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अधिक मास का माहात्म्य


(अधिक मासः 18 अगस्त से 16 सितम्बर)

अधिक मास में सूर्य की संक्रान्ति (सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश) न होने के कारण इसे ʹमलमासʹ (मलिन मास) कहा गया। स्वामीरहित होने से यह मास देव-पितर आदि की पूजा तथा मंगल कर्मों के लिए त्याज्य माना गया। इससे लोग इसकी घोर निन्दा करने लगे।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः “मैं इसे सर्वोपरि – अपने तुल्य करता हूँ। सदगुण, कीर्ति, प्रभाव, षडैश्वर्य, पराक्रम, भक्तों को वरदान देने का सामार्थ्य आदि जितने गुण सम्पन्न हैं, उन सबको मैंने इस मास को सौंप दिया।

अहमेते यथा लोके प्रथितः पुरुषोत्तमः।

तथायमपि लोकेषु प्रथितः पुरुषोत्तमः।।

इन गुणों के कारण जिस प्रकार मैं वेदों, लोकों और शास्त्रों में ʹपुरुषोत्तमʹ नाम से विख्यात हूँ, उसी प्रकार यह मलमास भी भूतल पर ʹपुरुषोत्तमʹ नाम से प्रसिद्ध होगा और मैं स्वयं इसका स्वामी हो गया हूँ।”

इस प्रकार अधिक मास, मलमास ʹपुरुषोत्तम मासʹ के नाम से विख्यात हुआ।

भगवान कहते हैं- “इस मास में मेरे उद्देश्य से जो स्नान (ब्राह्ममुहूर्त में उठकर भगवत्स्मरण करते हुए किया गया स्नान), दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण तथा देवार्चन किया जाता है, वह सब अक्षय हो जाता है। जो प्रमाद से इस मास को खाली बिता देते हैं,  उनका जीवन मनुष्यलोक में दारिद्रय, पुत्रशोक तथा पाप के कीचड़ से निंदित हो जाता है इसमें सन्देह नहीं।

सुगन्धित चंदन, दीप आदि से लक्ष्मीसहित सनातन भगवान तथा पितामह भीष्म का पूजन करें। घंटा, मृदंग और शंख की ध्वनि के साथ कपूर और चंदन से आरती करें। ये न हों तो रुई की बत्ती से ही आरती कर लें। इससे अनन्त फल की प्राप्ति होती है। चंदन, अक्षत और  पुष्पों के साथ ताँबे के पात्र में पानी रखकर भक्ति से प्रातःपूजन के पहले या बाद में अर्घ्य दें। अर्घ्य देते समय भगवान ब्रह्माजी के साथ मेरा स्मरण करके इस मंत्र को बोलें-

देवदेव महादेव प्रलयोत्पत्तिकारक।

गृहाणार्घ्यमिमं देव कृपां कृत्वा ममोपरि।।

स्वयम्भुवे नमस्तुभ्यं ब्रह्मणेमिततेजसे।

नमोस्तुते श्रियानन्त दयां कुरु ममोपरि।।

ʹहे देवदेव ! हे महादेव ! हे प्रलय और उत्पत्ति करने वाले ! हे देव मुझ पर कृपा करके इस अर्घ्य को ग्रहण कीजिये। तुझ स्वयंभु के लिए नमस्कार तथा तुझ अमिततेज ब्रह्मा के लिए नमस्कार। हे अनंत ! लक्ष्मी जी के साथ आप मुझ पर कृपा करें।ʹ

पुरुषोत्तम मास का व्रत दारिद्रय, पुत्रशोक और वैधव्य का नाशक है। इसके व्रत से ब्रह्महत्या आदि सब पाप नष्ट हो जाते हैं।

विधिवत् सेवते यस्तु पुरुषोत्तममादरात्।

कुलं स्वकीयमुदधृत्य मामेवैष्ययत्यसंशयम्।।

प्रति तीसरे वर्ष में पुरुषोत्तम मास के आगमन पर जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति के साथ व्रत, उपवास, पूजा आदि शुभ कर्म करता है, वह निःसन्देह अपने समस्त परिवार के साथ मेरे लोक में पहुँचकर मेरा सान्निध्य प्राप्त करता है।”

इस माह में केवल ईश्वर के उद्देश्य से जो जप, सत्संग व सत्कथा-श्रवण, हरिकीर्तन, व्रत, उपवास, स्नान, दान या पूजनादि किये जाते हैं, उनका अक्षय फल होता है और व्रती के सम्पूर्ण अनिष्ट नष्ट हो जाते हैं। निष्काम भाव से किये जाने वाले अनुष्ठानों के लिए यह अत्यन्त श्रेष्ठ समय है। ʹदेवी भागवतʹ के अनुसार यदि दान आदि का सामर्थ्य न हो तो संतों-महापुरुषों की सेवा सर्वोत्तम है। इससे तीर्थस्नानादि के समान फल प्राप्त होता है।

