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आपके जीवन में शिव ही शिव हो


(पूज्य बापू जी कल्याणमयी मधुमय वाणी)

चार महारात्रियाँ हैं – जन्माष्टमी, होली, दिवाली और शिवरात्रि। शिवरात्रि को अहोरात्रि भी बोलते हैं। इस दिन ग्रह नक्षत्रों आदि का ऐसा मेल होता है कि हमारा मन नीचे के केन्द्रों से ऊपर आये। देखना, सुनना, चखना, सूँघना व स्पर्श करना – इस विकारी जीवन में तो जीव-जंतु भी होशियार हैं। बकरा जितना काम विकार में होशियार है उतना मनुष्य नहीं हो सकता। बकरा एक दिन में चालीस बकरियों के साथ काला मुँह कर सकता है, मनुष्य करे तो मर जाये। यह विकार भोगने के लिए तो बकरा, सुअर, खरगोश और कई नीच योनियाँ हैं। विकार भोगने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है।

विकारी शरीरों की परम्परा में आते हुए भी निर्विकार नारायण का आनंद-माधुर्य पाकर अपने शिवस्वरूप को जगाने के लिए शिवरात्रि आ जाती है कि लो भाई ! तुम उठाओ इस मौके का फायदा….।

शिवजी कहते हैं कि ‘मैं बड़े-बड़े तपों से, बड़े-बड़े यज्ञों से, बड़े-बड़े दानों से, बड़े-बड़े व्रतों से इतना संतुष्ट नहीं होता हूँ जितना शिवरात्रि के दिन उपवास करने से होता हूँ।’ अब शिवजी का संतोष क्या है ? तुम भूखे मरो और शिवजी खुश हों, क्या शिव ऐसे हैं ? नहीं, भूखे नहीं मरोगे, भूखे रहोगे तो शरीर में जो रोगों के कण पड़े हैं, वे स्वाहा हो जायेंगे और जो आलस्य, तन्द्रा बढ़ाने वाले विपरीत आहार के कण हैं वे भी स्वाहा हो जायेंगे और तुम्हारा जो छुपा हुआ सत् स्वभाव, चित् स्वभाव, आनंद स्वभाव है, वह प्रकट होगा। शिवरात्रि का उपवास करके, जागरण करके देख लो। मैंने तो किया है। मैंने एक शिवरात्रि का उपवास घर पर किया था, ऐसा फायदा हुआ कि मैं क्या-क्या वर्णन करूँ ! क्या-क्या अंतर्प्रेरणा हुई, क्या-क्या फायदा हुआ उसका वर्णन करना मेरे बस का नहीं है। नहीं तो जाने घिस-पिट के क्या हालत होती सत्तर की उम्र में ! ‘अरे बबलू ! ऐंह…. अरे जरा उठा दें… जरा बैठा दे।’ – यह हालत होती।

इस दिन जो उपवास करे, उसे निभाये। जो बूढ़े हैं, कमजोर हैं, उपवास नहीं रख सकते, वे लोग थोड़ा अंगूर खा सकते हैं अथवा एक छोटे-मोटे नारियल का पानी पी सकते हैं, ज्यादा पीना ठीक नहीं।

शरीर में जो जन्म से लेकर विजातीय द्रव्य हैं, पाप-संस्कार हैं, वासनाएँ हैं उन्हें मिटाने में शिवरात्रि की रात बहुत काम करती है।

शिवरात्रि का जागरण करो और ‘बं’ बीजमंत्र का सवा लाख जप करो। संधिवात (गठिया) की तकलीफ दूर हो जायेगी। बिल्कुल पक्की बात है ! एक दिन में ही फायदा ! ऐसा बीजमंत्र है शिवजी का। वायु मुद्रा करके बैठो और ‘बं बं बं बं बं’ जप करो। जैसे जनरेटर घूमता है तो बिजली बनती है, फिर गीजर भी चलेगा और फ्रिज भी चलेगा। दोनों विपरीत हैं लेकिन बिजली से दोनों चलते हैं। ऐसे ही ‘बं बं’ से विपरीत धर्म भी काम में आ जाते हैं। बुढ़ापे में तो वायु संबंधी रोग ज्यादा होते हैं। जोड़ों में दर्द हो गया, यह पकड़ गया-वह पकड़ गया…. ‘बं बं’ जपो, उपवास करो, देखो अगला दिन कैसा स्फूर्तिवाला होता है।

