Yearly Archives: 2012

बारह प्रकार के गुरु


पूज्य बापू जी की अमृतवाणी

ʹनामचिंतामणिʹ ग्रन्थ में गुरुओं के बारह प्रकार बताये हैं। एक होते हैं धातुवादी गुरु। ʹबच्चा! मंत्र ले लिया, अब जाओ तीर्थाटन करो। भिक्षा माँग के खाओ अथवा घर का खाओ तो ऐसा खाओ, वैसा न खाओ। लहसुन न खाना, प्याज न खाना, यह करना, वह न करना। इस बर्तन में भोजन करना, ऐसे सोना।ʹ – ऐसी  विभिन्न बातें बताकर अंत में ज्ञानोपदेश देने वाले धातुवादी गुरु होते हैं।

दूसरे होते हैं चंदन गुरु। जिस प्रकार चंदन वृक्ष अपने निकट के वृक्षों को भी सुगन्धित बना देता है, ऐसे ही अपने सान्निध्य द्वारा शिष्य को तारने वाले गुरु चन्दन गुरु होते हैं। चंदन गुरु वाणी से नहीं, आचरण से हममें संस्कार भर देते हैं। उनकी सुवास का चिंतन करके हम भी अपने समाज में सुवासित होने के काबिल होते हैं।

तीसरे होते हैं विचारप्रधान गुरु। जो सार है वह ब्रह्म-परमात्मा है, असार है अष्टधा प्रकृति का शरीर। प्रकृति का शरीर प्रकृति के नियम से रहे लेकिन आप अपने ब्रह्म-स्वभाव में रहें – इस प्रकार का विवेक जगाने वाले आत्म-विचारप्रधान गुरु होते हैं।

चौथे होते हैं अनुग्रह-कृपाप्रधान गुरु। अपनी अऩुग्रह-कृपा द्वारा अपने शिष्यों का पोषण कर दें, दीदार दें दें, मार्गदर्शन दे दें, अच्छा काम करें तो प्रोत्साहित कर दें, गड़बड़ करें तो गुरू की मूर्ति मानो नाराज हो रही है ऐसे गुरु भी होते हैं।

पाँचवें होते हैं पारस गुरु। जैसे पारस अपने स्पर्श से लोहे को सोना कर देता है, ऐसे ही ये गुरु अपने हाथ का स्पर्श अथवा अपनी स्पर्श की हुई वस्तु का स्पर्श कराके हमारे चित्त के दोषों को हरकर  चित्त में आनंद, शान्ति, माधुर्य एवं योग्यता का दान करते हैं।

छठे होते हैं कूर्म अर्थात् कच्छपरूप गुरु। जैसे मादा कछुआ दृष्टिमात्र से अपने बच्चों को पोषित करती है, ऐसे ही गुरुदेव कहीं भी हों अपनी दृष्टिमात्र से, नूरानी निगाहमात्र से शिष्य को दिव्य अनुभूतियाँ कराते रहते हैं। ऐसी गुरुदेव की कृपा का अनुभव मैंने कई बार किया।

सातवें होते हैं चन्द्र गुरु। जैसे चन्द्रमा के उगते ही चन्द्रकान्त मणि से रस टपकने लगता है, ऐसे ही गुरु को देखते ही हमारे अंतःकरण में उनके ज्ञान का, उनकी दया का, आनंद, माधुर्य का रस उभरने, छलकने लगता है। गुरु का चिंतन करते ही, उनकी लीलाओं, घटनाओं अथवा भजन आदि का चिंतन करके किसी को बताते हैं तो भी हमें रस आने लगता है।

आठवें होते हैं दर्पण गुरु। जैसे दर्पण में अपना रूप दिखता है ऐसे ही गुरु के नजदीक जाते ही हमें अपने गुण-दोष दिखते हैं और अपनी महानता का, शांति, आनंद, माधुर्य आदि का रस भी आने लगता है, मानो गुरु एक दर्पण हैं। गुरु के पास गये तो हमें गुरू का स्वरूप और अपना स्वरूप मिलता जुलता, प्यारा-प्यारा सा लगता है। वहाँ वाणी नहीं जाती, मैं बयान नहीं कर सकूँग। मुझे जो अऩुभूतियाँ हुई उनका मैं वर्णऩ नहीं कर सकता। बहुत समय लगेगा फिर भी पूरा वर्णन नहीं कर पाऊँगा।

