मोहन के पिता का बचपन में ही स्वर्गवास हो गया था। गरीब ब्राह्मणी ने अपने इकलौते बेटे को गाँव से 5 मील दूर गुरुकुल में प्रवेश करवाया। गुरुकुल जाते समय बीच में जंगल का रास्ता पड़ता था। एक दिन घर लौटने में मोहन को देर हो गयी। भयानक जानवरों की आवाजें आने लगीं – कहीं चीता, कहीं शेर तो कहीं सियार… मोहन थर-थर काँपने लगा। वह जैसे-तैसे करके जंगल से बाहर निकला। उसकी माँ राह देख रही थी। माँ ने कहाः “बेटा क्यों डरता है ?”
मोहनः “माँ ! अँधेरा हो गया था। हिंसक प्राणियों की भयानक आवाजें आ रही थीं इसलिए बड़ा डर लगता था। भगवान का नाम लेता-लेता मैं किसी तरह भाग आया।”
“तू अपने बड़े भाई को बुला लेता।”
“माँ ! मेरा कोई भाई भी है क्या ?”
“हाँ-हाँ बेटा !”
“कहाँ है ?”
“जहाँ से बुलाओ, वहीं आ जाता है।”
“मेरे भाई का नाम क्या है माँ ?”
“बेटा ! तेरे भाई का नाम है गोपाल। परंतु कोई उसको गोपाल बुलाता है, कोई गोविन्द, कोई कृष्ण तो कोई केशव….। जब भी डर लगे तब तू ‘गोपाल भैया ! गोपाल भैया !…’ करके उसको पुकारना तो वह आ जायेगा।”
दूसरे दिन भी गुरुकुल से लौटते समय देर हो गयी तो जंगल में मोहन को डर लगा। उसने पुकाराः “गोपाल भैया ! गोपाल भैया ! आ जाओ न, मुझे बड़ा डर लग रहा है….।”
इतने में मोहन को बड़ा ही मधुर स्वर सुनाई दियाः “भैया ! तू डर मत। मैं यह आया।”
गोपाल भैया का हाथ पकड़कर मोहन निडर होकर चलने लगा। जंगल की सीमा तक मोहन को लौटाकर गोपाल लौटने लगा।
मोहनः “गोपाल भैया ! घर चलो।”
गोपालः “नहीं भैया ! मुझे और भी काम हैं।”
घर जाकर मोहन ने माँ को सारी बात बतायी, माँ समझ गयी कि जो दयामय प्रभु द्रौपदी और गजेन्द्र की पुकार पर दौड़ पड़े थे, मेरे भोले, निर्दोष और दृढ़ श्रद्धा वाले बालक की पुकार पर भी वे ही आये थे।
अब मोहन वन में पहुँचते ही गोपाल भैया को पुकारता और वे झट आ जाते। एक दिन गुरुकुल में सारे बच्चे और कुछ शिक्षक उपस्थित हुए। गुरु जी के यहाँ दूसरे दिन श्राद्ध था। कौन बच्चा इन निमित्त क्या लायेगा – इस पर बातचीत हो रही थी। किसी ने कहाः “मैं शक्कर लाऊँगा।”
किसी ने कहाः “चावल लाऊँगा।”
किसी ने कहाः “चरौली और इलायची लाऊँगा।”
मोहन गरीब था, फिर भी उसने कहाः “गुरु जी ! गुरु जी ! मैं दूध लाऊँगा।”
मोहन ने घर जाकर गुरु जी के यहाँ श्राद्ध की बात बतायी और कहाः “माँ ! मुझे भी एक लोटा दूध ले जाना है।”
गरीब माँ कहाँ से दूध लाती ? माँ ने कहाः “बेटा ! जब गुरुकुल जायेगा न, तो गोपाल भैया से दूध माँग लेना, वे ले आयेंगे।”