शिवरात्रि की रात का आप खूब फायदा उठाना। विद्युत के कुचालक आसन का उपयोग करना। विद्युत के कुचालक आसन का उपयोग करना। भीड़ भाड़ में, मंदिर में नहीं गये तो ऐसे ही ‘ॐ नमः शिवाय‘ जप करना। मानसिक मंदिर में जा सको तो जाना। मन से ही की हुई पूजा षोडषोपचार की पूजा से दस गुना ज्यादा हितकारी होती है और अंतर्मुखता ले आती है।

शिवजी का पत्रम-पुष्पम् से पूजन करके मन से मन का संतोष करें, फिर ॐ नमः शिवाय…. ॐ नमः शिवाय…. शांति से जप करते गये। इस जप का बड़ा भारी महत्त्व है। अमुक मंत्र की अमुक प्रकार की रात्रि को शांत अवस्था में, जब वायुवेग न हो आप सौ माला जप करते हैं तो आपको कुछ-न-कुछ दिव्य अनुभव होंगे। अगर वायु-संबंधी बीमारी हैं तो ‘बं बं बं बं बं’ सवा लाख जप करते हो तो अस्सी प्रकार की वायु-संबंधी बीमारियाँ गायब ! अगर तुम प्रणव की 120 मालाएँ करते हो रोज और ऐसे पाँच लाख मंत्रों का जप करते हो तो आपकी मंत्रसिद्धि की शक्तियाँ जागृत होने लगती है। ॐ नमः शिवाय मंत्र तो सब बोलते हैं लेकिन इसका छंद कौन सा है, इसके ऋषि कौन हैं, इसके देवता कौन हैं, इसका बीज क्या है, इसकी शक्ति क्या है, इसका कीलक क्या है – यह मैं बता देता हूँ। अथ ॐ नमः शिवाय मंत्र। वामदेव ऋषिः। पंक्तिः छंदः। शिवो देवता। ॐ बीजम्। नमः शक्तिः। शिवाय कीलकम्। अर्थात् ॐ नमः शिवाय का कीलक है ‘शिवाय’, ‘नमः’ है शक्ति, ॐ है बीज… हम इस उद्देश्य से (मन ही मन अपना उद्देश्य बोलें) शिवजी का मंत्र जप रहे हैं – ऐसा संकल्प करके जप किया जाय तो उसी संकल्प की पूर्ति में मंत्र की शक्ति काम देगी।

अगर आप शिव की पूजा स्तुति करते हैं और आपके अंदर में परम शिव को पाने का संकल्प हो जाता है तो इससे बढ़कर कोई उपहार नहीं और इससे बढ़कर कोई पद नहीं है। भगवान शिव से प्रार्थना करें- ‘इस संसार के क्लेशों से बचने के लिए, जन्म-मृत्यु के शूलों से बचने के लिए हे भगवान शिव ! हे साम्बसदाशिव ! हे शंकर ! मैं आपकी शरण हूँ, मैं नित्य आने वाली संसार की यातनाओं से हारा हुआ हूँ, इसलिए आपके मंत्र का आश्रय ले रहा हूँ। आज के शिवरात्रि के इस व्रत से और मंत्रजप से तुम मुझ पर प्रसन्न रहो क्योंकि तुम् अंतर्यामी साक्षी चैतन्य हो। हे प्रभु ! तुम संतुष्ट होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्राप्त कराओ। सुख और दुःख में मैं सम रहूँ। लाभ और हानि को सपना समझूँ। इस संसार के प्रभाव से पार होकर इस शिवरात्रि के वेदोत्सव में मैं पूर्णतया अपने पाप-ताप को मिटाकर आपके पुण्यस्वभाव को प्राप्त करूँ।