नौवें होते हैं छायानिधि गुरू। जैसे एक अजगैबी देवपक्षी आकाश में उड़ता है और जिस व्यक्ति पर उसकी ठीक से छाया पड़ जाती है वह राजा बन जाता है ऐसी कथा प्रचलित है। यह छायानिधि पक्षी आकाश में उड़ता रहता है किंतु हमें आँखों से दिखाई नहीं देता। ऐसे ही साधक को अपनी कृपाछाया में रखकर उसे स्वानंद प्रदान करने वाले गुरु छायानिधि गुरु होते हैं। जिस पर गुरु की दृष्टि, छाया आदि कुछ पड़ गयी वह अपने अपने विषय में, अपनी अपनी दुनिया में राजा हो जाता है। राजे महाराज भी उसके आगे घुटने टेकते हैं। यह सामर्थ्य मेरे गुरुदेव में था और मुझे लाभ मिला।

दसवें होते हैं नादनिधि गुरु। नादनिधि मणि ऐसी होती है कि वह जिस धातु को स्पर्श करे वह सोना बन जाती है। पारस तो केवल लोहे को सोना करता है।

एक संत थे गरीबदासजी। वे दादू दयाल जी के शिष्य थे। उनको किसी वैष्णव साधु ने मणि दी उन्होंने वह मणि फेंक दी।

वैष्णव साधु ने कहाः “मैं तो तुम्हारी गरीबी मिटाने के लिए लाया था। इतनी तपस्या के बाद मणि मिली थी, तुमने फेंक दिया ! कितनी कीमती थी !! अब क्या होगा ?”

गरीबदासजी ने कहाः “बाबा ! यह आपके हाथ का चिमटा दिखायें।” उसे अपने ललाट को छुआया तो चिमटा सोने का बन गया। वैष्णव साधु गरीबदास जी के चरणों में पड़ गये।

अब पारसमणि तो नहीं होता है ललाट, नादनिधि भी नहीं होता। क्या वर्णन करें ! मनुष्य के चित्त की कितनी महानता है ! ऐसे भी गुरु होते हैं हैं, जिनका ललाट या वाणी नादनिधि बन जाती है। ऐसी-ऐसी वार्ताएँ सुनकर हृदय आनंदित हो जाता है, अहोभाव से भर जाता है कि ʹहम कितने भाग्यशाली हैं कि भारतीय संस्कृति के ग्रंथ पढ़ने और सुनने का अवसर मिलता है।ʹ

नादनिधि मणि तो ठीक लेकिन गरीबदास जी का मस्तक नादनिधि कैसे बन गया ? वहाँ विज्ञान घुटने टेकने लग जाता है। ऐसे गुरू मुमुक्षु की करूण पुकार सुन के उस पर करुणा करके उसे तत्क्षण ज्ञान दे देते हैं। मुमुक्षु के आगे स्वर्ण तो क्या है, हीरे क्या है, राज्य क्या है ? वह तो राज्य और स्वर्ण का दाता बन जाता है। नादनिधि मणि से भी उन्नत, गुरु की कृपा और गुरु का ज्ञान काम करता है। नादनिधि को तो मैं चमत्कारी मानता हूँ लेकिन उससे भी कई गुना चमत्कारी मेरे गुरुदेव की वाणी और कृपा है। मैं उनके चरणों में अब भी नमस्कार करता हूँ। मेरे गुरुदेव की पूजा के आगे नादनिधि मणि, चिंतामणि, पारसमणि कुछ भी नहीं है। पारसमणिवालों के पास इतने लोग नहीं होते हैं।

ग्यारहवें गुरु होते हैं क्रौंच गुरु। जैसे मादा क्रौंच पक्षी अपने बच्चों को समुद्र-किनारे छोड़कर उनके लिए दूर स्थानों से भोजन लेने जाती है तो इस दौरान वह बार-बार आकाश की ओर देखकर अपने बच्चों को स्मरण करती है। आकाश की ओर देख के अपने बालकों के प्रति सदभाव करती है तो वे पुष्ट हो जाते हैं। ऐसे ही गुरु अपने चिदाकाश में होते हुए अपने शिष्यों के लिए सदभाव करते हैं तो अपने स्थान पर ही शिष्यों को गुदगुदियाँ होने लगती हैं, आत्मानंद मिलने लगता है और वे समझ जाते हैं कि बापू ने याद किया, गुरु ने याद किया। ऐसी गुरुकृपा का अनुभव मुझे कई बार हुआ था। मैंने अनुभव किया कि ʹगुरुजी कहीं दूर हैं और मेरे हृदय में कुछ दिव्य अनुभव हो रहे हैं।ʹ मन में हुआ कि ʹकैसे हो रहा है ʹ तो तुरंत पता चला कि वहाँ से उनका सदभाव मेरी तरफ यहाँ पहुँच गया है।