दूसरे दिन मोहन ने जंगल में जाते ही गोपाल भैया को पुकारा और कहाः “आज मेरे गुरु जी के पिता का श्राद्ध है। मुझे एक लोटा दूध ले जाना है। माँ ने कहा है कि गोपाल भैया से माँग लेना।”
गोपाल ने मोहन के हाथ में दूध से भरा लोटा दे दिया।
मोहन लोटा लेकर गुरुकुल पहुँचा और बोलाः “गुरुजी ! गुरु जी ! गोपाल भैया ने दूध भेजा है।”
गुरु जी व्यस्त थे, सामने तक न देखा। उन्हें पता था कि गरीब मोहन क्या लाया होगा।
मोहन ने फिर से कहा तो गुरु जी बोलेः “बैठ अभी।”
थोड़ी देर बाद मोहन फिर बोलाः “गुरु जी ! दूध लाया हूँ। गोपाल भैया ने दिया है।”
गुरु जी ने कहाः “सेवक ! ले जा। जरा-सा दूध लाया है और सिर खपा दिया। जा, इसका लोटा खाली कर दे।”
सेवक लोटा ले गया। खाली बर्तन में दूध डाला। बर्तन भर गया। दूसरे बर्तन में डाला, दूसरा बर्तन भी भर गया। जितने बर्तनों में दूध डालता बर्तन भर जाते पर लोटा खाली होता। सेवक चौंका। उसने जाकर गुरु जी को बताया।
गुरु जीः “कहाँ से लाया है यह अक्षयपात्र ?”
मोहनः “एक मेरे गोपाल भैया हैं, उनसे माँगकर लाया हूँ। मेरी पुकार सुनते ही वे आ जाते हैं ?”
“तेरी आवाज सुनकर तेरे गोपाल भैया कैसे आ जाते हैं ?”
“मेरी माँ ने बताया था कि कोई यदि प्रेम से और विश्वास से उसको पुकारे, ध्यान करे तो वह प्रकट हो जाता है।” उसने प्रारम्भ से सारी घटना बतायी।
गुरु जी ने मोहन को प्रणाम किया और कहाः “मोहन ! मुझे भी ले चल, अपने गोपाल भैया के दर्शन करा।”
मोहनः “चलिये गुरु जी ! जब मैं घर जाऊँगा, तब जंगल के रास्ते में गोपाल भैया को बुलाऊँगा। तब आप भी उन्हें देख लीजिये।”
श्राद्ध-विधि पूरी होने के बाद गुरु जी मोहन के साथ चले। रास्ते के जंगल में मोहन ने आवाज लगायी- “गोपाल भैया ! गोपाल भैया ! आ जाओ न !”
मोहन को आवाज सुनाई दी- “आज तुम अकेले तो हो नहीं, डर तो लगता नहीं, फिर मुझे क्यों बुलाते हो ?”
मोहन- “डर तो नहीं लगता मेरे गुरु जी तुम्हारे दर्शन करना चाहते हैं।”
गुरु जी- “मेरे कर्म ऐसे हैं कि मुझे देखकर भगवान नहीं आते। तू दूर जाकर पुकार।”
मोहन ने दूर जाकर पुकारा- “गोपाल भैया दिखे। मोहन ने कहा- “मेरे गुरु जी को भी दर्शन दो न !”
गोपाल- “वे मेरा तेज सहन नहीं कर सकेंगे। तेरी माँ तो बचपन से भक्त थी, तू भी बचपन से भक्ति करता है। तुम्हारे गुरु जी ने इतनी भक्ति नहीं की है। उनसे कहो कि ‘जो प्रकाश-पुंज दिखेगा, वे ही गोपाल भैया हैं।’ जाओ, गुरु जी को मेरे प्रकाश का दर्शन हो जायेगा, उसी से उनका कल्याण हो जायेगा।”
मोहन ने आकर कहाः “देखिये गुरु जी ! गोपाल भैया खड़े हैं।”
गुरु जी- “मेरे को नहीं दिखते, केवल प्रकाश दिखता है।”
मोहन- “हाँ, वे ही हैं, वे ही हैं गोपाल भैया !”
