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परमात्मा का स्वभाव, स्वरूप और गुण क्या ? – (पूज्य बापू जी)


आप परमात्मा का स्वभाव जान लो, स्वरूप जान लो। बाप-रे-बाप ! क्या मंगल समाचार है ! क्या ऊँची खबर है ! भगवान के गुणों का ज्ञान उपासना में काम आता है। भगवान के स्वभाव का ज्ञान शरणागति में काम आता है और भगवान के स्वरूप का ज्ञान भगवान से एकाकार होने में काम आता है। भगवान का वास्तविक स्वरूप क्या है यह जानोगे तो फिर आप भगवान से अलग नहीं रह पाओगे। भगवान का स्वभाव जानोगे तो आप उनकी शरण हुए बिना रूक नहीं सकते। भगवान के गुणों का ध्यान सुन लोगे, जान लोगे तो आप उनकी उपासना किये बिना नहीं रह सकते। अदभुत हैं भगवान के गुण ! अदभुत है भगवान का सामर्थ्य ! अदभुत है भगवान की दूरदर्शिता और अदभुत है भगवान की सुवव्यवस्था ! छोटी मति से भले कभी कभार कहें कि ‘यह अन्याय हो गया, यह जुल्म हो गया, यह अच्छा नहीं हुआ’ लेकिन जब भगवान की वह लीला और संविधान देखते हैं तो कह उठते हैं कि ‘वाह-रे-वाह प्रभु ! क्या आपकी व्यवस्था है ! करूणा-वरूणा के साथ सबकी उन्नति के कारण का क्या आपका स्वभाव है !’

अजब राज है मौहब्बत के फसाने का।

जिसको जितना आता है,

उतना ही गाये चला जाता है।।

एक आसाराम के शरीर में हजार-हजार जिह्वाएँ हों और ऐसे हजार-हजार शरीर मिल जायें, फिर भी आपके गुणों का, स्वभाव का, सामर्थ्य का वर्णन नहीं कर पायेंगे, नहीं कर सकते। जितना थोड़ा कुछ करते हैं उसी में आपकी करूणा-वरूणा और रस तथा प्रकाश पाकर तृप्त हो जाते हैं। प्रभु जी ! प्यारे जी ! मेरे जी !…..

भगवान कैसे ? आप जैसा चाहते हो वैसे ! भगवान की अपनी कोई जाति नहीं। भगवान का अपना कोई रूप रंग नहीं। जिस रूप रंग से आप चाहते हो, उसी रूप-रंग से वे समर्थ प्रकट हो जाते हैं। अहं भक्तपराधीनः। ॐ….. ॐ… शांति ! बोलोगे तो शांति भरे देंगे। ‘अच्युत, आनंद….!’ तो आनंद उभार देंगे। ‘अच्युत, गोविंद….’ – इन नामों से पावन होते जाओगे। भगवान का स्वरूप क्या है ! भगवान के स्वरूप का वर्णन तो भगवान भी नहीं कर सकते तो हम तुम क्या कर सकते हैं ! फिर भी थोड़ा-थोड़ा वर्णन करके काम बना लेते हैं हम।

भगवान का स्वरूप क्या है ? बोलेः ‘सोने का स्वरूप क्या है ?’ सोने का कंगन ले आये, अँगूठी ले आये, हार ले आये, चूड़ियाँ ले आये। ये तो गहने हैं लेकिन इनकी मूल धातु सोना है। मूल धातु को समझ लो। गहने अनेक प्रकार के लेकिन मूल धातु एक ही। सत्स्वरूप, चेतनस्वरूप, आनंदस्वरूप चिदघन सारे ब्रह्माण्डों में ठसाठस भरपूर – यह भगवान का स्वरूप है। भगवान का स्वभाव क्या है ? भगवान का स्वभाव है जो जिस रूप में पुकारे, जिस रूप में प्रेम करे, जिस रूप में चाहे उस रूप में उसके आगे प्रकट हो जाते हैं। भक्तवत्सलता भगवान का स्वभाव है। भक्तपराधीनता भगवान का स्वभाव है। अपने को बेचकर भी भक्त का काम करते हैं। अपने को बँधवाकर भी भक्त को खुशी देते हैं। घोड़ागाड़ी चलाकर भी भक्त का काम होता है तो कर लेंगे। भक्त के घोड़ों की मालिशक करनी होती है तो भी कर लेंगे। भक्तानी के जूठे बेर खाकर भी उसका मंगल होता है तो वे कर लेते हैं और ताड़का वध करने से भी गुरू की सेवा हो जाती है तो वह भी कर लेंगे ! ‘हाय सीते ! कहाँ गयी ? हाय सीते !….’ – ऐसा करने से भी भक्तों की सूझबूझ बढ़ती है तो वे कर  लेंगे।

