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घर में कैसे रहें ? – पूज्य बापू जी


घर में सुख-शांति रहे इसके लिए क्या करें ?

ʹमेरी चाही….. मेरी चाही होʹ – यही आग्रह झगड़ा और अशांति करता है। ʹमेरा कहा हो, मैं जो कहूँ वही हो, – ऐसा आग्रह छोड़ दें। अपने से बड़ी उम्र के हों तो उसका आदर करो और छोटी उम्र को हों तो उनका मन रखने की आदत बना लो, घऱ में सुख-शांति रहेगी।

युधिष्ठिर छोटे भाइयों की बात सुनकर फिर अपनी बात रखते थे कि ʹऐसा हो तो ठीक पर तुम लोग जो कहते हो वह भी ठीक है।ʹ तो सभी भाई कहते कि ʹनहीं, हमारी अपेक्षा आपकी बात ठीक है।ʹ ऐसा नहीं कि मैं बड़ा हूँ इसलिए मैंने जो कहा वही होना चाहिए।

घर के लोग अंदर-अंदर अहंकारयुक्त निर्णय लेते हैं, वासनायुक्त निर्णय लेते हैं, अपने स्वार्थ में आकर निर्णय लेते हैं तो घर नरक बन जाता है और सबका भला सोचकर जब निर्णय लेते हैं तो घर स्वर्ग हो जाता है। अहंकार-हेकड़ी छोड़कर जो रहते हैं वे बड़े खुश रहते हैं।

ʹमेरा बेटा तो मेरा कहना ही नहीं मानता, बहू भी ऐसी है। दोनों निगुणे हैं। उसकी साली है न, वह तो निर्लज्ज है।ʹ अरे, वह तो अभी हँसती होगी, तू मेरा मुँह क्यों बिगाड़ती है ? जैसी है ठीक है।

जब कोई व्यक्ति किसी की निंदा करता है तो उसके भीतर नकारात्मक विचार प्रवाहित होते हैं। इससे मुँह बिगड़ता है, मन बिगड़ता है और शरीर में ʹन्यूरोपेप्टाड्सʹ और दूसरे हानिकारक द्रव्य प्रवाहित होते हैं। फिर उससे कोलेस्ट्रॉल का एक घटक ʹऑक्सीडाइज्ड एलडीएलʹ बनता है। यह कई रोगों को जन्म देता है। कोई कैसा भी है उसकी गहराई में एक ही आत्मा-परमात्मा है। समुद्र के तल में शांत जल है, ऊपर अलग-अलग किनारे, अलग-अलग तरंग, अलग-अलग बुलबुले, अलग-अलग भँवर, अलग-अलग फेन हैं।

लोग बोलते हैं- ʹघर में और सब तो ठीक है पर लड़का ऐसा है, वैसा है।ʹ तो समझो, बहुत अच्छा है। सोचो, ʹजो मेरा कहा करेगी तो मेरी ममता बढ़ेगी। भगवान की दया है, मेरी ममता कब हुई।ʹ कोई कहना मानता है तो भगवान की दया है। व्यस्थित होता है तो ठीक है, शांति है और गड़बड़ करें तो मानो आसक्ति कम हो रही है। दोनों हाथों में लड्डू ! चिंता करने की, फरियाद करने की क्या जरूरत है ? घर के लोग अच्छा व्यवहार करते हैं तो ठीक है, हम भगवान का भजन करेंगे और वे बहुत गड़बड़ करें तो समझो आसक्ति कम, माथापच्ची कम, मेरापन कम….

एक परिवार में 65 लोग थे और परिवार में कोई झगड़ा नहीं। अखंडानंद जी ने उऩ लोगों से पूछाः “आपके परिवार में इतने लोग हैं फिर भी झगड़ा क्यों नहीं होता ?”

