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भवसिंधु पार उतारणहारः भगवन्नाम


ऋगवेद (4.1.1) में आता हैः
अमर्त्यं यजत मर्त्येषु।
‘हे विद्वान लोगो ! मरणधर्मवालों में मरणधर्म से रहित परमात्मा की पूजा करो।’
मरने वाले मनुष्य-शरीर के प्रस्थान की कोई निश्चित घड़ी, क्षण नहीं है। उसके समुद्धार के लिए कलियुग में भगवन्नाम ही एकमात्र उत्तम आधार है।
नामु सप्रेम जपत अनायासा।
यह सप्रेम नाम-जप इस कलियुग में अनायास साधन है। इसकी साधना में कोई विशेष आडम्बर, विधि-विधान या साधनों की आवश्यकता नहीं है। यह ऐसा रस है कि जितना चखो उतना ही दिव्य व मधुर लगता है। यह नाम-प्रेम ऐसा है कि पीने से तृप्ति नहीं होती, प्यास और बढ़ती है। पीने से आनंद होता है और अधिकाधिक पीने की लालसा उत्कट होती जाती है। ऐसा कौन पुण्यात्मा बुद्धिमान होगा जो ऐसे द्विगुण नाम-रस को छोड़ कर संसार के रस, जो कि इसकी तुलना में सदैव फीके हैं एवं उनके चखने से ही शक्ति का क्षय, रोग, पराधीनता और जड़ता अवश्यंभावी है, ऐसे नश्वर भोगसुख, वासना विकारों में लिप्त होगा ?
भगवन्नाम-कीर्तन, भगवत्स्मृति, भगवद्शांति, भगवद्-आनंद से भक्त और भगवान दोनों एक हो जाते हैं, भक्त ब्रह्ममय हो जाता है। भगवान कहते हैं कि ‘त्रिभुवन की लक्ष्मी, भोग, मान, यश आदि सुखों को नीरस गिनने वाले जो भक्त मेरा कीर्तन करते हुए नृत्य करते हैं उनके द्वारा मैं खरीदा गया हूँ।’
भगवान देवर्षि नारद जी से कहते हैं-
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वै।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।। (पद्म पुराण, उ. खंड. 94.23)
हे नारद ! मैं कभी वैकुण्ठ में भी नहीं रहता, योगियों के हृदय का भी उल्लंघन कर जाता हूँ परन्तु जहाँ मेरे प्रेमी भक्त मेरे गुणों का गान करते हैं, वहाँ मैं अवश्य रहता हूँ।
ऐसे भगवान को वश में करने वाले ईश्वर-प्रेमी भगवदगुण-नाम कीर्तन करके भगवान में अखण्ड स्थिति प्राप्त कर लेते हैं। भगवान गुण, रूप, माधुर्य, तेज, सुख, दया, करुणा, सौहार्द, क्षमा और प्रेम के सागर हैं। जगत में कहीं भी, इनमें से किसी भी गुण का कोई भी अंश दिखने में आता है तो वह सारा का सारा परमेश्वर के उस अनंत भण्डार में से ही आता है। भगवन्नाम-कीर्तन करने वाले भक्त अनंत सुखराशि, आनंदघन भगवान के हृदय के साथ अपना ताल मिला लेते हैं, भगवान के हृदय के साथ अपना हृदय मिला लेते हैं। दुनियावी लोगों के लिए जो दुःखालय है, वही संसार भगवान के प्यारे के लिए भगवान की लीलाकृतिस्वरूप सुखालय बन जाता है। उसकी हर एक रचना भक्त को भगवान की स्मृति कराती है। स्वर और व्यञ्जन उसके शब्दब्रह्म बन जाते है। उसे दृश्यमात्र में भगवान की अलौकिक आभा, ज्योतिपुंज दिखाई देता है।
धन्य है ऐसे भक्त, जिन्होंने भक्ति के साथ संयम और तत्परता से भुवनों को पावन कर दिया और अपने ब्रह्म स्वभाव में, ‘सोऽहम्’ स्वभाव में सजग हो गये !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 21 अंक 267
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भगवान श्रीराम की गुणग्राही दृष्टि


(श्रीराम नवमीः 28 मार्च)
जब हनुमानजी श्रीरामचन्द्रजी की सुग्रीव से मित्रता कराते हैं, तब सुग्रीव अपना दुःख, अपनी असमर्थता, अपने हृदय की हर बात भगवान के सामने निष्कपट भाव से रख देता है। सुग्रीव की निखालिसता से प्रभु गदगद हो जाते हैं। तब सुग्रीव को धीरज बँधाते हुए भगवान श्रीराम प्रतिज्ञा करते हैं-
सुनु सुग्रीव मारिहुँ बालिहि एकहिं बान।…. (श्रीरामचरित. कि.कां. 6)
“सुग्रीव ! मैं एक ही बाण से बालि का वध करूँगा। तुम किष्किन्धापुरी जाकर बालि को चुनौती दो।” सुग्रीव आश्चर्य से भगवान का मुँह देखने लगे, बोलेः “प्रभो ! बालि को आप मारेंगे या मैं ?”