बारहवें गुरु होते हैं सूर्यकांत गुरु। सूर्यकान्त मणि में ऐसी योग्यता होती है कि सूर्य को देखते ही अग्नि से भर जाती है, ऐसे ही अपनी दृष्टि जहाँ पड़े वहाँ के साधकों को विदेहमुक्ति देने वाले गुरु सूर्यकान्त गुरु होते हैं। शिष्य को देखकर गुरु के हृदय में उदारता, आनंद उभर जाय और शिष्य का मंगल ही मंगल होने लगे, शिष्य को उठकर जाने की इच्छा ही न हो। गुरु का अपना स्वभाव ही बरसने लगे। तीरथ नहाये एक फल….अपनी भावना का ही फल मिलेगा। संत मिले फल चार…..धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, मिलेगा लेकिन आत्मसाक्षात्कारी पुरुष में तो मुझे लगता है कि बारह के बारह लक्षण चमचम चमकते हैं। किसी गुरु में एक लक्षण, किसी में दो, किसी में तीन लेकिन ब्राह्मी स्थितिवाला तो ओ हो ! जय लीलाशाह भगवान ! जय जय व्यास भगवान !! ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के चरणों में वंदन ! उऩका बड़ा भारी उपकार है, उनका धरती पर रहना ही मनुष्यों के लिए मंगलकारी है। वे बोलें तो भी मंगल है, ऐसे ही कहीं चुप बैठें और केवल दृष्टि डाल दें तो भी उनके संकल्प और उनको छूकर आने वाली हवाओं से मंगल होता है।

एक गुरु में ऐसे बारह के बारह दिव्य गुण भी हो सकते हैं, दो भी हो सकते हैं, चार भी हो सकते हैं। अब आपको कितने प्रकार के गुरु मिले हैं, आप ही सोच लो। मेरे को तो मिल गये मेरे गुरुदेव। यह सब उन्हीं का विस्तार है और जो दिखता है उससे भी ज्यादा विस्तार है उनका। जहाँ-जहाँ आपकी और मेरी दृष्टि जाती है उससे भी ज्यादा विस्तार है। अनंत ब्रह्मांड भी उनके एक कोने में पड़े हैं। ऐसे हैं मेरे गुरुदेव !

ऐसे गुरुओं पर कीचड़ उछालने वाले हर युग में रहे, फिर भी गुरु परम्परा अभी तक बरकरार है। नानक जी को जेल में डाल दिया। कबीर जी पर लांछन लगाया। बुद्ध पर दोषारोपण किया, कुप्रचार किया। संत नामदेव, ज्ञानेश्वर महाराज का भी खूब कुप्रचार हुआ। संत तुकारामजी महाराज का भी खूब कुप्रचार हुआ। फिर भी वे संत लाखों-करोड़ों के हृदय में अभी भी आदर से विराजमान हैं। लाखों करोड़ों हृदय उन्हें आदर से मानते हैं। निंदक और कुप्रचारक अपना ही घाटा करते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 20,21,22

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

 

ऐसी निष्ठा कि मंत्र हुआ साकार


सन् 1501 में विजय नगर राज्य के बाड़ ग्राम(वर्तमान में कर्नाटक के हवेरी जिले का एक गाँव) में जागीरदार वीरप्पा व उनकी पत्नी बच्चम्मा के यहाँ एक बालक का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया कनक। इनकी जाति कुरुब (भेड़-बकरी चराने वाले) थी। बचपन में ही इनके पिता का स्वर्गवास हो गया। बड़े होने पर पिता की जागीरदार इन्होंने सँभाल ली। एक बार भूमि शोधन करते समय कनक को भूमिगत अपार धनराशि मिली। उसके बाद इनका नाम कनकनायक पड़ा। इन्होंने उस धन से कागीनेले गाँव में भगवान केशव का भव्य देवालय बनवाया।

एक रात स्वप्न में कनकनायक को भगवान ने कहाः “कनका ! तू मेरी शरण में आ जा !”