बोलेः “हमने संस्कार डाले हैं कि छोटा बड़े का आदर करे, बड़ा आये तो छोटा उठकर खड़ा  हो जाय। बड़े के हृदय की दुआ और सदभाव ले। जेठानी का आदर देवरानी करे और देवरानी बीच की है तो छोटी देवरानी उसका आदर करे लेकिन जेठानी की जिम्मेदारी है कि देवरानियाँ हमारा आदर करती हैं तो उनसे कभी कुछ उन्नीस-बीस हो तो चला ले। ऐसे संस्कार सत्संग से मिले हैं तो देवरानी को आदर करने में संकोच नहीं होता और जेठानी को आदर से अहंकार नहीं होता क्योंकि हम सदगुरु के पास, संत के पास जाते हैं।

64 लोग खा लें उसके बाद मैं खाता हूँ। तो सब मेरी बात मानते हैं लेकिन मेरे को ऐसा नहीं होता कि सब मेरी बात मानें। सबकी बात सुन लेता हूँ फिर सबका जिसमें भला हो ऐसा विचार रखता हूँ।”

जैसे युधिष्ठिर अर्जुन की भी सुनते, भीम की भी सुनते, चारों भाइयों की सुनते, फिर जो शास्त्रसम्मत बात होती उसकी सम्मति देते। किसी का अपमान नहीं होने देते, बोलते कि ʹआपका विचार तो ठीक है लेकिन ऐसा हो तो कैसा रहेगा ?ʹ चारों बोलतेः ʹहाँ ! हाँ ! ठीक है, ठीक है।ʹ

सासु-बहू में झगड़े क्यों होते हैं ?

सासु बोले, ʹमेरी चलेʹ। बहू बोले, ʹमेरी चलेʹ। I shout, you shout, who will carry dirt out ? (मैं भी रानी तू भी रानी, कौन भरेगा घर का पानी ?) पति सोचता है, ʹमेरी चले।ʹ पत्नी सोचती है, ʹमेरी चले।ʹ सुबह उठते ही घर के चार-छः ठीकरे आपस में टकराते हैं। सभी चाहते हैं मेरी चले। अपने मन को चलाने की जो बेवकूफी है, उसको हटा दें। समझना चाहिए कि दूसरे का भी तो मन है ! कब तक आपके मन से दूसरे दबे रहेंगे ? विशाल हृदय रखना चाहिए। कोई जिद करे तो बोलोः ʹठीक है, जैसा तुमको अच्छा लगता है करो। मेरी इच्छा तो नहीं है फिर भी जाना है तो मना नहीं है।ʹ तो वह बोलेगाः ʹनहीं जाना।ʹ

सुख-शांति, आनंद चाहिए तो भगवदगीता के ग्यारहवें अध्याय का 36 वाँ श्लोक अर्थसहित लाल स्याही से लिखकर घर में टाँग दो।

स्थाने हृषीकेश तब  प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः।।

ʹहे अंतर्यामिन् ! यह योग्य ही है कि आपके नाम, गुण और प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित हो रहा है और अनुराग को भी प्राप्त हो रहा है तथा भयभीत राक्षस लोग दिशाओं में भाग रहे हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार कर रहे हैं।ʹ

रूपये-पैसे में बरकत चाहिए तो इस श्लोक का पाठ करो और तिजोरी में जहाँ रूपये-पैसे रखते हैं वहाँ लाल वस्त्र बिछा दो और ʹलक्ष्मीनारायाण, नारायण, नारायणʹ का मानसिक जप करो।

तबीयत अच्छी करनी हो तो नाभि में सूर्यनारायण का ध्यान करो। श्वास लेकर सवा मिनट अथवा डेढ़ मिनट तक श्वास रोको, फिर छोड़ो। फिर बाहर श्वास अच्छी तरह से छोड़कर 50 सैकेंड बाहर ही रखो। कैसी भी तबीयत हो अच्छी होने लगेगी।

घर के आपसी झगड़े मिटाने हों तो एक लोटा पानी पलंग के नीचे या खाट के नीचे रख दो। सुबह उस जल को तुलसी या पीपल की जड़ में डाल दो।

हफ्ते में एक बार पानी में खड़ा नमक डाल के उस पानी से घर में पोंछा करें। इससे घर में से नकारात्मक ऊर्जा चली जायेगी और सकारात्मक ऊर्जा आयेगी। फिनाइल के पोंछे से हानिकारक हवा बनती है। घर के लोग रसोईघर में बैठकर एक साथ भोजन करें, इससे घर के झगड़े मिट जायेंगे और सफलता मिलेगी।

