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Rishi Prasad 269 May 2015

ईश्वर क्या है ?…. एक रहस्यमय खोज


‘ईश्वर क्या है ?’ – टेहरी राजवंश के 15-16 वर्षीय राजकुमार के हृदय में यह प्रश्न उठा। वह स्वामी रामतीर्थ के चरणों में पहुँचा और प्रणाम करके पूछाः “स्वामी जी ! ईश्वर क्या है ?”
उसकी प्रबल जिज्ञासा को देखकर रामतीर्थ जी ने कहा, “अपना परिचय लिखकर दो।”
उसने लिखा, “मैं अमुक राजा का पुत्र हूँ और अमुक मेरा नाम है।’
रामतीर्थ जी ने पत्र देखा और कहा, “अरे राजकुमार ! तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो। तुम उस निरक्षर, अनाड़ी आदमी की तरह हो, जो तुम्हारे पिता अर्थात् राजा से मिलना चाहता है पर अपना नाम तक नहीं लिख सकता। क्या राजा उससे मिलेगा ? अतः तुम अपना नाम ठीक से बताओ, तब ईश्वर तुमसे मिलेगा।”
लड़के ने कुछ देर चिंतन करके कहा, “अब मैं समझा मैंने केवल शरीर का पता बताया। मैं मन हूँ। क्या वास्तव में ऐसा ही है ?”
“अच्छा कुमार ! यदि यह बात सही है तो बताओ कि आज सवेरे तुमने जो भोजन किया था, वह तुम्हारे शरीर में कहाँ रखा है ?”
“जी, मेरी बुद्धि वहाँ तक नहीं पहुँचती और मेरा मन इसकी धारणा नहीं कर सकता।”
“प्यारे राजकुमार ! तुम्हारी बातों से सिद्ध होता है कि तुम मन, बुद्धि नहीं हो। तो तुम खूब विचारो, तब मुझे बताओ कि तुम क्या हो ? उसी समय ईश्वर तुम तक आ जायेगा।”
खूब मनन कर लड़का बोला, “मेरा मन, मेरी बुद्धि वहाँ तक जाने में जवाब दे देते हैं।”
“अब तक तुम्हारी बुद्धि जहाँ तक पहुँची है, उस पर विचार करो कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ, मैं बुद्धि नहीं हूँ।’ यदि ऐसा है तो इसकी अनुभूति करो। अमल में लाओ। यदि तुम सत्य का केवल इतना अंश भी व्यवहार में लाना सीख जाते हो तो तुम्हारी समस्त शोक-चिंताएँ समाप्त हो जायेंगी।” बालक को यह जताने में रामतीर्थ जी द्वारा कुछ उपदेश दिया गया कि वह स्वयं क्या है।
इसके बाद रामतीर्थ जी द्वारा दिन भर में किये गये कार्यों का विवरण पूछने पर राजकुमार ने अपने जागने, स्नान व भोजन करने, पढ़ने एवं चिट्ठियाँ लिखने आदि का ब्यौरा बताया। रामतीर्थ जी- “राजकुमार ! इन छोटे-छोटे कामों के अतिरिक्त तुमने अगणित कार्य किये हैं।”
राजकुमार किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उनकी बात पर मनन करने लगा।
रामतीर्थ जीः “तुम भोजन करते हो, उसे आमाशय में पहुँचाते हो, उसका रस बनाते हो, रक्त, मांस, मज्जा बनाते हो, हृदयगति चलाते हो, शरीर की शिरा-शिरा में रक्त का संचार करते हो। तुम्हीं बाल उगाते हो, शरीर के प्रत्येक अंग को पुष्ट करते हो। अब ध्यान दो कि कितने कार्य, कितनी क्रियाएँ तुम प्रत्येक क्षण करते रहते हो।”
लड़का बारम्बार सोचने लगा और बोलाः “महाराज जी ! वस्तुतः इस शरीर में हजारों क्रियाएँ एक साथ हो रही हैं, जिन्हें बुद्धि नहीं जानती, मन जिनसे बेखबर है और फिर भी वे सब क्रियाएँ हो रही हैं। इन सबका कारण अवश्य मैं ही हो सकता हूँ। इन सबका कर्ता मैं ही हूँ। अतः मेरा यह कथन सर्वथा गलत था कि मैंने कुछ ही काम किये हैं।”