स्वप्न में ही वे बोलेः “शरण ? भीख माँग कर जीने के लिए मैं क्यों दास बनूँ ? मैं तो राजा बनना चाहता हूँ।”

कुछ समय बाद उनकी पत्न और माँ की मृत्यु हो गयी। एक दिन पुनः भगवान स्वप्न में आकर बोलेः “कनका ! मेरी बात भूल गया ?”

“जागीरदारी छोड़कर भिक्षा माँगकर क्यों खाऊँ ?”

“जागीरदारी गयी तो ?”

“बकरी चराऊँगा।”

“बकरी चराने को तैयार है, मेरा बनने को नहीं ?”

“अઽઽઽ…..ʹ कनक की नींद टूट गयी। सोचा, ʹयह क्या मुसीबत है ! भगवान क्यों मेरे पीछे पड़े हैं ! पिता मर गये, पत्नी मर गयी, माँ मर गयी, अब हरि का दास बनकर भीख माँगना बाकी रहा क्या !”

कुछ समय बाद उस क्षेत्र में घमासान युद्ध हुआ। उसमें कनक का पूरा शरीर बाणों से छलनी हो गया। ऐसी विषम परिस्थिति में उऩ्हें अब एक ही सहारा जान पड़ा। वे ʹकेशव…. केशव….ʹ पुकारते हुए बेहोश हो गये। शत्रु उन्हें मरा हुआ समझ छोड़ के चले गये।

भगवान मनुष्यरूप में आये और कनक को जगाया। कनक ने पूछाः “आप कौन हैं ?”

भगवान बोलेः “क्या कनका ! इतनी जल्दी मुझे भूल गया ? इस तरह युद्ध करके लाशों के बीच गिरने में सुख है या मेरा बनने में सुख है, बताओ ?”

“अभी मेरे पूरे शरीर में बहुत दर्द हो रहा है, ठीक होने पर आपको बता दूँगा।”

“मैं अभी ठीक कर देता हूँ।”

भगवान का स्पर्श होते ही कनक का सारा दर्द दूर होकर शरीर पुलकित हो गया। वे बोलेः “प्रभु ! आप इतनी परीक्षा क्यों ले रहे हैं  ? मैं आपका बना तो जैसा बोलूँगा वैसा आप करोगे ?”

“हाँ करूँगा।”

“तो ठीक है, मैं जब भी स्मरण करूँ आप दर्शन देना और अभी अपना असली रूप दिखाइये।”

भगवान ने अपना मनोहर चतुर्भुज रूप का दर्शन कराया, जिसे देखकर कनक की भाव समाधि लग गयी और वे वहीं मौन, शांत अवस्था में बैठे रहे। अब तन तो वही था किंतु मन परिवर्तित हो गया, जीवन ने करवट ली। कनक नामक शरीर में स्थित वैराग्यरूपी असली कनक अपनी पूर्ण कांति के साथ देदीप्यमान हो रहा था। जब उन्होंने होश सँभाला तो घर आये और अपना सारा काम काज दूसरों को सौंप दिया। ʹकेशव.. केशव…..ʹ की पुकार गाँव की गलियों में गूँज उठी औऱ थोड़े समय में लोगों ने देखा कि भगवान केशव के मंदिर में कनक अपने आँसुओं से प्रभु का चरणाभिषेक कर रहे हैं।

कनक के कल्याण का जिम्मा अब उनके प्रभु ने उठा लिया था। जब भगवान अपने भक्त का परम कल्याण करना चाहते हैं तो सदगुरुरूप में उसके जीवन में प्रवेश करते हैं, साथ ही भक्त को अपना पता भी बता देते हैं।

मध्यरात्रि हुई। कनक ने स्वप्न देखा। भगवान स्नेहभरी दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए कह रहे थेः “कनका ! तू मुझे हमेशा अपने पास देखना चाहता है न ! तो मैं तुम्हारे जीवन में ब्रह्मज्ञान सदगुरु के रूप में प्रवेश करूँगा। अब तू देर न कर, श्रीव्यासराय जी से दीक्षा ले ले। जब गुरु उपदेश से तू मुझे तत्त्वरूप से जान लेगा तो मैं तुझसे बिछुड़ ही नहीं सकता। फिर तू अत्यन्त प्यारा हो जायेगा।”

कनक गुरु व्यासराय जी को ढूँढने के लिए निकल पड़े। उस समय व्यासराय जी मदनपल्ली प्रांत (आन्ध्र प्रदेश) में एक बड़ा तालाब बनवा रहे थे। तालाब के सामन स्थित बड़े पत्थरों को कैसे हटायें, ऐसा सोच रहे थे कि इतने में कनक वहाँ पहुँच गये और उन्हें प्रणाम किया।

व्यासराय जी ने पूछाः “तुम कौन हो ?”

