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कसाई से भी घातक कुप्रचारक


पूज्य बापू जी

महात्मा बुद्ध की बहुत निंदा चलती थी, महावीर स्वामी की बहुत निंदा चली। ऐसा धरती पर कोई महापुरुष नहीं हुआ जिसकी निंदा न हुई हो, आज तक का इतिहास देखो। कोई हमारा हाथ तोड़ दे, पैर तोड़ दे अथवा कोई हमारा सिर तोड़ दे तो इतना  घाटा नहीं होता, जितना घाटा हमारी श्रद्धा तोड़ने वाला अभागा करता है। श्रद्धा तोड़ने वाला बहुत खतरनाक व्यक्ति है। ईश्वरप्राप्ति के रास्ते पर चलते-चलते साधक श्रद्धा टूटने से गिर जाते हैं, फिर चलते हैं फिर गिरते हैं। हमारे जीवन में ऐसा नहीं हुआ तो हमारा काम जल्दी हो गया।

जो दूसरों की श्रद्धा तोड़ते हैं वे कसाई से भी ज्यादा घातक होते हैं। कसाई तो एक बार ही जान लेता है और वह श्रद्धा तोड़ के तो चौरासी लाख जनमों तक उसकी जान लेता रहेगा। किसी का हाथ तोड़ना, पैर तोड़ना – ये तो पाप हैं लेकिन श्रद्धा तोड़ना अत्यंत भयंकर पाप है। हमें भी श्रद्धा तोड़ने वाले बहुत मिले, ‘इतना सुंदर है, इतना कमाता है, पत्नी रो रही है, भाई बिलख रहा है, माँ बिलख रही है। साँईं तुम्हारे गाँव में आयें तो सत्संग सुन लिया करो।’ – ऐसी अक्ल देने वाले मेरे को कम नहीं मिले। गुरु से चालबाजी करना अपने मुक्तिफल को गिराना है, अपने लिए भविष्य अंधकारमय करना है। कई आये श्रद्धा तोड़ने वाले लोग लेकिन हम डटे रहे। किसी को दो प्रतिशत फायदा हुआ, किसी को दस, किसी को पन्द्रह पर सौ प्रतिशत फायदे के लिए तो सौ प्रतिशत श्रद्धा चाहिए। तो अपनी मान्यता के अनुसार एक जन्म नहीं हजार जन्म जियो, आखिर में गिर जाता है आदमी। इसलिए बोलते हैं, ‘शास्त्र के अनुसार चलो।’ रामकृष्णदेव ने अपनी मान्यता के अनुसार काली माता को तो प्रकट कर लिया  लेकिन काली माता ने कहा कि ‘गुरु जी की शरण जाओ।’ नामदेव जी ने अपनी मान्यता के अनुसार विट्ठल को प्रकट कर लिया लेकिन विट्ठल ने कहाः ‘विनोबा खेचर के पास जाओ।’ यह क्या रहस्य है ! हमें अपना मनमाना करके इतना ज्ञान मिल सकता था क्या ? किताबें पढ़ के इतना ज्ञान ले सकते थे क्या ? जो ज्ञान सत्संग से मिलता है और जितनी ऊँचाई होती है वह हजार जन्म की तपस्या से भी नहीं होती। इसलिए सत्संग तो भगवान से भी बड़ा है। अर्जुन को कृष्ण भगवान मिले फिर भी शोक नहीं मिटा, सत्संग मिला तब शोक मिटा। सेवा और सत्संग…. सेवा से सुख लेने की वासना मिटती है और सत्संग से अज्ञान मिटता है।

किसी को गुरु के द्वार पर पहुँचाना यह ईश्वर के विभूति योग में भागीदार होना है और किसी को ईश्वर के रास्ते से हटाना यह ईश्वर के माया कूप में, नरक  में जाने में भागीदार होना है। ईश्वर के दो वैभव हैं – योग और विभूति। तो जो ईश्वर के रास्ते जाता है, ईश्वर के रास्ते जाने में मदद करता है वह ईश्वर के योग और विभूति को पाता है। इसलिए महात्माओं के जीवन में ईश्वर का वैभव दिखता है और साधकों के जीवन में महात्मा की कृपा का चमत्कार दिखता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2014, पृष्ठ संख्या 4, अंक 253

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‘हरि’ की महिमा अपरम्पार


पूज्य बापू जी

इंदिरा गाँधी जिनके चरणों में मत्था टेकती थी वे आनंदमयी माँ अपने आश्रम में भी आयी थीं। मैं भी उनके आश्रम में आता-जाता रहता। इंदिरा गाँधी की गुरु आनंदमयी माँ जहाँ मत्था टेकती थीं वे थे हरि बाबा।

एक बार हरि बाबा यात्रा करते हुए कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक किसान पर उनकी नजर पड़ी। वह हल चला रहा था। बाबा तो बाबा होते हैं भाई ! आ गयी रहमत उस पर। किसान के पास गये और बोलेः “भाई ! दोपहर हो गयी है, आओ अब थोड़ी देर हरि नाम कीर्तन करते हैं।”

किसान बोलाः “बाबा ! आपका रास्ता अलग है, मेरा अलग है। आप तो रोटी माँगकर खा लोगे। मैं तो बाल बच्चे वाला हूँ। यह हल छोड़कर तुम्हारे साथ कीर्तन करूँगा तो मेरा क्या होगा ?”

