शरद ऋतु में स्वभाविक रूप से प्रकुपित पित्त के शमनार्थ प्रकृति में मधुर व शीतल फल परिपक्व होने लगते हैं। फलों में शरीर के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक जीवनसत्त्व (विटामिन्स) व खनिज द्रव्यों के साथ रोगनिवारक औषधि-तत्त्व भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
आँवला
यह व्याधि व वार्धक्य को दूर रखने वाला, रक्त वीर्य व नेत्रज्योतिवर्धक तथा त्रिदोषशामक श्रेष्ठ रसायन है।
निम्नलिखित सभी प्रयोगों में आँवला रस की मात्राः 15 से 20 मि.ली. (बालकः 5 से 10 मि.ली.)
इन प्रयोगों में कलमी आँवलों की अपेक्षा देशी आँवलों का उपयोग ज्यादा लाभदायी है।
धातुपुष्टिकर योगः आँवले के रस में 10-15 ग्राम देशी घी व 2 ग्राम अश्वगंधा चूर्ण मिलाकर लेने से शुक्रधातु पुष्ट होती है।
ओजस्वी योगः आँवले के रस में 15 ग्राम गाय का घी व 10 ग्राम शहद मिलाकर सेवन करने से ओज, तेज, बुद्धि व नेत्रज्योति की वृद्धि होती है। शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है।
हृद्ययोगः आँवले के रस में 10 ग्राम पुदीने का, 5-5 ग्राम अदरक व लहसुन का रस मिलाकर लेना हृदयरोगों में बहुत लाभकारी है। इससे कोलस्ट्रॉल भी नियंत्रित होता है।
रक्तपित्तशामक योगः आँवले के रस में पेठे का रस समभाग मिलाकर सुबह-शाम पीने से नाक, मुँह, योनि, गुदा आदि के द्वारा होने वाला रक्तस्राव रुक जाता है।
दाहशामक योगः आँवले व हरे धनिये के समभाग रस में मिश्री मिलाकर दिन में 1 से 2 बार लेने से दाह व जलन शांत हो जाती है।
मिश्रीयुक्त आँवला रस उत्तम पित्तशामक तथा श्वेतप्रदर में लाभदायी है।
आँवला व ताजी हल्दी के रस का सम्मिश्रण स्वप्नदोष, मधुमेह व त्वचा विकारों में हितकर है।
आँवले के रस में 2 ग्राम जीरा चूर्ण व मिश्री अम्लपित्त (एसिडिटी) नाशक है।
संतरा
यह सुपाच्य, क्षुधा व उत्साहवर्धक तथा तृप्तिदायी है।
निम्नलिखित सभी प्रयोगों में संतरे के रस की मात्राः 50 से 100 मि.ली.
संतरे व नींबू का रस 10 मि.ली. हृदय की दुर्बलता व दोष मिटाने वाला है। दिन में 2 बार लें।
संतरे के रस में उतना ही नारियल पानी पेशाब की रूकावट दूर कर उसे स्वच्छ व खुल के लाने वाला है।
शहदसंयुक्त संतरे का रस हृदयरोगजन्य सीने के दर्द, जकड़न व धड़कन बढ़ने में लाभदायी है।
संतरे के रस के साथ स्वादानुसार पुदीना, अदरक व नींबू का रस पेट के विकारों (उलटी, अरूचि, उदरवायु, दर्द व कब्ज आदि) में विशेष लाभकारी है।
संतरे का रस व 10 ग्राम सत्तू अत्यधिक मासिक स्राव व उसके कारण उत्पन्न दुर्बलता में लाभदायी है। सगर्भावस्था में इसका नियमित सेवन करने से प्रसव सुलभ हो जाता है।
अंगूर
ये शीघ्र शक्ति व स्फूर्तिदायी, पाचन संस्थान को सबल बनाने वाले, पित्तशामक व रक्तवर्धक हैं।
कुछ दिनों तक केवल अंगूर के रस पर ही रहने से पित्तजन्य अनेक रोग जैसे – जलन, अम्लपित्त, मुँह व आँतों के छाले (अल्सर), सिरदर्द तथा कब्ज दूर हो जाते हैं।
निम्नलिखित प्रयोगों में रस की मात्राः 50 से 100 मि.ली.