“जी कनक, बकरी चराने वाला।”

“क्यों आये हो ?”

“गुरुदेव ! आपसे मंत्र-उपदेश लेने आया हूँ।”

“बकरी चराने वाले को क्या मंत्र देना ? ʹभैंसाʹ मंत्र !”

मरुभूमि में प्यास के मारे भटकते पथिक को जल का स्रोत मिल गया। सूखते तालाब में छटपटाती मछली को महासागर मिल गया। कनक का मन मयूर झूम उठाः ʹमिल गया गुरुमंत्र !ʹ उन्होंने बड़े प्रेमभाव से गुरु जी को प्रणाम किया और आज्ञा लेकर निर्जन स्थान में एक पेड़ के नीचे बैठ के ʹभैंसा-भैंसाʹ जपने लगे। उनकी गुरु निष्ठा और निर्दोष, सात्त्विक श्रद्धा से भगवान यमराज का वाहन भैंसा सामने प्रकट होकर गम्भीर आवाज में बोलाः “क्या चाहिए ?”

कनक ने उसे ले जाकर व्यासराय जी के सामने खड़ा कर दिया। निवेदन कियाः “गुरुदेव ! आपका मंत्र प्रकट रूप धारण कर चुका है। इसका क्या करूँ ?”

व्यासराय जीः साधो ! साधो !! निष्ठा इसी का नाम है। तुममे शिष्य बनने के लक्षण हैं। अब इस विशालकाय भैंसे से तालाब के सामने में जो बड़े बड़े पत्थर हैं, उनको हटवा दो !”

कनक ने गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर उस भैंसे से कार्य पूर्ण कराया। कनक की निष्ठा देखकर व्यासरायजी का हृदय छलक उठा और उन्हें विधिवत् मंत्रदीक्षा दे के अपना शिष्य स्वीकार कर लिया। उस दिन से कनक का नाम कनकदास। कनकदासजी कर्नाटक के सुविख्यात संतों में से एक हैं। इनके कीर्तन कर्नाटक में अत्यन्त लोकप्रिय हैं। ये कीर्तन हरिभक्ति से ओतप्रोत होने के साथ ही इनमें आध्यात्मिक गहराई भी झलकती है। आप  लिखते हैं-

साधु संग कोट्टु, निन्न पादभजनेयित्तु।

एन्न भेदमाडि नोडदिरू, अधोक्षज।।

ʹहे अधोक्षज (विष्णु जी) ! साधु का संग और अपने चरणों का स्मरण देना। आप मुझे भेदबुद्धि से मत देखना (मुझे नजरअंदाज न करना)।ʹ

ज्ञान भक्ति कोट्टु, निन्न ध्यानदिल्ल इट्टु।

सदा हीन बुद्धी बिडिसु मुन्न, जनार्दन।।

ʹहे जनार्दन ! मुझे ज्ञान, भक्ति दीजिये। मुझे आपके ध्यान में तल्लीन रखिये। हमेशा के लिए मेरी हीन बुद्धि दूर कीजिये।ʹ

पुट्टिसलु बेड मुन्दे पुट्टिसिदके पालिसिन्नु।

इष्टु मात्र बेडिकोम्बे, श्री कृष्णने।।

ʹहे श्रीकृष्ण ! अब आगे जन्म नहीं देना। मुझे पैदा किया है तो मेरा पालन कीजिये, केवल इतनी ही प्रार्थना करता हूँ।ʹ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 14,15

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

 

उन्नति के सूत्र


(पूज्य बापू जी की परम हितकारी वाणी)

संसाररूपी युद्ध के मैदान में परमात्मा को किस तरह पाया जा सकता है – यह ज्ञान यदि पाना हो तो इसके लिए ʹश्रीमदभगवदगीताʹ है। मृत्यु को किस तरह सुधारा जा सकता है – यह ज्ञान यदि पाना हो तो ʹश्रीमदभागवतʹ है।

