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Rishi Prasad 267 Mar 2015

अब विज्ञान भी गा रहा है अध्यात्म की महिमा


यूएसए के ओहियो विश्वविद्यालय के एक अध्ययन से सामने आया है कि ‘जो लोग ईश्वरीय सत्ता को मानते हैं वे ज्यादा आश्वस्त और सुरक्षित रहते हैं। ऐसे लोगों का मनोबल सामान्य लोगों की तुलना में बढ़ जाता है और वे विपरीत परिस्थितियाँ तथा रोग का आक्रमण नास्तिक या कारणवादियों की तुलना में आसानी से झेल पाते हैं। अध्यात्म की शरण लेने से मनुष्य अपने को ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है। ‘ विश्वविद्यालय द्वारा तीन साल तक किये इस अध्ययन में 28 हजार लोगों में बीमार पाये गये 7 हजार से अधिक सदस्यों में 80 प्रतिशत संख्या नास्तिकों की थी। उन्हें मधुमेह, हृदयरोग, तनाव, अनियंत्रित रक्तचाप जैसे राजरोग थे।
हडर्सफील्ड विश्वविद्यालय (इंगलैण्ड) की वरिष्ठ व्याख्याता एवं उच्च परिचारक व्यवसायी मेलानी रॉजर्स का कहना हैः “अध्यात्म मरीजों और उपचारकों – दोनों के लिए जीवन का अर्थ और वास्तविक लक्ष्य की आवश्यकता बताकर उन्हें सँभाले रखने में मदद करता है। यह दोनों में समान रूप से प्रतिरोध-क्षमता को बढ़ाता है एवं मरीज के रूग्णता और संकट के समय के अनुभव को बेहतर करता है।” उसके अनुसार “कभी-कभी मरीज जीवन में आशा खो देते हैं। अध्यात्म मरीजों के ठीक होने में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बहुत से लोग अध्यात्म को अव्यवहारिक मानते हैं जबकि अध्यात्म बहुत ही व्यवहारिक है।”
जहाँ आधुनिक मशीनें, महँगी दवाएँ एवं बड़े-बड़े चिकित्सक हाथ खड़े कर देते हैं, ऐसी गम्भीर बीमारियों से पीड़ित लोग भी ईश्वर एवं ईश्वरप्राप्त महापुरुषों पर श्रद्धा-विश्वास करके मौत के मुँह से निकल आते हैं। ऐसे असंख्य लोगों के अनुभव हमें देखने-पढ़ने को मिलते रहते हैं।
आज विज्ञान भी मान रहा है कि अध्यात्म (ईश्वर एवं ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों) में आस्था-विश्वास रखने वाला व्यक्ति चिंता, तनाव, अशांति से बचकर स्वस्थ एवं सुखी जीवन जीता है पर अध्यात्म से जुड़ने के केवल इतने ही फायदे नहीं हैं। विज्ञान तो सिर्फ इसके स्थूल फायदों का ही हिसाब लगा सकता है, जो कि इससे होने वाले लाभों के सामने नगण्य है। अध्यात्म क्या है इसका वास्तविक अर्थ तो भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है और अध्यात्म का रहस्य एवं पूरा फायदा तो अध्यात्म-तत्त्व (परमात्मा) का अनुभव किये हुए महापुरुषों के चरणों में जाने से ही पता चलता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैः
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैः विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।
‘जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्तिरूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्ण रूप से नष्ट हो गयी हैं – वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं।’ (गीताः 15.5)
वे सुख-दुःख में सम रहते हैं और अव्यय, अविनाशी पद को पाते हैं। जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाते हैं। स तृप्तो भवति। सः अमृतो भवति। स तरति लोकांस्तारयति। वे तृप्त होते हैं, अमृतमय होते हैं। वे तरते हैं, औरों को तारते हैं। अमृतमय आत्मा में एकाकार पुरुषों की उपलब्धि अदभुत है। उनकी कृपा से लोगों के शरीर व मन के रोग तो कुछ भी नहीं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार – ये रोग भी नियंत्रित हो जाते हैं और देर-सवेर परमात्म-पद को पाकर वे अध्यात्म-तत्त्व में, परमात्मस्वरूप में स्थित हो जाते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 27 अंक 267
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साधना में जल्दी प्रगति के लिए महत्त्वपूर्ण छः बातें – पूज्य बापू जी