इस मास में प्रातः स्नान, दान, तप, नियम, धर्म, पुण्यकर्म, व्रत-उपासना तथा निःस्वार्थ नाम जप-गुरुमंत्र जप का अधिक महत्त्व है। इस माह में दीपकों का दान करने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। दुःख शोकों का नाश होता है। वंशदीप बढ़ता है, ऊँचा सान्निध्य मिलता है, आयु बढ़ती है।

अधिक मास में आँवले और तिल का उबटन शरीर पर मलकर स्नान करना और आँवले के वृक्ष के नीचे भोजन करना – यह भगवान श्री पुरुषोत्तम को अतिशय प्रिय है, साथ ही स्वास्थ्यप्रद और प्रसन्ताप्रद भी है। यह व्रत करने वाले लोग बहुत पुण्यवान हो जाते हैं।

अधिक मास में वर्जित

इस मास में सभी सकाम कर्म एवं सकाम व्रत वर्जित हैं। जैसे – कुएँ, बावली, तालाब और बाग आदि का आरम्भ तथा प्रतिष्ठा, नवविवाहित वधू का प्रवेश, देवताओं का स्थापन (देव प्रतिष्ठा), यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, नामकर्म, मकान बनाना, नये वस्त्र एवं अलंकार पहनना आदि।

अधिक मास में करने योग्य

प्राणघातक रोग आदि के निवृत्ति के लिए रूद्रजप आदि अनुष्ठान, दान व जप-कीर्तन आदि, पुत्रजन्म के कृत्य, पितृमरण के श्राद्धादि तथा गर्भाधान, पुंसवन जैसे संस्कार किये जा सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 14, 15 अंक 236

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वर्षा ऋतु विशेष


(वर्षा ऋतुः 20 जून से 21 अगस्त)

ग्रीष्म ऋतु में दुर्बल हुआ शरीर वर्षा ऋतु में धीरे-धीरे बल प्राप्त करने लगता है। आर्द्र वातावरण जठराग्नि को मंद करता है। वर्षा ऋतु में वात-पित्तजनित व अजीर्णजन्य रोगों का प्रादुर्भाव होता है, अतः सुपाच्य, जठराग्नि प्रदीप्त करने वाला वात-पित्तनाशक आहार लेना चाहिए।

हितकर आहारः इस ऋतु में जठराग्नि प्रदीप्त करने वाले अदरक, लहसुन, नींबू, पुदीना, हरा धनिया, सोंठ, अजवायन, मेथी, जीरा, हींग, काली मिर्च, पीपरामूल का प्रयोग करें। जौ, खीरा, लौकी, गिल्की, पेठा, तोरई, जामुन, पपीता, सूरन, गाय का घी, तिल का तेल तथा द्राक्ष सेवनीय हैं। ताजी छाछ में काली मिर्च, सेंधा नमक, जीरा, धनिया, पुदीना डालकर दोपहर भोजन के बाद ले सकते हैं। उपवास और लघु भोजन हितकारी है। रात को देर से भोजन न करें।

अहितकर आहारः देर से पचने वाले, भारी तले, तीखे पदार्थ न लें। जलेबी, बिस्कुट, डबलरोटी आदि मैदे की चीजें, बेकरी की चीजें, उड़द, अंकुरित अऩाज, ठंडे पेय पदार्थ व आइसक्रीम के सेवन से बचें। वर्षा ऋतु में दही पूर्णतः निषिद्ध है। श्रावण मास में दूध व सब्जियाँ वर्जित हैं।

हितकर विहारः उबटन से स्नान, तेल की मालिश, हलका व्यायाम, स्वच्छ व हलके वस्त्र पहनना हितकारी है। वातारवरण में नमी और आर्द्ररता के कारण उत्पन्न कीटाणुओं से सुरक्षा हेतु आश्रमनिर्मित धूप वह हवन से वातावरण को शुद्ध तथा गौसेवा फिनायल या गोमूत्र से घर को स्वच्छ रखें। घर के आसपास पानी इकट्ठा न होने दें। मच्छरों से सुरक्षा के लिए घर में गेंदे के पौधों के गमले अथवा गेंदे के फूल रखें और नीम के पत्ते, गोबर के कंडे व गूगल आदि का धुआँ करें।

