Monthly Archives: July 2013

पुण्यों का संचयकालः चतुर्मास


(19 जुलाई से 14 नवम्बर)

(ʹपद्म पुराणʹʹस्कन्द पुराणʹ पर आधारित)

आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक भगवान विष्णु योगनिद्रा द्वारा विश्रांतियोग का आश्रय लेते हुए आत्मा में समाधिस्थ रहते हैं। इस काल को चतुर्मास कहते हैं। इस काल में किया हुआ व्रत-नियम, साधन-भजन आदि अक्षय फल प्रदान करता है।

चतुर्मास के व्रत-नियम

गुड़, ताम्बूल (पान या बीड़ा), साग वह शहद के त्याग से मनुष्य को पुण्य की प्राप्ति होती है। दूध-दही छोड़ने वाले मनुष्य को गोलोक की प्राप्ति होती है। पलाश के पत्तों में किया गया एक-एक बार का भोजन त्रिरात्र व्रत (तीन दिन तक उपवास रख कर किया गया व्रत) व चान्द्राय़ण व्रत (चंद्रमा की एक कला हो तब एक कौर इस प्रकार रोज एक-एक बढ़ाते हुए पूनम के दिन 15 कौर भोजन लें और फिर उसी प्रकार घटाते जायें) के समान पुण्यदायक और बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला है। पृथ्वी पर बैठकर प्राणों को 5 आहूतियाँ देकर मौनपूर्वक भोजन करने से मनुष्य के 5 पातक निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। पंचगव्य का पान करने वाले को चान्द्रायण व्रत का फल मिलता है। चौमासे में भूमि पर शयन करने वाले मनुष्य को निरोगता, धन, पुत्रादि की प्राप्ति होती है। उसे कभी कोढ़ की बीमारी नहीं होती।

उपवास का लाभ

चतुर्मास में रोज एक समय भोजन करने वाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता है। चतुर्मास में दोनों पक्षों (कृष्ण व शुक्ल पक्ष) की एकादशियों का व्रत व उपवास महापुण्यदायी है।

त्यागने योग्य

सावन में साग, भादों में दही, आश्विन में दूध तथा कार्तिक में दाल व करेला का त्याग।

काँसे के बर्तनों का त्याग।

विवाह आदि सकाम कर्म वर्जित हैं।

चतुर्मास में परनिंदा का विशेष रूप से त्याग करें। परनिंदा महान पाप, महान भय व महान दुःख है। परनिंदा सुनने वाला भी पापी होता है।

जो चतुर्मास में भगवत्प्रीति के लिए अपना प्रिय भोग यत्नपूर्वक त्यागता है, उसकी त्यागी हुई वस्तुएँ उसे अक्षयरूप में प्राप्त होती हैं।

ब्रह्मचर्य का पालन करें

चतुर्मास में ब्रह्मचर्य पालन करने वाले को स्वर्गलोक की प्राप्ति तथा असत्य-भाषण, क्रोध एवं पर्व के अवसर पर मैथुन का त्याग करने वाले को अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है।

जप एवं स्तोत्रपाठ का फल

जो चतुर्मास में भगवान विष्णु के आगे खड़ा होकर ʹपुरुष सूक्तʹ का पाठ करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है (ʹपुरुष सूक्तʹ के लिए पढ़ें ऋषि प्रसाद जुलाई 2012)। चतुर्मास में ʹनमो नारायणायʹ का जप करने से सौ गुने फल की प्राप्ति होती है तथा भगवान के नाम का कीर्तन और जप करने से कोटि गुना फल मिलता है।

स्नान व स्वास्थ्य-सुरक्षा

चतुर्मास में प्रतिदिन आँवला रस मिश्रित जल से स्नान करने से नित्य महापुण्य की प्राप्ति होती है। बाल्टी में 1-2 बिल्वपत्र डाल के ʹ नमः शिवायʹ का 4-5 बार जप करके स्नान करने से वायु-प्रकोप दूर होता है, स्वास्थ्य रक्षा होती है।

साधना का सुवर्णकाल

चतुर्मास साधना का सुवर्णकाल माना गया है। जिस प्रकार चींटियाँ वर्षाकाल हेतु इससे पहले के दिनों में ही अपने लिए उपयोगी साधन-संचय कर लेती हैं, उसी प्रकार साधक को भी इस अमृतोपम समय में पुण्यों की अभिवृद्धि कर परमात्म सुख की ओर आगे बढ़ना चाहिए।

चतुर्मास में शास्त्रोक्त नियम-व्रत पालन, दान, जप-ध्यान, मंत्रानुष्ठान, गौ-सेवा, हवन, स्वाध्याय, सत्पुरुषों की सेवा, संत-दर्शन व सत्संग-श्रवण आदि धर्म के पालन से महापुण्य की प्राप्ति होती है।