गुरु जी गदगद हो गये, उनका रोम-रोम आनंदित हो उठा, अष्टसात्विक भाव प्रकट हो गये। गुरु जी- “गोपाल ! गोपाल !…. ” पुकार उठे। अब तो गुरु जी मोहन को अपना गुरु मानने लगे क्योंकि उसी ने भगवद् दर्शन का रास्ता बताया।
बच्चो ! तुम भी मोहन की नाईं भगवन्नाम जपते जाओ। गोपाल भैया तुम पर भी प्रसन्न हो जायेंगे। स्वप्न में भी दर्शन दे देंगे। बच्चों पर तो वे जल्दी खुश होते हैं। तुम भी भगवान के साथ सेवक-स्वामी, सखा-भैया के भाव से कोई भी संबंध जोड़कर प्रेम से उन्हें पुकारोगे तो तुम्हारे हृदय में भी आनंद प्रकट हो जायेगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2015, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 269
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Monthly Archives: May 2015
प्रार्थना की अथाह शक्ति
सच्चे हृदय की पुकार को वह हृदयस्थ परमेश्वर जरूर सुनता है, फिर पुकार चाहे किसी मानव ने की हो या किसी प्राणी की हो। गज की पुकार को सुनकर स्वयं प्रभु ही ग्राह से उसकी रक्षा करने के लिए वैकुण्ठ से दौड़ पड़े थे, यह तो सभी जानते हैं।
एक कथा आती है, एक पपीहा पेड़ पर बैठा था। वहाँ उसे बैठा देखकर एक शिकारी ने धनुष पर बाण चढ़ाया। आकाश से एक बाज पक्षी भी उस पपीहे को ताक रहा था। अब पपीहा क्या करता ?
कोई और चारा न देखकर पपीहे ने प्रभु से प्रार्थना की- “हे प्रभु ! तू सर्वसमर्थ है। इधर शिकारी है, उधर बाज है। अब तेरे सिवा मेरा कोई नहीं। हे प्रभु ! तू ही रक्षा कर….’
जब अपने बल का अभिमान छूट जाता है और भगवान की समर्थता हृदय में सुदृढ़ होती है तो की हुई प्रार्थना भगवान स्वीकार कर लेते हैं। एक ही प्रार्थना 9 बार की जाय तो उनमें से एक बार तो जरूर फल जाती है। प्रार्थना में शब्द कैसे हैं उसका महत्त्व नहीं है, आर्तभाव से प्रार्थना करके शांत हो जायें।
पपीहा प्रार्थना में तल्लीन हो गया। वृक्ष के पास बिल में से एक साँप निकला। उसने शिकारी को दंश मारा। शिकारी का निशाना हिल गया। हाथ में से बाण छूटा और आकाश में जो बाज मँडरा रहा था, उसे जाकर लगा। शिकारी के बाण से बाज मर गया और साँप के काटने से शिकारी मर गया। पपीहा बच गया।
इस सृष्टि का कोई मालिक नहीं है – ऐसी बात नहीं है। यह सृष्टि समर्थ संचालक की सत्ता से चलती है।
1970 की घटना अमेरिका के विज्ञान जगत में चिरस्मरणीय रहेगी।
अमेरिका ने 11 अप्रैल, 1970 को अपोलो-13 नामक अंतरिक्षयान चन्द्रमा पर भेजा। 2 दिन बाद पृथ्वी से 2 लाख मील की दूरी पर, चन्द्रमा पर पहुँचने के पहले ही उसके प्रथम यूनिट (कमांड मोड्यूल) की ऑक्सीजन की टंकी में अचानक विस्फोट हुआ, जिससे उस यूनिट में ऑक्सीजन खत्म हो गयी और विद्युत आपूर्ति बंद हो गयी।