 

कई लोग कहते हैं कि माला करते करते नींद आने लगती है तो क्या करें ? सतत माला नहीं होती तो आप सेवा करें, सत्शास्त्र पढ़ें। मन बहुआयामी है तो उसको उस प्रकार की युक्तियों से संभाल के चलाना चाहिए। कभी जप किया, कभी ध्यान किया, कभी स्मरण किया, कभी सेवा की – इस प्रकार की सत्प्रवृत्तियों में मन को लगाये रखना चाहिए।

साधक यदि इन 6 बातों को अपनाये तो साधना में बहुत जल्दी प्रगति कर सकता हैः

व्यर्थ का बातों में समय न गँवायें। व्यर्थ की बातें करेंगे सुनेंगे तो जगत की सत्यता दृढ़ होगी, जिससे राग-द्वेष की वृद्धि होगी और चित्त मलिन होगा। अतः राग द्वेष से प्रेरित होकर कर्म न करें।

सेवाकार्य तो करें लेकिन राग-द्वेष से प्रेरित होकर नहीं अपितु दूसरे को मान देकर, दूसरे को विश्वास में लेकर सेवाकार्य करने से सेवा भी अच्छी तरह से होती है और साधक की योग्यता भी निखरती है। भगवान श्रीरामचन्द्रजी औरों को मान देते और आप अमानी रहते थे। राग-द्वेष में शक्ति का व्यय न हो इसकी सावधान रखते थे।
अपना उद्देश्य ऊँचा रखें। भगवान शंकर के श्वशुर दक्ष प्रजापति को देवता लोग तक नमस्कार करते थे। ऋषि मुनि भी उनकी प्रशंसा करते थे। सब लोकपालों में वे वरिष्ठ थे। एक बार देवताओं की सभा में दक्ष प्रजापति के जाने पर अन्य देवों ने खड़े होकर उनका सम्मान किया लेकिन शिवजी उठकर खड़े नहीं हुए तो दक्ष प्रजापति को बुरा लग गया कि दामाद होने पर भी शिवजी ने उनका सम्मान क्यों नहीं किया ?

इस बात से नाराज हो शिवजी को नीचा दिखाने के लिए दक्ष प्रजापति ने यज्ञ करवाया। यज्ञ में अन्य देवताओं के लिए आसन रखे गये लेकिन शिवजी के लिए कोई आसन न रखा गया। यज्ञ करना तो बढ़िया है लेकिन यज्ञ का उद्देश्य शिवजी को नीचा दिखाने का था तो उस यज्ञ का ध्वंस हुआ एवं दक्ष प्रजापति की गर्दन कटी। बाद में शिवजी की कृपा से बकरे की गर्दन उनको लगायी गयी। अतः अपना उद्देश्य सदैव ऊँचा रखें।
जो कार्य करें, उसे कुशलता से पूर्ण करें। ऐसा नहीं कि कोई विघ्न आया और काम छोड़ दिया। यह कायरता नहीं होनी चाहिए। योगः कर्मसु कौशलम्। योग वही है जो कर्म में कुशलता लाये।

कर्म तो करें लेकिन कर्तापने का गर्व न आये और लापरवाही से कर्म बिगड़े नहीं, इसकी सावधानी रखें। यही कर्म में कुशलता है। सबके भीतर बहुत सारी ईश्वरीय सम्पदा छिपी है। उस सम्पदा को पाने के लिए सावधान रहना चाहिए, सतर्क रहना चाहिए।