जो मनुष्य नियम, व्रत, अथवा जप के बिना चौमासा बिताता है, वह मूर्ख है। चतुर्मास का पुण्यलाभ लेने के लिए प्रेरित करते हुए पूज्य बापू जी कहते हैं- “तुम यह संकल्प करो कि यह जो चतुर्मास शुरु हो रहा है, उसमें हम साधना की पूँजी बढ़ायेंगे। यहाँ के रूपये तुम्हारी पूँजी नहीं हैं, तुम्हारे शरीर की पूँजी हैं। लेकिन साधना तुम्हारी पूँजी होगी, मौत के बाप की ताकत नहीं जो उसे छीन सके !ʹʹ

चतुर्मास में कोई अनुष्ठान का नियम अथवा एक समय भोजन और एकांतवास का नियम ले लो। कुछ समय ʹश्री योगवासिष्ठ महारामायणʹ या ʹईश्वर की ओरʹ पुस्तक पढ़ने अथवा सत्संग सुनने का नियम ले लो। इस प्रकार अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ-न-कुछ साधन भजन का नियम ले लेना। जो घड़ियाँ बीत गयीं वे बीत गयीं, वापस नहीं आयेंगी। जो साधन-भजन कर लिया सो कर लिया। वही असली धन है तुम्हारा।

चतुर्मास सब गुणों से युक्त समय है। अतः इसमें श्रद्धा से शुभ कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए। साधकों के लिए आश्रम के पवित्र वातावरण में मौन-मंदिरों की व्यवस्था भी है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 247

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पंचम पिता निजस्वरूप में जगाते – पूज्य बापू जी


 

आज तक तो सुना होगा कि एक पिता, एक माता लेकिन ʹएकनाथी भागवतʹ ने तो बड़ा सूक्ष्म रहस्य खोलकर रख दिया। पाँच पिता होते हैं। एक तो माता माँ के गर्भ में गर्भाधान किया, वह जन्मदाता पिता होता है। दूसरा पिता वह होता है जिसने जन्म के बाद उपनयन संस्कार किया, मानवता की विधि कर दी। खिलाने-पिलाने-पोसने का काम जिसने किया वह तीसरा पिता तथा जो भय और बंधन से छुड़ाने की दीक्षा-शिक्षा देते हैं, वे चतुर्थ पिता माने जाते हैं। ʹजो सत है, वे चित् है, आनंद है वही तू है। तुझे बंधन पहले था नहीं, अभी है नहीं, बाद में हो सकता नहीं। यह रज-वीर्य से पैदा होने वाला शरीर तू नहीं है। खा-पीकर पुष्ट होने वाली देह तू नहीं है। संस्कारों को समझने वाला मन तू नहीं है। निश्चय करने वाली बुद्धि तू नहीं है। तू है अपना-आप, हर परिस्थिति का बाप !ʹ यह अनुभव कराने वाले, जन्म मरण के भय से छुड़ाने वाले पंचम पिता सदगुरु होते हैं। माता-पिता, बंधु, सखा, दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरु – सबका दायित्व उनके द्वारा सम्पन्न हो जाता है। ऐसे महापुरुष के लिए संत कबीरजी ने कहाः

सदगुरु मेरा शूरमा, करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।

जो पहले जन्मदाता माँ-बाप हैं वे तो मोह से पालन-पोषण करेंगे लेकिन जो सच्चे बादशाह (सदगुरु) होते हैं वे प्रेम से पालन-पोषण करते हैं। मोह में माँग रहती है, प्रेम में कोई माँग नहीं। प्रेम अपने-आपमें पूर्ण है।

पूरा प्रभु आराधिया, पूरा जा का नाउ।

नानक पूरा पाइया, पूरे के गुन गाउ।।

एक प्रेम ही पूर्ण है। हिरण्यकशिपु ने दैत्यों को सुखी किया लेकिन स्वयं सुख के लिए अहंकार की गोद में बैठता था, ʹमैं भगवान हूँ।ʹ रावण ऐश-आराम की, विकारों की गोद में बैठता है, ʹयह ललना सुंदर है, यह सुन्दर है।ʹ परन्तु प्रेमदेवता के चरणों में पहुँचना बहुत ऊँची बात है !

जन्म देता है पिता तो केवल पिता ही रहता है, माता दूसरी होती है। लेकिन वह सच्चा बादशाह है जो माता की नाईं वात्सल्य भी देता है और पिता की नाईं हमारे सदज्ञान का, सदविचारों का पालन भी करता है। ब्रह्मज्ञानी गुरु तो माता, पिता, बंधु, सखा…. अरे, ब्रह्म होता है ! उस ब्रह्म परमात्मा की गति मति कोई देवी-देवता, यक्ष, राक्षस, गंधर्व, किन्नर, दुनिया के सारे बुद्धिमान मिलकर भी नहीं जान सकते।