यह किस चीज का पेड़ है ? मोसम्बी मिली तो बोलेः ‘मोसम्बी का पेड़ है।’ आम मिले तो बोलेः ‘आम का पेड़ है।’ पपीता मिला, नारियल मिला, जो फल मिला, बोलेः ‘इसी का पेड़ है।’ लेकिन कोई ऐसा पेड़ कि जो जैसा फल माँगे वैसा फल उसे दे तो उसको क्या बोलोगे ? आम का बोलोगे, चीकू का बोलोगे, नारियल का बोलोगे, पपीते का बोलोगे कि अनार का बोलोगे ? उसको कल्पतरू बोलोगे। जो जैसी कल्पना करे उसी प्रकार का फल दे दे, उसे ‘कल्पतरू’ कहते हैं। तो भगवान कैसे हैं ? भगवान का स्वभाव क्या है ? भक्तवत्सल, कल्पतरू ! भगवान का स्वरूप क्या है ? सर्वेश्वर, सत्-चित्-आनंद, चिदघन, सर्व ब्रह्माण्डों में ओतप्रोत-भरपूर ! जैसे सूत के चित्र में सूत की ही माला, सूत के ही दाने और चप्पल भी सूत की, पैर भी सूत के, वक्षस्थल भी सूत का तो जो कपड़े पहने हैं वे भी सूत के। शक्कर के खिलौनों में लाट साहब भी शक्कर का तो चपरासी भी शक्कर का। हाथी भी शक्कर का तो उस पर बैठा राजा भी शक्कर का। अब कहीं राजा दिखता है, कहीं चपरासी दिखता है तो कहीं प्रजा दिखती है लेकिन है शक्कर-ही-शक्कर। ऐसे ही भगवान का स्वरूप क्या है ? बोलेः सत्-चित्-आनंद, चिदघन, विभु, व्याप्त, सर्वत्र। भगवान का स्वभाव क्या है ? भक्तवत्सल। भक्त जिस रूप में जिस भाव में उन्हें पुकारे वे प्रकट हो जाते हैं क्योंकि वे कल्पतरू हैं।

