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प्राणिमात्र के कल्याण का हेतु होता है संत अवतरण – पूज्य बापू जी


पूज्य बापू जी का 75वाँ अवतरण दिवसः 10 अप्रैल
संतों को नित्य अवतार माना गया है। कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं संत होंगे और उनके हृदय में भगवान अवतरित होकर समाज में सही ज्ञान व सही आनंद का प्रकाश फैलाते हैं। उनके नाम पर, धर्म के नाम पर कहीं कितना भी, कुछ भी चलता रहता है फिर भी संत-अवतरण के कारण समाज में भगवत्सत्ता, भगवत्प्रीति, भगवद्ज्ञान, भगवद्-अर्पण बुद्धि के कर्मों का सिलसिला भगवान चलवाते रहते हैं।
तो आपके कर्म भी दिव्य हो जायेंगेः
साधारण आदमी अपने स्वार्थ से काम करता है, भगवान और महात्मा परहित के लिए काम करते हैं। महात्माओं का जन्मदिवस मनाने वाले साधक भी परहित के लिए काम कर रहे हैं तो साधकों के भी कर्म दिव्य हो गये।
इस दिवस पर जो भी सेवाकार्य करते हैं, वे करने का राग मिटाते हैं, भोगने का लालच मिटाते हैं और भगवान व गुरु के नाते परहित करते हैं। उन साधकों को जो आनंद आता होगा, जो कीर्तन में मस्ती आती होगी या गरीबों को भोजन कराने में जो संतोष का अनुभव होता होगा, विद्यार्थियों को नोटबुक बाँटने में तथा भिन्न-भिन्न सेवाकार्यों में जो आनंद आता होगा, वह सब दिव्य होगा। इस दिन के निमित्त प्रतिवर्ष गरीबों में लाखों टोपियाँ बँटती हैं, लाखों बच्चों को भोजन मिलता है और लाखों-लाखों कापियाँ बँटती हैं। औषधालयों में, अस्पतालों में, और जगहों पर – जिसको जहाँ भी सेवा मिलती है, वे सेवा ढूँढ लेते हैं। अपने स्वार्थ के लिए कर्म करते हैं तो उससे कर्मबंधन हो जाता है और परहित के लिए कर्म करते हैं तो कर्म दिव्य हो जाता है।
आपको जगाने के लिए क्या-क्या कर्म करते हैं
आप जिसका जन्मदिवस मना रहे हैं, वास्तव में वह मैं हूँ नहीं, था नहीं। फिर भी आप जन्म दिवस मना रहे हैं तो मैं इन्कार भी नहीं करता हूँ। आपने मुकुट पहना दिया तो पहन लिया, फूलों की चादर ओढ़ा दी तो ओढ़ ली। इस बहाने भी आपका जन्म-कर्म दिव्य हो जाये। वे महापुरुष हमें जगाने की न जाने क्या-क्या कलाएँ, क्या-क्या लीलाएँ करते रहते हैं ! नहीं तो ये टॉफी बाँटना, रंग छिड़कना, प्रसाद लेना-बाँटना – ये हमारी दुनिया के आगे बहुत-बहुत छोटी बात है। लेकिन करें तो करें क्या ? आध्यात्मिकता में जिनकी बचकानी समझ है, एक दो की नहीं लगभग सभी की है, उन्हें उठाना-जगाना है। यह अपने-आप में बहुत भारी तपस्या है। एकाग्रता के तप से भी ऊँचा तप है। वे महापुरुष नित्य नवीन रस अद्वैत ब्रह्म में हैं लेकिन नित्य द्वैत के व्यवहार में उतरते हुए हमको ऊपर उठाते हैं।