अंगूर व सेवफल का समभाग रस अनिद्रा में लाभदायी है।
अंगूर व मोसम्बी का समभाग रस मासिक धर्म में असह्य पीड़ा, निम्न रक्ताचाप, रक्त की अल्पता व दुर्बलता में लाभदायी है।
अनार
यह हृदय के लिए बलदायी, मन को तृप्त व उल्लसित करने वाला तथा पित्तजन्य रोगों में पथ्यकर है।
रस की मात्राः 50 से 100 मि.ली.
इसके अतिरिक्त इन दिनों में पुष्ट होने वाले फल सिंघाड़ा, अनन्नासा, सीताफल, सफेद पेठा आदि स्वास्थ्य-संवर्धनार्थ सेवनीय हैं।
सावधानीः सूर्यास्त के बाद, भोजनोपरांत कफजन्य विकार, त्वचा रोग व सूजन में फलों का सेवन नहीं करना चाहिए।
सेवफल का शरबत-एक पौष्टिक पेय
लाभः यह स्वादिष्ट, शक्तिवर्धक और सुपाच्य है। इसे सभी उम्र के लोग वर्षभर ले सकते हैं। यह हृदय को बल देता है, शरीर को पुष्ट व सुडौल बनाता है। वीर्य की वृद्धि करता है। अतिसार और उलटी में तुरंत लाभ करता है। दिमाग की कमजोरी व अवसाद (डिप्रेशन) को दूर कर उसे तरोताजा रखता है। महिलाओं के लिए, विशेषकर गर्भवती महिलाओं और एक साल से बड़ी उम्रवाले बच्चों के लिए बहुत गुणकारी है।
घटकः सेवफल का ताजा रस एक लीटर और मिश्री 650 ग्राम।
विधिः सेवफल के रस में मिश्री मिलाकर एक तार की पक्की चाशनी बना लें। ठंडा करके काँच की शीशी में भरकर रखें।
इस शरबत का 10-12 दिन के अंदर उपयोग कर लेना चाहिए।
मात्राः सुबह-शाम 25-50 ग्राम शरबत पानी में मिलाकर लें।
भोजन से दिव्यता कैसे बढ़ायें ?
आहार के लिए यह ज्ञान अत्यावश्यक है कि क्या खायें, कब खायें, कैसे खायें और क्यों खायें ? इन चारों प्रश्नों के उत्तर स्मरण रखने चाहिए।
“क्या खायें ?”
“सतोगुणी, अहिंसात्मक विधि से प्राप्त खाद्य पदार्थों का ही सेवन करो।”
“कब खायें ?”
“अच्छी तरह भूख लगे तभी खाओ।”
“कैसे खायें ?”
“दाँतों से खूब चबा-चबाकर, मन लगा के, ईश्वर का दिया हुआ प्रसाद समझ के, प्रेमपूर्वक शांत चित्त से खाओ।”
“किसलिए खायें ?”
“शरीर में शक्ति बनी रहे, जिससे कि सेवा हो सके इसलिए खाओ और दूसरों की प्रसन्नता के लिए खाओ परंतु अधिक अमर्यादित विधि से न खाओ। किसी को रूलाकर न खाओ। अशांतचित्त होकर भीतर-ही-भीतर स्वयं रोते हुए भी न खाओ। किसी भूखे के सामने उसे बिना दिये भी न खाओ। शुद्ध, एकांत स्थान में भगवान का स्मरण करते हुए भोजन करो। अन्याय से, हिंसात्मक विधि से उपार्जित धान्य भी न लो। जहाँ पर धर्मात्मा प्रेमी भक्त, सज्जन न मिलें वहाँ प्राणरक्षामात्र के लिए आहार करो।”
परिणामदर्शी ज्ञानियों का कथन है कि प्राणांतकाल में जिस प्रकार का अन्न, जिस कुल का, जिस प्रकार की प्रकृतिवाले दाता का अन्न उदर में रहता है, उसी गुण, धर्म, स्वभाव वाले कुल में उस प्राणी का जन्म होता है।
जिस प्रकार शरीरशुद्धि हेतु सदाचार, धनशुद्धि हेतु दान, मनःशुद्धि के लिए ईश्वर-स्मरण आवश्यक है, उसी प्रकार तन-मन-धन की शुद्धि के लिए व्रत-उपवास भी आवश्यक है और व्रत-उपवास की यथोचित्त जानकारी भी आवश्यक है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 31,32,33 अंक 238
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