“देख भैया ! तेरा हल मैं चलाता हूँ, तू थोड़ी देर हरिनाम ले ले। हरि ॐ…. हरि ॐ….. प्यारे ॐ…. हरि ॐ… ऐसा कर ले।”

“बाबा ! आप अपने रास्ते जाओ, काहे को मुझे परेशान कर रहे हो ?”

“अरे बेटा ! परेशानी तो तब है जब हरि से विमुख होते हैं।”

ऐसा कह के बाबा ने बैल की रस्सी एक हाथ में ले ली और दूसरे हाथ से हल का डंडा पकड़ा और उसको बोलेः “तू यहाँ हरि ॐ….. हरे राम….. हरे राम…. नाम ले। मैं तेरा हल चलाता हूँ।”

बाबा का ऐसा जादू छा गया कि वह बोलाः “अच्छा बाबा ! तो क्या बोलना है ?”

बोलेः “हरि ॐ…. हरि ॐ… हे हरि… हरि… जैसा भी आये कहो। हरि… हरि…. यह दो अक्षर का नाम लेगा तो अभी-अभी तेरा मंगल हो जायेगा। क्योंकि जो पाप हर ले वह है हरि, हर समय जो साथ-सहकार दे वह है हरि, हर दिल में जो बसा है वह है हरि।

हरति पातकानि दुःखानि शोकानि इति श्रीहरि।

बेटे ! हरि की महिमा अपरम्पार है ! तू महिमा सुन – न सुन केवल हरि…. हरि…. बोल।”

बाबा ने उनके सामने थोड़ी देर तो हरि का नाम लिया। फिर तो वह निर्दोष था, ज्यादा बेईमान, कपटी, छली नहीं था। उसके पाप तो हरि ने हर लिये और वह जोर-जोर से ‘हरि ॐ… हरि  ॐ…’ कहकर झूमने लगा। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। नृत्य के साथ वह ऐसा पावन हुआ कि उसकी बुद्धि में बुद्धिदाता का अनोखा दिव्य प्रभाव आया। उस किसान ने बाबा के हाथ से बैलों की रस्सी ले ली और उनके चरण पकड़कर फूट-फूट के रोने लगाः “बाबा ! बाबा !….”

बोलेः “क्या है बेटा ?”

“बाबा ! बाबा !…”

ऐसा तो वह प्यार-प्यार में बावरा हो गया कि आसपास के लोग दौड़-दौड़कर आये और बोलेः “क्या बात है ? पागल हो गया है ?”

बोलाः “हाँ, मैं पागल हो गया हूँ। गल को मैंने पा लिया है कि कैसे हरि को बुलाकर अपने हृदय में प्रकट किया जाय। मैंने तो बाबा का पहले अपमान कर दिया था लेकिन बाबा ने अपमान करने वाले को भी सम्मानित बना दिया। बाबा ! बाबा !….”

उसका चेहरा देखकर दूसरे किसानों के चेहरे भी खिल उठे।

“अरे, मेरी तरफ देखते क्या हो प्यारे ! बोलो हरि ॐ… हरि ॐ….”

वे किसान भी बोलने लगेः ! “हरि ॐ… हरि ॐ…” सारा टोला “हरि ॐ….. हरि ॐ…” ऐसा करते-करते सबको ऐसा रंग लगा कि हरि के नाम से आसपास के सारे किसान तो इकट्ठे हुए ही, साथ ही गाँव में जो आज तक अतिवृष्टि, अनावृष्टि, झगड़े, मार-काट, शराब, यह-वह होता था, वे सारे ऐब चले गये, सारी समस्यायें चली गयीं। हरिपुर ग्राम बन गया।

संत कबीर जी बोलते हैं- साहेब है मेरो रंगरेज। वह साहेब मेरा हरि है जो हर दिल में रहता है। उस परमात्मा के हजार नामों में से एक नाम है ‘हरि’। जो पाप, दुःख हर लेता है, अपनी कृपा भर देता है, हरदम रहता है, मरने के बाद भी हमारा साथ नहीं छोड़ता उस भगवान का नाम हरि है। तो भगवान के नाम में अदभुत शक्ति है।

सतयुग में बारह साल सत्यव्रत की तपस्या करते तब जाकर कुछ मिले, त्रेता में तप करे, द्वापर में यज्ञ व ईश्वर की उपासना करे लेकिन कलियुग में तो सिर्फ ‘हरि ॐ…. हरि ॐ…’ करे तो ऐसा काम बने-

कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।

गावत नर पावहिं भव थाहा।।

(श्री रामचरित. उ.कां. 102.2)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2014, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 253

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