जीवन में केवल ईश्वर को महत्त्व दें। सब में कुछ-न-कुछ गुण दोष होते ही हैं। ज्यों-ज्यों साधक संसार को महत्त्व देगा त्यों-त्यों दोष बढ़ते जायेंगे और ज्यों-ज्यों ईश्वर को महत्त्व देगा त्यों-त्यों सदगुण बढ़ते जायेंगे।

साधक का व्यवहार व हृदय पवित्र होना चाहिए। लोगों के लिए उसका जीवन ही आदर्श बन जाये, ऐसा पवित्र आचरण होना चाहिए।

इन 6 बातों को अपने जीवन में अपना कर साधक अपने लक्ष्य को पाने में अवश्य कामयाब हो सकता है। अतः लक्ष्य ऊँचा हो। मुख्य कार्य और अवांतर कार्य भी उसके अनुरूप हों।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 19, अंक 266
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समझ बिगड़ी तो सब बिगड़ा – पूज्य बापू जी


 

गुजराती भाषा में एक कहावत हैः

चा बगड़ी तो सवार बगड़ी, शाक बगडयुं तो दिवस बगड्यो, अथाणुं बगड्युं तो वर्ष बगड्युं, अने बैरूं बगड्युं तो आखी जिंदगी बगड़ी।

अर्थात् चाय बिगड़ी तो सवेरा बिगड़ा, सब्जी बिगड़ी तो दिवस बिगड़ा, अचार बिगड़ा तो पूरा वर्ष बिगड़ा और पत्नी बिगड़ी तो सारी जिंदगी बिगड़ी। यह पुरानी कहावत है।
मैं कहता हूँ कि मेरी एक बात और मिला दो, अगर समझ बिगड़ी तो 84 लाख जन्म बिगड़े और समझदारी नहीं बिगड़ी तो कुछ भी नहीं बिगड़ा।

संत तुकारामजी महाराज की पत्नी उठते भी गाली, बैठते भी गाली देती और कभी-कभी डंडा भी मार देती फिर भी उनका कुछ भी नहीं बिगड़ा।

संत तुकाराम भगवान विट्ठल से कहते हैं- “मेरे विट्ठला ! तुमारी अपार कृपा है। मैं कितना-कितना वर्णन करूँ ! झगड़ालू पत्नी देकर तो आपने मुझे बचा लिया है। अब दिन रात आपका भजन करने में मन लगता है। अगर पत्नी झगड़ालू नहीं होती तो मैं शायद इतना भक्त भी नहीं बन सकता था।”

संत एकनाथ जी महाराज की पत्नी तो जितनी देखने में देवी थी, उतनी गुणों में भी देवी थी, नम्र थी और पति के अनुकूल रहने वाली महान नारी थी। एकनाथ जी बोलते हैं- “हे विट्ठल ! मेरे अनुकूल पत्नी देकर तुमने मेरे को निश्चिंत कर दिया और निश्चिंत होने के कारण मेरा मन तुममें लगा है, यह तुम्हारी कृपा है।”

संत नरसिंह मेहता की पत्नी का स्वर्गवास हो गया था। वे कहते हैं- “दो चूड़ियाँ होती हैं तो खटपट होती है, आपने एक चूड़ी को अपने चरणों में बुलाकर मुझे निरंजन नारायण की भक्ति का अवसर दिया है।” ऐसा नहीं कि ‘हाय रे हाय ! अब मेरा क्या होगा ? तेरे बिना भी क्या जीना….’ छाती कूटने नहीं लग गये थे।

परिस्थितियाँ कैसी भी आयें लेकिन आप उऩकी समीक्षा करते हैं या नहीं ? एक होती है प्रतीक्षा दूसरी होती है समीक्षा। प्रतीक्षा अप्राप्त वस्तु की होती है, समीक्षा प्राप्त वस्तु की होती है। ईश्वर की कृपा सदा प्राप्त है और तुम्हारा ईश्वर भी तुम्हारे को सदा प्राप्त है। प्रतीक्षा की कोई जरूरत नहीं है, केवल समीक्षा कीजिये, अपना कल्याण कर लीजिये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 24, अंक 266
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