शिवधर्म पाँच प्रकार का कहा गया हैः एक तो तप (सात्त्विक आहार, उपवास, ब्रह्मचर्य) शरीर से, मन से, पति-पत्नी, स्त्री पुरुष की तरफ के आकर्षण का अभाव। आकर्षण मिटाने में सफल होना हो तो ॐ अर्यमायै नमः…. ॐ अर्यमायै नमः….. यह जप शिवरात्रि के दिन कर लेना, क्योंकि शिवरात्रि का जप कई गुना अधिक फलदायी कहा गया है। दूसरा है भगवान की प्रसन्नता के लिए सत्कर्म, पूजन अर्चन आदि (मानसिक अथवा शारीरिक), तीसरा शिवमंत्र का जप, चौथा शिवस्वरूप का ध्यान और पाँचवाँ शिवस्वरूप का ज्ञान। शिवस्वरूप का ज्ञान – यह आत्मशिव का ज्ञान। शिवस्वरूप का ज्ञान – यह आत्मशिव ही उपासना है। चिता में भी शिवतत्त्व की सत्ता है, मुर्दे में भी शिवतत्त्व की सत्ता है तभी तो मुर्दा फूलता है। हर जीवाणु में शिवतत्त्व है। तो इस प्रकार अशिव में भी शिव देखने के नजरिये वाला ज्ञान, दुःख में भी सुख को ढूँढ निकालने वाला ज्ञान, मरूभूमि में भी वसंत और गंगा लहराने वाला श्रद्धामय नजरिया, दृष्टि यह आपके जीवन में शिव ही शिव लायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 14, 15 अंक 218

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तुम्हारा जीवन-रथ उत्तर की ओर प्रयाण करे – पूज्य बापू जी


मकर सक्रान्ति, उत्तरायणः 14 व 15 जनवरी

छः महीने सूर्य का रथ दक्षिणायण को और छः महीने बीतते हैं तब देवताओं की एक रात होती है एवं मनुष्यों के छः महीने बीतते हैं तो देवताओं का एक दिन होता है। उत्तरायण के दिन देवता लोग भी जागते हैं। हम पर उन देवताओं की कृपा बरसे, इस भाव से भी यह पर्व मनाया जाता है। कहते हैं कि इस दिन यज्ञ में दिये गये द्रव्य को ग्रहण करने के लिए वसुंधरा पर देवता अवतरित होते हैं। इसी प्रकाशमय मार्ग से पुण्यात्मा पुरुष शरीर छोड़कर स्वर्गादिक लोकों में प्रवेश करते हैं। इसलिए यह आलोक का अवसर माना गया है। इस उत्तरायण पर्व का इंतजार करने वाले भीष्म पितामह ने उत्तरायण शुरू होने के बाद ही अपनी देह त्यागना पसंद किया था। विश्व का कोई योद्धा शर-शय्या पर अट्ठावन दिन तो क्या अट्ठावन घंटे भी संकल्प के बल से जी के नहीं दिखा पाया। वह काम भारत के भीष्म पितामह ने करके दिखाया।

धर्मशास्त्रों के अनुसार इस दिन दान-पुण्य, जप तथा धार्मिक अनुष्ठानों का अत्यंत महत्त्व है। इस अवसर पर दिया हुआ दान पुनर्जन्म होने पर सौ गुना प्राप्त होता है।

यह प्राकृतिक उत्सव है, प्रकृति से तालमेल कराने वाला उत्सव है। दक्षिण भारत में तमिल वर्ष की शुरूआत इसी दिन से होती है। वहाँ यह पर्व ‘थई पोंगल’ के नाम से जाना जाता है। सिंधी लोग इस पर्व को ‘तिरमौरी’ कहते हैं, हिन्दी लोग ‘मकर सक्रान्ति’ कहते हैं एवं गुजरात में यह पर्व ‘उत्तरायण’ के नाम से जाना जाता है।