उस यूनिट के तीनों अंतरिक्षयात्री कमांड मोड्यूल यूनिट की सब प्रणालियाँ बंद कर एक्वेरियस (ल्युनार मोड्यूल) यूनिट में चले गये। परन्तु पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में प्रविष्ट होकर पुनः पृथ्वी पर वापस लौटने में उसका सफल उपयोग कर पाने की सम्भावनाएँ कम थीं। साथ ही ल्युनार मोड्यूल यूनिट दो व्यक्तियों को दो दिन तक सँभालने की क्षमता के हिसाब से बनाया गया था। परन्तु यहाँ उसे 4 दिन तक 3 लोगों को सँभालना था। और इतने लम्बे समय तक का भोजन पानी का संग्रह भी नहीं बचा था। इसके अतिरिक्त इस यूनिट के अंदर बर्फ की तरह जमा दे ऐसा ठंडा वातावरण एवं अत्यधिक कार्बन डाइऑक्साइड थी। जीवन बचने की सम्भावनाएँ बहुत कम थीं।
इस विकट परिस्थिति में सब निःसहाय हो गये। कोई मानवीय ताकत अंतरिक्षयात्रियों को सहायता पहुँचा सके यह सम्भव नहीं था।
देशवासियों ने प्रार्थना की। अंतरिक्षयात्रियों ने ईश्वर के भरोसे पर एक साहस किया। चन्द्र पर अवरोहण करने के लिए ल्युनार मोड्यूल यूनिट के जिस इंजन का उपयोग करना था, उसकी गति एवं दिशा बदलकर अपोलो-13 पृथ्वी की ओर मोड़ दिया। और आश्चर्य ! तमाम जीवनघातक जोखिमों से पार होकर अंतरिक्षयान ने सही सलामत 17 अप्रैल 1970 के दिन प्रशांत महासागर में सफल अवरोहण किया।
उन अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने बाद में सभी देशवासियों को समाचार पत्र के द्वारा कहाः ‘ऐसी कठिन परिस्थिति में सुरक्षित लौटने के लिए आप सभी ने हमारे लिए प्रार्थना की, इसके लिए आप सभी को हृदयपूर्वक धन्यवाद है।’
वह परमात्मा कैसा समर्थ है ! वह कर्तुं अकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थः…. है। असम्भव भी उसके लिए सम्भव है। सृष्टि में चाहे कितनी भी उथल-पुथल मच जाये लेकिन जब वह अदृश्य सत्ता किसी की रक्षा करना चाहती है तो वातावरण में कैसी भी व्यवस्था करके उसकी रक्षा कर देती है। ऐसे तो कई उदाहरण हैं।
कितना बल है प्रार्थना में ! कितना बल है उस अदृश्य सत्ता में ! अदृश्य सत्ता कहो, अव्यक्त परमात्मा कहो, एक ही बात है लेकिन वह है जरूर। उसी अव्यक्त, अदृश्य सत्ता का साक्षात्कार करना यही मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2015, पृष्ठ संख्या 15,19 अंक 269
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ईश्वर क्या है ?…. एक रहस्यमय खोज
‘ईश्वर क्या है ?’ – टेहरी राजवंश के 15-16 वर्षीय राजकुमार के हृदय में यह प्रश्न उठा। वह स्वामी रामतीर्थ के चरणों में पहुँचा और प्रणाम करके पूछाः “स्वामी जी ! ईश्वर क्या है ?”
उसकी प्रबल जिज्ञासा को देखकर रामतीर्थ जी ने कहा, “अपना परिचय लिखकर दो।”
उसने लिखा, “मैं अमुक राजा का पुत्र हूँ और अमुक मेरा नाम है।’
रामतीर्थ जी ने पत्र देखा और कहा, “अरे राजकुमार ! तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो। तुम उस निरक्षर, अनाड़ी आदमी की तरह हो, जो तुम्हारे पिता अर्थात् राजा से मिलना चाहता है पर अपना नाम तक नहीं लिख सकता। क्या राजा उससे मिलेगा ? अतः तुम अपना नाम ठीक से बताओ, तब ईश्वर तुमसे मिलेगा।”
लड़के ने कुछ देर चिंतन करके कहा, “अब मैं समझा मैंने केवल शरीर का पता बताया। मैं मन हूँ। क्या वास्तव में ऐसा ही है ?”
“अच्छा कुमार ! यदि यह बात सही है तो बताओ कि आज सवेरे तुमने जो भोजन किया था, वह तुम्हारे शरीर में कहाँ रखा है ?”
