Monthly Archives: March 2015

Rishi Prasad 267 Mar 2015

आप भी यह कला सीख लो – पूज्य बापू जी


श्री हनुमान जयंती

हनुमानजी के पास अष्टसिद्धियाँ, नवनिधियाँ थीं लेकिन हनुमान जी को तड़प थी पूर्णता की, परमेश्वर-तत्त्व के साक्षात्कार की। जो सृष्टि के आदि में था, अभी हैं और महाप्रलय के बाद में भी रहेगा, उस परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए हनुमान जी राम की सेवा में लग गये… बिनशर्ती शरणागति ! हनुमानजी साधारण नहीं थे, बालब्रह्मचारी थे। राम जी और लखनजी को कंधे पर उठाकर उड़ान भरते थे। रूप बदलकर राम जी की परीक्षा ले रहे थे और ‘राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।’ ऐसे कर्मनिष्ठ भी थे। हनुमानजी निःस्वार्थ कर्मयोगी भी थे, भक्त भी थे, ज्ञानिनामग्रगण्यम्….. ज्ञानियों में अग्रगण्य माने जाते थे लेकिन उऩ्होंने भी इस तत्त्वज्ञान को पाने के लिए रामजी की बिनशर्ती शरणागति स्वीकार की।
हनुमानजी के जीवन में मैनाक-सुवर्ण के पर्वत का लोभ नहीं, संग्रह नहीं और त्याग का अहंकार नहीं है। जो सुवर्ण के पर्वत को त्याग सकता है, वही सोने की लंका से सकुशल बाहर भी आ सकता है।
हनुमान जी की शीघ्र प्रसन्नता के लिए
ऐसे हनुमानजी शीघ्र प्रसन्न हो इसके लिए आप उऩकी बाह्य आकृति की वांछा (इच्छा) छोड़कर वे जिस अंतर्यामी राम में शांत होते थे, विश्रांति पाते थे, उस अपने आत्मदेव में विश्रांति पाने की कला सीख लो। सूर्यदेव को प्रसन्न करना हो तो भी, देवी-देवताओं को प्रसन्न करना है तो भी और आपको देखकर लोग प्रसन्न हो जायें ऐसा चाहते हों तो भी यही कुंजी है, ‘गुरुचाबी’ है जो सारे ताले खोल देती है। रात को सोते समय अपने आत्मा में विश्रान्ति पाओ, सुबह उठते समय अपने आत्मदेव में….. और बाहर व्यवहार करते-कराते भी आत्मविश्रांति….. ॐ आनन्द….. ॐ शांति…. ॐॐ
ऊठत बैठत आई उटाने, कहत कबीर हम उसी ठिकाने।
सूझबूझ उधर बनी रहे, महत्त्व उसका बना रहे।
अपने भक्त को बतायी थी यह साधना
गुजरात के जूनागढ़ निकटवर्ती धंधुसर गाँव में एक संत रहते थे। उनका नाम था उगमशी। उनको हनुमान जी के प्रति आस्था थी। हनुमानजी का ध्यानादि धरते थे। उस आस्था ने हनुमानजी को प्रकट कर दिया।
हनुमानजी पधारे तो उगमशी महाराज ने उनकी स्तुति की और कहाः “आप ही मेरे गुरुजी है….” तो हनुमानजी ने उनको मंत्र दिया। मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य होता है कि हनुमानजी रामभक्त हैं।
‘प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।’ हमने सुना है कि हनुमानजी ‘राम-राम’ जपते हैं लेकिन हनुमान जी ने उगमशी को यह ‘सोऽहम्’ की साधना बतायी। वे ऊँचे पात्र रहे होंगे। हनुमानजी ने कहा कि “श्वास अंदर जाय तो ‘सोऽ’ और बाहर आये तो ‘हम्’।” हालाँकि यह हनुमानजी ने बतायी इसलिए साधना महत्त्वपूर्ण है – ऐसा नहीं, यह साधना तो अनादिकाल की है। यह तो बड़े-बड़े योगी लोग जानते हैं, करते हैं। लेकिन हनुमानजी जैसे रामभक्त भी अपने प्रिय भक्त को ‘सोऽहम्’ की साधना बताते हैं तो मुझे लगा कि आशारामभी यह साधना जानते हैं तो अब अपने भक्तों को बताने में देर क्या करना ?
‘सोऽहम्’ की साधना से वे उगमशी बड़े उच्च कोटि के संत हो गये, तो मैं भी चाहता हूँ कि मेरे साधक भी उच्च कोटि के हो जायें, श्वासोच्छ्वास में इस साधना का आरम्भ कर दो आज से। इस साधना के प्रभाव से संत उगमशी ने अपने आत्मवैभव को पाया। उनकी वाणी हैः
सोऽहम् मंत्र दियो सदगुरु ने, मेरे सदगुरु पवनकुमार।
कहे उगमशी जति परतापे, ये भवसागर तारणहार।।
जपो मन अजपा समरणसार (सुमिरनसार)…….
उगमशी कहते हैं कि उनको ‘सोऽहम्’ मंत्र सदगुरु पवनकुमार अर्थात् हनुमान जी ने दिया। जति परतापे…. वे जति अर्थात् ब्रह्मचारी हैं। ये भवसागर तारणहार अर्थात् जन्म मरण से मुक्त करने वाली साधना है, आम आदमी के लिए नहीं है।
तुम्हारे जीवन में जो बदल रहा है, उसमें विशेषता प्रकृति की है। जैसे मन, बुद्धि, अहंकार, पंचभौतिक शरीर बदलता है तो ये प्रकृति के हैं लेकिन जो अबदल है, वह परमात्मा है। मन बदला, बुद्धि बदली, शरीर बदला… उन सबको तुम जान रहे हो। तो जो जान रहा है वह मेरा आत्मा-परमात्मा है। श्वास अंदर जाय तो ‘सोऽ’ बाहर आये तो ‘हम्’। बहुत ऊँची, जल्दी ईश्वरप्राप्ति कराने वाली साधना है। हनुमान जयंती पर इन बातों को ध्यान में रखना।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 267
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Rishi Prasad 267 Mar 2015

