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दुर्गासप्तशति का आविर्भाव


(नवरात्रिः 16 से 23 अक्तूबर 2012)

पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रसाद से

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।

तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहू सूला।।

ʹसब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं।ʹ श्रीरामचरित. उ.कां. 120.15)

जीव को जिन चीजों में मोह होता है, देर सबेर वे चीजें ही जीव को रूलाती हैं। जिस कुटुम्ब में मोह होता है, जिन पुत्रों में मोह होता है, उनसे ही कभी-न-कभी धोखा मिलता है लेकिन अविद्या का प्रभाव इतना गहरा है कि जहाँ से धोखा मिलता है वहाँ से थोड़ा ऊब तो जाता है परंतु उससे छुटकारा नहीं पाता, वहीं चिपका रहता है।

समाधि नाम का एक वैश्य था। उसको भी धन-धान्य, कुटुम्ब में बहुत आसक्ति थी, बहुत मोह था। लेकिन उन्हीं कुटुम्बियों ने, पत्नी और पुत्र ने धन के लालच में उसे घर से बाहर निकाल दिया। वह इधर-उधर भटकते-भटकते जंगलों-झाड़ियों से गुजरते हुए मेधा ऋषि के आश्रम में पहुँचा।

ऋषि का आश्रम देखकर उसके चित्त को थोड़ी शांति मिली। अनुशासनबद्ध, संयमी और सादे रहन-सहनवाले साधन भजन करके आत्मशांति की प्राप्ति की ओर आगे बढ़े हुए, निश्चिंत जीवन जीने वाले साधकों को देखकर समाधि वैश्य के मन में हुआ कि इस आश्रम में कुछ दिन तक रहूँगा तो मेरे चित्त की तपन जरूर मिट जायेगी।

सुख, शांति और चैन इन्सान की गहरी माँग है। अशांति कोई नहीं चाहता, दुःख कोई नहीं चाहता लेकिन मजे की बात यह है कि जहाँ से तपन पैदा होती है वहाँ से इन्सान सुख चाहता है और जहाँ से अशांति मिलती है वहाँ से शांति चाहता है, मोह की महिमा ही ऐसी है।

यह मोह जब तक ज्ञान के द्वारा निवृत्त नहीं होता है, तब तक कंधे बदलता है, एक कंधे का बोझ दूसरे कंधे पर धर देता है। ऐसे कंधे बदलते-बदलते जीवन बदल जाता है। अरे ! मौत भी बदल जाती है। कभी पशु का जीवन तो कभी कैसी। अगर जीवन और मौत के बदलने से पहले अपनी समझ बदल लें तो बेड़ा पर हो जाय। समाधि वैश्य का कोई सौभाग्य होगा, कुछ पुण्य होंगे, ईश्वर की विशेष कृपा होगी, वह मेधा ऋषि के आश्रम में रहने लगा।

उसी आश्रम में राजा सुरथ भी आ पहुँचा। राजा सुरथ को भी राजगद्दी का अधिकारी बनने से रोकने के लिए मंत्रियों ने सताया था और धोखा दिया था। उनके कपटी व्यवहार से उद्विग्न होकर शिकार के बहाने वह राज्य से भाग निकला था। उसे संदेह हो गया था कि किसी-न-किसी षड्यंत्र में फँसाकर वे मुझे मार डालेंगे। अतः उसकी अपेक्षा राज्य का लालच छोड़ देना अच्छा है।

इस तरह समाधि वैश्य और राजा सुरथ दोनों ऋषि के आश्रम में रहने लगे। दोनों एक ही प्रकार के दुःख से पीड़ित थे। वे आश्रम में तो रहते थे लेकिन मोह नष्ट करने के लिए नहीं आये थे, ईश्वरप्राप्ति के लिए नहीं आये थे। अपने कुटुम्बियों ने, करीबी लोगों ने धोखा दिया था, संसार से जो ताप मिला था उसकी तपन बुझाने आये थे। उनके मन में आसक्ति और भोगवासना तो थी ही, इसलिए सोच रहे थे कि तपन मिट जाय फिर चले जायेंगे।

