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दुर्भाव हटाये सदभाव जगायेः नागपंचमी


(नागपंचमीः 11 अगस्त)

श्रावण शुक्ल पंचमी को नागपंचमी का पर्व मनाया जाता है। यह नागों की पूजा का पर्व है। मनुष्यों और नागों का संबंध पौराणिक कथाओं से झलकता रहा है। शेषनाग के सहस्र फनों पर पृथ्वी टिकी है, भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषशैय्या पर सोते हैं, शिवजी के गले में सर्पों के हार हैं, कृष्ण जन्म पर नाग की सहायता से ही वसुदेवजी ने यमुना पार की थी। जनमेजय ने पिता परीक्षित की मृत्यु का बदला लेने हेतु सर्पों का नाश करने वाला जो सर्पयज्ञ आरम्भ किया था, वह आस्तीक मुनि के कहने पर इसी पंचमी के दिन बंद किया गया था। यहाँ तक कि समुद्र-मंथन के समय देवताओं की भी मदद वासुकि नाग ने की थी। अतः नाग देवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है – नागपंचमी।

श्रावण मास में ही क्यों मनाते हैं नागपंचमी

वर्षा ऋतु में वर्षा का जल धीरे-धीरे धरती में समाकर साँपों के बिलों में भर जाता है। अतः श्रावण मास के काल में साँप सुरक्षित स्थान की खोज में बाहर निकलते हैं। सम्भवतः उस समय उनकी रक्षा करने हेतु एवं सर्पभय व सर्पविष से मुक्ति के लिए हमारी भारतीय संस्कृति में इस दिन नागपूजन, उपवास आदि की परम्परा रही है।

सर्प हैं खेतों के ʹक्षेत्रपालʹ

भारत देश कृषिप्रधान देश है। साँप खेती का रक्षण करते हैं, इसलिए उसे ʹक्षेत्रपालʹ कहते हैं। जीव-जंतु, चूहे आदि जो फसल का नुकसान करने वाले तत्त्व हैं, उनका नाश करके साँप हमारे खेतों को हराभरा रखते हैं। इस तरह साँप मानवजाति की पोषण व्यवस्था का रक्षण करते हैं। ऐसे रक्षक की हम नागपंचमी को पूजा करते हैं।

कैसे मनाते हैं नागपंचमी

इस दिन कुछ लोग उपवास करते हैं। नागपूजन के लिए दरवाजे के दोनों ओर गोबर या गेरुआ या ऐपन (पिसे हुए चावल व हल्दी का गीला लेप) से नाग बनाया जाता है। कहीं-कहीं मूँज की रस्सी में 7 गाँठें लगाकर उसे साँप का आकार देते हैं। पटरे या जमीन को गोबर से लीपकर, उस पर साँप का चित्र बना के पूजा की जाती है। गंध, पुष्प, कच्चा दूध, खीर, भीगे चने, लावा आदि से नागपूजा होती है। जहाँ साँप की बाँबी दिखे, वहाँ कच्चा दूध और लावा चढ़ाया जाता है। इस दिन सर्पदर्शन बहुत शुभ माना जाता है।

नागपूजन करते समय इन 12 प्रसिद्ध नागों के नाम लिये जाते हैं – धृतराष्ट्र, कर्कोटक, अश्वतर, शंखपाल, पद्म, कम्बल, अनंत, शेष, वासुकि, पिंगल, तक्षक, कालिय और इनसे अपने परिवार की रक्षा हेतु प्रार्थना की जाती है। इस दिन सूर्यास्त के बाद जमीन खोदना निषिद्ध है।

नागपंचमी का सदभावना संदेश

यह उत्सव प्रकृति-प्रेम को उजागर करता है। हमारी भारतीय संस्कृति हिंसक प्राणियों में भी अपना आत्मदेव निहारकर सदभाव रखने की प्रेरणा देती है। नागपंचमी का  यह उत्सव नागों की पूजा तथा स्तुति द्वारा नागों के प्रति नफरत व भय को आत्मिक प्रेम व निर्भयता में  परिणत करने का संदेश देता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 26, अंक 247

