(पूज्य बापू जी की ज्ञानमय अमृतवाणी)
ʹभागवतʹ के 11वे स्कन्ध में उद्धव ने बड़े ऊँचे प्रश्न पूछे हैं और भगवान श्रीकृष्ण ने खूब उन्नति करने वाले परम ऊँचे व सार-सार उत्तर दिये हैं।
उद्धव जी ने कहाः “हे मधुसूदन ! आपकी मधुमय वाणी सुनने से मेरी शंकाएँ निवृत्त होती हैं। आप सूझबूझ के धनी हैं। हे भगवान श्रीकृष्ण ! आपको मैं नमस्कार करता हूँ। मेरे मन में प्रश्न उठता है कि परम दान क्या है ? धन का दान, वस्त्र का दान, भूमि का दान, कन्यादान, सुवर्णदान, गोदान, गो-रसदान – ये सब ठीक हैं लेकिन सबसे बड़ा दान क्या है ?”
भगवान श्रीकृष्ण बोलेः “बड़े-में-बड़े जो परमात्मा हैं, उनके ज्ञान का दान और उनका ज्ञान होने से किसी को भी दंड न देना…. अभयदान ! अभयदान सबसे बड़ा दान है। ʹगीताʹ में भी मैंने कहा है…. अभयं सत्त्वसंशुद्धिः….. (गीताः……16.1)
सत्संग में अभयदान मिलता है।”
उद्धवजी ने पूछाः “प्रभु ! तपस्या किसको बोलते हैं ?”
भगवान बोलेः “शरीर से किसी को कष्ट न देना, तीर्थयात्रा करना, ठंडी-गर्मी सहना – यह शारीरिक तप है। सत्य बोलना, बुरा न सोचना – यह मानसिक तप है। राग और द्वेष से बचना – यह बौद्धिक तप है, परन्तु उद्धव ! इन सभी तपों से एकाग्रता बड़ा तप है। एकाग्रता से भी भोगों की वासना त्यागना परम तप है। ʹमुझे यह मिल जाय तो मैं सुखी हो जाऊँ, मैं यह पाऊँ तो सुखी हो जाऊँ, इधर जाऊँ तो सुखी हो जाऊँ…ʹ इस बेवकूफी का त्याग करना बड़ी तपस्या है। ʹमैं जहाँ हूँ, भगवान का हूँ। सुख तो मेरा आत्मा है, भगवत्स्वरूप है।ʹ भोगों की इच्छा का त्याग करना परम तप है।”
उद्धवजी पूछते हैं- “प्रभु ! शूरवीर किसको बोलते हैं ?”
दंगल-कुश्ती में किसी को पछाड़ दिया, किसी को मार डाला सीमा पर या कुछ और कर लिया तो वे तो हथियार के शूरवीर हैं, मिथ्या जगत के शूरवीर हैं।
श्रीकृष्ण बोलेः “उद्धव ! जो अपने गलत स्वभाव को बदलने में लग जाता है, बुरी आदतों को अपने से उखाड़कर फेंकने में लग जाता है, वही सचमुच में शूरवीर है।”
जरा-जरा बात में डर लगता हो तो ʹૐ ૐ ૐ….. डर मन में आया है, मैं तो निर्भय हूँʹ ऐसा चिंतन करो। जरा जरा सी बात में गुस्सा आय तो हाथों की उँगलियों के नाखूनों से हथिलियों की गद्दी पर दबाव पड़े ऐसे मुठ्ठियाँ बन्द कर लो और ʹૐ शांति… ૐ शांति….ʹ जपो। इस प्रकार गुस्से को रोको या बदलो। चिंता आयी तो सोचो।
ʹप्रारब्ध पहले रच्यो, पीछे भयो शरीर।
तुलसी चिंता क्या करे, भज ले श्री रघुवीर।।
ૐ ૐ प्रभु जी !…… चिंता आयी है….. राम राम राम….. ૐ ૐ….. हा… हा…. हा….ʹ (हास्य प्रयोग करो)। चिन्ता तो दुःख दे रही थी लेकिन स्वभाव बदल दिया। यह शूरवीरता है।
माँ ने कुछ सुना दिया, बाप ने कुछ सुना दिया या गुरु ने कुछ सुना दिया। लगा कि इतने आदमियों के बीच हमारा अपमान हो गया। अरे, यह धक्का लगता है अहं को। सोचो, ʹमाँ ने, पिता ने, गुरु ने जब कहा है तो यह हमारे अहं को कहा है, हमारी भलाई के लिए कहा हैʹ ऐसा करके अपने स्वभाव को बदलें – यह शूरवीरता है। यह ज्ञान आपको सारी जिंदगी में कहीं नहीं मिलेगा।
शबरी भीलन थी। एक तो भील जाति….. ऐसे ही बेचारे काले-काले होते हैं। दूसरे फिर शबर….. और कुरूप ! लेकिन शबरी मतंग ऋषि के चरणों में गयी तो इतनी महान बन गयी थी कि रावण को रामजी ने तीरों का निशाना बनाया परंतु शबरी की झोंपड़ी में राम जी स्वयं गये। शबरी के जूठे बेर खाकर राम जी बखान करते हैं। गुरु के सत्संग से शबरी ने अपना स्वभाव बदल लिया। सामान्य लड़कियाँ तो डरकर कामी, क्रोधी, लोभी, मोहियों के चक्कर में आती थीं किंतु शबरी इन चक्करों में पड़ने के स्वभाव से पार हो गयी। कितनी महान हो गयी ! स्वभावविजयः शौर्यम्।
जो अपने कई जन्मों का और अभी सामाजिक स्वभाव है दुःखी होने का, सुखी होने का , झूठ कपट का…. उस पर विजय पाना यह बड़ा शूरवीरता है।
उद्धवजी ने पूछा “प्रभु ! सत्यवादी किसको बोलते हैं ?”
श्रीकृष्ण बोलेः “सभी में सत्-चित्-आनन्दस्वरूप परमात्मा है, इसकी अनुभूति करने वाला ही वास्तव में सत्यवादी है। वही सत्य बोलता है। बाकी सब लोग कितना भी सत्य बोलें तो भी मिथ्या ही बोलते हैं।
किसी ने कहाः “मैंने आज दो पराँठे खाये”
सचमुच उसने दो पराँठे खाये तो लगेगा सत्य है। नहीं-नहीं, न पराँठा सत्य है, न खाना सत्य है, उसको जानने वाला परमात्मा सत्य है। बाकी सब कल्पना है। तुम सत्य, समत्व में टिको तो ही सत्य है बाकी सब मिथ्या है, काल्पनिक सत्य है, सामाजिक सत्य है, व्यवहारिक सत्य है, पारमार्थिक सत्य नहीं है। सत्-चित्-आनन्द में स्थिति ही सत्य है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2012, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 232
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