रामतीर्थ जी ने शरीर में इच्छा और अनिच्छा से होने वाले कार्यों के बारे में समझाते हुए कहाः “लोग यह भयंकर भूल करते हैं कि केवल उन्हीं कार्यों को अपने किये हुए मानते हैं जो मन अथवा बुद्धि के माध्यम से होते हैं और उन सब कार्यों को अस्वीकार कर देते हैं जो मन अथवा बुद्धि के माध्यम के बिना सीधे-सीधे हो रहे हैं। इस भूल तथा लापरवाही से ही वे अपने शुद्ध स्वरूप को मन के बंदीगृह में बंदी बना लेते हैं। इस प्रकार वे असीम को ससीम और परिच्छिन्न (सीमित) बनाकर दुःख भोगते हैं। ईश्वर तुम्हारे भीतर हैं और वह ईश्वर तुम स्वयं हो।
तुम जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का साक्षी हो। तुम सर्वत्र विराजमान हो। तुम्हारी शक्ति सर्वव्यापिनी है। वही सितारों को चमका रही है, वही तुम्हारी आँखों में देखने की शक्ति दे रही है, वही नदियों को प्रवाहित कर रही है, वही ब्रह्माण्डों को क्षण-प्रतिक्षण बना-बिगाड़ रही है। क्या तुम वह शक्ति नहीं हो ? सचमुच तुम वही शक्ति हो, वही चैतन्य हो जो मन बुद्धि से परे है, जो सम्पूर्ण विश्व का शासन कर रहा है। वही आत्मदेव तुम हो, वही अज्ञेय, वही तेज, तत्त्व, शक्ति, जो जी चाहे कह लो, वही सर्वरूप जो सर्वत्र विद्यमान है, वही तुम हो।” इस प्रकार स्वामी रामतीर्थ ने बालक को आत्मानुभव की झलक चखा दी और वह उनके मार्गदर्शन अनुसार आत्मानुसंधान कर आत्मस्वरूप में स्थित हुआ, ज्ञातज्ञेय हो गया।
राजकुमारः “मैंने सवाल किया था कि ईश्वर क्या है ? और मुझे पता चल गया कि मेरा अपना आपा ही ईश्वर है। मैंने कैसा बेहूदा प्रश्न किया था। मुझे अपने को ही जानना था। मेरे जानने से ईश्वर का पता लग गया।”
‘ईश्वर क्या है ?’, ‘मैं कौन हूँ ?’ – ये प्रश्न बहुत सरल लगते हैं लेकिन इनका जवाब पाने की जिज्ञासा जिनके हृदय में जागती है, उनके माता-पिता धन्य हैं, कुल गोत्र धन्य हैं। धन्या माता पिता धन्यो…. ऐसे लोग बहुत कम होते हैं। जिन्हें इसका जवाब पाये बिना चैन नहीं आता, ऐसे तो कोई-कोई विरले होते हैं और ऐसे सच्चे जिज्ञासु को ईश्वर-तत्त्व का अनुभव किये हुए किन्हीं महापुरुष की शरण मिल जाये तो फिर इस खोज को पूर्ण होने में बहुत देर नहीं लगती।
भगवान श्रीराम जी के गुरुदेव वसिष्ठजी महाराज कहते हैं, “हे राम जी ! ज्ञान समझना मात्र है, कुछ यत्न नहीं। संतों के पास जाकर प्रश्न करना कि ‘मैं कौन हूँ ? जगत क्या है ? जीव क्या है ? परमात्मा क्या है ? संसार-बंधन क्या है ? और इससे तरकर कैसे परम पद को प्राप्त होऊँ ?’ फिर ज्ञानवान जो उपदेश करें, उसके अभ्यास से आत्मपद को प्राप्त होगा, अन्यथा न होगा।”
पूज्य बापू जी यह युक्ति बताते हुए कहते हैं, “तुम अपने-आपसे पूछो- “मैं कौन हूँ ?’ खाओ, पियो, चलो, घूमो, फिर पूछोः ‘मैं कौन हूँ ?’
