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अडिग विश्वास से असम्भव भी सम्भव


(पूज्य बापू जी की रसमय अमृतवाणी)

सन् 1938 की बात है। वाराणसी जिले में महुअर गाँव है। वहाँ के जमींदार देवनाथ सिंह एकदम अनपढ़ थे। सुदर्शन सिंह ʹचक्रʹ, जिनके लेख गीता प्रेस के साहित्य में आते थे, उनसे देवनाथ मिले और कहाः “मैं गीता पढ़ना चाहता हूँ पर अनपढ़ हूँ। इस बड़ी उम्र में किसी व्यक्ति से पढ़ने की बात कहने में लज्जा आती है। आप कोई उपाय बताइये।”

सुदर्शन जी ने कहाः “आप अनपढ़ हो लेकिन गीता पढ़ सकते हो।”

देवनाथ ने कहाः “बाप जी ! अक्षर उलटा है कि सीधा है मने ख्याल नहीं आवे है। गीता उलटी पकड़ी हो तो फोटो देख के सीधी कर सकता हूँ लेकिन कोई अक्षर देख के सीधी करने को बोले तो मैं उलटा-सीधा नहीं जानता हूँ।”

सुदर्शनजी बोलेः “आप नहीं जानते हो लेकिन गीता जी तो जानती हैं, गीताकार तो जानते हैं। आप गीता की श्लोक-पंक्तियों पर उँगली घुमाया करो और सोचो कि ʹये भगवान के बोले हुए वचन हैं।ʹ अर्जुन विह्वल है, भगवान उपदेश दे रहे हैं। अर्जुन का शोक मिटा, दुःख मिटा। अर्जुन को भगवान का, अंतरात्मा का प्रकाश मिला। यह तो आपने सुना है। बस, गीता के श्लोकों पर उँगली रखते जाओ और यही विचार करते जाओ।”

डेढ़-दो वर्ष बाद अनपढ़ देवनाथ सिंह ने सुदर्शन सिंह चक्र को बताया कि ʹअब मैं गीता के श्लोकों पर उँगली घुमाता हूँ तो मेरी जीभ चलने लगती है और मैं कुछ बड़बड़ करने लग जाता हूँ। मेरे को पता नहीं कि क्या है बड़बड़ का मतलब। मैं कुछ भी बोलने लग जाता हूँ। आप सुनो महाराज !”

सुदर्शन जी ने गीता दी देवनाथ के हाथ में। प्रथम अध्याय खोलकर दिया गया। वे उँगली घुमाने लगे और बोलने लगे। वह बड़बड़ नहीं थी, गीता के श्लोक ही थे। दूसरे अध्याय के आखिरी श्लोक दिये तो वे भी ज्यों-के-ज्यों साफ बोले संस्कृत में !

छठे अध्याय के श्लोक दिये गये तो….

अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः।

स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।

न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन।।….

देवनाथ श्लोकों पर केवल उँगली रखते जायें और बोलते जायें ! गीता एक ऐसा अदभुत दैवी ग्रंथ है कि एक अनपढ़ आदमी, जो ʹक, ख, ग, घ, च, छ, ज, झ…ʹ नहीं जानता था, वह गीता के श्लोकों पर उँगली रखता जाय और गीता गूँजती जाय ! यह इस दैवी ग्रन्थ का देवत्व है।

देवनाथ द्वारा गीता के श्लोकों का ही शुद्ध उच्चारण हो रहा था, यह तथ्य जब उन्हें बताया गया तो वे गदगद हो गये। उनके नेत्रों से अश्रुधाराएँ बहने लगीं। इसके बाद तो देवनाथ सिंह ने अपना जीवन परमार्थ में ही लगा दिया। उन्होंने पैदल भारत-भ्रमण किया। जब वे द्वारिका पहुँचे तो भगवान द्वारिकाधीश का दर्शन करते हुए और गीता के श्लोकों का उच्चारण करते हुए ही उनका शरीर शान्त हो गया।

गीता भगवान का हृदय है। ऐसी गीता का ज्ञान आप लोगों को सत्संग द्वारा मिलता है।

गीतायाः श्लोकपाठेन गोविन्दस्मृतिकीर्तनात्।

साधुदर्शनमात्रेण तीर्थकोटिफलं लभेत।।

ʹगीता के श्लोक के पाठ से, भगवान के स्मरण और कीर्तन से तथा आत्मतत्त्व में विश्रान्ति प्राप्त संत के दर्शनमात्र से करोड़ों तीर्थ करने का फल प्राप्त होता है।ʹ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2012, पृष्ठ संख्या 19, अंक 232