“जी, मेरी बुद्धि वहाँ तक नहीं पहुँचती और मेरा मन इसकी धारणा नहीं कर सकता।”
“प्यारे राजकुमार ! तुम्हारी बातों से सिद्ध होता है कि तुम मन, बुद्धि नहीं हो। तो तुम खूब विचारो, तब मुझे बताओ कि तुम क्या हो ? उसी समय ईश्वर तुम तक आ जायेगा।”
खूब मनन कर लड़का बोला, “मेरा मन, मेरी बुद्धि वहाँ तक जाने में जवाब दे देते हैं।”
“अब तक तुम्हारी बुद्धि जहाँ तक पहुँची है, उस पर विचार करो कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ, मैं बुद्धि नहीं हूँ।’ यदि ऐसा है तो इसकी अनुभूति करो। अमल में लाओ। यदि तुम सत्य का केवल इतना अंश भी व्यवहार में लाना सीख जाते हो तो तुम्हारी समस्त शोक-चिंताएँ समाप्त हो जायेंगी।” बालक को यह जताने में रामतीर्थ जी द्वारा कुछ उपदेश दिया गया कि वह स्वयं क्या है।
इसके बाद रामतीर्थ जी द्वारा दिन भर में किये गये कार्यों का विवरण पूछने पर राजकुमार ने अपने जागने, स्नान व भोजन करने, पढ़ने एवं चिट्ठियाँ लिखने आदि का ब्यौरा बताया। रामतीर्थ जी- “राजकुमार ! इन छोटे-छोटे कामों के अतिरिक्त तुमने अगणित कार्य किये हैं।”
राजकुमार किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उनकी बात पर मनन करने लगा।
रामतीर्थ जीः “तुम भोजन करते हो, उसे आमाशय में पहुँचाते हो, उसका रस बनाते हो, रक्त, मांस, मज्जा बनाते हो, हृदयगति चलाते हो, शरीर की शिरा-शिरा में रक्त का संचार करते हो। तुम्हीं बाल उगाते हो, शरीर के प्रत्येक अंग को पुष्ट करते हो। अब ध्यान दो कि कितने कार्य, कितनी क्रियाएँ तुम प्रत्येक क्षण करते रहते हो।”
लड़का बारम्बार सोचने लगा और बोलाः “महाराज जी ! वस्तुतः इस शरीर में हजारों क्रियाएँ एक साथ हो रही हैं, जिन्हें बुद्धि नहीं जानती, मन जिनसे बेखबर है और फिर भी वे सब क्रियाएँ हो रही हैं। इन सबका कारण अवश्य मैं ही हो सकता हूँ। इन सबका कर्ता मैं ही हूँ। अतः मेरा यह कथन सर्वथा गलत था कि मैंने कुछ ही काम किये हैं।”
रामतीर्थ जी ने शरीर में इच्छा और अनिच्छा से होने वाले कार्यों के बारे में समझाते हुए कहाः “लोग यह भयंकर भूल करते हैं कि केवल उन्हीं कार्यों को अपने किये हुए मानते हैं जो मन अथवा बुद्धि के माध्यम से होते हैं और उन सब कार्यों को अस्वीकार कर देते हैं जो मन अथवा बुद्धि के माध्यम के बिना सीधे-सीधे हो रहे हैं। इस भूल तथा लापरवाही से ही वे अपने शुद्ध स्वरूप को मन के बंदीगृह में बंदी बना लेते हैं। इस प्रकार वे असीम को ससीम और परिच्छिन्न (सीमित) बनाकर दुःख भोगते हैं। ईश्वर तुम्हारे भीतर हैं और वह ईश्वर तुम स्वयं हो।
