाई जहाज उड़े तो कौन आगे पहुँचेगा ? तत्त्वज्ञान हवाई जहाज की यात्रा है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- “हे उद्धव ! तू बदरिकाश्रम चला जा। कोई किसी का नहीं है। कोई किसी के साथ आया नहीं, कोई किसी के साथ जायेगा नहीं। तू बोलता है कि मैं तुम्हारे साथ चलूँ लेकिन तू मेरे साथ आया नहीं, न मैं तेरे साथ आया हूँ। सब अकेले-अकेले जायेंगे। मुझसे तू तत्त्वज्ञान सुन ले। फिर मुझसे तू ऐसा मिलेगा कि बिछुड़ने का दुर्भाग्य ही नहीं आयेगा।”

ऐसे तो श्रीकृष्ण उद्धव के सिर पर हाथ रख देतेः ‘फुर्रर्र…. ! तू मुक्त हो गया !’ नहीं, श्रीकृष्ण ने तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया और कहा कि ‘जो उपदेश दिया है, उसका बराबर अनुभव कर !’

पशु होते हैं न, वे पहले घास ऐसे ही खाते हैं, फिर बैठे-बैठे जुगाली करते हैं। ऐसे ही तुम भी कथा-सत्संग सुन लो, फिर एकांत में जाकर उसका चिंतन-मनन करो।

जितनी देर सुनते हो उससे दस गुना मनन करना चाहिए। मनन से दस गुना निदिध्यासन करना चाहिए। हम भी डीसा में अपने-आपमें डूबे रहते थे। पूज्यपाद गुरुदेव के आशीर्वाद के बाद तुरंत निकल पड़ते समाज में हुश हो…. हुश हो…. तो काम नहीं बनता। सुनो और एकांत में बैठकर जमाओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 24,26, अंक 219

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गर्मियों के लिए प्रकृति का उपहारः संतरा


ग्रीष्म में सूर्य की प्रखर किरणें शरीर का स्निग्ध व जलीय अंश को सोखकर उसे दुर्बल बना देती हैं। संतरा अपने शीतल, मधुर व शीघ्र बलवर्धक गुणों से इसकी पूर्ति कर देता है। सेवन के बाद तुरंत ताजगी, शक्ति व स्फूर्ति देना इसका प्रमुख गुण है। यह अनेक पौष्टिक गुणों से भरपूर है। इसमें विटामिन ‘ए’ व ‘बी’ मध्यम मात्रा में व ‘सी’ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह आँतों को साफ करने वाला व वायुशामक है। हृदयरोग, नेत्ररोग, वातविकार, पेट की गड़बड़ियाँ, खून की कमी, आंतरिक गर्मी, पित्तजन्य विकार, दुर्बलता व कुपोषण के कारण उत्पन्न होने वाले रोगों में संतरा लाभदायी है।

अत्यंत कमजोर व्यक्ति को संतरे का रस थोड़ी-थोड़ी मात्रा में दिन में 2-3 बार देने से शरीर पुष्ट होने लगता है। बच्चों के सूखा रोग में जब शरीर का विकास रुक जाता है तब संतरे का रस पिलाने से उसे नवजीवन प्राप्त होता है।

सुबह दो संतरे के रस में थोड़ा ताजा ठंडा पानी मिलाकर नियमित लेने से पुराना से पुराना कब्ज दूर हो जाता है।

संतरे के रस में थोड़ा सा काला नमक व सोंठ मिलाकर लेने से अजीर्ण, अफरा, अग्निमांद्य आदि पेट की गड़बड़ियों में राहत मिलती है।

गर्भवती महिलाओं को दोपहर के समय संतरा खिलाने से उनकी शारीरिक शक्ति बनी रहती है तथा बालक स्वस्थ व सुंदर होता है। इसके सेवन से सगर्भावस्था में जी मिचलाना, उलटी आदि शिकायतें भी दूर होती हैं।

पायरिया (दाँत से खून, मवाद आना) में संतरे का सेवन व उसकी छाल के चूर्ण का मंजन लाभदायी है।

संतरे के ताजे छिलकों को पीसकर लेप करने से मुँहासे व चेहरे के दाग मिट जाते हैं, त्वचा का रंग निखरता है।