यह दिवस विशेष पुण्य अर्जित करने का दिवस है। इस दिन शिवजी ने अपने साधकों पर, ऋषियों पर विशेष कृपा की थी।

इस दिन भगवान सूर्यनारायण का ध्यान करना चाहिए और उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘हमें क्रोध से, काम-विकार से, चिंताओँ से मुक्त करके आत्मशांति पाने में, गुरू की कृपा पचाने में मदद करें।’ इस दिन सूर्यनारायण के नामों का जप, उन्हें अर्घ्य-अर्पण और विशिष्ट मंत्र के द्वारा उनका स्तवन किया जाय तो सारे अनिष्ट नष्ट हो जायेंगे और वर्ष भर के पुण्यलाभ प्राप्त होंगे।

ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः।  इस मंत्र से सूर्यनारायण की वंदना कर लेना, उनका चिंतन करके प्रणाम कर लेना। इससे सूर्यनारायण प्रसन्न होंगे, निरोगता देंगे और अनिष्ट से भी रक्षा करेंगे।

उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण के इन नामों का जप विशेष हितकारी हैः ॐ मित्राय नमः। ॐ रवये नमः। ॐ सूर्याय नमः। ॐ भानवे नमः। ॐ खगाय नमः। ॐ पूष्णे नमः। ॐ हिरण्येगर्भाय नमः। ॐ मरीचये नमः। ॐ आदित्याय नमः। ॐ सवित्रे नमः। ॐ अर्काय नमः। ॐ भास्कराय नमः। ॐ सवितृ सूर्यनारायणाय नमः।

ब्रह्मचर्य से बुद्धिबल बहुत बढ़ता है। जिनको ब्रह्मचर्य रखना हो, संयमी जीवन जीना हो, वे उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण का सुमिरन करें, प्रार्थना करें जिससे ब्रह्मचर्य-व्रत में सफल हों और बुद्धि में बल बढ़े।

ॐ सूर्याय नमः…… ॐ शंकराय नमः….. ॐ गणपतये नमः….. ॐ हनुमते नमः….. ॐ भीष्माय नमः….. ॐ अर्यमायै नमः….

इस दिन किये गये सत्कर्म विशेष फल देते हैं। इस दिन भगवान शिव को तिल-चावल अर्पण करने का अथवा तिल-चावल से अर्घ्य देने का भी विधान । इस पर्व पर तिल का विशेष महत्त्व माना गया है। तिल का उबटन, तिलमिश्रित जल से स्नान, तिलमिश्रित जल का पान, तिल-हवन, तिल-मिश्रित भोजन व तिल-दान, ये सभी पापनाशक प्रयोग हैं। इसलिये इस दिन तिल, गुड़क तथा चीनी मिले लड्डू खाने तथा दान देने का अपार महत्त्व है। तिल के लड्डू खाने से मधुरता एवं स्निग्धता प्राप्त होती है एवं शरीर पुष्ट होता है। शीतकाल में इसका सेवन लाभप्रद है।

यह तो हुआ लौकिक रूप से उत्तरायण अथवा संक्रान्ति मनाना किंतु मकर सक्रांति का आध्यात्मिक तात्पर्य है – जीवन में सम्यक क्रांति। अपने चित्त को विषय-विकारों से हटाकर निर्विकारी नारायण में लगाने का, सम्यक क्रान्ति का संकल्प करने का यह दिन है। अपने जीवन को परमात्म-ध्यान, परमात्म-ज्ञान एवं परमात्मप्राप्ति की ओर ले जाने का संकल्प करने का बढ़िया से बढ़िया जो दिन है वह मकर सक्रान्ति का दिन है।

मानव सदा सुख का प्यासा रहा है। उसे सम्यक् सुख नहीं मिलता तो अपने को असम्यक् सुख में खपा-खपाकर चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है। अतः अपने जीवन में सम्यक् सुख, वास्तविक सुख पाने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए।