ऋषि आत्मज्ञानी थे, उनके शिष्य भी सेवाभावी थे  परंतु समाधि वैश्य और राजा सुरथ की हालत तो कुछ और थी। उन दोनों ने वार्तालाप शुरु किया। राजा सुरथ ने मेधा ऋषि के चरणों में प्रार्थना कीः “स्वामी जी ! हम आश्रम में रह तो रहे हैं लेकिन हमारा मन वही सांसारिक सुख चाहता है। हम समझते हैं कि संसार स्वार्थ से भरा हुआ है। कितने ही लोग मरकर सब कुछ इधर छोड़कर चले गये हैं। धोखेबाज सगे-सम्बन्धियों ने तो हमसे जीते-जी सब छुड़ा दिया है। फिर भी ऐसी इच्छा होती रहती है कि स्वामी जी आज्ञा दें तो हम उधर जायें और आशीर्वाद भी दें कि हमारी पत्नी और बच्चे हमें स्नेह करें, धन-धान्य बढ़ता रहे और हम मजे से जियें।”

ऋषि उनके अंतःकरण की सच्चाई देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहाः “इसी का नाम माया है। इसी माया की दो शक्तियाँ हैं- आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति। ʹचाहे सौ-सौ जूते खायें तमाशा घुसकर देखेंगे।ʹ तमाशा क्या देखते हैं ? जूते खा रहे हैं…. धक्का मुक्की सह रहे हैं… हुईशो…. हुईशो चल रहा है। कहेंगे बहुत मजा है इस जीवन में। लेकिन ऐसा मजा लेने में जीवन पूरा कर देने वाला जीवन के अंत में देखता है कि संसार में कोई सार नहीं है। ऐसा करते-करते सब चले गये। दादा-परदादा चले गये और हम तुम भी चले जायेंगे। हम इस संसार से चले जायें उसके पहले इस संसार की असारता को समझकर एकमात्र सारस्वरूप परमात्मा में जाग जायें तो कितना अच्छा !”

सुरथ राजा ने कहाः “स्वामी जी ! यह सब हम समझते हैं फिर भी हमारे चित्त में ईश्वर के प्रति प्रीति नहीं होती और संसार से वैराग्य नहीं आता। इसका क्या कारण होगा ? संसार की नश्वरता और आत्मा की शाश्वतता के बारे में सुनते हैं लेकिन नश्वर संसार का मोह नहीं छूटता और शाश्वत परमात्मा में मन नहीं लगता है। ऐसा क्यों ?”

मेधा ऋषि ने कहाः “इसी को सनातन धर्म के ऋषियों ने ʹमायाʹ कहा है। वह जीव को संसार में घसीटती रहती है। ईश्वर सत्य है, परब्रह्म परमात्मा सत्य है  परंतु माया के कारण असत् संसार, नाशवान जगत सच्चा लगता है। इस माया से बचना चाहिए। माया से बचने के लिए ब्रह्मविद्या का आश्रय लेना चाहिए। वही संसार सागर से पार कराने वाली विद्या है। इस ब्रह्मविद्या की आराधना-उपासना से बुद्धि का विकास होगा और आसुरी भाव काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकार मिटते जायेंगे। ज्यों-ज्यों विकार मिटते जायेंगे त्यों-त्यों दैवी स्वभाव प्रकट होने लगेगा और उस अंतर्यामी परमात्मा में प्रीति होने लगेगी। नश्वर का मोह छूटता जायेगा और उस परम देव को जानने की योग्यता बढ़ती जायेगी।”

फिर उन कृपालु ऋषिवर ने दोनों के पूछने पर उन्हें भगवती की पूजा-उपासना की विधि बतायी। ऋषिवर ने उस महामाया की आराधना करने के लिए जो उपदेश दिया, वही शाक्तों का उपास्य ग्रंथ ʹदुर्गासप्तशतीʹ के रूप में प्रकट हुआ। तीन वर्ष तक आराधना करने पर भगवती साक्षात् उनके समक्ष प्रकट हुई और वर माँगने के लिए कहा।