साधक को अपनी दिनचर्या का विश्लेषण करना चाहिए। महीने भर अथवा साल भर की योजना न बनायें वरन् रोज सुबह योजना बनायें कि ʹआज चाहे कुछ भी हो जाय, बेहोशी में नहीं जिऊँगा, होश में ही जिऊँगा, सजग रहूँगा। जो कुछ भी करूँगा, खाऊँगा, पिऊँगा, लूँगा-दूँगा, उसका परिणाम क्या होगा – इसका पहले विचार करूँगा। मेरी सारी क्रियाएँ, सारी चेष्टाएँ ईश्वर की ओर ले जाने वाली हैं या ईश्वर से विमुख करने वाली है ? ऐसा पहले चिंतन करूँगा।ʹ इस प्रकार विचार करके कर्म करते रहने से साधक को ईश्वराभिमुख होने में सहायता मिलती है।

यदि अपने चिंतन का, अपनी बुद्धि का सदुपयोग करने की कला आ जाये तो मनुष्य संसार में खूब आनंद से, खूब शांति से एवं खूब प्रेम से जी सकता है। स्वर्ग के सुख से भी वह कई गुना ज्यादा सुख पा सकता है। मृत्यु के पहले और बाद भी वह मुक्ति का अनुभव कर सकता है।

ʹभगवदगीताʹ के सोलहवें अध्याय का उद्देश्य ही यह है कि मनुष्य अपने आत्मदेव के ज्ञान को पाकर मुक्त हो जाय। आसुरी वृत्तियों से किस प्रकार बचा जाय, सांसारिक बंधनों से किस प्रकार छूटा जाय और मुक्ति सरलता से मुट्ठी में कैसे आये ? इसके लिए ʹगीताʹ का सोलहवाँ अध्याय दैवी सम्पत्ति में निर्भयता, मौन, तप, आहार-संयम आदि गुण हैं।

जीवन में उन्नति के चार सूत्र हैं। पहली बात है कि निर्भय रहो। शादी-विवाह में इतना खर्च नहीं करूँगा तो बेईज्जती होगी… उधार लेकर भी फर्नीचर नहीं खरीदूँगा तो लोग क्या कहेंगे….ʹ इस प्रकार के कई भय मनुष्य को सताते रहते हैं। जिस काम से तुम्हार चित्त भयभीत होता हो एवं दूसरों की खुशामद करने में लगता हो, उसे छोड़ दो। तुम तो केवल अपने अंतर्यामी परमात्मा को राजी करने का प्रयत्न करो। पफ-पाउडर, लाली-लिपस्टिक आदि से शरीर को नहीं सजायेंगे तो लोग क्या कहेंगे इसकी परवाह न करो। जीवन में निर्भयता लाओ। शराबी कहता है कि ʹचलो मित्र ! शराब पियें।ʹ अब यदि तुम शराब नहीं पीते हो तो मित्र नाराज हो जाते हैं और यदि पीते हो तो तुम्हारी बरबादी होती है। फिर क्या करें ? अरे, मित्र नाराज होते हैं तो होने दो परंतु शराब नहीं पीनी है यह निश्चय दृढ़ रखो। जो लोग तुम्हें खराब काम, हलकी संगति और हलकी प्रवृत्तियों की तरफ घसीटते हैं उनसे निर्भय हो जाओ लेकिन माता-पिता, गुरू, शास्त्र एवं भगवान क्या कहेंगे, इस बात का डर रखो। ऐसा डर रखने से चित्त पवित्र होने लगता है क्योंकि ऐसा डर हलके कामों, हलकी प्रवृत्तियों एवं हलकी संगति से बचाने वाला होता है।

हरि डर गुरु डर जगत डर, डर करनी में सार।

रज्जब डरिया सो उबरिया, गाफिल खायी मार।।

जीवन में निर्भयता आनी ही चाहिए। झूठे आडम्बरों से बचने के लिए भी निर्भय बनो। आप मेहमानों को भिन्न-भिन्न प्रकार के अच्छे-अच्छे एवं तले हुए व्यंजन न खिला सको तो कोई बात नहीं, चिंता मत करो। परंतु यदि तुम सच्चे दिल से, एक प्रेमभरी नजर से, पानी के एक प्याले से भी मेहमान का आदर-सत्कार कर सको तो वह तुम्हारे यहाँ से उन्नत होकर जायेगा।