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जो सदगुरु से करता तादात्म्य विश्व गाता उसका माहात्म्य


पूज्य बापू जी

रोम के बादशाह ने सोने की सलाई और सोने-चाँदी व रत्नों से जड़ित डिब्बी में दो आँखों में लग सकें इतना सुरमा भारत के राजा को भेजा और कहलवाया कि ʹकोई भी अंधा आदमी अगर इस सुरमे को लगायेगा तो वह देखने लग जायेगा।ʹ वह भारत के राजा की परीक्षा लेना चाहता था कि ʹ भारत के चक्रवर्ती राजा और उनके मंत्रियों की सूझबूझ अगर ऊँची है तो हम रोम के लोग उनसे मैत्री करेंगे और अगर उनकी सूझबूझ छोटी है तो हम उन पर चढ़ाई करके उन्हें हरायेंगे। रोम के दूत ने भारत के राजा को सुरमे की महिमा सुनाकर डिब्बी सादर अर्पण की। राजा बड़ा खुश हुआ कि ʹमेरा खास, ईमानदार, दूरदर्शी प्रधानमंत्री जिसके विचारों के कारण मैं कई जगहों पर विजयी हुआ हूँ, उसकी अंध बनी आँखें वापस देखने लग जायें यह मेरा कर्तव्य है।ʹ

यदि कोई अधिकारी राजा या नेता के प्रति वफादार है तो राजा या नेता का भी कर्तव्य है कि उस अधिकारी का भविष्य उज्जवल हो।

राजा ने अपना कर्तव्य निभाया और अपने खास मंत्री को बुलाकर कहाः “लो, आज मैं मेरे दायें हाथस्वरूप मंत्री की सेवा करने सफल हो रहा हूँ।” उसको सुरमे की महिमा बताकर बोलाः “जल्दी करो, तुम देखने लग जाओगे।”

मंत्री ने तनिक शांत होकर, जो गुरु ने बताया था उस तालबद्धता का, श्वास का, जप का अनुसंधान करके एक सलाई दाँयीं आँख में आँजी और वह देखने लग गया। उसके चेहरे पर खुशी की लहर तो नहीं दौड़ी लेकिन जिज्ञासा की गम्भीरता आ गयी कि ʹयह सुरमा तो मात्र दो आँखों के लिए ही है परंतु मेरे जैसे तो राज्य में और कई अंधे होंगे !

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।

हे गुरुदेव ! इस सुरमे को बनाते समय क्या-क्या भावना की गयी है ?ʹ इस प्रकार उसने अपने गुरु के आत्मा के साथ, गुरु के चित्त के साथ तादात्म्य किया तथा फिर दूसरी सलाई दूसरी आँख में डालने की जगह अपनी जिह्वा पर घुमा दी और तनिक शांत हो गया। वह समझ गया कि सुरमा घोटते समय किस-किस मिश्रण की भावना दी गयी है – गुलाब के अर्क की, इन्द्रवर्णा की, देशी गाय का पुराना घी आदि-आदि की। उसके चेहरे पर गम्भीर प्रसन्नता छा गयी। युद्ध के मैदान में विजेता की क्या खुशी है, उससे भी बड़ी दिव्य, आत्मिक खुशी !