राजा सुरथ के मन में संसार की वासना थी अतः उन्होंने संसारी भोग ही माँगे किंतु समाधि वैश्य के मन में किसी सांसारिक वस्तु की कामना नहीं रह गयी थी। संसार की दुःखरूपता, अनित्यता और असत्यता उनकी समझ में आ चुकी थी अतः उन्होंने भगवती से प्रार्थना कीः “देवी ! अब ऐसा वर दो कि ʹयह मैं हूँʹ और ʹयह मेरा हैʹ – इस प्रकार की अहंता-ममता और आसक्ति को जन्म देने वाला अज्ञान नष्ट हो जाय और मुझे विशुद्ध ज्ञान की उपलब्धि हो।”

भगवती ने बड़ी प्रसन्नता से समाधि वैश्य को ज्ञान दान किया और वे स्वरूप-अवस्थित होकर परमात्मा को प्राप्त हो गये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 12, अंक 238

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आखिरी चाबी गुरुदेव ने लगायी


पूज्य बापू जी के आत्मसाक्षात्कार दिवस पर विशेष

आत्मनिष्ठ पूज्य बापू जी का सत्संग-प्रसाद

मुझको साधनाकाल में ध्यान की, गहराइयों में आनंद तो आता था और उसमें टिकने का भी सब कुछ हो गया था फिर भी रहता था कि गुरु जी जैसे तो  बने न !

मृत गाय दिया जीवन दाना,

तब से लोगों ने पहचाना।

यह सब ठीक है लेकिन मन में रहता था कि अब भी कुछ पूर्णता होनी चाहिए। 40 दिन में काम तो बन गया लेकिन पूर्णता की अब भी थोड़ी प्यास बनी रही। तो एक सुबह को लगभग साढ़े चार बजे का समय होगा। गुरुजी प्रभात को उठ जाते। कमरे में पर्दा लगा रहता। अंदर गुरु जी अपना आसन करते रहते और बाहर हम और दूसरे जो भी दो-चार खास गुरुजी के कृपापात्र होते, वे शास्त्र पढ़ते। सुबह का सत्संग चल रहा था। गुरु तो वही हैं जो शिष्य के हृदय में अधिष्ठानरूप में बैठे हैं और सब जगह हैं। आपके मन में, बुद्धि में क्या आता है उसकी गहराई में कोई है चैतन्य, वह जानता है और  गुरु जी तो उसमें स्थिति हैं। तो सुबह-सुबह गुरु जी ने क्या कृपा बरसायी, पर्दा हटा के मेरी तरफ देखा फिर इधर-उधर नजर डालकर कहाः “कुछ लोग सोचते हैं कि हैं तो हम ब्रह्म, असत्त्वापादक आवरण, अभानापादक आवरण यह सब हट गया लेकिन हम साँईं जी जैसे बन जायें।”

गुरुजी बड़े सहज थे। गुरु जी के साथ बिताया हुआ समय, उस समय इतना महत्त्वपूर्ण नहीं लगता था जितना अभी उनकी यादें रसमय हो जाती हैं। तो गुरुजी ने सिर पर गीता उठायी और कहाः “कुछ लोग सोचते हैं कि हमें अभी ऐसा होना चाहिए, अभी और थोड़ा….। अरे ! जो लीलाशाह हैं वह तू है, जो तू है वह लीलाशाह है। गीता सिर पर उठा के बोलता हूँ, अभी तो मान ले !”

