Monthly Archives: June 2015

Rishi Prasad 270 Jun 2015

चार प्रकार के शिष्य


उत्तम शिष्य तो आध्यात्मिक प्रश्न करने की जरूरत ही नहीं समझता है, गुरु के उपदेश मात्र से, विवेक से ही उसको ज्ञान हो जाता है। मध्यम शिष्य कभी-कभार साधन-विषय का प्रश्न पूछकर बात को पा लेता है, समझ लेता है और तीसरे नम्बर का जो शिष्य है उसको बहुत सारे साधन-भजन की आवश्यकता पड़ती है। और जिसमें शिष्यत्व ही नहीं है, वह चाहे कितना बड़ा भारी तपस्वी हो, बड़ा दिखता हो लेकिन अंदर का दीया जलाने का उसके पास तेल नहीं, बत्ती नहीं।
शिष्य होने के लिए चार शर्तें
शिष्य होने के लिए चार शर्तें हैं। इन शर्तों पर खरा उतरने वाला आदमी ही शिष्य हो सकता है, दूसरा नहीं। विद्या का अभिमान, धन का अभिमान, सत्ता का अभिमान, सौंदर्य आदि या अपनी विशेषता का कोई अभिमान – ये चार अभिमान अगर रहेंगे, चार में से एक भी रहेगा अथवा तो उनका कोई अंश भी रहेगा तो श्रद्धा टिकेगी नहीं। रामकृष्ण परमहंस से विवेकानंद जी ज्यादा पढ़े थे लेकिन विवेकानंद विद्या का अभिमान लेकर बैठे रहते तो रामकृष्ण की कृपा नहीं पा सकते थे। राजा जनक के पास धन और सत्ता थी, अगर उसका अंशमात्र भी अभिमान रहता हो जनक अष्टावक्रजी के इतने समर्पित शिष्य नहीं हो सकते थे।
सदगुरु को पाना, यह तो सौभाग्य है लेकिन उनमें श्रद्धा टिकी रहना, यह तो परम सौभाग्य है। कभी-कभार तो नजदीक रहने से उनमें देहाध्यास दिखेगा, श्रद्धा डगमगायेगी, गुरु का शरीर दिखेगा लेकिन ‘शरीर होते हुए भी वे अशरीरी आत्मा हैं’ इस प्रकार का भाव दृढ़ होगा तब श्रद्धा टिकेगी नहीं, नहीं तो अपनी मति-गति के अनुसार गुरु के व्यवहार को तौलेगा। जब रजोगुण होगा तो गुरु को कुछ सोचेगा कि ‘ये तो ऐसे हैं।’ सत्वगुण होगा तो लगेगा कि ‘देव हैं, ब्रह्म हैं।’
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 28, अंक 270
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Rishi Prasad 270 Jun 2015

गुरुदेव की अंतर्वाणी


हे साधक ! ‘अपने उस आत्मस्वरूप को, मधुरस्वरूप को, मुक्तस्वरूप को हम पाकर रहेंगे’ – ऐसा दृढ़ निश्चय कर। विघ्न बाधाओं के सिर पर पैर रखता जा। यह मन की माया कई जन्मों से भटका रही है। अब इस मन की माया से पार होने का संकल्प कर। कभी काम, क्रोध, लोभ में तो कभी मद, मात्सर्य में यह मन की माया जीव को भटकाती है। लेकिन जो भगवान की शरण हैं, गुरु की शरण हैं, जो सच्चिदानंद की प्रीति पा लेते हैं वे इस माया को तर जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। ( गीताः 7.14)
माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। भगवान के जो प्यारे हैं, गुरु के जो दुलारे हैं, माया उनके अनुकूल हो जाती है।
जैसे शत्रु के कार्य पर निगरानी रखते हैं, वैसे ही तू मन के संकल्पों पर निगरानी रख कि कहीं यह तुझको माया में तो नहीं फँसाता। संसार के भोगों में उलझना है तो बहुतों की खुशामद करनी पड़ेगी, बहुतों से करुणा-कृपा की याचना करनी पड़ेगी, उस पर भी कंगालियत बनी रहेगी और सच्चा सुख पाना है तो बस, भगवत्स्वरूप गुरु की रहमत काफी है।
बेटा ! शरीर से भले तू दूर है लेकिन मेरी दृष्टि से तू दूर नहीं है, मेरे आत्मस्वभाव से तू दूर नहीं है। मैं तुझे अंतर में प्रेरित करता हूँ। तू अच्छा करता है तो मैं धन्यवाद देता हूँ, बल बढ़ाता हूँ। कहीं गड़बड़ करता है तो मैं तुझे रोकता-टोकता हूँ। तू देखना मेरे चित्र की ओर। जब तू अच्छा करेगा तो मैं मुस्कराता हुआ मिलूँगा और जब तू गड़बड़ करेगा तो उसी चित्र में मेरी आँखें तेरे को नाराजगी से देखती हुई मिलेंगी। तू समझ लेना कि हमने अच्छा किया है तो गुरु जी प्रसन्न हैं और गड़बड़ की तो गुरु जी का वही चित्र तुझे कुछ और खबरें देगा। गुरुमंत्र के द्वारा गुरु तेरा अंतरात्मा होकर मार्गदर्शन करेंगे। तू घबराना मत !
सदाचारी के बल को अंतर्यामी पोषता है और वही देव दुष्ट आचरण करने वाले की शक्ति हर लेता है, उसकी मति हर लेता है। रब रीझे तो मति विकसित होती है और जिसकी मति विकसित होती है वह जानता है कि आखिर कब तक ? ये संबंध कब तक ? ये सुख-दुःख कब तक ? ये भोग और विकारों का आकर्षण कब तक ? आपका विवेक जगता है तो समझ लो रब राज़ी है और विवेक सोता है, विकार जगते हैं तो समझ लो रब से आपने पीठ कर रखी है, मुँह मोड़ रखा है। रब रूसे त मत खसे। ना-ना…. दुनिया के लिए रब से मुँह मत मोड़ना। रब के लिए भले विकारों से, दुनिया से मुँह मोड़ दो तो कोई घाटा नहीं पड़ेगा क्योंकि ईश्वर के लिए जब चलोगे तो माया तुम्हारे अनुकूल हो जायेगी।
जो ईश्वर के लिए संसार की वासनाओं का त्याग करते हैं, उन्हें ईश्वर भी मिलता है और संसार भी उनके पीछे-पीछे चलता है लेकिन जो संसार के लिए ईश्वर को छोड़कर संसार के पीछे पड़ते हैं, संसार उनके हाथों में रहता नहीं, परेशान होकर सिर पटक-पटक के मर जाते हैं और जो चीज कुछ पायी हुई देखते हैं, वह भी छोड़कर बेचारे अनाथ हो जाते हैं। इसीलिए हे वत्स ! तू अपने परमात्म-पद को सँभालना। उस प्रेमास्पद की प्रेममयी यात्रा करना।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 24, अंक 270
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