कामकाज करने जाते हैं और सफलता नहीं मिलती तो दायाँ पैर पहले आगे रखकर फिर जाया करो, देशी गाय के खुर की धूलि से ललाट पर तिलक किया करो, सफलता मिलेगी। लेकिन ये सब छोटी सफलताएँ हैं, बड़ी सफलता है हृदयपूर्वक भगवान में प्रीति होना। उनमें विश्रान्ति पाना, उनकी प्रसन्नता-प्राप्ति के लिए कार्य करना, सुख-दुःख, लाभ-हानि में सम रहना बड़ी सफलता है। ʹૐૐૐૐૐʹ जपते जाओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 24,25, अंक 36

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गाय की उपयोगिता


गाय मानव जीवन के लिए परम उपयोगी है। गाय की महत्ता का वर्णन बहुत से शास्त्रों में मिलता है। अब वैज्ञानिकों ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है। दूध के अतिरिक्त गाय से प्राप्त अन्य सब द्रव्य भी मानव-जीवन के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।

गाय का घी

गाय का घी और चावल की आहुति डालने से महत्त्वपूर्ण गैसें जैसे – इथिलीन ऑक्साइड, प्रोपिलीन ऑक्साइड, फॉर्मल्डीहाइड आदि उत्पन्न होती हैं। इथिलीन ऑक्साइड गैस आजकल सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाली जीवाणुरोधक गैस है, जो शल्य चिकित्सा कक्ष (ऑपरेशन थियेटर) से लेकर जीवनरक्षक औषधियाँ बनाने तक में उपयोगी है। वैज्ञानिक प्रोपिलीन ऑक्साइड गैस को कृत्रिम वर्षा का आधार मानते हैं।

आयुर्वेद विशेषज्ञों के अनुसार अनिद्रा का रोगी शाम को दोनों नथुनों में गाय के घी की दो-दो बूँदें डाले और रात को नाभि एवं पैर के तलुओं में गोघृत लगाकर लेट जाय तो उसे प्रगाढ़ निद्रा आ जायेगी।

गोघृत में मनुष्य शरीर में पहुँचे रेडियोधर्मी विकिरणों का दुष्प्रभाव नष्ट करने की असीम क्षमता है। अग्नि में गाय के घी की आहुति देने से उसका धुआँ जहाँ तक फैलता है, वहाँ तक का सारा वातावरण प्रदूषण एवं आण्विक विकिरणों से मुक्त हो जाता है। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि एक चम्मच गोघृत को अग्नि में डालने पर एक टन प्राणवायु (ऑक्सीजन) बनती है जो अन्य किसी भी उपाय से सम्भव नहीं है। (रूसी वैज्ञानिक शिरोविच)

गोमूत्र

गोमूत्र सभी रोगों के विशेषकर किडनी, लीवर, पेट के रोग, दमा व पीलिया के लिए रामबाण औषधि है। इसमें 24 प्रकार के रसायन जैसे पौटैशियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम, फ्लोराइड, यूरिया, अमोनिया, लौह तत्त्व, ताम्र तत्त्व, सल्फर, लैक्टोज आदि पाये जाते हैं। 25 जून 2002 को भारत को गोमूत्र का पेटेंट मिला। आज सम्पूर्ण विश्व में एंटीकैंसर ड्रग तथा सर्वोत्तम एंटीबायोटिक एवं हानिरहित सर्वोत्तम कीटनाशक गोमूत्र है। इस महौषधि के समतुल्य कोई औषधि दुनिया में नहीं है।

गोमूत्र रक्त में बहने वाले दूषित कीटाणुओं को नष्ट करता है। (डॉ. सिमर्स, ब्रिटेन)

कुछ दिनों तक गोमूत्र के  सेवन से धमनियों में रक्त का दबाव सामान्य होने से हृदयरोग दूर होता है। इसके सेवन से भूख बढ़ती है तथा पेशाब खुलकर होता है। यह पुराने गुर्दे रोग (किडनी फेल्युअर) की उत्तम औषधि है। (डॉ. काफोड हेमिल्टन (अमेरिका)