उन शब्दों में क्या कृपा थी ! क्या संकल्प था ! वह खटका निकल गया। फिर भी एक खटका बना रहा कि जब हम वे ही हैं तो बैठे रहें समाधि में। शिवजी इतने साल बैठे रहते हैं, शुकदेवजी महाराज इतने साल बैठते हैं। अब मैं रोज-रोज सत्संग करूँ, इधर जाऊँ, उधर जाऊँ… इससे तो हिमालय में जाकर समाधि लगाऊँ। तो फिर गुरु जी को परिश्रम दिया हमने।

गुरुजी सत्संग करते-करते मुझ पर नजर डालते हुए कहतेः खलक जी खिज़मत खां ने भार्या बंदगी बेहतर. खलक की माने जनता की सत्संग द्वारा जो खिज़मत (सेवा) होती है, उससे बढ़कर बंदगी नहीं है, समाधि नहीं है – ऐसा गुरु जी बोलते थे और मैं समझ लेता था कि यह इधर का संकेत है।

मन है न, किसी को महत्त्व दे देता है तो बार-बार उधर को ही जाता है। जैसे सिगरेटबाज ने सिगरेट को महत्त्व दे दिया तो फिर थोड़ी देर में उठेगा, फूँकेगा। सुन तो रहे हैं लेकिन उठते ही वही करेंगे जिसको महत्त्व दिया है। ऐसे ही हमारा मन घूम-फिर के फिर वहीं…. मोक्ष कुटिया भी ऐसी बनायी कि सत्संग के अलावा के समय में ध्यान-सुमिरन भी कर सकें। फिर एक छोटी सी पुस्तक हाथ में आयी – ʹब्रह्म बावनी कथाʹ, गुजराती में थी। उसमें लिखा थाः थातुं कोई नुं ध्यान हशे तो तेनुं प्रारब्ध तेवुं हशे. मुझे संकेत मिल गया कि किसी की ध्यान समाधि लगती है तो उसका प्रारब्ध निवृत्तिप्रधान है और तुम्हारे को समय नहीं मिलता और सत्संग में गुरुजी का संकेत आ गया कि ऐसे करो तो तुम्हारा प्रारब्ध ऐसा है। इस तरह वह खटका भी निकल गया। तो एकांत में ध्यान में हैं, तब भी वही शांति-आनंद और भीड़ में आते हैं तब भी वही मस्ती ! इसको भगवान श्रीकृष्ण ने बहुत ऊँची अवस्था कहा – ʹअविकम्प योगʹ ! समाधि में हैं तो हम अविकल्प हैं लेकिन उठे, इससे मिले – उससे मिले तो आनंद-शांति खो गयी तो वह योगाभ्यासी है, ध्यानयोगी है लेकिन तत्त्वज्ञानी तो अविकम्प योग में स्थित है।

उठत बैठत ओई उटाने,

कहत कबीर हम उसी ठिकाने।

समाधि में वही सुख और लेने देने में भी वही सुख, वही शांति, वही आनंद…. इसको बोलते हैं जीवन्मुक्त ! तो बहुत-बहुत बड़ी, बहुत-बहुत…. जहाँ बहुत का भी अंत हो जाय, बड़ी का भी अंत हो जाय ऐसी स्थिति है यह। तो वह स्थिति जो एक आदमी पा सकता है, उसे सभी पा सकते हैं, केवल उधर की भूख हो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 238

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तर्क का विषय नहीं भगवान


(भगवान की मधुमय लीला)

पूज्य बापू जी मधुमय अमृतवाणी

अंतर्यामी भगवान तो सर्वत्र हैं, निर्गुण-निराकार हैं, सत्ता-स्फूर्ति देते हैं लेकिन ऐसा भगवान भी चाहिए जो आप न चाहो फिर भी आपकी कोहनी मार के जगा दे, ठेंगा दिखाकर हिला दे, कुछ-न-कुछ करके आपके अंदर छुपा अपना रसीला स्वभाव जगा दे।

आपको भगवान की यह लीला सुनकर उन पर हँसी आयेगी। तुम्हें खूब पेट भर के हँसना होगा, पेट भर के प्यारे को प्यार करना होगा – ʹमेरे दाता ! कन्हैया ! ओ प्यारे !!…ʹ

मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) में उड़िया बाबा सत्संग कर रहे थे। किसी ब्राह्मण के यहाँ ठहरे थे। उधर आने-जाने वाले एक ठाकुर पर उऩकी नजर पड़ी। वह बाबा के पास आया, वार्तालाप हुआ। वह कट्टर आर्यसमाजी था और माला घुमाता था। दोनों बातें विरुद्ध थीं।

बाबा ने पूछ लियाः “भाई ! तू तो आर्य समाजी है और माला पर ʹवासुदेवʹ का जप कर रहा है ? आर्यसमाजी लोग तो कृष्ण के नाम पर उनके भक्तों को खरी-खोटी सुनाते हैं और तू ʹ नमो भगवते वासुदेवायʹ करता है ?”