संतरे का शरबतः पाव किलो संतरे के रस में एक किलो मिश्री चाशनी बनाकर काँच की बोतल में रखें। ताजे संतरे न मिलने पर इसका उपयोग करें।

सावधानीः कफजन्य विकार, त्वचारोग, सूजन व जोड़ों के दर्द में तथा भोजन के तुरंत बाद संतरे का सेवन न करें। संतरा खट्टा न हो, मीठा हो इसकी सावधानी रखें।

एक दिव्य औषधिः वटवृक्ष

भारतीय शास्त्रों में वटवृक्ष को ‘गुणों की खान’ कहा गया है। वटवृक्ष मानव-जीवन कि लिए अत्यंत कल्याणकारी है। यदि व्यक्ति इसके पत्ते, जड़, छाल एवं दूध आदि का सेवन करता है तो रोग उससे कोसों दूर रहते हैं। वट के विभिन्न भागों का विशेष महत्त्व हैः

दूधः स्वप्नदोष आदि रोगों में बड़ का दूध अत्यन्त लाभकारी है। सूर्योदयक से पूर्व 2-3 बताशों में 3-3 बूँद बड़ का दूध टपकाकर उन्हें खा जायें। प्रतिदिन 1-1 दिन बूँद मात्रा बढ़ाते जायें। 8-10 दिन के बाद मात्रा कम करते-करते अपनी शुरूवाली मात्रा पर आ जायें। यह प्रयोग कम से कम 40 दिन अवश्य करें। बवासीर, धातु-दौर्बल्य, शीघ्र पतन, प्रमेह, स्वप्नदोष आदि रोगों के लिए यह अत्यंत लाभकारी है। इससे हृदय व मस्तिष्क को शक्ति मिलती है तथा पेशाब की रूकावट में आराम होता है। यह प्रयोग बल-वीर्यवर्धक व पौष्टिक है। इसे किसी भी मौसम में किया जा सकता है। इसे सुबह-शाम करने से अत्यधिक मासिक स्राव तथा खूनी बवासीर में रक्तस्राव बंद हो जाता है।

दाँतों में इसका दूध लगाने से दाँत का दर्द समाप्त हो जाता है। हाथ पैर में बिवाइयाँ फटी हों तो उसमें बरगद का दूध लगाने से ठीक हो जाती हैं। चोट-मोच और गठिया रोग में सूजन पर इसके दूध का लेप करने से आराम मिलता है। यह सूजन को बढ़ने से रोकता है। दूध को नाभि में भरकर थोड़ी देर लेटने से अतिसार में आराम होता है। शरीर में कहीं गठान हो तो प्रारम्भिक स्थिति में तो गाँठ बैठ जाती है और बढ़ी हुई स्थिति में पककर फूट जाती है।

10 बूँद बरगद का दूध, लहसुन का रस आधा चम्मच तथा तुलसी का रस आधा चम्मच इन तीनों को मिलाकर चाटने से निम्न रक्तचाप में आराम मिलता है।

बल-वीर्य की वृद्धिः कच्चे फल छाया में सुखा के चूर्ण बना लें। बराबर मात्रा में मिश्री मिलाकर रख लें। 10 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम दूध के साथ 40 दिन तक सेवन करने से बल-वीर्य और स्तम्भन (वीर्यस्राव को रोकने की) शक्ति में भारी वृद्धि होती है।

गर्भस्थापन के लिएः ऋतुकाल में यदि वन्ध्या स्त्री पुष्य नक्षत्र में लाकर रखे हुए वटशुंग (बड़ के कोंपलों) के चूर्ण को जल के साथ सेवन करे तो उसे अवश्य गर्भधारण होता है। – आयुर्वेदाचार्य शोढल

पक्षाघात (लकवा)- बरगद का 5 ग्राम दूध महानारायण तेल में मिलाकर मालिश करें।

बड़ की छाल और काली मिर्च दोनों 100-100 ग्राम पीसकर 250 ग्राम सरसों के तेल में पकायें फिर लकवाग्रस्त अंग पर लेप करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 219

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