‘मैं रमणलाल हूँ।’
यह तो तुम्हारी देह का नाम है। तुम कौन हो ? अपने को पूछा करो। जितनी गहराई से पूछोगे, उतना दिव्य अनुभव होने लगेगा। एकांत में शांत वातावरण में बैठकर ऐसा पूछो…. ऐसा पूछो कि बस, पूछना ही हो जाओ। लगे रहो। खूब अभ्यास करोगे तब ‘मैं कौन हूँ ? ईश्वर क्या है ?’ यह प्रकट होने लगेगा और मन की चंचलता मिटने लगेगी, बुद्धि के विकार नष्ट होने लगेंगे तथा शरीर के व्यर्थ के विकार शांत होने लगेंगे। यदि ईमानदारी से साधना करने लगो न, तो छः महीने में वहाँ पहुँच जाओगे जहाँ छः साल से चला हुआ व्यक्ति भी नहीं पहुँच पाता है। तत्त्वज्ञान हवाई जहाज की यात्रा है।”
महापुरुषों के सत्संग का जीवन में जितना आदर होता है, जितनी ‘ईश्वर क्या है ? मैं कौन हूँ ?’ यह जानने की जिज्ञासा तीव्र होती है, उतनी महापुरुषों की कृपा शीघ्र पचती है और जीव चौरासी लाख योनियों की भटकान से बचकर अपने ईश्वरत्व का, अपने ब्रह्मत्व का साक्षात्कार कर लेता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2015, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 269
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Rishi Prasad 269 May 2015

अमिट पुण्य अर्जित करने का अवसर-पुरुषोत्तम मास


पुरुषोत्तम/अधिक मास- 
अधिक मास में सूर्य की सक्रांति (सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश) न होने से इसे ‘मल मास’ (मलिन मास) कहा गया है। स्वामीरहित होने से यह मास देव-पितर आदि की पूजा तथा मंगल कर्मों के लिए त्याज्य माना गया। इससे लोग इसकी घोर निंदा करने लगे।
मल मास ने भगवान को प्रार्थना की, भगवान बोले- “मल मास नहीं, अब से इसका नाम पुरुषोत्तम मास होगा। इस महीने जो जप, सत्संग, ध्यान, पुण्य आदि करेंगे, उन्हें विशेष फायदा होगा। अंतर्यामी आत्मा के लिए जो भी कर्म करेंगे, तेरे मास में वह विशेष फलदायी हो जायेगा। तब से मल मास का नाम पड़ गया ‘पुरुषोत्तम मास’।”
विशेष लाभकारी
अधिक मास में आँवला और तिल के उबटन से स्नान पुण्यदायी है और स्वास्थ्य प्रसन्नता में बढ़ोतरी करने वाला है अथवा तो आँवला, जौ तिल का मिश्रण बनाकर रखो और स्नान करते समय थोड़ा मिश्रण बाल्टी में डाल दिया। इससे भी स्वास्थ्य और प्रसन्नता पाने में मदद मिलती है। इस मास में आँवले के पेड़ के नीचे बैठकर भोजन करना अधिक प्रसन्नता और स्वास्थ्य देता है।
आँवले व पीपल के पेड़ को स्पर्श करने से स्नान करने का पुण्य होता है, सात्त्विकता और प्रसन्नता की बढ़ोतरी होती है। इन्हें स्नान करने के बाद स्पर्श करने से दुगुना पुण्य होता है। पीपल और आँवला सात्विकता के धनी हैं।
इस मास में धरती पर (बिस्तर बिछाकर) शयन व पलाश की पत्तल पर भोजन करे और ब्रह्मचर्य व्रत पाले तो पापनाशिनी ऊर्जा बढ़ती है और व्यक्तित्व में निखार आता है। इस पुरुषोत्तम मास को कई वरदान प्राप्त हैं और शुभ कर्म करने हेतु इसकी महिमा अपरम्पार है।
अधिक मास में वर्जित