वह बोलाः “मैं भी खूब गालियाँ देता था।”

“फिर अब कृष्ण की माला क्यों घुमाते हो ?”

वह पहलवान ठाकुर उड़िया बाबा को बोलता हैः

बाबा ! मैं आपको आपबीती बताऊँगा न, तो आप भी मेरे पर हँसोगे। पहले 8-10 वर्ष की उम्र में तो मेरे को ऋषि दयानंद के दर्शन हुए थे। उनका ब्रह्मचर्य और सत्यनिष्ठा देखकर मैं तो बन गया आर्यसमाजी ! सुने सुनायें कि श्रीकृष्ण ऐसे हैं – वैसे हैं… ब्रह्मचारी के लिए श्रीकृष्ण की लीलाएँ भौहें चढ़ाने जैसी होती है। तो मैं भी भौहें चढ़ाता रहा, नाक-भौं सिकोड़ता रहा तथा कृष्ण को और कृष्णभक्तों को खरी-खोटी सुनाता रहा। अब भी आर्यसमाजी तो हूँ लेकिन मेरे साथ जो बीती है भगवान करे सबके साथ बीते।

मैं 23 साल का था तब काशी गया। वहाँ एक ठाकुर साहब थे। मैं तो जाति का ठाकुर हूँ लेकिन वे रियासतों के ठाकुर साहब थे। उनको किसी पहलवान की जरूरत थी। उन्होंने मेरे को अपने पास रख लिया। मुझे काम-धंधा मिल गया। उनके यहाँ श्रीकृष्ण का मंदिर बना हुआ था और पुजारी भी बड़े प्रेम से श्रीकृष्ण की पूजा करते थे। मैं तो ठाकुर साहब के यहाँ काम करता, दिन में तीन बार संध्या करता, यज्ञ-वज्ञ करता और बाद में समय मिले तो बस, कृष्ण और उनके भक्तों को कोसता। रात को आर्यसमाज में जाता और कृष्ण के लिए खरी-खोटी वाला भाषण करता।

ठाकुर साहब और उनके मंदिर के पुजारी कृष्णभक्त थे। इस कारण मैं पुजारी को भी सुना दिया करता थाः “तुम मूर्ति को मानते हो, पत्थर को मानते हो। यह अंधश्रद्धा है। ईश्वर निराकार है। ये है-वो है…” जो कुछ भी आता, मैं पुजारी जी को भी कोसता, श्रीकृष्ण को भी कोसता लेकिन ठाकुर साहब और पुजारी जी मुझे बड़ा स्नेह करते थे। फिर भी मेरे मन में कृष्णभक्तों के लिए और कृष्ण के लिए नाराजगी के, नफरत के जो संस्कार डाल दिये गये थे, वे उछल-उछल के मुझसे कुछ-की-कुछ बड़बड़ाहट कराते थे। एक शाम को मैंने पुजारी जी को इतना कोसा कि गालियाँ तक दे डालीं। मैंने भगवान के विरुद्ध ऐसी कड़वी बातें कहीं कि पुजारी जी की आँखों से अश्रुधाराएँ बहने लगीं। वे बहुत व्यथित होकर वहाँ से चले गये।

रात को रोज की तरह मैं जमीन पर सोया था, पुजारी जी तख्त पर सोये थे। अचानक मेरी आँखें खुली और मुझे तख्त के उस तरफ सूर्य का सा प्रकाश दिखा। देखा कि तख्त के पास एक छोरा खड़ा है और उसके शरीर से दिव्य प्रकाश निकल रहा है। मैंने कहाः “तू इधर कहाँ से आया है ? मेरा लौटा-अँगोछा कहाँ है ? जल्दी ले आ !”