गाय का गोबर

गाय के गोबर में 16 प्रकार के खनिज तत्त्व होते हैं। जैसे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, सोडियम, गंधक आदि। ʹअखिल भारतीय कृषि पुरस्कारʹ से पुरस्कृत श्री नारायण पाडरीपाडे ने नडेप खाद का आविष्कार करके सिद्ध किया है कि देशी गाय के एक क्विंटल गोबर से 30 क्विंटल जैविक खाद 4 महीने में बनायी जा सकती है। उसका मूल्य कम-से-कम 30000 रूपये होता है। यह गोबर आप उस बूढ़ी और अऩुपयोगी गाय से भी प्राप्त कर सकते हैं जो वर्ष में केवल 3000 रूपये का चारा खाती है।

12 वोल्ट की नयी बैटरी में गोमूत्र या गोबर भरकर ताँबा एवं जस्ता की प्लेटें डालकर उस सर्किट से विद्युत घड़ी, कम वोल्ट का बल्ब, ट्रांजिस्टर, टेप रिकॉर्डर एवं छोटा टीवी चलाने के प्रयोग में सफलता प्राप्त की जा चुकी है। (निहालचन्द्र तनेजा (जय श्रीकृष्ण प्रयोगशाला, ग्राम-सहार, कानपुर के पास)

गाय के ताजे गोबर से टी.बी. तथा मलेरिया के कीटाणु मर जाते हैं। (प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. जी.ई. बीगेड (इटली)

गाय के गोबर में हैजे के कीटाणुओं को मारने की अदभुत क्षमता है। (प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. किंग (चेन्नई)

अमेरिका के वैज्ञानिक जेम्स मार्टिन ने गाय के गोबर, खमीर और समुद्र के पानी को मिलाकर ऐसा उत्प्रेरक बनाया है जिसके प्रयोग से बंजर भूमि हरी-भरी हो जाती है एवं सूखे तेल के कुओं में दुबारा तेल आ जाता है।

शहरों से निकलने वाले कचरे पर गोबर के घोल को डालने से दुर्गन्ध पैदा नहीं होती एवं कचरा खाद के रूप में परिवर्तित हो जाता है। (डॉ. कांती सेन सर्राफ (मुंबई)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 19,20 अंक 236

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आखिर यह भी तो नहीं रहेगा !


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

एक फकीर यात्रा करने गया। रास्ते में किसी गाँव में रात पड़ी तो लोगों से बोलाः “रात पड़ी है, मुझे कहाँ ठहरना चाहिए ? है कोई यहाँ धर्मात्मा आदमी ?”

बोलेः “धर्मात्मा तो बहुत हैं, धनी भी बहुत हैं लेकिन एक शुक्रगुजार व्यक्ति है, उसको लोग ʹशाकिरʹ बोलते हैं। तुम उसके यहाँ चले जाओ।”

शाकिर के पास पहुँचा वह फकीर। शाकिर ने बड़ी आवभगत की और अहोभाव से जितनी भी सेवा हो सकती है, दो दिन तक की। फकीर जब यात्रा को आगे निकला तो शाकिर ने रास्ते में खाने के काम आये ऐसी कोई सूखी सब्जी, कुछ मीठी रोटियाँ तो कुछ चरपरी रोटियाँ, कुछ अचार, खजूर आदि-आदि बड़े प्रेम से उनको देकर विदाई दी।

फकीर ने कहाः “शाकिर ! जितने तुम धनी हो उतने नम्र भी हो और जितना नम्रता का सदगुण है उतना ही साधुसेवा का भी तुम्हारे पास भंडार है। अल्लाह करे तुम और भी बढ़ो !”

शाकिर हँसाः “यह भी तो कब तक ? नहीं रहेगा…..”