तुम लोगों की परवाह मत करो कि ʹऐसा नहीं करेंगे तो लोग क्या कहेंगे….ʹ अरे ! तुम अपनी नाक से श्वास लेते हो कि लोगों की नाक से ? अपने जीवन का आयुष्य खर्चते हो कि लोगों के जीवन का ? हम एक-दूसरे से ऐसे बँध गयें हैं, ऐसे बंध गये हैं कि शराब-कबाब आदि की पार्टियों से भले अपना व दूसरों का सत्यानाश होता हो फिर भी ʹलोग क्या कहेंगे ?ʹ के भूत से ग्रस्त हो जाते हैं एवं अपनी हानि करते रहते हैं। इसीलिए ʹगीताʹ में कहा गया हैः अभयं सत्त्वसंशुद्धिः। निर्भय एवं सत्त्वगुणी बनो। कायर, डरपोक एवं रजो-तमोगुणी मत बनो।

मैं घूमने जाता हूँ तो कभी कुत्ते भौंकने लगते हैं। मेरा तो विनोदी स्वभाव है। कुत्ते भौंकते हैं तब यदि मैं खड़ा रह जाता हूँ तो उनकी पूँछ दबी हुई पाता हूँ लेकिन जानबूझकर विनोद में दौड़ने लगता हूँ तो कुत्ते तो मेरा पीछा करते ही हैं, साथ में उनके छोटे-छोटे पिल्ले भी मेरा पीछा करने लग जाते हैं।

दुःख एवं मुसीबतें डरपोक मनुष्य का ही पीछा करती है, जबकि निर्भय व्यक्ति के सामने उनकी पूँछ दब जाती है। अतः दुःख एवं मुसीबतों को बुलाना हो तो भयभीत रहो और उनकी पूँछ दबानी हो तो निर्भय बनो।

भगवान से, गुरु से, माता-पिता से, शास्त्र से भले अनुशासित रहो परंतु जो हलका संग कराके पतन करा दें, उनसे निर्भय रहना चाहिए। उनसे किनारा करके निर्भयतापूर्वक अपने जीवन में अच्छे संस्कारों को पकड़े रहना चाहिए।

दूसरी बात है कि हृदय शुद्ध रहे ऐसा आहार-विहार और चिंतन करो। कहा भी गया है कि “जैसा खाओ अन्न, वैसा बनता मन।” साधक को अपने आहार पर खूब ध्यान देना चाहिए। ʹआहारʹ शब्द केवल भोजन के लिए ही नहीं है वरन् आँखों से, कानों से, नाक से, त्वचा से जो ग्रहण किया जाता है, वह भी आहार के ही अंतर्गत आता है। अतः उसमें सात्त्विकता का ध्यान रखना चाहिए।

तीसरी बात है तप। हमारे जीवन में तपस्या भी होनी चाहिए। सुबह भले ठंड लगे फिर भी सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान कर लो। देखो, इससे हृदय में कितनी प्रसन्नता और सत्त्वगुण बढ़ता है। फिर थोड़ा ध्यान करो। यह तप हो जाता है। सत्संग अथवा सत्कर्म के समय थोड़ा तन-मन-धन तो अवश्य खर्च होता है किंतु वह तुम्हारी तपस्या बन जाती है।

चौथी बात है मौन। प्रतिदिन 2-4 घंटे का मौन रखो। इससे तुम्हारी आंतरिक शक्ति बढ़ेगी, तुम्हारी वाणी में आकर्षण आयेगा। जो पतंगे की तरह इधर-उधर भटकते रहते हैं एवं व्यर्थ की बक-बक करते रहते हैं उनके चित्त में न शांति होती है, न क्षमा, न विचारशक्ति होती है और न ही अनुमान शक्ति। वे बिखर जाते हैं। स्त्रियों को तो मानो ज्यादा बोलने का ठेका ही मिला हुआ है। सास-बहू में, अड़ोस-पड़ोस में व्यर्थ की गप्पें मारकर वे स्वयं ही झगड़े पैदा कर लेती हैं। यदि झगड़े न भी होते हों तो फालतू बातें तो होती ही हैं। उन बेचारियों को पता ही नहीं होता कि व्यर्थ की बातें करने से प्राणशक्ति एवं वाक्शक्ति का ह्रास होता है।

अतः साधक को चाहिए कि वह मौन रखे। मौन से बहुत लाभ होता है। यदि एक बार भी तुम लम्बे समय तक मौन रखो तो अंदर का आनंद प्रकट होने लगेगा। विचारशक्ति, अनुमान शक्ति के अलावा धैर्य, क्षमा, शांति आदि सदगुण भी आऩे लगेंगे।