वह बालक 10-12 साल का था और मेरा मजाक उड़ाते हुए हँस रहा था। उसने मुझे ठेंगा दिखाया, ʹले…..ʹ इतने से वह रूका नहीं, फिर जिह्वा भी निकाली, ʹओ….ʹ

मैं बोलाः “ऐ तू पहलवान ठाकुर के सामने ऐसा करता है ? तू क्या समझता है, अपने को ! हाथ पकड़कर तेरा ठेंगा मसल दूँगा, दिन के तारे दिखा दूँगा।”

उसने फिर से ठेंगा दिखाया, ʹले…ʹ

मेरे गुस्से का तब कोई नियंत्रक था नहीं। मैं तो स्वभाव से ही गुस्सेबाज था, पहलवान भी था। मैंने कहाः “या तो तू रहेगा या तो मैं रहूँगा। इतनी सुबह-सुबह को न अन्न, न जल और तू ठेंगा दिखाता है ! मेरी बात मानता नहीं, ऊपर से ठेंगा दिखाता है !”

उसने फिर से ठेंगा दिखाया। मैं उसको पकड़ने ज्यों तख्त के नजदीक गया, त्यों वह तख्त की उस तरफ… वह आगे, मैं पीछे…. तख्त को चक्कर लगाते रहे। वह मेरे हाथ में ही नहीं आवे और मैं कुछ का कुछ बोलूँ। तो पुजारी जी और आसपास के लोग जग गये और पूछने लगेः “अरे पहलवान ! तुमको क्या हुआ है ? अरे ठाकुर ! तुमको क्या हुआ है ?”

“मुझे क्या हुआ ? यह कितनी बदमाशी कर रहा है ! आज का छोरा हमारे जैसे पहलवानों के मुँह लगे !”

“कौन सा छोरा ?”

“आपको दिखता नहीं ! देखो, पकड़ने जाता हूँ तो भागता है, फिर कोशिश करता हूँ तो भागता है…. इसको पकड़ो ! पकड़ो इसको !!”

“ठाकुर ! तुमको क्या हो गया है ?”

“अरे, क्या हो गया उससे पूछो न ! मेरे को ठेंगा दिखाता है। अभी वह ठेंगा पकड़ के ऐसा मसलूँगा, ऊपर फैंकूँगा।”

मैं उसके पीछे-पीछे दौड़ूँ और चिल्लाऊँ- “वह देखो दौड़ता है।” मैं तख्त के चारों तरफ घूमूँ और वह मुझे ठेंगा दिखाता जाय, किसी को दिखे नहीं। ʹले…ʹ करके कभी जीभ दिखाये, कभी ठेंगा दिखाये। मैं रुकूँ तो वह रुक जाय, मैं भागूँ तो वह  भागे। मैं थक गया। आखिर देखा कि वह बालक जा के पुजारी जी की गोद में बैठ गया और अंतर्धान हो गया। उस प्रकाश से सुबह समझकर मैं लोटा-अँगोछा माँग रहा था लेकिन घड़ी देखी तो रात्रि का एक बजा था। ज्यों वह बालक अंतर्धान हुआ त्यों सवेरा रात्रि में बदल गया।

लोगों ने  बोलाः “तू श्रीकृष्ण को कोसता है न ! उन्होंने कृपा करके तुमको यह लीला दिखायी है।”

“मैं नहीं मानता हूँ ऐसे तुम्हारे गाय चराने वाले को। लीला है, ये है-वो है… तुम भगतड़ों की बातों में मैं आऩे वाला नहीं हूँ। ऐसी बातों से मैं कृष्ण को भगवान नहीं मान सकता। हाँ, अब मैं पुजारी जी को गाली नहीं दूँगा, कृष्ण को भी गाली नहीं दूँगा।”

कुछ दिन बीते-न-बीते तो ठाकुर साहब का छोरा, जो 3-4 महीने से ननिहाल गया था, मैंने देखा कि वह मंदिर में खड़ा है। वह भी 12-13 साल का ही था।

मैंने पूछाः “अरे, तू तो ननिहाल में गया था, कब आया ? इधर क्यों खड़ा है ?”

