Monthly Archives: September 2015

पूज्य बापू जी के सदगुरु साँईं श्री लीलाशाहजी द्वारा पूज्य श्री को लिखा हुआ पत्र


दिनांकः 10 मार्च, 1969
प्रिय, प्रिय आशाराम !
विश्वरूप परिवार में खुश-प्रसन्न हो। तुम्हारा पत्र मिला। समाचार जाना।
जब तक शरीर है तब तक सुख-दुःख, ठंडी-गर्मी, लाभ-हानि, मान-अपमान होते रहते हैं। सत्य वस्तु परमात्मा में जो संसार प्रतीत होता है वह आभास है। कठिनाइयाँ तो आती जाती रहती हैं।
अपने सत्संग-प्रवचन में अत्यधिक सदाचार और वैराग्य की बातें बताना। सांसारिक वस्तुएँ शरीर इत्यादि हकीकत में विचार-दृष्टि से देखें तो सुंदर नहीं हैं, आनंदमय नहीं हैं, प्रेम करने योग्य नहीं हैं वे सत्य भी नहीं हैं – ऐसा दृष्टांत देकर साबित करें। जैसे शरीर को देखें तो यह गन्दगी और दुःख का थैला है। नाक से रेंट, मुँह से लार, त्वचा से पसीना, गुदा से मल, शिश्नेन्द्रिय से मूत्र बहते रहते हैं। उसी प्रकार कान, आँख से भी गंदगी निकलती रहती है। वायु शरीर में जाते ही दूषित हो जाती है। अन्न-जल सब कफ-पित्त और दूसरी गंदगी में परिणत हो जाते हैं। बीमारी व बुढ़ापे में शरीर को देखें। उसी मृत शरीर को कोई कमरे में चार दिन रखकर बाहर निकाले तो कोई वहाँ खड़ा भी नहीं रह सकता। विचार करके देखने से शरीर की पोल खुल जायेगी। दूसरी वस्तुओं की भी ऐसी ही हालत समझनी चाहिए। आम कितना भी अच्छा हो, 3-4 हफ्ते उसे रखोगे तो सड़ जायेगा, बिगड़ जायेगा। इतनी बदबू आयेगी कि हाथ लगाने में भी घृणा होगी। इस प्रकार के विचार लोगों को अधिक बताना ताकि उनके दिमाग में पड़ी मोह की पर्तें खुल जायें।
नर्मदा तट जाकर 10-15 दिन रहकर आना। दो बार स्नान करना। अपने आत्मविचार में, वेदांत ग्रंथ के विचारों में निमग्न रहना। विशेष जब रू-बरू मुलाकात होगी तब बताएँगे।
बस, अब बंद करता हूँ। शिव !
हे भगवान ! सबको सदबुद्धि दो, शक्ति दो, निरोगता दो। सब अपने-अपने कर्तव्य का पालन करें और सुखी रहें।
हरि ॐ शांति, शांति।
लीलाशाह
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 5, अंक 273
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मोक्ष नित्य है या अनित्य ?


शंका- ब्रह्मविद्या का प्रयोजन मोक्ष की सिद्धि है और वह ब्रह्मात्मैक्य-बोध (आत्मा और ब्रह्म की एकता का ज्ञान) से होती है। ठीक है, पर वह मोक्ष नित्य है अनित्य ?