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स्वास्थ्य प्रदायक नीम


ʹनिम्बति-स्वास्थ्य ददातिʹ अर्थात् जो निरोग करे दे, स्वास्थ्य प्रदान करे वह है ʹनीमʹ। नीम वृक्ष के पंचांग-पत्ते, फूल, फल, छाल एवं जड़ यानी सम्पूर्ण वृक्ष ही औषधीय गुणों से भरपूर है। नीम की छाया भी स्वास्थ्यप्रद है। अतः इसकी छाया व हवा में विश्राम करना श्रेयस्कर है। नीम ठंडा, कड़वा, पित्त व कफशामक परंतु वातवर्धक है।

नीम के पत्तेः उत्तम जीवाणुनाशक व रोग प्रतिकारक शक्ति को बढ़ाने वाले हैं। नीम की कोंपलें चबाने से रक्त की शुद्धि होती है। पत्तियों का 1-1 बूँद रस आँखों में डालने से आँखों को ठंडक व आराम मिलता है तथा मोतियाबिंद से आँखों की रक्षा होती है। रस में मिश्री मिलाकर पीने से शरीर की गर्मी शान्त हो जाती है। चुटकी भर पिसा हुआ जीरा, पुदीना और काला नमक मिला कर  पीने से अम्लपित्त (एसीडिटी) में राहत मिलती है। यह शरबत हृदय को बल व ठंडक पहुँचाता है। उच्च रक्तचाप में एक सप्ताह तक रोज सुबह रस पीयें, फिर 2 दिन छोड़कर 1 सप्ताह लगातार पीने से लाभ होता है। नीम के रस में 2 ग्राम रसायन चूर्ण मिलाकर पीना स्वप्नदोष में लाभदायी है।

नीम की पत्तियों का रस शहद के साथ देने से पीलिया, पांडुरोग व रक्तपित्त (नाक, योनि, मूत्र आदि द्वारा रक्तस्राव होना) में आराम मिलता है।

फिरंग (सिफिलिस) व सूजाक (गोनोरिया) में भी नीम की पत्तियों का रस विशेष लाभदायी है। विषैला पदार्थ पेट में चला गया हो तो नीम का रस पिलाकर उलटी करने से आराम मिलता है। नीम रक्त व त्वचा की शुद्धि करता है। अतः दाद, खाज, खुजली आदि त्वचारोगों से नीम के पंचागों का काढ़ा अथवा रस पिलायें तथा नीम का तेल लगायें। पत्तियाँ दही में पीसकर लगाने से दाद जड़ से नष्ट हो जाती है।

बहुमूत्रता (बार-बार पेशाब होना) में भी नीम के रस में आधा चम्मच हल्दी का चूर्ण मिलाकर पीना लाभदायी है।

नीम दाहशामक है। बुखार में होने वाली जलन अथवा हाथ – पैरों की जलन में नीम की पत्तियाँ पीसकर लगाने से ठंडक मिलती है।

नीम की पत्तियों के रस में शहद मिलाकर पिलाने से पेट के कृमि नष्ट होते हैं।

चेचक में नीम की पत्तियों का रस शरीर पर मलें। रस को गुनगुना करके सुबह दोपहर शाम पिलायें। बिस्तर पर पत्तियाँ बिछा दें तथा दरवाजे और खिड़कियों पर बाँध दें।

सभी प्रयोगों में रस की मात्राः 20 से 30 मि.ली.।

नीम की आंतर छाल (अंदर की छाल)- 3 ग्राम पिसी हुई छाल व 5 ग्राम पुराना गुड़ मिलाकर खाने से बवासीर में आराम मिलता है। इससे ज्वर भी शांत हो जाता है। छाल पीसकर सिर पर लगाने से नकसीर बंद हो जाता है।