पुरुषोत्तम मास व चतुर्मास में नीच कर्मों का त्याग करना चाहिए। वैसे तो सदा के लिए करना चाहिए लेकिन आरम्भ वाला भक्त इन्हीं महीनों में त्याग करे तो उसका नीच कर्मों के त्याग का सामर्थ्य बढ़ जायेगा। इस मास में शादी-विवाह अथवा सकाम कर्म एवं सकाम व्रत वर्जित हैं। जैसे कुएँ, बावली, तालाब और बाग़ आदि का आरम्भ तथा प्रतिष्ठा, नवविवाहिता वधू का प्रवेश, देवताओं का स्थापन (देव-प्रतिष्ठा), यज्ञोपवीत संस्कार, नामकरण, मकान बनाना, नये वस्त्र एवं अलंकार पहनना आदि। इस मास में किये गये निष्काम कर्म कई गुना विशेष फल देते हैं।
अधिक मास में करने योग्य
जप, कीर्तन, स्मरण, ध्यान, दान, स्नान आदि तथा पुत्रजन्म के कृत्य, पितृस्मरण के श्राद्ध आदि एवं गर्भाधान, पुंसवन जैसे संस्कार किये जा सकते हैं।
देवी भागवत के अनुसार यदि आदि की सामर्थ्य न हो तो संतों-महापुरुषों की सेवा (उनके दैवी कार्य में सहभागी होना) सर्वोत्तम है। इससे तीर्थ, तप आदि के समान फल प्राप्त होता है। इस माह में दीपकों का दान करने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। दुःख-शोकों का नाश होता है। वंशदीप बढ़ता है, ऊँचा सान्निध्य मिलता है, आयु बढ़ती है। इस मास में गीता के 15वें अध्याय का अर्थसहित प्रेमपूर्वक पाठ करना चाहिए। भक्तिपूर्वक सदगुरु से अध्यात्म विद्या का श्रवण करने से ब्रह्महत्याजनित पाप नष्ट हो जाते हैं तथा दिन प्रतिदिन अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। निष्काम भाव से यदि श्रवण किया जाय तो जीव मुक्त हो जाता है।
व्रत विधि
भगवान श्रीकृष्ण इस मास की व्रत विधि एवं महिमा बताते हुए कहते हैं- “इस मास में मेरे उद्देश्य से जो स्नान (ब्राह्ममुहूर्त में उठकर भगवत्स्मरण करते हुए किया गया स्नान), दान, जप, होम, गुरु-पूजन, स्वाध्याय, पितृतर्पण, देवार्चन तथा और जो भी शुभ कर्म किये जाते हैं, वे सब अक्षय हो जाते हैं। जो प्रमाद से इस मास को खाली बिता देते हैं, उनका जीवन मनुष्यलोक में दारिद्र्य पुत्रशोक तथा पाप के कीचड़ से निंदित हो जाता है, इसमें संदेह नहीं।
शंख की ध्वनि के साथ कपूर से आरती करें। ये न हों तो रूई की बाती से ही आरती कर लें। इससे अनंत फल की प्राप्ति होती है। चंदन, अक्षत और पुष्पों के साथ ताँबे के पात्र में पानी रखकर भक्ति से प्रातःपूजन के पहले या बाद में अर्घ्य दें।
पुरुषोत्तम मास का व्रत दारिद्र्य, पुत्रशोक और वैधव्य का नाशक है। इसके व्रत से ब्रह्महत्या आदि सब पाप नष्ट हो जाते हैं।
विधिवत सेवते यस्तु पुरुषोत्तममादरात्।
कुलं स्वकीयमुद्धृत्य मामेवैष्यत्यसंशयम्।।
पुरुषोत्तम मास के आगमन पर जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति के साथ व्रत, उपवास, पूजा आदि शुभ कर्म करता है, वह निःसंदेह अपने समस्त परिवार के साथ मेरे लोक में पहुँचकर मेरा सान्निध्य प्राप्त कर लेता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2015, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 269
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Rishi Prasad 268 Apr 2015

