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विद्या वही जो बंधनों से मुक्त करे – पूज्य बापूजी


जो भगवान के शुद्ध ज्ञान में शांत रहना सीखता है, मिले हुए सामर्थ्य का सदुपयोग करता है उसके जीवन में शक्तियाँ आती हैं और निर्भयता आती हैं। ऐसा नहीं कि मिली हुई सुविधा का उपयोग मोबाइल में गंदे गाने भरकर करे, यह तो लोफरों का काम है। जीवन को महकाने के समय मोबाइल फोन में गंदे गाने, गंदी शायरियाँ, गंदी फिल्मों के चित्र, प्रेमी-प्रेमिकाओं की बातें रखने से आज के युवक-युवतियों की दुर्दशा हो रही है।

रामसुखदासजी महाराज बोलते थे कि ʹआजकल तो स्कूल कालेज में बेवकूफी पढ़ाई जा रही है। ऐसा पढ़ूँ, ऐसा बनूँ…. दूसरे को ठगकर भी माल-मिल्कियत इकट्ठी करो, दूसरे को नीचा दिखाकर भी बड़े बनो… ऐसी निरी मूर्खता भरी जा रही है !ʹ

इसीलिए गुरु की बड़ी भारी महिमा है ! गुरु ज्ञान की बड़ी भारी महिमा है ! श्रीरामचन्द्रजी गुरुकुल में पढ़ते थे तो ऐसी सुंदर पढ़ाई थी कि रामचंद्रजी लक्ष्मण को संकेत करते थे कि सामने वाला पक्ष हारने की कगार पर है। लक्ष्मण समझ जाते थे इशारे से, तो जान-बूझकर लक्ष्मण हारते, राम जी हारते, उनके साथी हारते और सामने वाला जीत लेता। इनको संतोष होता कि हम हारकर भी उनको प्रसन्न कर रहे हैं, आत्मशांति है ! दोनों पक्षों में प्रसन्नता होती और आजकल क्या है ? कुछ भी करो, झठ कपट करके भी सामने वाले को हराओ और पुरस्कार ले लो। हारने वाले भी दुःखी, जीतने वालों में निरी मूढ़ता बढ़ायी जाती है। इससे तो तनाव बढ़ेगा, अशांति बढ़ेगी, भ्रष्टाचार बढ़ेगा, घमंड और अहंकार बढ़ेगा। मनुष्य मनुष्य  सताने वाला हो जायेगा। ऐसी विद्या अंग्रेजों की परम्परा से हमारे देश में चल पड़ी है।

पहले ऋषि-मुनियों की बहुत ऊँची विद्या पढ़ायी जाती थी। सभी लोग सुख-शांति से जीते थे। घर में ताला नहीं लगाना पड़ता था। अभी तो ताला लगाओ, ताले के  ऊपर दूसरा ताला लगाओ फिर भी सुरक्षा नहीं। बैंक में खाता खुलवाओ फिर भी नकली हस्ताक्षर से कुछ-का-कुछ हो जाता है। यह विद्या ऐसी है कि बोफोर्स घोटाला करो, हवाला कांड करो, 2जी घोटाला करो, कोयला घोटाला करो लेकिन अपने को कड़ा बनाओ। बड़े ठग बन जाते हैं, बड़े शोषक बन जाते हैं और कितना भी धन और बड़ा पद पा लिया किंतु भूख नहीं मिटती। एक दूसरे को गिराते, लड़ते-लड़ते बूढ़े होकर मर जाते हैं फिर प्रेत होकर भटकते रहते हैं। मूर्खता ही तो है !

सा विद्या या विमुक्तये।

असली विद्या तो वह है जो आपको विकारों से, दुःखों से, चिंताओं से, जन्म मरण से, शोक से रहित करके आत्मा-परमात्मा से एकाकार करे।

दुर्लभो मानुषो देहो देहीनां क्षणभंगुरः।

तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम्।।

ʹमनुष्यदेह मिलना दुर्लभ है। वह मिल जाय तो भी क्षणभंगुर है। ऐसी क्षणभंगुर मनुष्य देह में भी भगवान के प्रिय संतजनों का दर्शन तो उससे भी अधिक दुर्लभ है।ʹ