अब विज्ञान भी गा रहा है अध्यात्म की महिमा


यूएसए के ओहियो विश्वविद्यालय के एक अध्ययन से सामने आया है कि ‘जो लोग ईश्वरीय सत्ता को मानते हैं वे ज्यादा आश्वस्त और सुरक्षित रहते हैं। ऐसे लोगों का मनोबल सामान्य लोगों की तुलना में बढ़ जाता है और वे विपरीत परिस्थितियाँ तथा रोग का आक्रमण नास्तिक या कारणवादियों की तुलना में आसानी से झेल पाते हैं। अध्यात्म की शरण लेने से मनुष्य अपने को ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है। ‘ विश्वविद्यालय द्वारा तीन साल तक किये इस अध्ययन में 28 हजार लोगों में बीमार पाये गये 7 हजार से अधिक सदस्यों में 80 प्रतिशत संख्या नास्तिकों की थी। उन्हें मधुमेह, हृदयरोग, तनाव, अनियंत्रित रक्तचाप जैसे राजरोग थे।
हडर्सफील्ड विश्वविद्यालय (इंगलैण्ड) की वरिष्ठ व्याख्याता एवं उच्च परिचारक व्यवसायी मेलानी रॉजर्स का कहना हैः “अध्यात्म मरीजों और उपचारकों – दोनों के लिए जीवन का अर्थ और वास्तविक लक्ष्य की आवश्यकता बताकर उन्हें सँभाले रखने में मदद करता है। यह दोनों में समान रूप से प्रतिरोध-क्षमता को बढ़ाता है एवं मरीज के रूग्णता और संकट के समय के अनुभव को बेहतर करता है।” उसके अनुसार “कभी-कभी मरीज जीवन में आशा खो देते हैं। अध्यात्म मरीजों के ठीक होने में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बहुत से लोग अध्यात्म को अव्यवहारिक मानते हैं जबकि अध्यात्म बहुत ही व्यवहारिक है।”
जहाँ आधुनिक मशीनें, महँगी दवाएँ एवं बड़े-बड़े चिकित्सक हाथ खड़े कर देते हैं, ऐसी गम्भीर बीमारियों से पीड़ित लोग भी ईश्वर एवं ईश्वरप्राप्त महापुरुषों पर श्रद्धा-विश्वास करके मौत के मुँह से निकल आते हैं। ऐसे असंख्य लोगों के अनुभव हमें देखने-पढ़ने को मिलते रहते हैं।
आज विज्ञान भी मान रहा है कि अध्यात्म (ईश्वर एवं ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों) में आस्था-विश्वास रखने वाला व्यक्ति चिंता, तनाव, अशांति से बचकर स्वस्थ एवं सुखी जीवन जीता है पर अध्यात्म से जुड़ने के केवल इतने ही फायदे नहीं हैं। विज्ञान तो सिर्फ इसके स्थूल फायदों का ही हिसाब लगा सकता है, जो कि इससे होने वाले लाभों के सामने नगण्य है। अध्यात्म क्या है इसका वास्तविक अर्थ तो भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है और अध्यात्म का रहस्य एवं पूरा फायदा तो अध्यात्म-तत्त्व (परमात्मा) का अनुभव किये हुए महापुरुषों के चरणों में जाने से ही पता चलता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैः
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैः विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।
‘जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्तिरूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्ण रूप से नष्ट हो गयी हैं – वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं।’ (गीताः 15.5)
वे सुख-दुःख में सम रहते हैं और अव्यय, अविनाशी पद को पाते हैं। जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाते हैं। स तृप्तो भवति। सः अमृतो भवति। स तरति लोकांस्तारयति। वे तृप्त होते हैं, अमृतमय होते हैं। वे तरते हैं, औरों को तारते हैं। अमृतमय आत्मा में एकाकार पुरुषों की उपलब्धि अदभुत है। उनकी कृपा से लोगों के शरीर व मन के रोग तो कुछ भी नहीं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार – ये रोग भी नियंत्रित हो जाते हैं और देर-सवेर परमात्म-पद को पाकर वे अध्यात्म-तत्त्व में, परमात्मस्वरूप में स्थित हो जाते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 27 अंक 267
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