ग्रीष्म ऋतु में सेहत की देखभाल – ग्रीष्म ऋतुः 20 अप्रैल से 20 जून


ग्रीष्म ऋतु में प्राकृतिक रूप से शरीर के पोषण की अपेक्षा शोषण अधिक होता है। गर्मी से शरीर का जलीय अंश कम होता है। जठराग्नि मंद हो जाती है, भूख कम लगती है, रूखापन बढ़ता है बल क्षीण होता है। इससे दस्त, कमजोरी, बेचैनी आदि परेशानियाँ पैदा हो सकती हैं। आहार व विहार में उचित परिवर्तन करके इनसे सुरक्षा की जा सकती है।
इन दिनों में भोजन में मधुर, हलके, चिकनाईयुक्त, शीतल व तरल पदार्थों का सेवन विशेष रूप से करना चाहिए। खरबूजा, तरबूज, मौसम्बी, संतरा, केला, मीठे आम, मीठे अंगूर, बेलफल, गन्ना, ताजा नारियल, परवल, पेठा (कुम्हड़ा), पुदीना, हरा धनिया, नींबू, गाय का दूध, घी, शिकंजी, पना, सत्तू आदि का सेवन हितकारी है। दही, छाछ, तले हुए अधिक नमकयुक्त, कड़वे व खट्टे पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। तेज व धूप में घूमने, देर रात तक जागने व अधिक भोजन से बचें। ग्रीष्म में शारीरिक शक्ति अत्यंत क्षीण हो जाने के कारण अधिक व्यायाम, अधिक परिश्रम एवं मैथुन त्याज्य है। एअर कंडीशन अथवा कूलर की हवा, फ्रिज का पानी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। चाँदनी में खुली हवा में सोना, मटके का पानी स्वास्थ्यप्रद है।
ग्रीष्मकालीन समस्याओं का समाधान
कमजोरीः सत्तू में घी पर मिश्री अथवा आम के रस में घी व इलायची मिलाकर पीने से कमजोरी नहीं आती। रात को दूध में घी मिलाकर पीना भी लाभदायी है। साठी के चावल का भात व दूध सुपाच्य व शीघ्र शक्तिदायी आहार है।
प्यास व बेचैनीः पिसा हुआ धनिया, सौंफ व मिश्री का मिश्रण बनाकर पानी में भिगो दें और कुछ देर बाद पियें। नारियल पानी, शिकंजी, गन्ने का रस, पना, बेल के शरबत आदि से शीघ्र लाभ होता है। इसने दाह व जलन भी शांत होती है। सॉफ्टड्रिंक्स प्यास, बेचैनी मिटाने का केवल क्षणिक एहसास दिलाते हैं। इनसे अंदरूनी गर्मी अत्यधिक बढ़ती है व अन्य कई गम्भीर दुष्परिणाम होते हैं।
दस्तः दही के ऊपर का पानी 2 चम्मच पीने से तुरंत राहत मिलती है।
लू लगने पर- प्याज का रस शरीर पर मलें, पना पिलायें।
चक्कर- सिर तथा चेहरे पर तुरंत ही ठंडे पानी के छींटें मारें। शीतल, तरल पदार्थ पीने के लिए दें।
दाह- दूध में गुलकंद मिलाकर पियें। आँवले का मुरब्बा, सत्तू, मक्खन-मिश्री, मिश्रीयुक्त पेठे का रस लाभदायी है।
पेशाब में जलन- गर्मी के कारण पेशाब में जलन या रूकावट होने पर कटी ककड़ी में मिश्री का चूर्ण मिला के ऊपर नींबू निचोड़कर खायें।
ककड़ी के 150 ग्राम रस में 1 नींबू का रस और जीरे का चूर्ण मिलाकर पीने से मूत्र की रूकावट दूर होती है।
मंदाग्नि- ककड़ी पर संतकृपा चूर्ण लगा के खाने से मंदाग्नि दूर होती है तथा भोजन में रूचि पैदा होती है। यह चूर्ण सभी संत श्री आशाराम जी आश्रमों वे सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध है।
सब्जियों में सर्वश्रेष्ठ-परवल