मनुष्य जीवन बड़ी मुश्किल से मिला है। इसे ʹहा-हा, ही-हीʹ डायलागबाजी या फिल्मबाजी में तबाह नहीं करना है। कब मर जायें, कहाँ मौत हो जाये कोई पता नहीं। उससे भी ज्यादा दुर्लभ है परमात्मा के प्यारे संतों का दर्शन-सत्संग। संतों के दर्शन-सत्संग के बाद भी अगर डायलाग और फिल्म अच्छी लगती है तो डूब मरो ! बिल्कुल देर ही मत करो। विवेक में डूबो। पानी में डूबेंगे तो फिर मछली बनेंगे, मेढक बनेंगे। इसीलिए ज्ञान में डूबो, भगवान की पुकार में डूबो, भगवान की शरण में डूबो।

ʹभविष्य में मेरा क्या होगा ?ʹ इसकी चिंता न करो। चिंता करनी है तो इस बात की करो कि ʹसुख-दुःख से हम अप्रभावित कैसे रहें ? सादगी से कैसे जियें ? सच्चाई और स्नेह से सम्पन्न कैसे हों ? बिना वस्तुओं, व्यक्तियों व सुविधाओं के स्वनिर्भर कैसे रहें ? और अपने स्व से, ʹमैंʹ स्वरूप परमात्मा से कैसे मिलें ?ʹ ऐसा प्रयत्न करना चाहिए अन्यथा ʹही-ही, हू-हूʹ करते हुए जवानी चली जायेगी। इसीलिए अब घमंड करके मत जियो। अपनी गलती को खोज-खोज के निकालो और भगवान को अपना मानो। अगर गलती नहीं निकलती है तो उसे पुकारोः ʹहे भगवान ! मेरे मन में यह गलती है, आप कृपा करो।ʹ

अपना भाव, कर्म और ज्ञान शुद्ध होना चाहिए। ज्ञान शुद्ध होगा तो लोफर-लोफरियों के चित्र अच्छे नहीं लगेंगे। लौकिक ज्ञान भ्रामक स्थिति में उलझा सकता है। आधिदैविक ज्ञान आधिदैविक आकर्षणों में फँसा सकता है। लेकिन आत्मा-परमात्मा का ज्ञान व भाव और आत्मा-परमात्मा की प्रीति के लिए किए हुए कर्म आपको नैष्कर्म्य सिद्धि (निष्कर्म, निर्लिप्त परमात्म-तत्त्व) में, भगवदभाव में स्थित कर देंगे और ʹभगवान का आत्मा और मेरा आत्मा एक हैʹ ऐसा आपमें ईश्वरीय संकल्प ला देंगे, बिल्कुल पक्की बात है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 248

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स्त्रियों के भूषण सात सदगुण – पूज्य बापू जी


जिस स्त्री में सात दिव्य गुण होते हैं, उसमें साक्षात भगवान का ओज तेज निवास करता है। एक है ʹकीर्तिʹ अर्थात् आसपास के लोगों का आपके ऊपर विश्वास हो। अड़ोस-पड़ोस के लोग आप में विश्वास करें, ऐसी आप सदाचारिणी हो जाओ। यह भगवान की कीर्ति का गुण है। लोगों का विश्वास हो कि ʹयह महिला बदचलन नहीं है, झूठ-कपट करके ठगेगी नहीं।ʹ आप बोलें तो आपकी बात पर लोग विश्वास करें। कीर्ति में ईश्वर का वास होता है।

दूसरा ʹश्रीʹ माने सच्चरित्रता का सौंदर्य हो। चरित्र की पवित्रता हर कार्य में सफल बनाती है। जिसका जीवन संयमी है, सच्चरित्रता से परिपूर्ण है उसकी गाथा इतिहास के पन्नों पर गायी जाती है। व्यक्तित्व का निर्माण चरित्र से ही होता है। बाह्यरूप से व्यक्ति भले ही सुंदर हो, निपुण गायक हो, बड़े-से-बड़ा कवि हो, चमक-दमक व फैशन वाले कपड़े पहनता हो परंतु यदि वह चरित्रवान नहीं है तो समाज में उसे सम्मानित स्थान नहीं मिल सकता। उसे तो हर जगह अपमान, अनादर ही मिलता है। चरित्रहीन व्यक्ति आत्मसंतोष और आत्मसुख से वंचित रहता है। अतः अपना चरित्र पवित्र होना चाहिए।

स्वयं अमानी और दूसरों को मान देने वाली वाणी बोलो। यह ʹमधुर वाणीʹ रूपी तीसरा गुण है। कम बोलें, सच बोलें, प्रिय बोलें, सारगर्भित बोलें, हितकर बोलें।