यदि अनित्य है तो अनित्य से वैराग्य होना चाहिए। अनित्य मोक्ष की आवश्यकता ही नहीं। यदि मोक्ष नित्य है तो वह साधनजन्य नहीं होगा क्योंकि नित्य वस्तु को प्राप्त करने के लिए साधन की आवश्यकता नहीं होती। उस दशा में शास्त्र-विहित सब साधन अनावश्यक सिद्ध होंगे। यदि कहो कि ब्रह्मज्ञान की सार्थकता है ही तो यह तभी सम्भव है जब बंधन अज्ञान से सिद्ध हो। परंतु आत्मा जब ब्रह्म ही है, तब उसमें अज्ञान और तज्जन्य (उसके द्वारा उत्पन्न) भ्रम की उपस्थापना ही हास्यास्पद है। असल में आत्मा ब्रह्म नहीं है, जैसा प्रत्येक व्यक्ति का सहज अनुभव भी है और जैसा शास्त्र में दोनों का भेद बताया भी गया है। जीव अल्पज्ञ, परिच्छिन्न, संसारी है और ब्रह्म सर्वज्ञ, अपरिच्छिन्न, सर्वशक्तिमान है। बंधन भी प्रत्येक जीव का सहज अनुभव है। अतः बंधन सत्य है और बंधन की निवृत्ति ज्ञान से नहीं हो सकती, वह कर्म, उपासना, योग की अपेक्षा रखती है। अतः ब्रह्मविद्या का विचार निरर्थक है।
समाधान- मोक्ष नित्य है फिर भी उसके लिए जो साधन शास्त्र में वर्णित हैं वे व्यर्थ नहीं हैं। मोक्ष आत्मा का अपना स्वरूप ही है, अन्य नहीं है। हम कहीं बँधे नहीं हैं। बंधन एक कल्पना है, भ्रम है। विचार करके देखो कि बचपन से अब तक हम कितनों के साथ बँधे और छूटे।
धन के साथ बँधे, वह चला गया। स्त्री, पुत्र, मित्र सबके साथ अपने को बँधा समझते रहे किंतु सब बदलता गया। इनके आने पर बंधन का भ्रम होता है पर हम ज्यों के त्यों हैं। हमें कोई बाँध नहीं सकता। सपनों के समान ये आते-जाते रहते हैं और मोक्ष अपना सहज स्वरूप है। अपने स्वरूपभूत मोक्ष की प्राप्ति में जो प्रतिबंध है – बंधन का भ्रम है, उसे दूर करने के लिए साधन की आवश्यकता है और इसीलिए शास्त्र की सार्थकता है। मोक्ष को उत्पन्न करने के लिए साधन की आवश्यकता नहीं है, अन्यथा मोक्ष भी निश्चित अनित्य ही होगा। भगवान शंकराचार्य जी कहते हैं-
रोगार्तस्यैव रोगनिवृत्तौ स्वस्थता।
स्वास्थ्य हमारा स्वरूप है किंतु सर्दी-गर्मी से, वात-पित्त-कफ के प्रकोप से या और किसी कारण से शरीर में रोग आ गया तो उसके निवारण के लिए औषध सेवन कर लेते हैं। स्वस्थ तो हम रोग से पहले भी थे और रोगनिवृत्ति के बाद भी रहेंगे। इसी प्रकार मोक्ष अपना स्वरूप है। उसमें जो बंधन का भ्रम आ गया है, उसे दूर करने के लिए ब्रह्मज्ञान की आवश्यकता है। ब्रह्मज्ञान के लिए ब्रह्मविचार की आवश्यकता है। और शास्त्र ब्रह्मविचाररूप हैं इसलिए शास्त्र की आवश्यकता है। शास्त्र में वर्णित सभी साधन परस्पर ब्रह्मज्ञान में सहकारी हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 21, अंक 273
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कैसे होते हैं परमात्मा वामन से विराट ?