भगवान बोलेः) “मैं मारूँगा।”
“तो फिर मुझे क्यों भेज रहे हैं ?”
“लड़ोगे तुम और मारूँगा मैं।”
भगवान का संकेत है कि ‘पुरुषार्थ तो जीव को करना है परंतु उसका फल देना ईश्वर के हाथ में है।’
लक्ष्मणजी ने भगवान श्रीराम से पूछाः “प्रभो ! सुग्रीव की सारी कथा सुनकर तो यही लगता है कि भागना ही उसका चरित्र है। आपने क्या सोचकर उससे मित्रता की है ?”
रामजी हँसकर बोलेः “लक्ष्मण ! उसके दूसरे पक्ष को भी तो देखो। तुम्हें लगता है कि सुग्रीव दुर्बल है और बालि बलवान है पर जब सुग्रीव भागा और बालि ने उसका पीछा किया तो वह सुग्रीव को नहीं पकड़ सका। भागने की ऐसी कला कि अभिमानरूपी बालि हमें बन्दी न बना सके। और सुग्रीप पता लगाने की कला में भी कितना निपुण और विलक्षण है ! उसने पता लगा लिया कि बालि अन्य सभी जगह जा सकता है परन्तु ऋष्यमूक पर्वत पर नहीं जा सकता। सीता जी का पता लगाने के लिए इससे बढ़कर उपयुक्त पात्र दूसरा कोई हो ही नहीं सकता।”
जब सुग्रीव बालि से हारकर आया तो भगवान राम ने उसे माला पहनायी। लक्ष्मण जी ने भगवान श्रीराम से कहाः “आपने तो सृष्टि का नियम ही बदल दिया। जीतने वाले को माला पहनाते तो देखा है पर हारने वाले को माला…..!” प्रभु मुस्कराये और बोलेः “संसार में तो जीतने वालों को ही सम्मान दिया जाता है परंतु मेरे यहाँ जो हार जाता है, उसे ही मैं माला पहनाता हूँ।” भगवान राम का अभिप्राय यह है कि सुग्रीव को अपनी असमर्थताओं का भलीभाँति बोध है। कुछ लोग असमर्थता की अनुभूति के बाद अपने जीवन से हतोत्साहित हो जाते हैं पर जो लोग स्वयं को असमर्थ जानकर सर्वसमर्थ भगवान व सदगुरु की सम्पूर्ण शरणागति स्वीकार कर लेते हैं, उन्हें जीवन की चरम सार्थकता की उपलब्धि हो जाती है।
लक्ष्मणजी पूछते हैं- “महाराज ! नवधा भक्ति में कौन-कौन सी भक्ति आपको सुग्रीव में दिखाई दे रही है।” प्रभु ने कहाः “प्रथम भी दिखाई दे रही है और नौवीं भी – प्रथम भक्ति संतन्ह कर संगा। हनुमान जी जैसे संत इन्हें प्राप्त हैं। नवम सरल सब सन छलहीना। अंतःकरण में सरलता और निश्छलता है। अपनी आत्मकथा सुनाते समय सुग्रीव ने अपने भागने को, अपनी पराजय को, अपनी दुर्बलता को कहीं भी छिपाने की चेष्टा नहीं की।”
सुग्रीव के चरित्र का एक अन्य श्रेष्ठ पक्ष है ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करना। वहाँ ऋषि लोग मूक (मौन) होकर निवास करते थे। ऋष्यमूक पर्वत पर बालि नहीं आ सकता था। सुग्रीव जब उस पर्वत से नीचे उतर आता है तो उसे बालि का डर बना रहता था। यहाँ पर संकेत है कि जब तक हम महापुरुषों के सत्संगरूपी ऋष्यमूक पर्वत पर बैठते हैं, सत्संग से प्राप्त ज्ञान का आदर करते हैं, तब तक सब ठीक रहता है परंतु ज्यों ही सत्संग के उच्च विचारों से मन नीचे आता है तो फिर से अभिमानरूपी बालि का भय बना रहता है।
हनुमानजी ने बालि का नहीं सुग्रीव का साथ दिया। हनुमानजी शंकरजी के अंशावतार हैं और भगवान शंकर मूर्तिमान विश्वास हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जीवन में चाहे सब चला जाय पर विश्वास न जाने पाये। जिसने विश्वास खो दिया, निष्ठा खो दी उसने सब कुछ खो दिया। सब खोने के बाद भी जिसने भगवान और सदगुरु के प्रति विश्वास को साथ ले लिया, उसका सब कुछ सँजोया हुआ है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 267
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भगवन्नाम का ऐसा प्रभाव, भरता सबके हृदय में सद्भाव