बालकः “मैं तो कल ही आ गया था।”

“अरे ! मैं दिन भर तुम्हारे घर में रहता हूँ, कल ही आये तो मेरी आँखों को तुमने क्या पट्टी बाँध दी थी ? आज यहाँ मंदिर में दिखे हो, किसको उल्लू बना रहे हो बेटे !”

वह बोलाः “बेटे-वेटे क्या ! मैं तो सबका बाप-का-बाप हूँ।”

“अरे, तू ठाकुर साहब का बेटा है। वे और मैं बराबरी के हैं तो तू मेरे बेटे बराबर है।”

“धत् तेरे की… तू काहे का मेरा बाप ! मैं बापों का बाप हूँ।”

“अरे छोरा ! तू क्या बोलता है ! तू चल, मैं तेरी ठाकुर साहब से पिटाई कराता हूँ।”

“अरे ! तेरा ठाकुर साहब और तू….. क्या पिटाई-पिटाई ? ले….? ठेंगा दिखाया उसने।

मैं ज्यों उसे पकड़ने गया त्यों छोरा मंदिर में से दौड़ा और ठाकुर साहब के घर में घुस गया।

“अरे ठाकुर साहब ! देखो, आपका लड़का ननिहाल से आया और मेरा मजाक उड़ाता है। कहाँ गया ?….”

घर के लोग बोलेः “तुमको क्या हो गया पहलवान ! वह तो 3-4 महीने से ननिहाल गया हुआ है, वह यहाँ कहाँ ?”

“अभी घर में घुस गया है।”

“जाओ, तुम्हीं खोज लो।”

मैंने घर का कोना-कोना छान मारा परंतु छोरा तो दिखे नहीं।

घर के लोगों ने कहाः “तुमको श्रीकृष्ण अपनी माया दिखा रहे हैं। तुम जिनको गालियाँ देते थे, वे गाली देने वाले का भी भला चाहते हैं। शिशुपाल ने 100-100 गालियाँ दीं तो भी उसको सदगति दे दी। कंस भी कुछ-का-कुछ बोलता था तो भी उसकी सदगति की। पूतना ने जहर पिलाया तो भी उसकी सदगति की। धेनुकासुर, बकासुर, शकटासुर, अघासुर जो मारने आये थे उनको मोक्ष दे दिया तो तुमको कैसे छोड़ेंगे ? भगवान को रीझ भजो या खीझ, वे तो प्रेमस्वरूप हैं। वे ठाकुर जी तुम्हें प्रेम की अठखेलियाँ करके सुधारना चाहते हैं।”

“अरे, छोड़ो ये सब भक्तों की बातें ! मैं ऐसे मानने वाला नहीं हूँ।”

लोग बोलेः “ठाकुर ! अभी तक तुमको भगवान की लीला समझ में नहीं आयी ?”

वह पहलवान उड़िया बाबा को बोलता हैः बाबा जी ! मैं इतने कट्टर संस्कारवाला था कि ऐसे चमत्कार देखने के बाद भी मैंने खरी-खोटी सुना दी थीः “अरे, तुम्हारा भगवान-वगवान क्या है ये ? गायें चराये, गोपियों के आगे नाचे…. कृष्ण के भक्त और कृष्ण – सब बेवकूफी की बातें हैं। तीसरी बार अच्छी तरह से दिखे तब कहीं मैं मानने की सोचूँगा।”

इस बात को 21 दिन बीत गये। 22 वें दिन मंदिर में फिर से वही छोरा दिखा। मैंने कहाः “अरे, उस दिन घर में भाग गया था फिर कहाँ चला गया था ? और तूने तो बोला था कि ʹमैं कल ही आया था।ʹ फिर पता चला की तुम आये ही नहीं थे, ननिहाल में थे।”

छोरा बोलाः “पहलवान ! तुझे पता नहीं है, खेल-खेल में हम ऐसा सब कुछ करते हैं।”

“तो पहली बार तुम्हीं आये और दूसरी बार भी तुम्हीं आये थे।”

“हाँ, खेल-खेल में हम सब करते हैं। खेल-खेल में यह मजाक चलता रहता है।”

“अच्छा, तो तुमने मेरे को मजाक का विषय बना रखा है !”