फकीर को थोड़ा-सा सोचने को विवश होना पड़ा लेकिन फिर याद आया, गुरुदेव ने कहा था कि ʹकोई कुछ गहरी बात कहे तो तुरंत वाद-विवाद में नहीं पड़ना, देखते रहना।ʹ फकीर आगे चला।

वह फकीर हज करने गया। जब दो साल के बाद लौटा तो देखा शाकिर का महल, इमारतें उसकी लम्बी-चौड़ी दुकानें व बाजार सब के सब गायब ! उसने किसी से पूछाः “यह कैसे हुआ  ?”

बोलेः “बाढ़ आयी थी, उसमें सब बह गया। अब वह शाकिर किसी हमदाद नाम के मुसलमान जमींदार के यहाँ काम करता है। भैंसें दुहता है, रचका (चारा) काटता है, ठंडी-ठंडी रात में खेत में पानी पिलाता है। उसकी दो बड़ी बच्चियाँ हैं। पहले तो शाकिर बड़ा धनी था, अब इस कंगले की बच्चियों को शादी की भी कहीं जमावट नहीं होती।”

फकीर ने सोचा, ʹजिसके घर मैंने आदर-सत्कार पाया, वह गरीब हो गया तो क्या है, मुझे जाना चाहिए।” हमदाद के नौकर शाकिर ने झोंपड़ी में उस फकीर के लिये चटाई, फटा टाट बिछा दिया, रूखी-सूखी रोटी दी। सुबह को वह साधु जाने को था, उसकी आँखों में आँसू थे। वह बोलाः “शाकिर ! अल्लाह ने क्या कर दिया !”

शाकिर हँसा और बोलाः “आपने सत्संग में सुना होगा कि कोई भी अवस्था सदा नहीं रहती। अमीरी थी उसको याद करके दुःखी क्यों होना और गरीबी है उसको सच्चा मानकर  परेशान क्यों होना ? यह भी तो चला जायेगा।”

शाकिर की आँखों में सन्तुष्टि थी, वाणी में मधुरता थी और हृदय में संतों के संग का प्रभाव था। फकीर सोचता है, “मैं तो बाहर से फकीर हूँ लेकिन यह गृहस्थ शाकिर सचमुच सत्संग के प्रभाव से, गुरुदीक्षा के प्रभाव से भीतर का फकीर है, भीतर का साधु है।ʹ

मैं चाहता हूँ अब से तुम भी भीतर के साधु हो जाओ। तुम इरादा करो।

डेढ़ दो साल के बाद फिर फकीर ने अपना रुख यात्रा का बनाया। देखता क्या है कि वह जमींदार शाकिर जो हमदाद के यहाँ तुच्छ मजदूरी करता था, जिसे रूखी रोटियाँ खानी पड़ती थीं, रात भी जगता और दिन में भी मजदूरी करता, वह अब जमींदारी को भी मात कर दे, ऐसा अमीर बन गया है। वार्तालाप से पता चला कि हमदाद को कोई संतान नहीं थी। उसकी जो लम्बी-चौड़ी जमींदारी थी वह शाकिर को दे गया और सोने का देग (पात्र), हीरे जवाहरात से भरा हुआ चरु जहाँ गड़ा था वह जगह भी बता दी। पहले की सम्पदा से अभी कई गुनी ज्यादा सम्पदा हो गयी। फकीर बोला कि “हद हो गयी शाकिर ! तुमने कहा था यह भी गुजर जायेगा। अच्छा है, गरीबी गुजर गयी डाकिनी ! अल्लाह करे तुम ऐसे ही बने रहो !”

शाकिर हँसाः “फकीर ! बड़े-बड़े अमीरों को, बादशाहों को जो कुछ मिला वह बीत गया तो मेरा कब तक रहेगा ?”

“क्या य़ह भी चला जायेगा ?”