नीम के फूलः ताजे फूलों का 20 मि.ली. रस पीने से फोड़े-फुँसियाँ मिट जाती हैं। चैत्र महीने ( 9 मार्च से 6 अप्रैल तक) में 15 दिन तक सुबह फूलों का रस पीयें। इन दिनों बिना नमक का भोजन करें, खट्टे, तीखे व तले हुए पदार्थ न खायें। इससे सभी  प्रकार के त्वचा विकारों में लाभ होता है और रोगप्रतिकारक शक्ति भी बढ़ती है।

निबौली (नीम का फल)- अप्रैल-मई में जब ताजे फल लग जाते हैं तब पकी हुई 10 निबौलियाँ रोज खायें। इससे रक्त की शुद्धि होती है तथा भूख भी खुलकर लगती है। निबौली की चटनी भी स्वादिष्ट व स्वास्थ्यवर्धक है। यह अर्श (बवासीर) नाशक है।

नीम की टहनीः 1 अंगुल मोटी व 8-10 इंच लम्बी सीधी टहनी तोड़कर उसके अग्रभाग को दाँतों से चबाकर दातुन बनायें। उससे दातुन करने से दाँत स्वच्छ, चमकीले व मजबूत बनते हैं तथा मसूड़े व दाँतों के रोग नहीं होते। मुँह के कैंसर की तेजी से बढ़ती हुई समस्या को यह प्रयोग नियंत्रित कर सकता है। यह दाँत के कृमियों को नष्ट करता है।

बाह्य प्रयोगः नीम की छाल का काढ़ा बनाकर उससे घाव धोने से वह जल्दी भर जाता है।

पुराने घाव तथा मधुमेहजन्य घाव (Diabetic Ulcers), चर्मरोग, पैरों के तलुए की जलन आदि समस्याओं में नीम तेल लगाने से लाभ होता है। दाँतों की सड़न में नीम के पंचांग काढ़े के कुल्ले करने से राहत मिलती है।

नीम के पेड़ के नीचे पड़े हुए सूखे पत्ते व शाखाओं का धुआँ करने से वायुमंडल शुद्ध और स्वच्छ रहता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 231

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साधकों की सेवा का प्रेरक पर्वः अवतरण दिवस