यह जो कुछ आँखों से दिखता है, जीभ से चखने में आता है, नाक से सूँघने में आता है, मन और बुद्धि से सोचने में आता है – ये सब वास्तव में हैं ही नहीं। जैसे स्वप्न में सब चीजें सच्ची लगती हैं, आँख खोली तो वास्तविकता में नहीं हैं, ऐसे ही ये सब सचमुच में, वास्तविकता में नहीं है।
आप भी इसका मजा लो
वास्तव में प्रकृति और चैतन्य परमात्मा है, बाकी कुछ भी ठोस नहीं है। सिर्फ लगता है यह ठोस है। 10 मिनट हररोज भावना करो कि ‘यह सब स्वप्न है, परिवर्तनशील है। इन सबके पीछे एक सूत्रधार चैतन्य है और अष्टधा प्रकृति है।’ यह याद रखो और स्वप्न का मजा लो तो उसकी गंदगी अथवा विशेषता से आप बंधायमान नहीं होंगे।
भगवान व गुरु भक्त का पक्ष लेते हैं
भगवान और गुरु के साथ एकतानता हो जाय तो भगवान और गुरु का अनुभव एक ही होता है। ब्रह्म-परमात्मा तटस्थ हैं, गुरु और भगवान पक्षपाती हैं। ब्रह्म-परमात्मा प्रकाश देते हैं, चेतना देते हैं, कोई कुछ भी करे …. लेकिन भगवान और गुरु भक्त का पक्ष लेते हैं। भक्त अच्छा करेगा तो प्रोत्साहित करेंगे, बुरा करेगा तो डाँटेंगे, बुराई से बचने में मदद करेंगे, भक्त की रक्षा करेंगे। ‘चतुर्भुजी नारायण भगवान नन्हें हो जाओ’ तो माता की प्रार्थना पर ‘उवाँ…..उवाँ……’ करते हुए रामजी बन गये, श्रीकृष्ण बन गये। भक्त के पश्र में वराह अवतार, मत्स्य अवतार, अंतर्यामी अवतार, प्रेरक अवतार ले लेते हैं।
जन्मदिवस मनाने का उद्देश्य क्या ?
यह जन्म दिवस मनाने के पीछे भी एक ऊँचा उद्देश्य है। ‘मैं कौन हूँ ?….. ‘ – ‘मैं फलाना हूँ….’ पर यह तो शरीर है, इसको जानने वाला मन है, निर्णय करने वाली बुद्धि है। ये सब तो बदलते हैं फिर भी जो नहीं बदलता है, वह मैं कौन हूँ ?’ – ऐसा खोजते-खोजते गुरु के संकेत से सदाचारी जीवन जिये तो ‘मैं कौन हूँ ?’ इसको जान लेना और जन्म दिव्य हो जायेगा। जन्म दिव्य होते ही कर्म दिव्य हो जायेंगे क्योंकि सुख पाने की लालसा नहीं है, दुःख से बचने का भय नहीं है और ‘जो है, बना रहे’ ऐसी उसकी नासमझी नहीं है।
मरने वाले शरीर का जन्मदिवस तो मनाओ पर उसी निमित्त मनाओ, जिससे सत्कर्म हो जायें, सदबुद्धि का विकास हो जाये। इस उत्सव में नाच कूद के बाहर की आपाधापी मिटाकर सदभाव जगा के फिर शांत हो जायें। श्रीमद् आद्यशंकराचार्यजी ने कहा हैः
मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं….
‘मैं शरीर भी नहीं हूँ, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त भी नहीं हूँ। तो फिर क्या हूँ?’ बस, डूब, जाओ, तड़पो….. प्रकट हो जायेगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 267
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नवजात शिशु का स्वागत