गुजराती में कहावत हैः न बोल्यामां नव गुण। अर्थात् न बोलने में नौ गुण हैं, झगड़े उत्पन्न करते हैं और अपनी आयु क्षीण करते हैं। किसी के साथ बात करो तो कम से कम, स्नेहयुक्त एवं सारगर्भित बात करो। इससे तुम्हारी वाणी का एवं तुम्हारा प्रभाव पड़ेगा।

ब्रह्मज्ञानी महापुरुष एक स्मितभरी नजर डालते हैं और पूरा जनसमुदाय तन्मय हो जाता है। अरे ! मनुष्यों की तो क्या बात, ब्रह्मलोक तक के देवी-देवता भी उनके अऩुकूल हो जाते हैं। हम उनका माहात्म्य नहीं जानते इसीलिए ʹहा… हा…ही….ही….ʹ में अपना जीवन गँवा डालते हैं। हमें पता ही नहीं है कि हमारे भीतर कितना खजाना भरा पड़ा है और हम कितना, किस प्रकार उसे खर्च कर रहे हैं !

ज्ञानवानों का स्मित ऐसा अनोखा होता है जिससे कोई भी सहज में ही उनके प्रति अहोभाव से भर जाता है। श्रीकृष्ण अपनी स्मितभरी नजर डालकर बंसी बजाते थे तो सब ग्वाल-गोपियों के चित्त सहज में ही पवित्र हो जाते थे। उसी प्रकार ब्रह्मज्ञानी महापुरुष की स्मितभरी नजर से लोगों का चित्त पवित्र होने लगता है।

निगाहों से निहाल हो जाते हैं,

जो संतों की निगाहों में आ जाते हैं।

तुम भी अपनी दृष्टि ऐसी ही बनाओ। ऐसा नहीं कि व्यर्थ का इधर-उधर भटकते रहो, व्यर्थ बोलते रहो एवं अपने ज्ञानतंतुओं, अपनी रक्तवाहिनियों, अपने शरीर एवं मन को सताते रहो।

जीवन में निर्भयता, आहारशुद्धि, तप एवं मौन – ये गुण आ जायें तो जीवन काफी उन्नत हो जाय और यह काम तुम कर सकते हो। युद्ध के मैदान में अगर अर्जुन यह काम कर सकता है तो तुम क्यों नहीं कर सकते ? अर्जुन तो कितनी विपत्तियों के बीच था, फिर भी श्रीकृष्ण ने उसको गीता का उपदेश दिया था। तुम्हारे आगे कितनी झंझटें नहीं हैं भाई ! बस, कमर कस लो इन दैवी गुणों को अपनाने के लिए…. निर्भयता, आहार-संयम, तप एवं मौन को आत्मसात करने के लिए।

ʹहम क्या करें ? हम तो गृहस्थी हैं…. हम तो संसारी हैं….. हम तो नौकरीवाले हैं….ʹ अरे ! तुम्हारे साथ संसार की जितनीत झंझटें हैं, उससे ज्यादा झंझटें पहले के समय में थीं। फिर भी हिम्मतवान, बुद्धिमान पुरुषों ने समय बचाकर विकारों एवं बेवकूफियों पर विजय पा ली एवं अपने आत्म-परमात्मा, अपने रब को पहचान लिया।

प्रह्लाद के जीवन में कितनी मुसीबतें आयीं ! फिर भी वे अडिग रहीं, निर्भय रहीं, हताश-निराश न हुई तो कितनी उन्नत हो गयी !

तुम भी उन्नत हो सकते हो, अपने आपको जान सकते हो। शर्त इतनी ही है कि दैवी गुणों को बढ़ाओ, पुरुषार्थ करो एवं सत्संग अवश्य करो। सत्संग से ही तुम्हें अपने दैवी गुणों को विकसित करने की प्रेरणा मिलेगी, प्रोत्साहन मिलेगा, मार्गदर्शन मिलेगा, उत्साह उभरेगा। निर्भयता, आहारशुद्धि, वाणी का संयम एवं तप – इन दैवी गुणों का विकास तुम्हारे लिए उन्नति का द्वार सहजता से ही खोल देगा। अतः आज से, अभी से दृढ़ता से लगो। लगोगे न ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अंक 233, मई 2012, पृष्ठ संख्या 18, 19, 20

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