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय।।

चौथा गुण है ʹस्मृतिʹजो काम करना है वह भूल गये या जरा-जरा बात में ʹमैं भूल गयी…ʹ नहीं। आपका स्मृति का सदगुण विकसित हो इसलिए मैं ૐઽઽઽઽ का प्रयोग करवाता हूँ। इससे स्मृति में भगवान का ओज व समता रहती है।

पाँचवा गुण है ʹमेधाʹ अर्थात् अचानक प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो सारभूत निर्णय लेने की ताकत।

छठा गुण है ʹधैर्यʹ अर्थात् इन्द्रियों को धारण करने की, नियंत्रित करने की शक्ति। ऐसा नहीं कि कहीं कुछ देखा, खरीद लिया। बढ़िया दिखा, खा लिया। नाक बोलती है, ʹजरा परफ्यूम सूँघ लो।ʹ पैर बोलते हैं, ʹजरा फिल्म में ले जाओ।ʹ नहीं, संयम से। किधर पैरों को जाने देना, किधर आँख को जाने देना, इस बारे में धैर्य से, नियम से रहें। जरा-जरा बात में उत्तेजित-आकर्षित नहीं हो जाना।

सातवाँ गुण है ʹक्षमाʹक्षमा स्त्री की सुंदरता, हृदय की सुंदरता है। अपराधी को सजा देने के ताकत है फिर भी उसका मंगल सोचते हुए क्षमा करने का यह ईश्वरीय गुण आपके जीवन में हो। कभी सासु से अपराध हुआ, कभी बहू, पति या पड़ोसी से हुआ तो कभी किसी से अपराध हुआ, उसके अपराध को याद कर-करके अपना दिल दुखाओ नहीं व उसको भी बार-बार उसके अपराध की याद दिलाकर दुःखी मत करो। अपराधी को भी उसके मंगल की भावना से क्षमा कर दो। अगर उसको दंड देकर उसका मंगल होता है तो दंड दो लेकिन क्षमा के, मंगल के भाव से ! गंगाजी तिनका बहाने में देर करें परंतु तुम क्षमा करने में देर मत करो।

अश्वत्थामा ने द्रौपदी के बेटों को मार दिया। अर्जुन उसे पकड़कर ले आये और बोलेः “अब इसका सिर काट देते हैं। इसके सिर पर पैर रखकर तू स्नान कर। अपने बेटों को मारने वाले को दंड देकर तू अपना शोक मिटा।”

द्रौपदीः “नहीं-नहीं, मुच्यतां मुच्यतामेष…. छोड दो, इसे छोड़ दोष अभी एक माँ रोती है अपने बेटे के शोक में। यह भी तो किसी का बेटा है। फिर दो माताएँ रोयेंगी। नहीं-नहीं, क्षमा !”

इन सात सदगुणों में भगवान का सामर्थ्य होता है। ये सदगुण सत्संग और मंत्रजप वाले के जीवन में सहज में आ जाते हैं। इन्हें सभी अपने जीवन में ला सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 248

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राष्ट्रभाषाः देश का स्वाभिमान, संस्कृति की पहचान


राष्ट्रभाषा दिवसः 14 सितम्बर

भारतीय सभ्यता में विभिन्नताओं के बावजूद हमारा आचार-विचार, व्यवहार सभी एक मूल धारा से जुड़ा है और उसी का नाम है संस्कृति, जिसकी संहिता है संस्कृत भाषा में। देश की तमाम भाषाएँ संस्कृत भाषा कि पुत्रियाँ मानी जाती हैं, जिनमें पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोये रखने का महान कार्य करने वाली ज्येष्ठ पुत्री है हमारी राष्ट्रभाषा ʹहिन्दीʹ। देश की अन्य भाषाएँ उसकी सहयोगी बहने हैं, जो एकता में अनेकता व अनेकता में एकता का आदर्श प्रस्तुत करती हैं। प्राचीन काल में संस्कृत भाषा के विशाल साहित्य के माध्यम से जीवन-निर्माण की नींव रखी गयी थी। उसी से प्रेरित और उसी का युग-अनुरूप सुविकसित मधुर फल है राष्ट्रभाषा हिन्दी का साहित्य। आज भी इस विशाल साहित्य के माध्यम से नीतिमत्ता के निर्देश, ईश्वर के आदेश, ऋषियों के आदेश, ऋषियों के उपदेश और महापुरुषों के संदेश हमारे जीवन की बगिया को सुविकसित करते हुए महकता उपवन बना रहे हैं।