तुम जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का साक्षी हो। तुम सर्वत्र विराजमान हो। तुम्हारी शक्ति सर्वव्यापिनी है। वही सितारों को चमका रही है, वही तुम्हारी आँखों में देखने की शक्ति दे रही है, वही नदियों को प्रवाहित कर रही है, वही ब्रह्माण्डों को क्षण-प्रतिक्षण बना-बिगाड़ रही है। क्या तुम वह शक्ति नहीं हो ? सचमुच तुम वही शक्ति हो, वही चैतन्य हो जो मन बुद्धि से परे है, जो सम्पूर्ण विश्व का शासन कर रहा है। वही आत्मदेव तुम हो, वही अज्ञेय, वही तेज, तत्त्व, शक्ति, जो जी चाहे कह लो, वही सर्वरूप जो सर्वत्र विद्यमान है, वही तुम हो।” इस प्रकार स्वामी रामतीर्थ ने बालक को आत्मानुभव की झलक चखा दी और वह उनके मार्गदर्शन अनुसार आत्मानुसंधान कर आत्मस्वरूप में स्थित हुआ, ज्ञातज्ञेय हो गया।
राजकुमारः “मैंने सवाल किया था कि ईश्वर क्या है ? और मुझे पता चल गया कि मेरा अपना आपा ही ईश्वर है। मैंने कैसा बेहूदा प्रश्न किया था। मुझे अपने को ही जानना था। मेरे जानने से ईश्वर का पता लग गया।”
‘ईश्वर क्या है ?’, ‘मैं कौन हूँ ?’ – ये प्रश्न बहुत सरल लगते हैं लेकिन इनका जवाब पाने की जिज्ञासा जिनके हृदय में जागती है, उनके माता-पिता धन्य हैं, कुल गोत्र धन्य हैं। धन्या माता पिता धन्यो…. ऐसे लोग बहुत कम होते हैं। जिन्हें इसका जवाब पाये बिना चैन नहीं आता, ऐसे तो कोई-कोई विरले होते हैं और ऐसे सच्चे जिज्ञासु को ईश्वर-तत्त्व का अनुभव किये हुए किन्हीं महापुरुष की शरण मिल जाये तो फिर इस खोज को पूर्ण होने में बहुत देर नहीं लगती।
भगवान श्रीराम जी के गुरुदेव वसिष्ठजी महाराज कहते हैं, “हे राम जी ! ज्ञान समझना मात्र है, कुछ यत्न नहीं। संतों के पास जाकर प्रश्न करना कि ‘मैं कौन हूँ ? जगत क्या है ? जीव क्या है ? परमात्मा क्या है ? संसार-बंधन क्या है ? और इससे तरकर कैसे परम पद को प्राप्त होऊँ ?’ फिर ज्ञानवान जो उपदेश करें, उसके अभ्यास से आत्मपद को प्राप्त होगा, अन्यथा न होगा।”
पूज्य बापू जी यह युक्ति बताते हुए कहते हैं, “तुम अपने-आपसे पूछो- “मैं कौन हूँ ?’ खाओ, पियो, चलो, घूमो, फिर पूछोः ‘मैं कौन हूँ ?’
‘मैं रमणलाल हूँ।’
यह तो तुम्हारी देह का नाम है। तुम कौन हो ? अपने को पूछा करो। जितनी गहराई से पूछोगे, उतना दिव्य अनुभव होने लगेगा। एकांत में शांत वातावरण में बैठकर ऐसा पूछो…. ऐसा पूछो कि बस, पूछना ही हो जाओ। लगे रहो। खूब अभ्यास करोगे तब ‘मैं कौन हूँ ? ईश्वर क्या है ?’ यह प्रकट होने लगेगा और मन की चंचलता मिटने लगेगी, बुद्धि के विकार नष्ट होने लगेंगे तथा शरीर के व्यर्थ के विकार शांत होने लगेंगे। यदि ईमानदारी से साधना करने लगो न, तो छः महीने में वहाँ पहुँच जाओगे जहाँ छः साल से चला हुआ व्यक्ति भी नहीं पहुँच पाता है। तत्त्वज्ञान हवाई जहाज की यात्रा है।”
महापुरुषों के सत्संग का जीवन में जितना आदर होता है, जितनी ‘ईश्वर क्या है ? मैं कौन हूँ ?’ यह जानने की जिज्ञासा तीव्र होती है, उतनी महापुरुषों की कृपा शीघ्र पचती है और जीव चौरासी लाख योनियों की भटकान से बचकर अपने ईश्वरत्व का, अपने ब्रह्मत्व का साक्षात्कार कर लेता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2015, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 269
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