 

‘अष्टांगहृदय’ कार का कहना है कि शिशु के जन्मते ही तुरंत उसके शरीर पर चिपकी श्वेत उल्व को कम मात्रा में सेंधा नमक एवं ज्यादा मात्रा में घी लेकर हलके हाथ से साफ करें।

जन्म के बाद तुरंत नाभिनाल का छेदन कभी न करें। 4-5 मिनट में नाभिनाल में रक्त प्रवाह बंद हो जाने पर नाल काटें। नाभिनाल में स्पंदन होता हो तो उस समय काटने पर शिशु के प्राणों में क्षोभ होने से उसके चित्त पर भय के संस्कार गहरे हो जाते हैं। इससे उसका समस्त जीवन भय के साय में बीत सकता है।

स्वीडन के उपस्सला विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने यह सिद्ध किया है कि ‘नाभिनाल-छेदन तुरन्त करने पर लौह तत्त्व की कमी के कारण नवजात शिशु के मस्तिष्क के विकास में कमी रहती है, जिसके फलस्वरूप उसे भयंकर रोग होते हैं। जिन बच्चों की नाल देर से काटी जाती है उनके रक्त में पर्याप्त लौह तत्त्व रहने से मस्तिष्क का समुचित विकास होता है। क्योंकि 3 मिनट तक शिशु को माता के गर्भाशय से 10 सेंटीमीटर नीचे रखने से शिशु के रक्त में 32 प्रतिशत वृद्धि होती है, जो उसे नाल से प्राप्त होता है।’

बच्चे का जन्म होते ही, मूर्च्छावस्था दूर होने के बाद शिशु जब ठीक से श्वास-प्रश्वास लेने लगे, तब थोड़ी देर बाद स्वतः ही नाल में रक्त का परिभ्रमण रूक जाता है। नाल अपने आप सूखने लगती है। तब शिशु की नाभि से आठ अंगुल ऊपर रेशम के धागे से बंधन बाँध दें। अब बंधन के ऊपर से नाल काट सकते हैं।

फिर घी, नारियल तेल, शतावरी सिद्ध तेल, बलादि सिद्ध तेल में से किसी एक के द्वारा शिशु के शरीर पर धीरे-धीरे मालिश करें। इससे शिशु की त्वचा की ऊष्मा (गर्मी) सँभली रहेगी और स्नान कराने पर उसको सर्दी नहीं लगेगी। शरीर की चिकनाई दूर करने के लिए तेल में चने का आटा डाल सकते हैं।

तत्पश्चात पीपल या वटवृक्ष की छाल डालकर ऋतु अनुसार बनाये हुए हलके या उससे कुछ अधिक गर्म पानी से 2-3 मिनट स्नान करायें। यदि सम्भव हो तो सोना या चाँदी का टुकड़ा डालकर उबाले हुए हलके गुनगुने पानी से भी बच्चे को नहला सकते हैं। इससे बच्चे का रक्त पूरे शरीर में सहजता से घूमकर उसे शक्ति व बल देता है।
स्नान कराने के बाद बच्चे को पोंछकर मुलायम व पुराने (नया वस्त्र चुभता है) सूती कपड़े में लपेट के उसका सिर पूर्व दिशा की ओर रखकर मुलायम शय्या पर सुलायें। इसके बाद गाय का घी एवं शहद विषम प्रमाण में लेकर सोने की सलाई या सोने का पानी चढ़ायी हुई सलाई से नवजात शिशु की जीभ पर ‘ॐ’ तथा ‘ऐं’ बीज मंत्र लिखें। तत्पश्चात शिशु का मुँह पूर्व दिशा की ओर करके आश्रम द्वारा निर्मित ‘सुवर्णप्राश’ (एक गोली का आठवाँ भाग) को घी व शहद के विषम प्रमाण के मिश्रण अथवा केवल शहद या माँ के दूध के साथ अनामिका उँगली (सबसे छोटी उँगली के पास वाली उँगली) से चटायें। शिशु को जन्मते हुए कष्ट के निवारण हेतु हलके हाथ से सिर व शरीर पर तिल का तेल लगायें। फिर बच्चे को पिता की गोद में दे। पिता बच्चे के दायें कान में अत्यन्त प्रेमपूर्वक बोलें- ॐॐॐॐॐॐॐॐ अश्मा भव। तू चट्टान की तरह अडिग रहने वाला बन। ॐॐॐॐॐॐॐ परशुः भव। विघ्न बाधाओं को, प्रतिकूलताओं को ज्ञान के कुल्हाड़े से, विवेक के कुल्हाड़े से काटने वाला बन। ॐॐॐॐॐॐॐ हिरण्यमयस्तवं भव। तू सुवर्ण के समान चमकने वाला बन। यशस्वी भव। तेजस्वी भव। सदाचारी भव। तथा संसार, समाज, कुल, घर व स्वयं के लिए भी शुभ फलदायी कार्य करने वाला बन !’ साथ ही पिता निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण भी करेः