अंग्रेजी शासन से पूर्व हमारे देश में सभी कार्य हिन्दी में किये जाते थे। मैकाले की शिक्षा-पद्धति विद्यालयों में आयी और विद्यार्थियों को अंग्रेजी में पढ़ाया जाने लगा, उसी में भावों को अभिव्यक्त करने के लिए मजबूर किया जाने लगा। हिन्दी को केवल एक भाषा विषय की जंजीरों में बाँध दिया गया, जिसके दुष्परिणाम सामने हैं।

अंग्रेजी भाषा के दुष्परिणाम

गांधी जी कहते थेः “विदेशी भाषा के माध्यम ने बच्चों के दिमाग को शिथिल कर दिया है। उनके स्नायुओं पर अनावश्यक जोर डाला है, उन्हें रट्टू और नकलची बना दिया है तथा मौलिक कार्यों और विचारों के लिए सर्वथा अयोग्य बना दिया है। इसकी वजह से वे अपनी शिक्षा का सार अपने परिवार के लोगों तथा आम जनता तक पहुँचाने में असमर्थ हो गये हैं। यह वर्तमान शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा करूण पहलू है। विदेशी माध्यम ने हमारी भाषाओँ की प्रगति और विकास को रोक दिया है। कोई भी देश नकलचियों की जाति पैदा करके राष्ट्र नहीं बन सकता।”

लौहपुरुष सरदार पटेल कहा कहते थेः “विदेशी भाषा के माध्यम द्वारा शिक्षा देने के तरीके से हमारे युवकों की बुद्धि के विकास में बड़ी कठिनाई पैदा होती है। उनका बहुत-सा समय उस भाषा को सीखने में ही चला जाता है और इतने समय के बावजूद यह कहना कठिन होता है कि उन्हें शब्दों का ठीक-ठाक अर्थ कितना आ गया।”

भ्रांतियों से सत्यता की ओर…..

मैकाले की शिक्षा पद्धति के गुलाम आज के व्यक्तियों द्वारा हमारी भोली-भाली युवा पीढ़ी को भ्रमित करने के लिए अंग्रेजी के पक्ष में कई तर्क दिये जाते हैं, जिनका सच्चाई से कोई संबंध नहीं होता। जैसे – वे कहते हैं कि ʹअंग्रेजी बहुत समृद्ध भाषा है।ʹ परंतु किसी भी भाषा की समृद्धि इस बात से तय होती है कि उसमें कितने मूल शब्द हैं। अंग्रेजी में सिर्फ 12000 मूल शब्द हैं। बाकी के सारे शब्द चोरी के हैं अर्थात् लैटिन, फ्रैंच, ग्रीक भाषाओं के हैं। इस भाषा की गरीबी तो इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है कि अंग्रेजी में चाचा, मामा, फूफा, ताऊ सबको ʹअंकलʹ और चाची, मामी, बुआ, ताई सबको ʹआँटीʹ कहते हैं। जबकि हिन्दी में 70000 मूल शब्द हैं। इस प्रकार भाषा के क्षेत्र में अंग्रेजी कंगाल है।

मैकाले की शिक्षा पद्धति के गुलाम कहते हैं कि ʹअंग्रेजी नहीं होगी तो विज्ञान व तकनीक की पढ़ाई नहीं हो सकतीʹ परंतु जापान एवं फ्रांस में विज्ञान व तकनीक की पढ़ाई बिना अंग्रेजी के बड़ी उच्चतर रीति से पढ़ायी जाती है। पूरे जापान में इंजीनियरिंग तथा चिकित्सा के जितने भी महाविद्यालय व विश्वविद्यालय हैं, सबमें जापानी भाषा में पढ़ाई होती है। जापान के लोग विदेश भी जाते हैं तो आपस में जापानी में ही बात करते हैं। जापान ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपनी भाषा में ही अध्ययन करके उन्नति की है, जिसका लोहा पूरा विश्व मानता है। इसी तरह फ्रांस में बचपन से लेकर उच्च शिक्षा तक पूरी शिक्षा फ्रेंच भाषा में दी जाती है।