“या तो यह चला जायेगा अथवा इसको मेरा मानने वाला चला जायेगा। कौन रहता है ! जहाँ संयोग है वहाँ वियोग है। तुमने सत्संग तो सुना होगा न ! मैंने संतों के वचन आत्मसात् किये हैं।”

हिन्दू धर्म के वेदांती संतों की ज्ञानधारा का ही हिस्सा (सत्संग, साहित्य) लेकर सूफीवाद बना है। तो सूफी संत, वेदांती संत एक ही बात कहते हैं- सब गुजरता है, उसको जानने वाला अंतरात्मा शाश्वत है। वही अल्लाह है, वही भगवान है, वही राम है, रहमान है।ʹ

फकीर आगे बढ़ा। यात्रा करके जब लौटा डेढ़ दो साल के बाद तो क्या देखता है, शाकिर का महल तो है लेकिन उसमें कबूतर ʹगुटर-गूँ, गुटर-गूँʹ कर रहे हैं।

कह रहा है आसमाँ यह समाँ कुछ भी नहीं।

रोती है शबनम कि नैरंगे जहाँ कुछ भी नहीं।।

जिनके महलों में हजारों रंग के जलते थे फानूस।

झाड़ उनकी कब्र पर है और निशाँ कुछ भी नहीं।।

शाकिर कब्रिस्तान में सोया है। महल खाली-खट्…. बेटियों की शादी हो गयी, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी हैं। फकीर सोचता है, ʹअरे मनुष्य ! तू गर्व किस बात का करता है ?

मत कर रे भाया गरव गुमान, गुलाबी रंग उड़ी जावेलो।

मत कर रे भाया गरव गुमान, जवानीरो रंग उड़ी जावेलो।।

उड़ी जावेलो रे फीको पड़ी जावेलो, रे काले मर जावेलो,

पाछो नहीं आवेलो…. मत कर रे गरव….

धन रे दौलत थारा माल खजाना रे…. छोड़ी जावेलो रे पलमां उड़ी जावेलो।।

पाछो नहीं आवेलो… मत कर रे गरव…

क्यों इतराता है और क्यों परेशान होता है ! जिसके पास ज्यादा है वह भी नहीं टिकेगा। मेरे पास मुसीबत है वह भी नहीं टिकेगी। यह मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ, लेकिन  न मौज रहेगी न मुसीबत रहेगी, उसको जानने वाला दिलबर दाता ही तो रहता है। इसको पक्का कर ले, मौज हो जायेगी मौज !

पूरे हैं वे मर्द जो हर हाल में खुश हैं।

मिला अगर माल तो  उस माल में खुश हैं।

हो गये बेहाल तो उसी हाल में खुश हैं।।

शाकिर ! तुमने जिंदगी का रहस्य जाना। धन्य है शाकिर तुम्हारा सत्संग ! धन्य है तुम्हारे सत्संगकर्ता सदगुरु !! शाकिर! मैं तो फकीर बना लेकिल असली फकीरी की तो तेरी जिंदगानी है। तेरी जिंदगानी में असली फकीरी झलकती है। अब मैं तेरी कब्र देखना चाहता हूँ शाकिर ! वहाँ पर जाऊँगा, दुआ माँगूगा, फूल चढ़ाऊँगा। गृहस्थ शाकिर, फकीरों को भी फकीरी का संदेश दे, ऐसे फकीर शाकिर की कब्र पर जाऊँगा।ʹ

वह फकीर शाकिर की कब्र पर गया. क्या देखता है कि कब्र पर लिखा है ʹआखिर यह भी तो नहीं रहेगा !ʹ फकीर ने सिर पीटा कि ʹहद हो गयी ! अमीरी नहीं रहेगी, चलो मान लिया। गरीबी नहीं रहेगी, चलो मान लिया। बीमारी नहीं रहेगी, मान लिया। तंदरूस्ती नहीं रहेगी, मान लिया। यह सब बदलता है लेकिन क्रब कहाँ चली जायेगी ?ʹ कब्र में पत्थर पर लिखवा दिया था, ʹआखिर यह भी तो नहीं रहेगा !ʹ फकीर फिर आगे बढ़ा यात्रा को। जब लौटने लगा तो सोचा, ʹजाते-जाते शाकिर की कब्र पर सिजदा करता हुआ जाता हूँ।ʹ देखा तो कब्रिस्तान ही नहीं है ! उसने लोगों से पूछाः “क्या हुआ, कब्र को कैसे पर (पंख) लग गये ?”