भगवान का गुण क्या है ? भगवान का गुण हैः सुहृदता। मित्र तो बदले में कुछ पाने के भाव से हमारी मदद करेगा लेकिन भगवान कोई बदले की भावना से नहीं करते। प्राणिमात्र के परम सुहृद परमात्मा हैं। सुहृदता भगवान का गुण है। सुहृदं सर्वभूतानाम्। ‘मैं प्राणिमात्र का सुहृद हूँ।’ ज्ञात्वा मां शांतिमृच्छति। ‘ऐसा मुझे जाननेवाला शांति को पाता है।’ और शांति से बड़ा कोई सुख नहीं। अशांतस्य कुतः सुखम्। अशांत को सुख कहाँ ! और शांतात्मा को दुःख कहाँ ! आप सुबह उठिये और मन-ही-मन कहियेः ‘भगवान ! आपका स्वरूप है सर्वव्यापक। सारी इन्द्रियाँ, सारे मन आप ही में आराम पाते हैं और उनको आप ही पालते हो, आप गोपाल भी हो। आप राधारमण हो। ‘राधा’…. उलटा दो तो ‘धारा’। चित्त का फुरना, चित्त की कलना जिसकी सत्ता से रमण करती है, वह आप राधारमण भी हो। आप अच्युत भी हो। सारे पद च्युत हो जाते हैं, सारे शरीर च्युत हो जाते हैं, स्वर्गलोक भी च्युत हो जाता है, ब्रह्मलोक भी च्युत हो जाता है, आकृतियाँ च्युत हो जाती हैं फिर भी हे प्रभु ! आप च्युत नहीं होते हो – आप अच्युत हो। आप केशव हो। ‘क’ माने ब्रह्मा का आत्मा आप ही हो। ‘श’ माने शिव का आत्मा भी आप हो। ‘व’ माने विष्णु का आत्मा भी आप लो और मेरा आत्मा भी आप हो। आपका स्वरूप तो थोड़ा-थोड़ा जानते हैं। प्रभु ! आप ऐसे हो और मेरे अपने अंतर्यामी होकर बैठे हो। आपका स्वभाव भक्तवत्सल है। जिसने जिस भाव से पुकारा… भावग्रही जनार्दनः। ‘भाव को ही ग्रहण करने वाले हो जनार्दन !’ ‘ॐ….ॐ…. आनंद !’ बोलेंगे तो आनंद दोगे। ‘ॐ….ॐ…. शांति !’ तो शांति दोगे। ‘ॐ….ॐ…. दुश्मन का ऐसा हो, वैसा हो….’ खुराफात बोलेंगे तो खुराफात दोगे और प्रेमस्वरूप बोलेंगे तो प्रेम दोगे। आपका स्वभाव है भक्तवत्सल, कल्पतरू।’ और महिलाएँ हैं तो प्रभु को कामधेनु मान लो। कल्पतरू के आगे जो कल्पना करो वह पूरी होती है। कामधेनु के आगे जो कामना करो वह देती है। ‘आप कल्पतरू भी हो, कामधेनु भी हो, गुरूरूप भी हो, साधकरूप भी हो, सुहृदरूप भी हो, मित्ररूप भी हो – सभी रूपों में आप हो सारे रूपों के बाद भी आप ही रह जाते हो, अच्युत हो। ॐ आनंद ! ॐ अच्युत ! ॐ गोविंद !’ – इस प्रकार का सुबह आरम्भिक मधुमय चिंतन करो तो आपका सारा दिन मधुमय होने लगेगा।

‘आपका गुण क्या है ? मित्र देकर उत्साह देते हो और शत्रु, विरोधी देकर अहंकार को मिटाते हो, सावधानी बढ़ाते हो, आसक्ति मिटाते हो। प्राणिमात्र के सुहृद हो। हो न !’ – एक हाथ अपना और एक ठाकुरजी का मानकर अपने ही दायें हाथ से बायाँ हाथ मिलाओ। भगवान की सुहृदता, भगवान की भक्तवत्सलता और भगवान का विभु स्वभाव याद करो तो फिर देर-सवेर पता चलेगा कि भगवान आपके आत्मा होकर बैठे हैं।

जो ठाकुरू सद सदा हजूरे।

ता कउ अंधा जानत दूरे।।

‘आप दूर नहीं, दुर्लभ नहीं। जय जगदीश हरे…. जगत के ईश आप। भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करें। आपके स्वभाव का, आपके स्वरूप का, आपके गुण का चिंतन करते हैं तो तुरंत मन की ग्लानि, मलिनता, दीनता-हीनता चली जाती है।’ आप जगत का चिंतन करोगे और जगत में प्रीति करोगे तो जगत आपको कामी बनायेगा, क्रोधी बनायेगा, लोभी बनायेगा, मोही बनायेगा, चिंतित बनायेगा, विलासी बनायेगा, विकारी बनायेगा और जन्म-मरण के धक्कों में धकेलता रहेगा और प्रभु का चिंतन करोगे को प्रभु का चिंतन आपको विभु बना देगा, सुहृद बना देगा, कल्पतरू बना देगा। जो महात्मा ऐसा चिंतन करते हैं, वे भक्तों के कल्पतरू हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 4,5,6 अंक 218