अंगादंगातसम्भवसि हृदयादभिजायसे।
आत्मा वै पुत्रनामाऽसि स़ञ्जीय शरदां शतम्।।
शतायुः शतवर्षोऽसि दीर्घमायुरवाप्नुहि।
नक्षत्राणि दिशो रात्रिरहश्च त्वाऽभिरक्षतु।।

‘हे बालक ! तुम मेरे अंग-अंग से उत्पन्न हुए हो मेरे हृदय से साधिकार उत्पन्न हुए हो। तुम मेरी ही आत्मा हो किंतु तुम पुत्र नाम से पैदा हुए हो। तुम सौ वर्ष तक जियो। तुम शतायु होओ, सौ वर्षों तक जीने वाले होओ, तुम दीर्घायु को प्राप्त करो। सभी नक्षत्र, दसों दिशाएँ दिन रात तुम्हारी चारों ओर से रक्षा करें।’ (अष्टांगहृदय, उत्तरस्थानम् 1.3.4)

बालक के जन्म के समय ऐसी सावधानी रखने से बालक की, कुल की, समाज की और देश की सेवा हो जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 267
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Rishi Prasad 267 Mar 2015

गीता में शांति पाने के 6 उपाय – पूज्य बापू जी


वेद सनातन सत्य है, अपौरूषेय है। उस वेद की वाणी उपनिषदों में और उपनिषदों का प्रसाद भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में प्रकट करवाया है। गीता श्रीकृष्ण के अनुभव की पोथी है। भगवान कहते हैं- गीता मे हृदयं पार्थ। ‘गीता मेरा हृदय है।’ गीता में शांति पाने के 6 उपाय बताये गये हैं।
किसी जगह पर जाकर आने से शांति पायी तो आपने शांति को पहचाना ही नहीं। असली शांति सदगुरु की कृपाकुंजी के बिना मिलती ही नहीं।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम्…. उसे परम शांति कहते हैं। इस परम शांति को पाने के उपाय गीता में श्रीकृष्ण बता रहे हैं।
एक, वैराग्य हो। विवेक से ही वैराग्य आता है। कुछ आ गया, कुछ झटका लग गया और वैराग्य हो गया, वह श्मशानी वैराग्य है। पत्नी ने कुछ कह दिया और पत्नी से वैराग्य हो गया, धंधे में घाटा पड़ा और वैराग्य हो गया, टिकट नहीं मिली तो राजनीति से वैराग्य हो गया… यह वैराग्य नहीं है। सत्संग के द्वारा सूझबूझ बढ़ी कि अनित्य शरीर है, अऩित्य वस्तुएँ हैं, हिरण्यकशिपु जैसी उपलब्धियों के बाद भी पतन है, रावण के जैसी उपलब्धियों के बाद भी जीवन नगण्य है, आखिर कोई सार नहीं – ऐसा वैराग्य ! विवेक के द्वारा वैराग्य जगे।
दूसरा, श्रद्धा। शास्त्र, भगवान और आत्मवेत्ता महापुरुषों के प्रति श्रद्धा। श्रद्धा एक ऐसा अमृत-रस है, एक ऐसा सम्बल है कि निराशा की खाई में गिरे हुए व्यक्ति को आशा की सीढ़ी मिल जाती है, हतोत्साही को उत्साह मिल जाता है। रूखे हृदय में मधुरता का संचार करने का काम श्रद्धादेवी का है। मैँ बच्चे की जैसे संभाल रखती है, उससे भी ज्यादा सुरक्षा कर देती है श्रद्धादेवी। जीवन में श्रद्धा बहुत जरूरी है लेकिन श्रद्धा के साथ तत्परता और इन्द्रिय-संयम बेड़ा पार कर देता है। श्रद्धा ईश्वर से मिलाने में अदभुत साथ-सहकार देती है लेकिन वह अगर सत्संग, ज्ञान और गुरु के संकेत के बिना की है तो वह चकरावे में भी डाल देती है।
अपनी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ की तो गुरु महाराज हैं, नहीं तो बोरी बिस्तर बाँधकर चलते बने, यह श्रद्धा नहीं। और श्रद्धेय के हृदय को चोट न लगे ऐसा श्रद्धालु का ध्यान होता है तथा श्रद्धेय के सिद्धान्त में अपना मन वाह ! वाह !! वाह !!!….’
तेरे फूलों से भी प्यार, तेरे काँटों से भी प्यार।
जो देना चाहे दे दे करतार, हमें दोनों हैं स्वीकार।।
क्योंकि देने वाले हाथ किसके हैं ? हाथों का महत्त्व है। श्रद्धा इसका नाम है ! मेरे गुरु जी ने जब भी मुझे कभी कुछ कहा तो बाहर के लोग समझते होंगे अथवा जो मुझे गुरु शरण से भगाना चाहते थे वे लोग सोचते होंगे कि ‘गुरु जी इनको कोसते हैं’ लेकिन मेरे गुरु जी मुझे कोसें ऐसे नहीं थे। वे किसी को नहीं कोसते थे। साँप को प्यार कर सकते हैं वे, बिच्छू नाम के पौधे का भी हित चाहते हैं, ऐसे मेरे गुरु जी मेरे को क्या कोसेंगे ? हाँ मेरी गलती है अथवा किसी ने गलत जानकारी दी है तो गुरु जी ने भले की भावना से कहा है न ! बस, बात पूरी हो गयी।
साधु ते होई न कारज हानी।
ब्रह्म गिआनी ते कछु बुरा न भइया।।
ऐसी श्रद्धा हो !

