वेद सनातन सत्य है, अपौरूषेय है। उस वेद की वाणी उपनिषदों में और उपनिषदों का प्रसाद भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में प्रकट करवाया है। गीता श्रीकृष्ण के अनुभव की पोथी है। भगवान कहते हैं- गीता मे हृदयं पार्थ। ‘गीता मेरा हृदय है।’ गीता में शांति पाने के 6 उपाय बताये गये हैं।
किसी जगह पर जाकर आने से शांति पायी तो आपने शांति को पहचाना ही नहीं। असली शांति सदगुरु की कृपाकुंजी के बिना मिलती ही नहीं।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम्…. उसे परम शांति कहते हैं। इस परम शांति को पाने के उपाय गीता में श्रीकृष्ण बता रहे हैं।
एक, वैराग्य हो। विवेक से ही वैराग्य आता है। कुछ आ गया, कुछ झटका लग गया और वैराग्य हो गया, वह श्मशानी वैराग्य है। पत्नी ने कुछ कह दिया और पत्नी से वैराग्य हो गया, धंधे में घाटा पड़ा और वैराग्य हो गया, टिकट नहीं मिली तो राजनीति से वैराग्य हो गया… यह वैराग्य नहीं है। सत्संग के द्वारा सूझबूझ बढ़ी कि अनित्य शरीर है, अऩित्य वस्तुएँ हैं, हिरण्यकशिपु जैसी उपलब्धियों के बाद भी पतन है, रावण के जैसी उपलब्धियों के बाद भी जीवन नगण्य है, आखिर कोई सार नहीं – ऐसा वैराग्य ! विवेक के द्वारा वैराग्य जगे।
दूसरा, श्रद्धा। शास्त्र, भगवान और आत्मवेत्ता महापुरुषों के प्रति श्रद्धा। श्रद्धा एक ऐसा अमृत-रस है, एक ऐसा सम्बल है कि निराशा की खाई में गिरे हुए व्यक्ति को आशा की सीढ़ी मिल जाती है, हतोत्साही को उत्साह मिल जाता है। रूखे हृदय में मधुरता का संचार करने का काम श्रद्धादेवी का है। मैँ बच्चे की जैसे संभाल रखती है, उससे भी ज्यादा सुरक्षा कर देती है श्रद्धादेवी। जीवन में श्रद्धा बहुत जरूरी है लेकिन श्रद्धा के साथ तत्परता और इन्द्रिय-संयम बेड़ा पार कर देता है। श्रद्धा ईश्वर से मिलाने में अदभुत साथ-सहकार देती है लेकिन वह अगर सत्संग, ज्ञान और गुरु के संकेत के बिना की है तो वह चकरावे में भी डाल देती है।
अपनी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ की तो गुरु महाराज हैं, नहीं तो बोरी बिस्तर बाँधकर चलते बने, यह श्रद्धा नहीं। और श्रद्धेय के हृदय को चोट न लगे ऐसा श्रद्धालु का ध्यान होता है तथा श्रद्धेय के सिद्धान्त में अपना मन वाह ! वाह !! वाह !!!….’
तेरे फूलों से भी प्यार, तेरे काँटों से भी प्यार।
जो देना चाहे दे दे करतार, हमें दोनों हैं स्वीकार।।
क्योंकि देने वाले हाथ किसके हैं ? हाथों का महत्त्व है। श्रद्धा इसका नाम है ! मेरे गुरु जी ने जब भी मुझे कभी कुछ कहा तो बाहर के लोग समझते होंगे अथवा जो मुझे गुरु शरण से भगाना चाहते थे वे लोग सोचते होंगे कि ‘गुरु जी इनको कोसते हैं’ लेकिन मेरे गुरु जी मुझे कोसें ऐसे नहीं थे। वे किसी को नहीं कोसते थे। साँप को प्यार कर सकते हैं वे, बिच्छू नाम के पौधे का भी हित चाहते हैं, ऐसे मेरे गुरु जी मेरे को क्या कोसेंगे ? हाँ मेरी गलती है अथवा किसी ने गलत जानकारी दी है तो गुरु जी ने भले की भावना से कहा है न ! बस, बात पूरी हो गयी।
साधु ते होई न कारज हानी।
ब्रह्म गिआनी ते कछु बुरा न भइया।।
ऐसी श्रद्धा हो !