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मन एक कल्पवृक्ष


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

कोई सुप्रसिद्ध वैद्यराज थे। रात्रि को किसी बूढ़े आदमी की तबीयत गम्भीर होने पर उन्हें बुलाया गया। वैद्यराज ने देखा कि ‘बूढ़ा है, पका हुआ पत्ता है, पुराना अस्थमा है, फेफड़े इन्कार कर चुके हैं, रक्तवाहिनियाँ भी चोड़ी हो गयी है, पुर्जे सब पूरे घिस गये हैं अब बूढ़े का बचना असम्भव है, बहुत-बहुत तो 40 से 48 घंटे निकाल सकता है। वैद्य ने ठीक से जाँच की। बड़ा सात्त्विक वैद्य था, अच्छी परख थी उसकी।

बूढ़े ने कहाः “बताओ मेरा क्या होगा ? कोई दवाई लगती नहीं, दो साल से पड़ा हूँ बिस्तर पर, ऐसा है-वैसा है….।”

वैद्य ने कहाः “चिंता न करो। मैं जाता हूँ, जाँच पड़ताल करके चिट्ठी भेजता हूँ और दवाई भी भेजता हूँ।”

वैद्य ने कहाः “चिंता न करो। मैं जाता हूँ, जाँच पड़ताल करके चिट्ठी भेजता हूँ और दवाई भी भेजता हूँ।”

वैद्य अपने घर की ओर लौटा। रास्ते में याद आया कि ‘धनी सेठ का लड़का जो बीमार है, दवाई मँगा रहा था, जरा उसे देखता जाऊँ।’

वैद्य ने युवक को देखा। युवक भी बिस्तर पर कराह रहा था कि “मेरी तबीयत खराब है, कमजोरी है, मेरे को ऐसा है वैसा है…। क्या पता कब ठीक होऊँगा ?”

वैद्य ने कहाः “चिंता की बात नहीं, ठीक हो जाओगे। तुमको बीमारी का वहम ज्यादा है, वहम निकाल दो।”

बोलेः “मुझे रोग क्या है यह तो बताओ वैद्यराज ?”

वैद्यराज ने कहाः “मैं अभी जाता हूँ, अपने औषधालय से पूरा विश्लेषण करके तुमको चिट्ठी भी भेजता हूँ, दवाई भी भेजता हूँ।”

वैद्य ने दो चिट्ठियाँ लिखीं और दोनों की दवाइयाँ साथ में भेज दीं। अब  जो चिट्ठी और दवाई जवान को देनी थी वह बूढ़े के पास पहुँच गयी और जो बूढ़े को देनी थी वह गलती से जवान को मिल गयी। उस चिट्ठी में बूढ़े के लिये लिखा थाः “शरीर का कोई भरोसा नहीं। पद का भी कोई भरोसा नहीं। शरीर का ही भरोसा नहीं तो पदों का भरोसा कैसे ! सारे पद शरीर पर आधारति हैं। जितना हो सके हरि स्मरण करो और अपनी धन सम्पत्ति बच्चों के हवाले करने के लिए तुम्हारे अंदर थोड़ी शक्ति आ जाये, ऐसी उत्तेजक दवा भेजता हूँ। परमात्मा का खूब सुमिरन करो, शरीर तो किसी का सदा रहा नहीं ! भगवान हरि ही तुम्हारी शरण हैं, अंतिम गति हैं। संसार में अब तुम्हारे ज्यादा दिन नहीं हैं। एक दो दिन के तुम मेहमान हो।”

जवान ने ज्यों चिट्ठी पढ़ी महाराज ! ऐसा ढला कि फिर उठ न सका। करवट बदलने के लिए पत्नी को बुलाया। रात भर चीखा-चिल्लाया। सुबह होते-होते आदमी वैद्यराज को बुलाने गयेः

“हालत गम्भीर है, चलो।”

वैद्य ने कहाः “गम्भीर-वम्भीर कुछ नहीं, अब मेरे आने की कोई जरूरत नहीं। मैं कल देखकर आया हूँ। अभी मेरे पूजा-पाठ का समय है।”

नौकर ने जाकर कहाः “वैद्य बोलते हैं कि अब मेरे आने की जरूरत नहीं है।” जवान को लगा कि ‘सचमुच अब मैं जाने वाला हूँ, वैद्य आकर क्या करेगा !” उसकी तबीयत और खराब हो गयी। दोपहर तक उसकी ऐसी हालत हो गयी कि जैसे अब गया… अब गया…। वैद्य के मन में हुआ कि ‘आदमी पर आदमी आ रहे है। चलो, जरा देखकर आयें।’

वैद्यराज ने उस युवक को देखा और बोलेः “कल तक तो इस जवान की हालत ठीक-ठीक थी, अब ऐसी कैसे हो गयी ! क्या हो गया ?”