अपथ्य विहारः दिन में शयन, रात्रि जागरण, खुले में शयन, अति व्यायाम और परिश्रम, नदी में नहाना, बारिश में भीगना वर्जित है। कपड़े गीले हो गये हों तो तुरंत बदल दें।

कुछ खास प्रयोगः

500 ग्राम हरड़ चूर्ण व 50 ग्राम सेंधा नमक का मिश्रण बना लें। (उसमें 125 ग्राम सोंठ भी मिला सकते हैं।) 2-4 ग्राम यह मिश्रण दिन में 1-2 बार लेने से ʹरसायनʹ के लाभ प्राप्त होते हैं।

नागरमोथा, बड़ी हरड़ और सोंठ तीनों को समान मात्रा में लेकर बारीक पीस के चूर्ण बना लें। इस चूर्ण से दुगनी मात्रा में गुड़ मिलाकर बेर समान गोलियाँ बना लें। दिन में 4-5 बार 1-1 गोली चूसने से कफयुक्त खाँसी में राहत मिलती है।

1 से 3 लौंग भूनकर तुलसी पत्तों के साथ चबाकर खाने से सभी प्रकार की खाँसी में लाभ होता है।

वर्षा ऋतु में दमे के रोगियों की साँस फूले तो 10-20 ग्राम तिल के तेल को गर्म करके पीने से राहत मिलती है। ऊपर से गर्म पानी पियें।

भोजन के बाद पूर्व नींबू और अदरक के रस में सेंधा नमक डालकर पीने से मंदाग्नि व अजीर्ण में लाभ होता है।

कब्ज की तकलीफ होने पर रात में त्रिफला चूर्ण लें। रात का रखा हुआ आधा से एक लीटर पानी सुबह बासी मुँह पीने से कब्ज का नाश होता है।

मुनक्का एवं किशमिश

अंगूर को जब विशेषरूप से सुखाया जाता है तब उसे मुनक्का कहते हैं। अंगूर के लगभग सभी गुण मुनक्के में होते हैं। यह दो प्रकार का होता है – लाल और काला। मुनक्का पचने में भारी, मधुर, शीत, वीर्यवर्धक, तृप्तिकारक, वायु को गुदाद्वार से सरलता से निकलने वाला, कफ-पित्तहारी, हृदय के लिए हितकारक, श्रमनाशक, रक्तवर्धक, रक्तशोधक, मलशोधक तथा रक्तपित्त व रक्त-प्रदर में भी लाभदायी है।

किशमिश भी सूखे हुए अंगूर का दूसरा रूप है। इसमें भी अंगूर के सारे गुण विद्यमान होते हैं। दूध के लगभग सभी तत्त्व किशमिश में पाये जाते हैं। दूध के अभाव में इसका उपयोग किया जा सकता है। किशमिश दूध की अपेक्षा शीघ्र पचती है। मुनक्के के नित्य सेवन से थोड़े ही दिनों में रस, रक्त, शुक्र आदि धातुओं तथा ओज की वृद्धि होती है। वृद्धावस्था में किशमिश या मुनक्के का प्रयोग न केवल स्वास्थ्य की रक्षा करता है बल्कि आयु को बढ़ाने में भी सहायक होता है। किशमिश और मुनक्के की शर्करा शरीर में अतिशीघ्र पचकर आत्मसात् हो जाती है, जिससे शीघ्र ही शक्ति व स्फूर्ति प्राप्त होती है।

100 ग्राम किशमिश में 77 मि.ग्रा. लौह तत्त्व, 87 मि.ग्रा. कैल्शियम, 2 ग्रा. खनिज तत्त्व तथा 308 किलो कैलोरी ऊर्जा पायी जाती है।

किशमिश एवं मुनक्के के कुछ

स्वास्थ्य-प्रदायक प्रयोग

दौर्बल्यः अधिक परिश्रम, कुपोषण, वृद्धावस्था या किसी बड़ी बीमारी के बाद शरीर जब क्षीण व दुर्बल हो जाता है, तब शीघ्र बल प्राप्त करने के लिए किशमिश बहुत ही लाभदायी है। 10-12 ग्राम किशमिश 200 मि.ली. पानी में भिगोकर रखें व दो घंटे बाद खा लें।

रक्ताल्पताः मुनक्के में लौह तथा सभी जीवनसत्त्व (विटामिन्स) प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। 10-15 ग्राम काला मुनक्का एक कटोरी पानी में भिगोकर रखें। इसमें थोड़ा-सा नींबू का रस मिलायें। 4-5 घंटे बाद मुनक्का चबा-चबाकर खायें, इससे रक्ताल्पता मिटती है।