आत्मसुखात् न परं विद्यते।

आत्मज्ञानात् न परं विद्यते।

आत्मलाभात् न परं विद्यते।

वास्तविक सुख क्या है ? आत्मसुख। अतः आत्मसुख पाने के लिए कटिबद्ध होने का दिवस ही है मकर सक्रान्ति। यह पर्व सिखाता है कि हमारे जीवन में भी सम्यक् क्रान्ति आये। हमारा जीवन निर्भयता व प्रेम से परिपूर्ण हो। तिल-गुड़ का आदान-प्रदान परस्पर प्रेमवृद्धि का ही द्योतक है।

सक्रान्ति के दिन दान का विशेष महत्त्व। अतः जितना सम्भव हो सके उतना किसी गरीब को अन्नदान करें। तिल के लड्डू भी दान किये जाते हैं। आज के दिन लोगों में सत्साहित्यक के दान का भी सुअवसर प्राप्त किया जा सकता है। तुम यह न कर सको तो भी कोई हर्ज नहीं किंतु हरिनाम का रस तो जरूर पीना-पिलाना। अच्छे में अच्छा तो परमात्मा है, उसका नाम लेते-लेते यदि अपने अहं को सदगुरु के चरणों में, संतों के चरणों में अर्पित कर दो तो फायदा ही फायदा है और अहंदान से बढ़कर तो कोई दान नहीं। लौकिक दान के साथ अगर अपना आपा ही संतों के चरणों में, सदगुरू के चरणों में दान कर दिया जाय तो फिर चौरासी का चक्कर सदा के लिए मिट जाय।

सक्रांति के दिन सूर्य का रथ उत्तर की ओर प्रयाण करता है। वैसे ही तुम भी इस मकर सक्रान्ति के पर्व पर संकल्प कर लो कि अब हम अपने जीवन को उत्तर की ओर अर्थात् उत्थान की ओर ले जायेंगे। अपने विचारों को उत्थान की तरफ मोड़ेंगे। यदि ऐसा कर सको तो यह दिन तुम्हारे लिए परम मांगलिक दिन हो जायेगा। पहले के जमाने में लोग इस दिन अपने तुच्छ जीवन को बदलकर महान बनने का संकल्प करते थे।

हे साधक ! तू भी संकल्प कर कि ‘अपने जीवन में सम्यक् क्रांति – सक्रान्ति लाऊँगा। अपनी तुच्छ, गंदी आदतों को कुचल दूँगा और दिव्य जीवन बिताऊँगा। प्रतिदिन जप-ध्यान करूँगा, स्वाध्याय करूँगा और अपने जीवन को महान बनाकर ही रहूँगा। त्रिबंधसहित ॐकार का गुंजन करते हुए दृढ़ संकल्प और प्रार्थना फलित होती है। प्राणिमात्र के जो परम हितैषी हैं उन परमात्मा की लीला में प्रसन्न रहूँगा। चाहे मान हो चाहे अपमान, चाहे सुख मिले चाहे दुःख किंतु सबके पीछे देने वाले करूणामय हाथों को ही देखूँगा। प्रत्येक परिस्थिति में सम रहकर अपने जीवन को तेजस्वी-ओजस्वी एवं दिव्य बनाने का प्रयास अवश्य करूँगा।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2011, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 217

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शिशिर ऋतु में विशेष लाभदायीः तिल


(शिशिर ऋतुः 21 दिसम्बर से 17 फरवरी तक)

शिशिर ऋतु में वातावरण में शीतलता व रूक्षता बढ़ जाती है। आगे आने वाली वसंत व ग्रीष्म ऋतुओं में यह रूक्षता क्रमशः तीव्र व तीव्रतम हो जाती है। यह सूर्य के उत्तरायण का काल है इसमें शरीर का बल धीरे धीरे घटता जाता है।

तिल अपनी स्निग्धता से शरीर के सभी अवयवों को मुलायम रखता है, शरीर को गर्मी  बल प्रदान करता है। अतः भारतीय संस्कृति में उत्तरायण के पर्व पर तिल के सेवन का विधान है।