मंत्री बोलाः “राजन् ! अब 1-2 आदमियों की आँखें नहीं, राज्य में जिनकी आँखों का पानी सूख गया है या जो नहीं देख सकते हैं उन सभी की खोयी हुई आँखें वापस आ जायेंगी।”

“अरे, यह सब क्या बातें करता है भावुकता की ? अब एक आँख में तो आँजा, दूसरी आँख का सुरमा तुम जिह्वा पर चाटने लग ये ! लोग तुमको काना बोलेंगे। मेरा मंत्री काना रहे ! मुझे दुःख दिया तुमने।”

“नहीं महाराज ! मैंने आपको दुःख नहीं दिया, मैं आपको गजब की खुशी दूँगा कि इस सुरमे में क्या-क्या वस्तु पड़ी है, वह मुझे अंतर्प्रेरणा हो गयी है। स्वाद से भी और अंतरात्मा से भी, दोनों की सहमति हो गयी है। मैं इस दूत को आपके सामने कहता हूँ कि डिब्बी में तुम लाये थे जरा सा सुरमा लेकिन अब यह डिब्बी मैं तुमको भर के दूँगा और रोम-नरेश  को बोलना कि पूरे रोम अथवा विश्व के जितने भी आदमी अंधे हों, उनकी आँखों के लिए आप सुरमा भारत से मँगवा लिया करना। सुरमें में क्या-क्या है वह सब मुझे पता चल गया है।”

जो रोम-नरेश से दूत ने सारी बात कही तो वह गदगद हो गया और कहाः “जिसके राज्य में प्रकृति से तालमेल तथा प्रकृति की गहराई में परमात्मा से तालमेल और श्वासोच्छवास की तालबद्धता जानने वाले मंत्री हैं, ऐसे राज्य पर चढ़ाई करना महँगा सौदा है। हम भारत-नरेश के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ायेंगे।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 247

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आत्ममहिमा में जगाने वाला पर्वःगुरूपूनम – पूज्य बापू जी


जन्म-जन्मांतर तक भटकाने वाली बुद्धि को बदलकर ऋतम्भरा प्रज्ञा बना दें, रागवाली बुद्धि को हटाकर आत्मरति वाली बुद्धि पैदा कर दें, ऐसे कोई सदगुरु मिल जायें तो वे अज्ञान का हरण करके, जन्म-मरण के बंधनों को काटकर तुम्हें स्वरूप में स्थापित कर देते हैं। आज तक तुमने दुनिया का जो कुछ भी जाना है, वह आत्मा-परमात्मा के ज्ञान के आगे दो कौड़ी का भी नहीं है। वह सब मृत्यु के एक झटके में अनजाना हो जायेगा लेकिन सदगुरु तो दिल में छुपे हुए दिलबर का ही दीदार करा देते हैं। ऐसे समर्थ सदगुरुओं की दीक्षा जब हमें मिल जाती है तो जीवन की आधी साधना तो ऐसे ही पूरी हो जाती है।

यदि तुम अज्ञान में ही मंत्र जपते जाओगे तो मंत्रजप का फल होगा तुम्हारी वासनापूर्ति और वासनापूर्ति हुई तो तुम भोग भोगोगे। समाधि से उठे तो योग कम्पित हो जाता है, भोगों में भी योग कम्पित हो जाता है लेकिन एक ऐसी अवस्था है कि भोग और योग दोनों बौने हो जाते हैं। ब्रह्मज्ञानी भोगते हुए भी अभोक्ता हैं, करते हुए भी अकर्ता हैं, खिन्न होते हुए भी खिन्न नहीं हैं, ऐसे अपने पद में पूर्ण हैं। उसी को बोलते हैं-

पूरा प्रभु आराधिया, पूरा जा का नाउ।

नानक पूरा पाइया, पूरे के गुन गाउ।।

पूरा पाइये। इन्द्र पद पूरा नहीं है, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पद पूरा नहीं है। राष्ट्रपति पद से उतरे हुए लोगों को देखो, इन्द्र पद से उतरे हुए लोगों को भी कैसी-कैसी योनियों में भटकना पड़ता है ! ब्रह्मपद ही पूरा है !

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।…..