आयुर्वेद में परवल को सब्जियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसे सभी ऋतुओं में सदा पथ्य के रूप में स्वीकार किया गया है। परवल की सब्जी रोगग्रस्त लोगों के लिए भी अत्यंत गुणकारी है। घी में भूनकर बनायी गयी परवल की सब्जी स्वादिष्ट व पौष्टिक होती है।
परवल की सब्जी के लाभ
पचने में सुलभ, पाचक, जठराग्निवर्धक एवं त्रिदोषनाशक।
पौष्टिक तथा वीर्य व शक्ति वर्धक।
हृदय तथा आँखों के लिए हितकर।
पेट की विभिन्न बीमारियों – आँतों में सूजन, कृमि, जिगर व तिल्ली की बीमारियों आदि में विशेष लाभकारी।
सूजन तथा रक्तदोषजन्य रोग जैसे खुजली, कोढ़ आदि में उपयुक्त।
पित्तज ज्वर व पुराने बुखार में विशेष लाभदायक।
कफजन्य सर्दी, खाँसी, दमा आदि में विकृत कफ को बाहर निकालने में सहायक।
विशेष- सब्जी के लिए कोमल बीज व सफेद गूदेवाले मीठे परवल का उपयोग करें। कड़वे परवल का उपयोग औषधियों में होता है।
कीटाणुरहित व पवित्र वातावरण के लिए गौ-सेवा फिनायल
आयुर्वेद में धर्मशास्त्रों में वर्णित, पुरातन काल से आरोग्यता, पवित्रता, निर्मलता, स्वच्छता हेतु प्रयुक्त होने वाला गोमूत्र अब एक विशेष अंदाज में ! गोमूत्र, नीम-सत्त्व, देवदार तेल, वानस्पतिक सुगंधित एवं अन्य सुरक्षित कीटाणुनाशकों से निर्मित।
सफाई के साथ रोगाणुनाशक एवं सात्त्विक वातावरण के निर्माण में सहयोगी।
गौ-सेवा के साथ-साथ आध्यात्मिक वातावरण का लाभ देने में मददगार।
प्रयोग विधि- 1 लीटर पानी में 10 मि.ली. गौ-सेवा फिनायल घोलकर पोंछा लगायें, स्प्रे करें या सुविधानुसार प्रयोग करें।
ग्रीष्म ऋतु में जलीय अंश के रक्षक पेय
पाचक व रूचिवर्धक नींबू शरबत
नींबू का रस 1 भाग व शक्कर 6 भाग लेकर चाशनी बनायें तथा थोड़ी मात्रा में लौंग व काली मिर्च का चूर्ण डाल दें। थोड़ा मिश्रण लेकर आवश्यकतानुसार पानी मिला के पियें। यह वातरोग को भी नियंत्रित करता है।
पित्तशामक धनिये का पना
5 से 10 ग्राम बारीक पिये सूखे धनिये में आवश्यकतानुसार मिश्री मिलाकर मिट्टी के पात्र में 2-4 घंटे रखें, थोड़ी पिसी हुई इलायची भी डाल दें। इसके सेवन से शरीर की गर्मी और जलन कम होती है। पित्त का शमन होता है।
शीतल व स्मृतिवर्धक ब्राह्मी शरबत
बुद्धिवर्धक तथा स्फूर्तिदायक इस शरबत के सेवन से ज्ञानतंतु व मस्तिष्क पुष्ट होते हैं, दिमाग शांत व ठंडा होता है। बौद्धिक थकावट, स्मरणशक्ति की कमी, मानसिक रोग, क्रोध, चिड़चिड़ापन दूर होकर मन-बुद्धि को विश्रांति मिलती है। ब्राह्मी का एसेंस नहीं, शुद्ध ब्राह्मी का शरबत हो तब ये लाभ मिलते हैं।
शीतल व स्वास्थ्यवर्धक पलाश शरबत
इसके सेवन से पित्तजन्य रोग (दाह, तृष्णा, जलन आदि। शांत हो जाते हैं। गर्मी सहन करने की ताकत मिलती है तथा कई प्रकार के चर्मरोग में लाभ होता है। यह प्रमेह (मूत्र संबंधी विकारों) में भी लाभदायी है। पलाश रसायन वार्धक्य एवं पित्तजन्य रोगों को दूर रखने वाला, नेत्रज्योति बढ़ाने वाला व बुद्धिवर्धक भी है।
(प्राप्ति स्थान- सभी संत श्री आशाराम जी आश्रम व समितियों के सेवाकेन्द्र।)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 32,33 अंक 268
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