(वामन जयन्तीः 25 सितम्बर 2015)
ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति।
मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते।।
(कठोपनिषद्- 2.2.3)
प्राण को ऊपर फेंक देता है और अपानवायु को नीचे फेंक देता है और दोनों के बीच में बैठा हुआ है वामन। वामन भगवान का नाम तो आप जानते ही हैं न ! नन्हा सा ईश्वर बैठा हुआ है वहाँ। उन नन्हें को जब तक तुम अपनी बलि नहीं दे देते, तब तक तो वह नन्हा-मुन्ना वामन बनकर बैठा रहता है और जब बलिदान (राजा बलि की कथा के संदर्भ में) हो जाता है, तब वह विराट हो जाता है – ऐसा वामन है, जो ब्रह्म हो जाता है। जब तक तुमने अपने अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय कोष को उसके प्रति अर्पित नहीं किया, जब तक तुम तीन पाद अर्पित नहीं करोगे, तब तक चतुर्थ पाद की प्राप्ति नहीं होती है। तीन पाद अर्पित करने पड़ते हैं, चतुर्थ पाद वह स्वयं है। स्थूल शरीर एक पाद, सूक्ष्म शरीर द्वितीय पाद और कारण शरीर तो अविद्यात्मक ही है, पाद-वाद नहीं है। वह तो तुरीय के ज्ञानमात्र से ही कि ‘यह तो वामन नहीं है, यह तो ब्रह्म है’ – यह पहचान लेने मात्र से ही तृतीय पाद मिट जाता है और चतुर्थ पाद की प्राप्ति होती है।
मन की उपाधि से ही ब्रह्म वामन बना हुआ है। अगर मन की उपाधि न हो तो ब्रह्म वामन न हो। वह कहाँ बैठा हुआ है ? कि प्राण और अपान की संधि में। जहाँ से वाणी को प्रेरणा मिलती है माने अग्नि-मंथन होता है और जहाँ प्राण व अपान का पृथक्करण होता है, वहाँ ध्यान करो। सोमो यत्रातिरिच्यते – बोले भाई कि चलो यहाँ से, अब ध्यान करेंगे। क्या है वहाँ ? कि सोमो = सोमरस-चन्द्रमा-परमात्मा की आह्लादिनी शक्ति, मन का अधिदेवता। मन का जो अधिदेवता है उसको चन्द्र बोलते हैं, यही चाँदनी है, यही चन्द्रिका है, यही सोम है, जिसको शंकरजी अपने सिर पर धारण करते हैं। इसको हृदय में धारण नहीं करते, इसको सिर पर धारण करते हैं। शंकर जी ने इस मन को हृदय में से उठाकर अपने सिर पर धारण कर लिया क्योंकि वहाँ भगवान के चरण का जो धोवन गंगाजी हैं, उसको जटा में रखते हैं न ! तो अपने हृदयस्थ मन को निकालकर वहीं लगाते हैं, वहीं रखते हैं।
अब देखो, सोम माने सोमरस-जहाँ स्वाद आता है, जहाँ आनंद की अनुभूति होती है। अग्निर्यत्राभिमथ्यते का अर्थ है कि वाक् का प्रयोग मत करो, मौन हो जाओ और जहाँ से वाणी को प्रेरणा मिलती है उस अभिमंथन के स्थान पर चलो। और वायुर्यत्राधिरुध्यते का अर्थ है प्राण और अपान वायु के चक्कर में न पड़कर इनकी उपेक्षा कर दो माने इनको मंद हो जाने दो-
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।
(गीताः 5.27)
प्राण-अपान की गति को मंद हो जाने दो और वाक् में, जीभ में बिल्कुल मत आओ माने शब्द की कल्पना मत करो, किसी भी शब्द का आधार मत लो, और सोमो यत्रातिरिच्यते – सोमरस का अनुभव करो अर्थात् आनंद लो, वहाँ परमानंद की अनुभूति करो।
तीन बातें हुईं – एक तो प्राण-अपान का ख्याल छोड़ दो, दूसरी – किसी भी शब्द को अपने मन में मत आने दो, मन को निःशब्द कर दो और तीसरी – केवल रसात्मक अवस्था में जाकर बैठ जाओ। तब तत्र संजायते मनः – वहाँ मन का सम्यक् उत्पादन होता है माने ध्यानाकार मन की उत्पत्ति वहीं होती है, वहीं जाकर मनुष्य ध्यानस्थ हो जाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 17, अंक 273
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