ऐसे आत्मानुभव से तृप्त महापुरुषों की, ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं की पूजा का जो पावन दिन है, वही गुरुपूनम है।

गुरूपूनम का संदेश

ʹव्यासपूर्णिमाʹ का उद्देश्य है कि आपके जीवन की शैली सुव्यवस्थित हो जाय। सुख आपको गुलाम न बनाये, दुःख आपको दबोचे नहीं। मृत्यु का भय आपको सताये नहीं क्योंकि आपकी कभी मौत हो नहीं सकती। जब भी मरेगा तो मरने वाला शरीर मरेगा। तुमको मौत का बाप भी नहीं मार सकता और भगवान भी नहीं मार सकता और भगवान भी नहीं मार सकते क्योंकि भगवान का आत्मा और तुम्हारा आत्मा एक ही है। घड़े का आकाश और महाकाश एक ही है।

जो गुरु से वफादार है वह मृत्यु के समय मौत के सिर पर पैर रखकर अमरता की तरफ चला जाता है। सत्संग हमें अमर कर देता है, अमर ज्ञान देता है, अमर जीवन की खबर देता है।

गुरूपूनम का पावन संदेश

आप नहा धोकर तिलक लगा के फिर ठाकुरजी को नहलाओ, तिलक लगाओ – ऐसी व्यवस्था है, ऐसी परम्परा है ताकि आपको पता चले कि ʹजो ठाकुर जी हैं, वे मेरे आत्म-ठाकुरजी के बल से सुन्दर बनते हैं। मैं ही सौंदर्य का विधाता हूँ। देवमूर्ति, गुरुमूर्ति, गुरु-भगवान, ये भगवान…. इस मुझ भगवान से ही  उनकी सिद्धि होती है।ʹ कब तक नाक रगड़ते रहोगे ? मरने वाला शरीर आप नहीं हो, दुःखी होने वाला मन आप नहीं हो, चिंतित होने वाला चित्त आप नहीं हो। आप इन सबको जानते हो। आप जानने वाले को जान लो तो आपका दीदार करने वाला निहाल हो जायेगा। आपकी नूरानी निगाहें जिन पर पड़ेंगी, वे खुशहाल होने लगेंगे। आपको छूकर जो हवाएँ जायेंगी, वे भी लोगों को पाप-ताप से मुक्त करके सत्संगी बना देंगी। जिसको आत्मप्रीति मिलती है, वृक्षादि का भी कल्याण करने की आध्यात्मिक आभा उसके पास होती है। आप कितने महान हैं, आपको पता नहीं। आप कितने सुखस्वरूप हैं, आपको पता नहीं।

आज पक्का कर लो कि यह गुरुपूर्णिमा हमें गुरु बनाने के लिए है। विषय विकार हमें लघु बनाते हैं। ज्ञान-वैराग्य, विवेक और भगवत्प्राप्ति की ख्वाहिश हमें गुरु बना देती है। गुरु माना ऊँचे सुख का धनी, ऊँचे ज्ञान का धनी, ऊँचे-में-ऊँचे रब का धनी। ईश्वर ने आपको दास बनाने के लिए सृष्टि नहीं बनायी है। आप ईश्वर के हो, ईश्वर आपके हैं। सिकुड़-सिकुड़कर भीख मत माँगो। देवो भूत्वा देवं यजेत्। ʹदेव होकर देव का पूजन करें।ʹ

जो नानक जी के समय में नानक जी को देखते होंगे, उनको कितनी आसानी  हुई होगी ! हयात महापुरुष को देखने सुनने से आत्मज्ञान में बड़ी आसानी हो जाती है। कबीर जी, नानक जी हो गये, तब हो गये लेकिन अभी भी तो कोई हैं, हमारी आँखों के सामने हैं। उनसे कितना उत्साह मिलता है, कितना विश्वास अडिग होता है ! हमें भी हयात महापुरुष लीलाशाहजी प्रभु मिले तो हमें बड़ी आसानी हो गयी और तुम्हें भी आसानी है। फिर काहे को ढीलापन, काहे को लिहाज रखते हो ? परिस्थितियों का ज्यादा लिहाज न रखो, ज्यादा इंतजार मत करे। चल पड़ो जहाँ सदगुरु तुम्हें ले जाना चाहते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 247

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