वह बोलाः “आप ही ने तो कहा कि, तुम एक दो दिन के मेहमान हो।’ रात को आपकी चिट्ठी पढ़ने से तो मेरी तबीयत और खराब हो गयी और मुझे तो सामने मृत्यु ही दिखती है कि मैं मर जाऊँगा। वैद्यराज ! मैंने अपने कुटुम्बियों को, ससुराल वालों को तार भेज दिये। मैं तुम्हारे पैर पकड़ता हूँ, वचन देता हूँ, मैं लिखकर दे दूँ कि मेरी धन-सम्पदा सब आपको अर्पण करता हूँ। मुझे ठीक कर दो, मुझे जीवन दे दो….।”

वह युवक ‘अब मरा ! अब मरा !’ – इसक प्रकार का विलाप कर रहा था। वैद्य ने चिट्ठी माँगी कि इतन कैसे लड़खड़ा गया ! पढ़ी तो खूब हँसा। बोलाः “अरे ! यह तो कल मैं जिस बूढ़े को देखकर आया था, उसकी चिट्ठी है और यह उत्तेजक दवा उसके लिये है। तेरे को तो थोड़ा-सा बुखार है, तेरी दवा अलग है। उस आदमी ने बेवकूफी की जो तेरे को दे दी। मुझसे गलती हो गयी, अब ऐसे आदमियों के द्वारा चिट्ठी नहीं भिजवाऊँगा।”

वैद्य ने कुछ विश्वास की बातें सुनायीं तो वह उठ के खड़ा हो गया। बोलाः “अच्छा, ऐसी बात है !” वैद्य ने कहाः “हाँ, हाँ सचमुच !” वह खाना वाना खाकर बोलता हैः “अच्छा चलो, बूढ़े का हाल देखकर आयें। उसका क्या हुआ ?” वे दोनों उस बूढ़े के पास गये। वैद्य ने देखा कि इसका बिस्तर तो पहली मंजिल पर रहता था, यह अब नीचे कैसे आ गया ! जो अभी मरीज था, मर रहा था, पलंग पर से करवट बदलने के लिए जिसे स्त्री के सहयोग की जरूरत थी, देखा तो वह रसोई में रोटी और दूध खा रहा है। वैद्य को देखकर बूढ़ा बोल उठाः “मेरे वैद्यराज भगवान ! तुम्हारा भला हो। तुम्हारी दवा में तो क्या चमक थी ! तुम्हारी चिट्ठी पढ़ी कि ‘कोई खास रोग नहीं, जरा कमजोरी है। तुम तो बिना मतलब के वहम में फँसे हो।’ सचमुच, मैंने वहम छोड़ दिया और मुझमें शक्ति आ गयी। मैं गद्दे से उतरकर खाने आ गया हूँ लो !”

वह जवान बोलने ही जा रहा था कि ‘भाई ! वह तो मेरी चिट्ठी है।’ “वैद्यराज ने उसको संकेत कर दिया कि ‘चुप रहो अब ! इधर तो काम बन गया !’ बूढ़ा बोलाः “वैद्यराज! दो साल से तो मैं दवाइयाँ कर रहा था। ऐसे लल्लू-पंजू वैद्यों के चक्कर में था कि बीमार-ही-बीमार रहा। तुम्हारे जैसे वैद्य की दवा पहले करता तो दो साल मुझे बिस्तर पर नहीं पड़े रहना पड़ता। वैद्यराज ! तुम्हारा मंगल हो, खूब जियो !”