इसके विपरीत हमारे देश में अंग्रेजी भाषा के प्रशिक्षण को राष्ट्रीय एवं राजकीय कोषों से आर्थिक सहायता द्वारा प्रोत्साहन दिया जा रहा है। संसद, न्यायपालिका आदि महत्त्वपूर्ण प्रणालियों में भी अंग्रेजी को प्रधानता मिल रही है। इससे केवल उच्च वर्ग ही इनका लाभ ले पा रहा है। ʹअंग्रेजी युवा पीढ़ी की माँग हैʹ – ऐसा बहाना बनाकर विज्ञापनों के माध्यम से भाषा की तोड़-मरोड़ करके अपनी ही राष्ट्रभाषा का घोर तिरस्कार किया जा रहा है। उसका सुंदर, विशुद्ध स्वरूप विकृत कर उसमें अंग्रेजी के शब्दों की मिलावट करके टीवी धारावाहिकों, चलचित्रों आदि के माध्यम से सबको सम्मोहित किया जा रहा है।

अंग्रेजी का दुष्परिणाम  इतना बढ़ गया है कि बच्चों के लिए अपनी माँ को ʹमाता श्रीʹ कहना तो दूर ʹमाँʹ कहना भी दूभर होता जा रहा है। जिस भाषा में वात्सल्यमयी माँ को ʹमम्मीʹ (मसाला लगाकर रखी हुई लाश) और जीवित पिता को ʹडैडीʹ (डेड यानी मुर्दा) कहना सिखाया जाता है, उसी भाषा को बढ़ावा देने के लिए हमारे संस्कार प्रधान देश की जनता के खून-पसीने की कमाई को खर्च किया जाना कहाँ तक उचित है ?

बुराई का तुरन्त इलाज होना चाहिए

गांधी जी कहते थेः “अंग्रेजी सीखने के लिए हमारा जो विचारहीन मोह है, उससे खुद मुक्त होकर और समाज को मुक्त करके हम भारतीय जनता की एक बड़ी-से-बड़ी सेवा कर सकते हैं। अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिये दी जाने वाली शिक्षा बंद कर दूँ और सारे शिक्षकों व प्राध्यापकों से यह माध्यम तुरंत बदलवा दूँ या उन्हें बरखास्त करा दूँ। मैं पाठ्यपुस्तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूँगा। वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे अपने-आप चली आयेंगी। यह एक ऐसी बुराई है, जिसका तुरंत इलाज होना चाहिए।”

मातृभाषा हो शिक्षा का माध्यम

बच्चा जिस परिवेश में पलता है, जिस भाषा को सुनता है, जिसमें बोलना सीखता है उसके उसका घनिष्ठ संबंध व अपनत्व हो जाता है। और यदि वही भाषा उसकी शिक्षा का माध्यम बनती है तो वह विद्यालय में आत्मीयता का अनुभव करने लगता है। उसे किसी भी विषय को समझने के लिए अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। दूसरी भाषा को सीखने-समझने में लगने वाला समय उसका बच जाता है। इस विषय़ में गांधी जी कहते हैं- “राष्ट्रीयता टिकाये रखने के लिए किसी भी देश के बच्चों को नीची या ऊँची – सारी शिक्षा उनकी मातृभाषा के जरिये ही मिलनी चाहिए। यह स्वयं सिद्ध बात है कि जब तक किसी देश के नौजवान ऐसी भाषा में शिक्षा पाकर उसे पचा न लें जिसे प्रजा समझ सके, तब तक वे अपने देश की जनता के साथ न तो जीता-जागता संबंध पैदा कर सकते हैं और न उसे कायम रख सकते हैं।

हमारी पहली और बड़ी-से-बड़ी समाजसेवा यह होगी की हम अपनी प्रांतीय भाषाओं का उपयोग शुरु करें और हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में उसका स्वाभाविक स्थान दें। प्रांतीय कामकाज प्रांतीय भाषाओं में करें और राष्टीय कामकाज हिन्दी में करें। जब तक हमारे विद्यालय और महाविद्यालय प्रांतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षण देना शुरु नहीं करते, तब तक हमें इस दिशा में लगातार कोशिश करनी चाहिए।”

तो आइये, हम सब भी गांधी जी की चाह में अपना सहयोग प्रदान करें। हे देशप्रेमियो ! अपनी मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा का विशुद्ध रूप से प्रयोग करें और करने के लिए दूसरों को प्रोत्साहित करें। हे आज के स्वतंत्रता-संग्रामियो ! अब देश को अंग्रेजी की मानसिक गुलामी से भी मुक्त कीजिये। क्रान्तिवीरो ! पूरे देश में अपनी इन भाषाओं में ही शिक्षा और कामकाज की माँग बुलन्द कीजिये। आपके व्यक्तिगत एवं संगठित सुप्रयास शीघ्र ही रंग लायेंगे और सिद्ध कर देंगे कि हमें अपने देश से प्रेम है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 18,19,20 अंक 248

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