अम्लपित्तः किशमिश मधुर, स्निग्ध, शीतल व पित्तशामक है। इसे पानी में भिगोकर बनाया गया शरबत सुबह-शाम लेने से पित्तशमन, वायु-अनुलोमन व मल-निस्सारण होता है, जिससे अम्लपित्त में शीघ्र ही राहत मिलती है। रक्तपित्त, दाह व जीर्णज्वर में भी यह प्रयोग लाभदायी है। इसके सेवन के दिनों में आहार में पाचनशक्ति के अनुसार गाय के दूध तथा घी का उपयोग करें।

कब्जः किशमिश में उपस्थित मैलिक एसिड मल-निस्सारण का कार्य करता है। 25 से 30 ग्राम किशमिश व 1 अंजीर रात को 250 मि.ली. पानी में भिगोकर रखें। सुबह खूब मसलकर छान लें। फिर उसमें आधा चम्मच नींबू का रस व 2 चम्मच शहद मिलाकर धीरे-धीरे पियें। कुछ ही दिनों में कब्ज दूर हो जायगी।

शराब के नशे से छुटकाराः शराब पीने की इच्छा हो तब शराब की जगह 10 से 12 ग्राम किशमिश चबा-चबाकर खाते रहें या किशमिश का शरबत पियें। शराब पीने से ज्ञानतंतु सुस्त हो जाते हैं परंतु किशमिश के सेवन से शीघ्र ही पोषण मिलने से मनुष्य उत्साह, शक्ति और प्रसन्नता का अनुभव करने लगता है। यह प्रयोग प्रयत्नपूर्वक करते रहने से कुछ ही दिनों में शराब छूट जायेगी।

आवश्यक निर्देशः किशमिश, मुनक्का व अंजीर को अच्छी तरह से धोने के बाद ही उपयोग करें, जिससे धूल-मिट्टी, कीड़े, जंतुनाशक दवाई का प्रभाव आदि निकल जायें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2012, पृष्ठ संख्या 31, अंक 235

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ʹसर्वभाषाविद्ʹ हैं भगवान


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

बोलते हैं- ʹभगवान सर्वभाषाविद् हैं। भगवान सारी भाषाएँ जानते हैं।ʹ भाषाएँ तो मनुष्य-समाज ने बनायीं, तो क्या भगवान उनसे सीखने को आये ? नहीं। तो भगवान सर्वभाषाविद कैसे हुए ?

सारी भाषाएँ बोलने के लिए जहाँ से भाव उठते हैं, उसकी गहराई में भगवान हैं। उन सारे भावों को समझने वाले भावग्राही जनार्दन हैं। पहले भाव होता है फिर भाषा आती है, तो भावग्राही जनार्दनः। इसलिए बोलते हैं कि भगवान सर्वभाषाविद् हैं। आप किसी भी भाषा में बोलेंगे तो पहले आपके मन में भाव आयेगा, संकल्प उठेगा फिर बोलोगे। तो भाव जहाँ से उठता है वहाँ वे चैतन्य वपु (चैतन्य शरीर) ठाकुर जी बैठे हैं। उनकी सत्ता से ही तो सारे भाव उठ रहे हैं।

भगवान एक-एक भाषा सीखने नहीं गये कि तुम्हारी भाषा कैसे बोलते हैं। भगवान ʹसर्वभाषाविद्ʹ हैं, बिल्कुल सत्य बात है ! अपने-आप उन्हें सब भाषाएँ आ गयीं यह भी नहीं है। भाषाओं के मूल में बैठे हैं तो पता चल गया, बस ! तुम कितने भी मँजे हुए शब्द या सादे शब्द बोलो, वे अन्तर्यामी तुम्हारे भावों को जानते हैं। भावग्राही जनार्दनः।

भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावं समाचरेत्।

(गरूड़ पुराण, प्रे. खं. ध. कां.37.13)

चर्चा चली कि ʹदेवता का विग्रह होता है कि नहीं ? देव का शरीर होता है कि नहीं ?ʹ चर्चा करते करते इस निर्णय पर पहुँचे की ʹदेव का शरीर होता ही नहीं, साकार विग्रह होता ही नहीं। भावग्राही जनार्दनः।ʹ तुम्हारे भाव से वह देव उत्पन्न होता है। तुम्हारे अन्तर्यामी चैतन्य में जिस देव की भावना हुई हो, वह देव वहाँ बाहर खड़ा हो जाता है। बाकी अमुक जगह अमुक आकृतिवाला देव है – ऐसा नहीं है। भयंकर आकृतिवाले दैत्य हैं – ऐसा नहीं है। भयंकर वृत्ति की आकृतियाँ बनायीं मनुष्य ने और सौम्य वृत्ति की आकृतियों बनायीं मनुष्य ने, फिर समझने के लिए यह देव है और यह दानव है, यह असुर है, यह राक्षस है – यह सभी व्यवस्था सँभले इसके लिए बनाया है। बाकी देवों का विग्रह नहीं होता। फिर भी सर्व देवों का देव विग्रहरहित होते हुए भी सभी विग्रहवालों के मन के भावों को जानता है।