तिल सभी अंग-प्रत्यंगों विशेषतः अस्थि, संधि, त्वचा, केश व दाँतों को मजबूत बनाता है। यह मेध्य अर्थात बुद्धिवर्धक भी है। सफेद, लाल  काले तिल इन तीन प्रकार के तिलों में काले तिल वीर्यवर्धक व सर्वोत्तम हैं। सभी प्रकार के तेलों में काले तिल का तेल श्रेष्ठ है। यह उत्तम वायुशामक है। इससे की गयी मालिश मजबूती व स्फूर्ति लाती है। शिशिर ऋतु में मालिश विशेष लाभदायी है।

तिल में कैल्शियम व विटामिन ‘ए’ प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। बादाम की अपेक्षा तिल में छः गुना से भी अधिक कैल्शियम है। यह हड्डियों को मजबूत बनाता है। तिल के छिलकों में निहित ऑक्जेलिक एसिड इस कैल्शियम के अवशोषण (absorption) में बाधा उत्पन्न करता है। अतः छिलके हटाकर तिल का उपयोग करने से लाभ अधिक होते हैं। तिल को रात भर दूध में भिगोकर सुबह रगड़ने से छिलके उतर जाते हैं। फिर धोकर छाया में सुखाकर रखें। इसे आयुर्वेद ने ‘लुंचित तिल’ कहा है। लुंचित तिल पचने में हलके होते हैं, अधिक गर्मी भी नहीं करते।

श्रेष्ठ आयुर्वेदाचार्यों श्री चरक, वाग्भट, चक्रदत्त आदि के द्वारा निर्दिष्ट तिल के प्रयोगः

काले तिल चबाकर खाने व शीतल जल पीने से शरीर की पर्याप्त पुष्टि हो जाती है। दाँत मृत्युपर्यन्त दृढ़ बने रहते हैं।

एक भाग सोंठ चूर्ण में दस भाग तिल का चूर्ण मिलाकर 5 से 10 ग्राम मिश्रण सुबह शाम लेने से जोड़ों के दर्द में राहत मिलती है।

तिल का तेल पीने से अति स्थूल (मोटे) व्यक्तियों का वजन घटने लगता है व कृश (पतले) व्यक्तियों का वजन बढ़ने लगता है। यह कार्य तेल के द्वारा सप्तधातुओं के प्राकृत निर्माण से होता है।

तैलपान विधिः सुबह 20 से 50 मि.ली. गुनगुना तेल पीकर,गुनगुना पानी पियें। बाद में जब तक खुलकर भूख न लगे तब तक कुछ न खायें।

अत्यन्त प्यास लगती हो तो तिल की खली को सिरके में पीसकर समग्र शरीर पर लेप करें।

वार्धक्यजन्य हड्डियों की कमजोरी  उससे होने वाले दर्द में दर्दवाले स्थान पर 15 मिनट तक तिल के तेल की धारा करें।

पैर में फटने या सूई चुभने जैसी पीड़ा हो तो तिल के तेल से मालिश कर रात को गर्म पानी से सेंक करें।

पेट मे वायु के कारण दर्द हो रहा हो तो तिल को पीसकर, गोला बनाकर पेट पर घुमायें।

वातजनित रोगों में तिल में पुराना गुड़ मिलाकर खायें।

एक भाग गोखरू चूर्ण में दस भाग तिल का चूर्ण मिलाके 5 से 10 ग्राम मिश्रण बकरी के दूध में उबाल कर, मिश्री मिला के पीने से षढंता∕नपुंसकता (Impotency) नष्ट होती है।

काले तिल के चूर्ण में मक्खन मिलाकर खाने से रक्तार्श (खूनी बवासीर) नष्ट हो जाती है।

तिल की मात्राः 10 से 25 ग्राम।

विशेषः देश, काल, ऋतु, प्रकृति, आयु आदि के अनुसार मात्रा बदलती है। उष्ण प्रकृति के व्यक्ति, गर्भिणी स्त्रियाँ तिल का सेवन अल्प मात्रा में करें। अधिक मासिक-स्राव में तिल न खायें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2011, पृष्ठ संख्या 29, अंक 217

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