“और क्या ! जब तक तू नहीं मानेगा तब तक तेरे से मजाक कर-करके मनवाऊँगा बेटे ! तू क्या समझता है ! ठाकुर है, पहलवान है तो तेरे अहं का है। मेरी दुनिया में तो तेरे जैसे कई नचाता रहता हूँ।”

“तू इतना छोटा छोरा और कुछ-का-कुछ बोलता है ! तुझे कोई बोलनेवाला नहीं है ?”

“अरे, सबको बोलने की सत्ता मैं देता हूँ, मेरे को बोलने वाला कौन होगा ! सबकी बुद्धि का अधिष्ठान मैं हूँ।”

“बड़े बुद्धि के अधिष्ठान हो ! गायें तो चराते थे ! लोग भले ʹकृष्ण-कन्हैया लाल की जयʹ बोलते हैं लेकिन मैं तुमको ऐसा कोई मानने वाला नहीं हूँ। तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो ?”

“अरे ! जो मेरे पीछे पड़ता है मैं उसके पीछे पड़ता हूँ। तुम विरोध से पीछे पड़ते हो, कोई भावना से पीछे पड़ता है। जो भावना से पीछे पड़ता है उसको मैं रस देता हूँ और तुम्हारे जैसे को नचा-नचाकर, जरा चरपरा दे के भी पीछे पड़ता हूँ।”

“क्या मतलब ?”

“सारे मतलब काल्पनिक होते हैं।”

“तुम मेरे से आखिर क्या मनवाना चाहते हो ?”

“हम मनवाना क्या चाहते हैं ! तुम लोग जिसको गाली देते हो, ऐसा है-वैसा है… कहते हो, उसको तुम जानते हो ? तुम अपने को ही नहीं जानते हो। सुन-सुन के अपने को मान लिया ठाकुर। जरा-सी मांसपेशियाँ बढ़ाकर मान लिया पहलवान। ʹमैं बच्चा हूँ, मैं जवान हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं सुखी हूँ……ʹ – इन सब कल्पनाओं में तो जिंदगी तबाह हो गयी। तुम कौन हो ? अपने को तो जानते नहीं, मेरे को क्या खाक जानोगे ?”

मैं उनके सामने देखता रहा और उऩ्होंने मेरी आँखों में झाँका।

उड़िया बाबा को गदगद कंठ से वह ठाकुर बता रहा है कि जब तीसरी बार उस बालक ने मेरी आँखों में झाँका तब से वह मेरे से दूर नहीं होता है। बालक तो अंतर्धान हो गया लेकिन मैं पुजारी जी के चरणों में गिर पड़ा। पुजारी जी ने मेरे को गले लगाया और मंत्र दियाः नमो भगवते वासुदेवाय। तब से मैं आर्यसमाजी होने पर भी श्रीकृष्ण का भक्त हूँ। तीन-तीन बार श्रीकृष्ण आये और मुझ जैसे कट्टर विरोधी, गाली देने वाले को भी दंड के बदले तोहफा देकर गये।

भावग्रही जनार्दनः। भगवान तर्क का विषय नहीं हैं। सारे तर्क जिनसे प्रकाशित होते हैं वे अंतर्यामी भगवान हैं और सर्वव्यापक भी हैं। अंतःकरण  में हैं तो अंतर्यामी कहलाते हैं और तत्त्व रूप से ही सर्वव्यापक हैं, निराकार भगवान हैं। रसौ वै सः। परमात्मा रसस्वरूप हैं। जीवन में अगर प्रेमरस नहीं है तो आदमी नीरस होता है। श्रीकृष्ण रस बाँटने के लिए अवतरित हुए हैं। वे रस-अवतार, प्रेमावतार हैं, न चाहो तो आपको प्रेम-प्रसाद से छका देते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 18,19, 20, 21 अंक 237

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