वैद्य के वचन से जो बिस्तर पर था, वह व्यक्ति तीन महीने और जिया। ऐसे कई दृष्टांत तुमने समाज में देखे होंगे।

और एक्स रे करके लुटेरे डॉक्टर कितना तुम्हे नोच लेते हैं और कितना तुम्हें गहरा मरीज बना देते हैं ! यह है, वह है…. एक्स रे के काले पन्ने दिखाकर तुम्हें और तुम्हारे कुटुम्बियों को डरा के अपनी काली मुरादें पूरी कर लेते हैं।

दया बहन शेवानी का पुत्र, पति और दया बहन स्वयं थकी हारी थीं। लगता था कि अब जाने वाली हैं। वे लोग हमारे पास आये और अभी भी दया बहन जीवित हैं।

श्रीमती दया बहन, प्रह्लाद शेवानी और परिवार चकित हो रहा है कि ‘मृत्यु के मुख से बापू बाहर ले आये !’ मृत्यु के मुख से बाहर नहीं लाये, जिन्होंने लूटने के लिए धकेला था और जिन्हें ऑपरेशन करना था, उन शिकारियों के शिकंजे से बापू उनको बाहर ले आये और आश्रम के वैद्यों ने निष्काम भाव से थोड़ा इलाज किया। डॉक्टरों की अंग्रेजी औषधियों से सब बाल झड़ रहे थे, मुंडित-तुंदित लग रही थी। अब तो उन्हें नये काले बाल भी उभर रहे हैं। यह देखकर तो उनकी बहूरानी भी दंग रह गयी !

उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम – ये छः सदगुण जहाँ रहते हैं, वहाँ परमात्मा पग-पग पर अपनी करूणा-कृपा छलकाते हैं, छलकाते हैं, इसमें संदेह नहीं है।

जो डॉक्टर लापरवाही बरतते हैं या मरीज को डराते हैं और उनको लूटने का इरादा बनाते हैं, भगवान उनको सदबुद्धि दें। वे सुधर जायें, सुधरने का सीजन है।

तुम्हारे गहरे मन में इतना सामर्थ्य है कि ढले हुए शरीर को जीवन दे सकता है और जीवन वाले शरीर को ढला सकता है। तुम मन में जैसा दृढ़ संकल्प करो, वैसा होने लगता है।

मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः।

मन ही तुम्हारे बंधन और मुक्ति का कारण है। जैसा-जैसा आदमी सोचता है न, वैसा-वैसा बन जाता है। जो नकारात्मक सोचता है, घृणात्मक सोचता है उसको घृणा ही मिलती है और नकारा जाता है। जो वाह-वाह सोचता है, धन्यवाद सोचता है, ‘कर लूँगा, हो जायेगा…. हो जायेगा’ – ऐसा सोचता है, निराशा-हताशा की बातें नहीं सोचता उसके काम हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 20, 21, 22 अंक 218

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कौन है तुम्हारा जीवन सारथी ?


(पूज्य बापू जी)

तीन मित्र थे। उन्होंने शर्त रखी कि देखें, अधिक समय बदबू कौन सहन कर सकता है ? वे एक बूढ़ा बकरा, जिसके शरीर पर गंदगी, मैल लगी थी, ले आये और कमरे में रख दिया। एक मित्र कमरे के अंदर गया और पाँच मिनट में वापस आ गया कि ‘अपने से यह बदबू सहन नहीं होती।’ फिर दूसरा गया… गया और वापस आया। फिर तीसरा गया। तीसरा गया तो उसकी बदबू से बकरा ही बाहर आ गया।

अब यह है दृष्टांत। ऐसे ही हमारा अहंकार, हमारी मैली वासना जब भीतर चली जाती है आँख के द्वारा, कान के द्वारा, किसी के द्वारा तो हमारा आनंद बाहर चला जाता है, सुख भाग जाता है। वासना में इतनी बदबू होती है कि हमारी जान निकाल देती है वह। जीवरूपी बकरे को इतना सताती है वासना कि वह भी बेचारा कह उठता है कि ‘मेरी तो जान निकल गयी है !’