(पूज्य बापू जी का 72वाँ अवतरण दिवसः 11 अप्रैल)
जीवन के जितने वर्ष पूरे हुए, उनमें जो भी ज्ञान, शांति, भक्ति थी, आने वाले वर्ष में हम उससे भी ज्यादा भगवान की तरफ, समता की तरफ, आत्मवैभव की तरफ बढ़ें इसलिए जन्मदिवस मनाया जाता है।
ʹजन्मʹ किसको बोलते हैं ? जो अव्यक्त है, छुपा हुआ है वह प्रकट हुआ इसको ʹजन्मʹ बोलते हैं। और ʹअवतरणʹ किसको बोलते हैं ? जो ऊपर से नीचे आये। जैसे राष्ट्रपति अपने पद से नीचे आये और स्टेनोग्राफर को मददरूप हो जाय, उनके साथ मिलकर काम करे-कराये इसको बोलते हैं, ʹअवतरणʹ। अवतरण, जन्म, प्राकट्य इन सबकी अपनी-अपनी व्याख्या है परंतु हमको क्या फायदा ? हम यह व्याख्या समझेंगे, विचारेंगे तो हम अपने कर्म-बन्धन से, देह के अहं से, दुःख के साथ तादात्म्य से और सुख के भ्रम से पार हो जायेंगे।
भगवान की जयंती, महापुरुषों का अवतरण दिवस अथवा अपना शास्त्रीय ढंग से मनाया गया जन्मदिवस एक लौकिक कर्म दिखते हुए भी इसके पीछे आधिदैविक उन्नति छुपी है। और इसके पीछे आधिदैविक उन्नति छुपी है। और किन्हीं संत-महात्मा की हाजिरी में यह होता है तो आध्यात्मिक उन्नति का प्राकट्य होता है।
कुछ लोग केक काटते हैं, मोमबत्तियाँ फूँकते हैं और फूँक के द्वारा लाखों-लाखों जीवाणु थूकते हैं, ʹहैप्पी बर्थ डे, हैप्पी बर्थ डे…ʹ करते हैं। यह जन्मदिवस मनाने का पाश्चात्य तरीका है लेकिन हमारी भारतीय संस्कृति में इस तरीके को अस्वीकार कर दिया गया है। हमारा जीवन अंधकार में से प्रकाश की ओर जाने के लिए है। अंधकारमयी कई योनियों से हम भटकते हुए आये, अब आत्मप्रकाश में जियें। तमसो मा ज्योतिर्गमय – हम अंधकार से प्रकाश की तरफ जायें। वे जो मोमबत्तियाँ, दीये जले होते हैं, उन्हें फूँकते-फूँकते बुझाकर प्रकाश को अंधकार में परिवर्तित करना तथा बासी अन्न (केक) का काट-कूट करना और फिर बाँटना…. छी ! छी ! अगर बुद्धिमत्ता हो तो केक खाने वाले को देखकर वमन आ जाय। क्योंकिक जो फूँकता है न, फूँक में लाखों-लाखों जीवाणु थूकता है। ऐसा भी लोग जन्मदिवस मनाते हैं। खैर अब सत्संग द्वारा जागृति आने से उस अंध-परम्परा में कमी हुई है, सजगता आयी है लेकिन अभी भी कहीं-कहीं मनाते हैं।
जन्मदिवस मनाने के पीछे उद्देश्य होना चाहिए कि आज तक के जीवन में जो हमने अपने तन के द्वारा सेवाकार्य किया, मन के द्वारा सुमिरन किया और बुद्धि के द्वारा ज्ञान-प्रकाश पाया, अगले साल अपने ज्ञान में परमात्म-तत्त्व के प्रकाश को हम और भी बढ़ायेंगे, सेवा की व्यापकता को बढ़ायेंगे और भगवत्प्रीति को बढ़ायेंगे। ये तीन चीजें हो गयीं तो आपको उन्नत बनाने में आपका यह जन्मदिवस बड़ी सहायता करेगा। परंतु किसी का जन्मदिवस है और झूम बराबर झूम शराबी… पेग पिये और क्लबों में गये तो यह सत्यानाश दिवस साबित हो जाता है।
शरीर आधिभौतिक है, मन, बुद्धि, अहं आधिदैविक हैं और अध्यात्म-तत्त्व इन दोनों से परे है, उनको जाननेवाला है। भगवान श्रीकृष्ण कृपा करके अपना अनुभव बताते हैं-
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः
(गीताः4.9)
अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है ऐसा जो जानता है उसके भी जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं और वह मुझे मिलता है, ऐसे मिलता है जैसे दो सरोवर के बीच का पाल टूट जाय तो कौन-से सरोवर का कौन सा पानी यह पृथक करना सम्भव नहीं रहता। ऐसे ही जीव का जीवत्व छुट जाय और ईश्वर का अपना ईश्वरत्व बाधित हो जाय तो वास्तव में दोनों में एक परब्रह्म परमात्मा लहरा रहा था, लहरा रहा, लहराता रहेगा।
जीव जो अव्यक्त है, अप्रकट है वह प्रकट होता है तो उसका जन्म होता है और प्रकटी हुई चीज फिर विसर्जित होती है, होने को जाती है तो वह मृत्यु होता है। जैसे शरीर मर गया तो इसको श्मशान में जलाने को ले जायेंगे तो जलीय अंश जल में चला जायेगा, वायु का अंश वायु में, अग्नि का अंश अग्नि में, पृथ्वी तत्त्व का अंश कुछ राख, हड्डियाँ बच जायेंगी तो वह अव्यक्त हो गया। मृत्यु हो गयी और कहीं फिर जन्म हुआ, व्यक्त हुआ तो जन्म। तो अव्यक्त होना विसर्जित होना इसको मृत्यु कहा और विसर्जित में सुसर्जित होना इसको जन्म कहा। ये जन्म और मृत्यु की परम्परा है। तो
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोઽर्जुन।।
ʹहे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक है – इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।ʹ (गीताः 4.9)
तो भगवान का जन्म होता है करूणा-परवश होकर, दयालुता से। भगवान करूणा करके आते हैं तो यह भगवान का जन्म दिव्य हो गया, अवतरण हो गया। हमारे कष्ट मिटाने के लिए भगवान का जो भी प्रेमावतार, ज्ञानावतार अथवा मर्यादावतार आदि होता है, तब वे हमारे नाईँ जीते हैं, हँसते-रोते हैं, खाते-खिलाते हैं, सब करते हुए भी सम रहते हैं तो हमको उन्नत करने के लिए। उन्नत करने के लिए जो होता है वह अवतार होता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 231
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