बोलेः “जलजला (भूकम्प) आया था, पूरा कब्रिस्तान गायब हो गया। अब उसी कब्रिस्तान पर बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी हैं।”

हे संसार ! तू एक क्षण भी बिना बदले नहीं रहता और हे नासमझ मनुष्य ! तू उसको स्थिर रखने में अपनी कई जिंदगियाँ तबाह कर चुका है। ʹमेरी जवानी बनी रहे, मेरा यश बना रहे, मेरी पदोन्नति बनी रहे, मेरा पद बना रहे….ʹ श्वास-श्वास में तू बिगड़ता जा रहा है, फिर तेरा क्या बना रहेगा भाई !

ऐ गाफिल ! न समझा था, मिला था तन रतन तुझको।

मिलाया खाक में तूने, हे सजन ! क्या कहूँ तुझको ?

अपनी वजूदी हस्ती में तू इतना भूल मस्ताना।

करना था किया वो न,

अपने आत्मा-परमात्मा को पाना था, वह नहीं किया।

लगी उलटी लगन तुझको।

जिसको छोड़ जाना है उसी के पीछे लगा रहा। उसी की परीक्षा पास की। उसी के पीछे ʹसर-सरʹ करके सर-खोपड़ी एक कर दी। और जिनको ʹसर-सरʹ कहता है, उनका न सिर रहा न पैर रहा। कौन सी निशा में तू सो रहा है ? संत तुलसीदास जी ने ऐसे लोगों को झकझोरा हैः

मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रसारा।।

(श्रीरामचरित. अयो.कां. 92.1)

ʹमैं विद्यार्थी हूँ। वह आयेगा मैं स्नातक हो जाँऊगा। वह दिन आयेगा जब बड़ी नौकरी पाऊँगा, आई ए एस बनूँगा, नहीं तो आई पी एस बनूँगा। मकान होगा, शादी होगी, गाड़ी होगी, सुखद दिन होंगे।ʹ अरे ! जब वे दिन आयेंगे तो जायेंगे भी। अभी नहीं हैं तो बाद में भी नहीं रहेंगे।

विश्वनियंता परमात्मा सत्स्वरूप, आनंदस्वरूप, शुद्ध-बुद्ध ब्रह्म तुम्हारा आत्मा होकर बैठा है औऱ तुम बीते हुए का शोक करके परेशान हो रहे हो, भविष्य का भय करके भयभीत हो रहे हो और वर्तमान में ʹयह चला न जायʹ ऐसा सोच के भयभीत होकर उसके पिट्ठू बन रहे हो। अरे, जो अवस्था आयेगी वह तो जायेगी। डरने की क्या जरूरत है ? फिर नया आयेगा। यह शरीर जायेगा तो नया मिलेगा, नहीं मिला तो मुक्ति हो जायेगी। ये बातें तुम नहीं जानते हो इसलिए खामखाह परेशान, खामखाह भयभीत, खामखाह शोकातुर, चिंतित और खामखाह बीमार हो रहे हो।

बन जाओ तुम भी शाकिर। तेरा भाणा मीठा लागे। इतना ही तो समझना है। अपमान हुआ, वाह-वाह ! मान हुआ, वाह-वाह ! जो कुछ आया, वाह-वाह ! बीत रहा है, बह रहा है, वाह-वाह ! ʹऐसा हुआ, ऐसा होना चाहिए….ʹ तू फिकर न कर, फरियाद न कर, ʹवाह-वाह !ʹ कर बस।

तेरे फूलों से भी प्यार, तेरे काँटों से भी प्यार।

चाहे सुख दे या दुःख, हमें दोनों हैं स्वीकार।।

क्योंकि देने वाला तू ही है। माँ के गर्भ में दूध की व्यवस्था तूने की थी। माँ की जेर के साथ हमारी नाभि जोड़ना तेरी कला-कुशलता है वाह ! वाह ! मेरे रब ! मेरे प्रभु ! मेरे प्यारे !…. बस यह सीख जाओ, मौज हो जायेगी। वर्तमान रसमय हुआ तो आपका भूतकाल रसमय और भविष्य भी आयेगा तो वर्तमान के रस में रसीला हो के आयेगा। बहुत मौज हो जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 6,7,8 अंक 236

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