तीसरा, गीताकार कहते हैं कि आपके जीवन में भगवद्-अर्थ कर्म हों। यश, सुविधा के लिए कर्म करते हैं, वासना के अनुसार काम करते हैं तो भवबंधन में फँसते हैं। भगवत्प्रीति के लिए कर्म करो फिर चाहे वह कर्म बाहर से बढ़िया दिखे, चाहे घटिया दिखे। जैसे – एक ब्रह्मचारी रात्रि को लंका में दर-दर चक्कर काट रहे हैं…. हनुमान जी की गरिमा से बहुत तुच्छ काम हैं लेकिन
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम।
श्री रामचरित. सुं.कां. 1
लंका की गली-गली खोजते हैं, घर-घर छानते हैं कि ‘सीता जी कहाँ हैं…. सीता जी कहाँ हैं ?’ न जाने किन-किन राक्षसी बच्चियों को, माइयो को और गंदे लोगों को देखते-देखते भी सीता जी की खोज जारी रखते हैं क्योंकि काम किसका है ? स्वामी का है… तो भगवद्-अर्थ कर्म हों।
जो गुरु के जी में आये या गुरु का संकेत मिले, वह काम आपको प्यारा लगे भगवद्-संकेत, गुरु-संकेत से, तब सझना कि आपका कर्म वासनारहित है, भगवद् और गुरु प्रसन्नता के लिए है।
चौथी बात है कि आपके अंदर में भक्ति हो। भक्ति ऐसी नहीं हो कि बाँके बिहारी के लिए भक्ति हुई और बेटा नहीं हुआ तो बाँके बिहारी को निकाल दिया, दिल से निकाल दिया। ये भक्त के लक्षण नहीं हैं।
पाँचवाँ है महापुरुषों की शरण।
भगवान कहते हैं- ‘उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दंडवत् प्रणाम करने से, उऩकी सेवा करने से व कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।’ (गीताः 4.34)
और छठी बात है कि सब रूपों में मेरा महेश्वर ही है। आप दीन-हीन, गरीब को देखते हैं तो ‘यह बेचारा गरीब है और मैं इसको नहीं देता तो क्या होता….’ इस वहम में मत पड़ना। ‘गरीब के रूप में भी वही मेरा जगत्पति जगदीश्वर, महेश्वर है। माँ-बाप के रूप में, गुरु के रूप में, अमीर के रूप में, कंगले के रूप में…. अरे, कुत्ते के रूप में भी वह उसका उपभोग करने वाला मेरा चैतन्य है।’ – यह नजरिया मिल जाये तो काम बन जाय !
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।। (गीताः 5.29)