तीसरा, गीताकार कहते हैं कि आपके जीवन में भगवद्-अर्थ कर्म हों। यश, सुविधा के लिए कर्म करते हैं, वासना के अनुसार काम करते हैं तो भवबंधन में फँसते हैं। भगवत्प्रीति के लिए कर्म करो फिर चाहे वह कर्म बाहर से बढ़िया दिखे, चाहे घटिया दिखे। जैसे – एक ब्रह्मचारी रात्रि को लंका में दर-दर चक्कर काट रहे हैं…. हनुमान जी की गरिमा से बहुत तुच्छ काम हैं लेकिन
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम।
श्री रामचरित. सुं.कां. 1
लंका की गली-गली खोजते हैं, घर-घर छानते हैं कि ‘सीता जी कहाँ हैं…. सीता जी कहाँ हैं ?’ न जाने किन-किन राक्षसी बच्चियों को, माइयो को और गंदे लोगों को देखते-देखते भी सीता जी की खोज जारी रखते हैं क्योंकि काम किसका है ? स्वामी का है… तो भगवद्-अर्थ कर्म हों।
जो गुरु के जी में आये या गुरु का संकेत मिले, वह काम आपको प्यारा लगे भगवद्-संकेत, गुरु-संकेत से, तब सझना कि आपका कर्म वासनारहित है, भगवद् और गुरु प्रसन्नता के लिए है।
चौथी बात है कि आपके अंदर में भक्ति हो। भक्ति ऐसी नहीं हो कि बाँके बिहारी के लिए भक्ति हुई और बेटा नहीं हुआ तो बाँके बिहारी को निकाल दिया, दिल से निकाल दिया। ये भक्त के लक्षण नहीं हैं।
पाँचवाँ है महापुरुषों की शरण।
भगवान कहते हैं- ‘उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दंडवत् प्रणाम करने से, उऩकी सेवा करने से व कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।’ (गीताः 4.34)
और छठी बात है कि सब रूपों में मेरा महेश्वर ही है। आप दीन-हीन, गरीब को देखते हैं तो ‘यह बेचारा गरीब है और मैं इसको नहीं देता तो क्या होता….’ इस वहम में मत पड़ना। ‘गरीब के रूप में भी वही मेरा जगत्पति जगदीश्वर, महेश्वर है। माँ-बाप के रूप में, गुरु के रूप में, अमीर के रूप में, कंगले के रूप में…. अरे, कुत्ते के रूप में भी वह उसका उपभोग करने वाला मेरा चैतन्य है।’ – यह नजरिया मिल जाये तो काम बन जाय !
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।। (गीताः 5.29)
मैं यज्ञ का, तप का फल भोगने वाला सबका अंतरात्मा महेश्वर हूँ, ईश्वरों का ईश्वर हूँ। देव की पूजा करते हो अथवा मुख्य देव ब्रह्मा-विष्णु-महेश की पूजा-उपासना करते हो तब भी उस महेश्वर के संकल्प से ही, उस अंतर्यामी देव की कृपा से ही आपका मनोरथ फलता है। गुरुदेव की उपासना करते हो, प्रार्थना करते हो तब भी गुरुदेव के अंतरात्मा के चैतन्य से ही फलता है। अर्थात् जो भी देव हैं उन देवों में वास्तविक देव वह सर्व-अनुस्यूत परब्रह्म परमात्मा है और ‘वे परमात्मा मेरे सुहृद हैं’ ऐसा जो जानता है, मानता है उसको परमात्म-शांति सहज में मिलती है। आप ऐसे भगवान का चिंतन करके शांत होने का अभ्यास करो।
मैं आबू की नल गुफा में रहता था। वहाँ मनोहरलाल नाम का एक तारबाबू आया था। वह कोई साधक नहीं था। मुझे किराये का अच्छा मकान मिल जाये, यह आशीर्वाद लेने सुबह-सुबह आया था बंदा। मैंने कहाः “अभी थोड़ी देर बैठो आँखें मूंदकर भगवान का नाम लो फिर मैं बात करता हूँ।” वह बैठा तो बैठा…. सुबह साढ़े छः के पास आसपास आया होगा, सूर्य को मैंने लाल देखा था उस समय। 9, बज गये, 10 बज गये…. मैंने कहाः ‘अब बैठा है तो बेचारे को बैठने दें।’ ऐसे करते-करते आखिर मुझे शाम का लाल सूर्य दिखाई दिया, करीब छः बजे होंगे। सुबह साढ़े छः बजे का बैठा शाम के छः बज गये उसी आसन पर बैठे ! और वह कोई साधक नहीं था, शाकाहारी नहीं था। अंडा खाने वाला, दारू पीने वाला था। आज्ञा मानी, बैठा तो सुबह और शाम को सूर्यास्त के समय मैंने उसको उठाया। मैंने पूछाः “क्या है ?” आया था किराये का मकान मिले इसलिए, लेकिन ऐसे मकान में (अपने वास्तविक घर में) अनजाने में गति हो गयी कि बोलेः “बस….” अहोभाव से भर गया। अपना मनमाना कितना भी करें…. हजारों वर्ष तपस्या की थी हिरण्यकशिपु ने, रावण ने ! आपकी एकाग्रता उनके आगे क्या मायना रखती है ! आपकी योग्यता उनकी योग्यताओं के आगे क्या मायना रखती है ! फिर भी वे संसार से हार के गये। शबरी भीलन, रैदासजी, धन्ना जाट, सदना संसार से जीत गये क्योंकि
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
ऐसे आत्मानुभवी गुरु जिनको मिले हैं, वे धनभागी हैं ! ईश्वरप्राप्ति की इच्छा जिनकी तीव्र है उनको भी धन्यवाद है ! उनके माँ बाप को भी धन्यवाद है, नमस्कार है !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 6,7,10 अंक 267
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