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।

कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।

आनन रहित सकल रस भोगी।

बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।

(श्रीरामचरित. बा.कां.117.3)

पग नहीं फिर वह (ब्रह्म) सर्वत्र पहुँच सकता है। कान नहीं फिर भी सब सुनता है, हाथ नहीं पर सब कर लेता है, मन नहीं पर सभी के मन की गहराई में वही बैठा है मेरा प्यारा। उस प्रभु की यह अटपटी लीला है। यह लीला सत्संग द्वारा समझ में आये तो प्रभु हृदय में ही मिलता है। जिनको अपने दिल में दिलबर नहीं दिखता, वे बाहर के मंदिरों में और बाहर के भगवान में जिंदगी भर खोज-खोज के थक जायेंगे। जब तक हृदय मंदिर में नहीं आये तब तक भगवद्प्राप्ति नहीं हो सकती। अखा भगत ने कहाः

सजीवाए निर्जीवने घड्यो अने पछी कहे मने कंई दे।

अखो तमने ई पूछे के तमारी एक फूटी के बे ?

तुम तो सजीव आत्मदेव हो, तुम्हारे आत्मदेव की सत्ता से ही मंदिर की मूर्ति बनी। उसकी सत्ता से ही मंदिर के देव की पूजा हुई। फिर ʹहे देव ! मेरा यह कर दे, मेरा ऐसा कर दे-ऐसा कर दे।ʹ मंदिर का देव तो बेचारा संकल्प नहीं करता, वह बेचारा तो बोलता भी नहीं। तुम्हारी भावना से ही अंतर्यामी देव तुम्हारी  प्रार्थना स्वीकारता है और वह घटना घटती है।

भगवान व्यापक है, विभु हैं। जिनके हृदय में उनके लिए प्रीति होती है, उनके कार्य वे आप सँवारते हैं और उनके हृदय में प्रकट होते हैं। गुरूवाणी में आया हैः

संता के कारजि आपि खलोइअ।।

संतो, भक्तों के कार्य भगवान सँवार लेते हैं।

अयोध्या के कनक भवन मंदिर की सेवा में श्यामा नाम की एक घोड़ी थी। वह जब बूढ़ी हो गयी तो उसको पचासों मील दूर मंदिर के खेत में भेजना था। जब निर्णय हुआ कि ʹतू अब जायेगीʹ तो उसकी आँखों से आँसू आने लगे, घोड़ी ने चारा पानी छोड़ दिया। वह अयोध्या छोड़ के जाना नहीं चाहती थी। आखिर व्यवस्थापक ने रेल में बोगी बुक करायी और उसे बोगी में चढ़ाया, तो घोड़ी के आँसुओं ने चमत्कार  किया कि जाने वाली रेल से और सारे डिब्बे तो जुड़ गये लेकिन किसी कारण से वह घोड़ी वाला डिब्बा रह गया। घोड़ी फिर कनक भवन में लायी गई। व्यवस्थापकों ने कहा कि ʹयह इसके हृदय की प्रार्थना है। देखो, भगवान कैसे सुनते हैं !ʹ

बड़ौदा से 60 किलोमीटर दूर होगा मालसर। वहाँ लाल जी महाराज रहते थे। चतुर्मास के समय नर्मदाजी में नहाने गये। चतुर्मास में तो कई बार नर्मदाजी में बाढ़ की स्थिति होती है। वे किसी भँवर में फँस गये, तैरना जानते नहीं थे तो बोलेः “हे राઽઽઽम….!” और सीधे सो गये शवासन में, तो ऐसा लगा मानो नीचे से किसी ने हाथ दिया हो और उन्हें किनारे पर खड़ाकर दिया।

हरि ब्यापक सर्वत्र समाना।

प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।

(श्रीरामचरित. बा.कां- 184.3)

जो भगवान को भाव से पुकारता है, प्रार्थना करता है, वह अपना पुरुषार्थ करे और पुरुषार्थ करते हुए हार जाय तब सच्चे हृदय से पुकारे तो भगवान उसी समय न जाने कैसी अदभुत लीला करके उसे बचा लेते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद,  जुलाई 2012, अंक 235, पृष्ठ संख्या 4,5

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