जीव जब तक जीवित है तब तक भोग का आकर्षण रहता है। स्वर्ग का, ब्रह्मलोक का सुख जीव भोगता है, ईश्वर नहीं। जीने की, पाने की वासना रही तब तक  जीव है लेकिन जब पंचम पिता मिलता है तो जीवन और मृत्यु जिससे होती है, उस वासना पर वह ज्ञान की कुल्हाड़ी, कैंची चलाता है। ज्ञानादग्निदग्धकर्माणं…. ज्ञान से कर्मबंधन कट जाते हैं, वासना कट जाती है। वह पंचम पिता शिष्य को वास्तविक कर्तव्य बताता है। नहीं तो नासमझ लोग बोलते हैं, ʹमैं वकील हूँ, वकालत करना मेरा कर्तव्य है।ʹ ʹमैं महंत हूँ, आश्रम चलाना मेरा कर्तव्य है।ʹ ʹमैं माई हूँ, मैं भाई हूँ, यह मेरा कर्तव्य है।ʹ नहीं-नहीं बेटा ! जिसके साथ जो संबंध है उसके अनुरूप उसका भला कर लिया, अपने लिए उससे कुछ न चाहा और अपने-आपमें पूर्णता है, उसमें विश्राम पाया-यह तुम्हारा कर्तव्य है।

देखा अपने आपको मेरा दिल दिवाना हो गया।

न छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया।।

अतः शिष्य़ के लिए सदगुरु ही सच्चे माता-पिता हैं, जो उसे निजस्वरूप में जगा देते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 11, अकं 247

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दुर्भाव हटाये सदभाव जगायेः नागपंचमी


(नागपंचमीः 11 अगस्त)

श्रावण शुक्ल पंचमी को नागपंचमी का पर्व मनाया जाता है। यह नागों की पूजा का पर्व है। मनुष्यों और नागों का संबंध पौराणिक कथाओं से झलकता रहा है। शेषनाग के सहस्र फनों पर पृथ्वी टिकी है, भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषशैय्या पर सोते हैं, शिवजी के गले में सर्पों के हार हैं, कृष्ण जन्म पर नाग की सहायता से ही वसुदेवजी ने यमुना पार की थी। जनमेजय ने पिता परीक्षित की मृत्यु का बदला लेने हेतु सर्पों का नाश करने वाला जो सर्पयज्ञ आरम्भ किया था, वह आस्तीक मुनि के कहने पर इसी पंचमी के दिन बंद किया गया था। यहाँ तक कि समुद्र-मंथन के समय देवताओं की भी मदद वासुकि नाग ने की थी। अतः नाग देवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है – नागपंचमी।

श्रावण मास में ही क्यों मनाते हैं नागपंचमी

वर्षा ऋतु में वर्षा का जल धीरे-धीरे धरती में समाकर साँपों के बिलों में भर जाता है। अतः श्रावण मास के काल में साँप सुरक्षित स्थान की खोज में बाहर निकलते हैं। सम्भवतः उस समय उनकी रक्षा करने हेतु एवं सर्पभय व सर्पविष से मुक्ति के लिए हमारी भारतीय संस्कृति में इस दिन नागपूजन, उपवास आदि की परम्परा रही है।

सर्प हैं खेतों के ʹक्षेत्रपालʹ

भारत देश कृषिप्रधान देश है। साँप खेती का रक्षण करते हैं, इसलिए उसे ʹक्षेत्रपालʹ कहते हैं। जीव-जंतु, चूहे आदि जो फसल का नुकसान करने वाले तत्त्व हैं, उनका नाश करके साँप हमारे खेतों को हराभरा रखते हैं। इस तरह साँप मानवजाति की पोषण व्यवस्था का रक्षण करते हैं। ऐसे रक्षक की हम नागपंचमी को पूजा करते हैं।

कैसे मनाते हैं नागपंचमी

इस दिन कुछ लोग उपवास करते हैं। नागपूजन के लिए दरवाजे के दोनों ओर गोबर या गेरुआ या ऐपन (पिसे हुए चावल व हल्दी का गीला लेप) से नाग बनाया जाता है। कहीं-कहीं मूँज की रस्सी में 7 गाँठें लगाकर उसे साँप का आकार देते हैं। पटरे या जमीन को गोबर से लीपकर, उस पर साँप का चित्र बना के पूजा की जाती है। गंध, पुष्प, कच्चा दूध, खीर, भीगे चने, लावा आदि से नागपूजा होती है। जहाँ साँप की बाँबी दिखे, वहाँ कच्चा दूध और लावा चढ़ाया जाता है। इस दिन सर्पदर्शन बहुत शुभ माना जाता है।

नागपूजन करते समय इन 12 प्रसिद्ध नागों के नाम लिये जाते हैं – धृतराष्ट्र, कर्कोटक, अश्वतर, शंखपाल, पद्म, कम्बल, अनंत, शेष, वासुकि, पिंगल, तक्षक, कालिय और इनसे अपने परिवार की रक्षा हेतु प्रार्थना की जाती है। इस दिन सूर्यास्त के बाद जमीन खोदना निषिद्ध है।

नागपंचमी का सदभावना संदेश

यह उत्सव प्रकृति-प्रेम को उजागर करता है। हमारी भारतीय संस्कृति हिंसक प्राणियों में भी अपना आत्मदेव निहारकर सदभाव रखने की प्रेरणा देती है। नागपंचमी का  यह उत्सव नागों की पूजा तथा स्तुति द्वारा नागों के प्रति नफरत व भय को आत्मिक प्रेम व निर्भयता में  परिणत करने का संदेश देता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 26, अंक 247

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