एक गाँव में एक गरीब के 2 पुत्र व एक पुत्री थी। खराब संगत से वे तीनों बिगड़ गये। जब बड़े हुए तो भाइयों ने एक कुटिल योजना बनायी कि ‘किसी धनवान के साथ बहन का विवाह रचाते हैं फिर किसी तरह इसके पति को मरवा देंगे। इससे उसका धन अपने कब्जे में आ जायेगा। फिर बहन की शादी कहीं और करवा देंगे।’
भागदौड़ करने पर उन्हें एक धनी युवक घनश्याम मिल गया, जो कि सत्संगी और भगवन्नाम-जप की महिमा में दृढ़ आस्थावान था। उससे उन्होंने बहन की शादी करा दी। विदाई के समय बहन को सब समझा दिया। बहन ससुराल गयी और शादी के तीसरे दिन पति के साथ मायके फेरा डालने के लिए चल पड़ी। राह में प्यास का बहाना बनाकर वह पति को कुएँ के पास ले गयी। पति ज्यों ही कुएँ से पानी निकालने लगा, त्यों ही उसने पति को धक्का मार दिया और मायके पहुँच गयी।
ससुराल से सारा सोना, चाँदी, नकद पहले ही साथ बाँध लायी थी। भाई अति प्रसन्न हुए। उधर उसका पति तैरना जानता था। कुएँ के भीतर से आवाज सुन राहियों ने उसे बाहर निकाला। वह सीधे ससुराल पहुँच गया। उसे जीवित देख सभी चकित एवं दुःखी हुए। घनश्याम ने इस षड्यंत्र के बारे में सब समझने के बावजूद भी ऐसे व्यवहार किया जैसे कोई घटना ही नहीं घटी हो। रीति अनुसार अगले दिन ससुराल से पति ने पत्नी सहित विदाई ली। घनश्याम पत्नी को सत्संग में ले गया। सत्संग और सत्संगी महिलाओं के सम्पर्क से उसकी सूझबूझ सुंदर हो गयी, पवित्र हो गयी।
घनश्याम गृहस्थ के सभी कर्तव्यों को निभाता हुआ भक्तिमार्ग पर भी आगे बढ़ रहा था। उसके दो पुत्र हुए। पुत्रों के विवाह के बाद घनश्याम की ईश्वर-परायणता और भी ब़ढ़ गयी। ब्राह्ममुहूर्त में उठना, दिनभर जप, पाठ स्वाध्याय, सत्संग एव साधु-संतों, जरूरतमंदों की सेवा में निमग्न रहना उसका नियम बन गया था। एक बार बड़ी बहू ने पूछाः “पिता जी ! आप भगवन्नाम इतना क्यों जपते हैं ?”
घनश्यामः “बहू ! भगवान से बड़ा भगवान का नाम होता है। भगवन्नाम में असीम शक्ति एवं अपरिमित सामर्थ्य होता है। भगवान में असीम शक्ति एवं अपरिमित सामर्थ्य है। इसने केवल मेरी जान ही नहीं बचायी है बल्कि मुझे क्रोध, झगड़ा, वैर-विरोध, अशांति तथा न जाने कितनी ही बुराइयों से बचाया है। दूसरों में दोष न देखना, किसी की निंदा न करना, न सुनना, नीचा दिखाने के लिए कभी किसी की बुराई न उछालना बल्कि पर्दा डालकर उसकी बुराई को दूर करने में सहयोगी बनना, उसे उन्नत करना… ये सब सदगुण जापक में स्वतः आ जाते हैं। मैंने संत-महापुरुषों से सुना एवं अनुभव किया है कि कलियुग के दोषों से बचने के लिए भगवन्नाम महौषधि है।”
“पिताजी ! आपकी जान कब बची थी ?”
बहू के इस प्रश्न को घनश्याम ने टाल दिया। ससुर बहू की इस वार्ता को दरवाजे के पास खड़ी घनश्याम की पत्नी भी सुन रही थी। उसकी आँखों से पश्चाताप के आँसू बहने लगे। वह सामने आ गयी और पूर्व में हुई पूरी घटना बताते हुए बोलीः “बेटी ! पतिहंता होते हुए भी पति की मेरे प्रति अतुलनीय क्षमा, सौहार्द व प्रेम है। ऐसे देवतुल्य पति का साथ पाक मैं तो धन्य हो गयी !”
बहू बोलीः “माँ जी ! मैं भी पहले नास्तिक थी। मुझे भगवान, संत-महापुरुषों और भारतीय संस्कृति में श्रद्धा नहीं थी। मैं तो अपने माता-पिता की बात ही नहीं सुनती थी। परंतु यहाँ आने के बाद ससुरजी के कारण मेरे स्वभाव में परिवर्तन आया और आज नाम-जप की महिमा सुनकर अपनी संस्कृति की महानता मालूम हुई। माँ जी ! अब मैं भी ससुरजी के गुरुदेव के पास जाकर मंत्रदीक्षा लूँगी और अपना एवं अपने बच्चों का जीवन उन्नत बनाऊँगी।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 267
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