आपे देखा होगा व्यवहार में, ऐसे-ऐसे काम करते हैं कि आपकी जान निकल जाती है। आप ऐसा महसूस करते हैं कि ‘मकान तो बना लेकिन हमारी तो जान निकल गयी। फलाना-फलाना काम करते हुए हमारी जान निकल गयी !’ अनुभव होता है ! तो वासना दिखती तो साफ सुथरी, हट्टी-कट्टी है लेकिन वह अपनी जान को, अपनी मस्ती को, सुख को बाहर निकाल देती है। चुपचाप बैठे हैं और ऐसे कोई घड़ियाँ हैं जिनमें कोई वासना नहीं तो वह एकाध घड़ी इतनी महत्त्वपूर्ण है, वह एकाथ क्षण इतना सुखद है कि उस सुखद क्षण का इन्द्र के वैभव के साथ मुकाबला करो तो इन्द्र का वैभव भी तुच्छ दिखता है, इतनी उस निर्वासनिक अवस्था में शांति, आनंद, माधुर्य की झलकियाँ होती है।

देवताओं के पास सुख-सुविधाएँ ज्यादा होती हैं, वे भोगी होते हैं इसलिए परमात्मा को नहीं पा सकते हैं। दैत्यों में तमोगुण होता है इसलिए वे विवेक की गद्दी पर नहीं बैठ सकते। एक मनुष्य-शरीर ऐसा है कि न अति तमो है न अति सत्त्व, न अति भोग हैं। मनुष्य है मध्य का। अब जिधर का वह संग करे, चाहे गुणातीत तत्त्व का संग करे…

एक बात और समझ लेना। जो आदमी जैसा संग करता है, वह वैसा हो जाता है। तुच्छ काम करने वाले व्यक्तियों का संग करो तो तुम्हारी प्रतिष्ठा भी तुच्छ होने लगती है। पवित्र आत्मा, परोपकारी आत्मा, संत, साधक जिनका हृदय ऊँचा है, चरित्र ऊँचा है, ऐसे व्यक्तियों का संग करते हैं तो आप ऊँचे होने लगते हैं। वासना अति तुच्छ है और इन्द्रियों रूपी नाली के द्वारा वह मजा चाहती है। अगर आदमी वासना का संग करता है तो तुच्छ हो जाता है और विवेक का संग करता है तो परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कारी ज्ञानीस्वरूप, ईश्वरस्वरूप हो जाता है। अगर हम विवेक का संग करते हैं तो हम ईश्वर के साथ हो जाते हैं और वासना का संग करते हैं तो नरक के साथ हो जाते हैं। हम मध्य में हैं। मनुष्य जन्म एक जंक्शन है, अब जिधर को जायें।

वासना और कमजोरी के विचार आदमी का जितना सत्यानाश करते हैं, उतना तो मौत भी नहीं करती। मौत तो एक बार मारती है लेकिन कमजोर विचार और वासनाएँ करोड़ों जन्मों तक मारती रहेंगी। वासना जीव को अंधा कर देती है। अपने तुच्छ स्वभाव, मलिन स्वभाव से जीव इतने आक्रान्त हो जाते हैं कि हृदय में बैठे हुए विश्वेश्वर का कोई पता ही नहीं ! तुम्हारे जीवनरथ का सारथी कौन है ? अपने-आपसे पूछना चाहिए।

शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं। अब सारथी कामना है, काम है कि राम है ? बुद्धि निर्णय करे, मन उसके विषय में विचार करे और इन्द्रियाँ तदनुकूल चलें तो समझो आप राम तक पहुँच जायेंगे। इन्द्रियों ने देखा, मन ने उसकी प्राप्ति के लिये सोचा और बुद्धि उसमें लग गयी तो समझो बरबादी हो गयी। कभी-कभी आपका विवेक इन्कार करता है लेकिन इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि उधर को खींचते हैं। बुद्धि कुछ कह रही है और हृदय कुछ और कह रहा है तो उस वक्त बुद्धि की बात को ठुकरा दो, क्योंकि वह भीतरवाला अंतर्यामी जो है न, तुम्हारा हृदय जो है न, वह ईश्वर के करीब होता है, विवेक के करीब होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 218

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