मैं यज्ञ का, तप का फल भोगने वाला सबका अंतरात्मा महेश्वर हूँ, ईश्वरों का ईश्वर हूँ। देव की पूजा करते हो अथवा मुख्य देव ब्रह्मा-विष्णु-महेश की पूजा-उपासना करते हो तब भी उस महेश्वर के संकल्प से ही, उस अंतर्यामी देव की कृपा से ही आपका मनोरथ फलता है। गुरुदेव की उपासना करते हो, प्रार्थना करते हो तब भी गुरुदेव के अंतरात्मा के चैतन्य से ही फलता है। अर्थात् जो भी देव हैं उन देवों में वास्तविक देव वह सर्व-अनुस्यूत परब्रह्म परमात्मा है और ‘वे परमात्मा मेरे सुहृद हैं’ ऐसा जो जानता है, मानता है उसको परमात्म-शांति सहज में मिलती है। आप ऐसे भगवान का चिंतन करके शांत होने का अभ्यास करो।
मैं आबू की नल गुफा में रहता था। वहाँ मनोहरलाल नाम का एक तारबाबू आया था। वह कोई साधक नहीं था। मुझे किराये का अच्छा मकान मिल जाये, यह आशीर्वाद लेने सुबह-सुबह आया था बंदा। मैंने कहाः “अभी थोड़ी देर बैठो आँखें मूंदकर भगवान का नाम लो फिर मैं बात करता हूँ।” वह बैठा तो बैठा…. सुबह साढ़े छः के पास आसपास आया होगा, सूर्य को मैंने लाल देखा था उस समय। 9, बज गये, 10 बज गये…. मैंने कहाः ‘अब बैठा है तो बेचारे को बैठने दें।’ ऐसे करते-करते आखिर मुझे शाम का लाल सूर्य दिखाई दिया, करीब छः बजे होंगे। सुबह साढ़े छः बजे का बैठा शाम के छः बज गये उसी आसन पर बैठे ! और वह कोई साधक नहीं था, शाकाहारी नहीं था। अंडा खाने वाला, दारू पीने वाला था। आज्ञा मानी, बैठा तो सुबह और शाम को सूर्यास्त के समय मैंने उसको उठाया। मैंने पूछाः “क्या है ?” आया था किराये का मकान मिले इसलिए, लेकिन ऐसे मकान में (अपने वास्तविक घर में) अनजाने में गति हो गयी कि बोलेः “बस….” अहोभाव से भर गया। अपना मनमाना कितना भी करें…. हजारों वर्ष तपस्या की थी हिरण्यकशिपु ने, रावण ने ! आपकी एकाग्रता उनके आगे क्या मायना रखती है ! आपकी योग्यता उनकी योग्यताओं के आगे क्या मायना रखती है ! फिर भी वे संसार से हार के गये। शबरी भीलन, रैदासजी, धन्ना जाट, सदना संसार से जीत गये क्योंकि
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
ऐसे आत्मानुभवी गुरु जिनको मिले हैं, वे धनभागी हैं ! ईश्वरप्राप्ति की इच्छा जिनकी तीव्र है उनको भी धन्यवाद है ! उनके माँ बाप को भी धन्यवाद है, नमस्कार है !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 6,7,10 अंक 267
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